कामरेड रणधीर सिंह अपने जीवन की अंतिम सांस तक मार्क्सवाद
और समाजवाद के पक्ष में लड़ते रहे । अविभाजित भारत के पाकिस्तान की तरफ के इलाके में
उनका जन्म हुआ था । उन्होंने अपने बारे में एक लेख लिखा था जिसे वे हरेक मौके पर जरूर
प्रकाशित करते थे । उसका शीर्षक था ‘बायोडाटा के बदले
में’ । उसमें उन्होंने अपने बहाने उस पूरी पीढ़ी के बारे में लिखा
जो आजादी के आंदोलन के भीतर वाम विचारधारा के प्रभाव में आई और रही थी । छात्र जीवन
से ही कम्युनिस्ट पार्टी की सक्रियता के कारण जेल हुई । जेल से बाहर आकर परीक्षा देने
के लिए अध्यापक से सबसे आसान विषय जानना चाहा तो उन्होंने विद्यार्थी की रुचि के अनुसार
राजनीति विज्ञान लेने की सलाह दी और परीक्षा में शामिल होने के लिए आवश्यक हाजिरी दे
दी । परीक्षा में रणधीर सिंह को सर्वोच्च अंक मिले । विभाजन के बाद भारत आने पर रणधीर
सिंह ने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन शुरू किया । उनके अध्यापन की लोकप्रियता
का यह आलम था कि अमेरिका के मशहूर मार्क्सवादी बर्तेल ओलमैन ने हसरत भरे दिल से रणधीर
सिंह जैसा अध्यापक होने की इच्छा प्रकट की थी । दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापक आंदोलन
में वामपंथी प्रबलता के लिए बहुत कुछ उनकी कोशिशों को जिम्मेदार माना जा सकता है ।
अपने उसी लेख में उन्होंने अध्यापक रहते हुए राजनीतिक सक्रियता को बरकरार रखने के लिए
जिन मूल्यों को अपनाया उनका विस्तार से जिक्र किया है । इसके लिए उन्होंने जे एन यू
आने का मोह छोड़ा । तथाकथित संगोष्ठियों में भागीदारी और शोध पत्रों के लेखन से बचते
रहे लेकिन विद्यार्थियों या राजनीतिक संगठनों की ओर से बुलाए जाने पर खुशी खुशी बोले
। किताबें या लेख भी राजनीतिक जरूरत के तहत ही लिखा । उनकी सबसे महात्वाकांक्षी किताब
सोवियत संघ के पतन के बाद उससे उपजे सवालों से जूझते हुए लिखी गई थी ।
2006 में अजंता बुक्स इंटरनेशनल द्वारा प्रकाशित यह
वृहदाकार (तकरीबन 1100 पृष्ठों की)
पुस्तक ‘क्राइसिस आफ़ सोशलिज्म’ थी । इसमें एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी द्वारा समाजवाद में संकट की बजाए समाजवाद
के संकट पर विचार किया गया था । भूमिका में लेखक ने स्वीकार किया था कि इस पुस्तक को
एक दशक पहले ही प्रकाशित हो जाना चाहिए था क्योंकि तब इस विषय पर बहस चल रही थी लेकिन
उस समय भी लेखक ने छिटपुट लेखों के जरिए वे बातें प्रस्तुत की थीं जो इसमें विस्तार
से दर्ज की गई हैं । पुस्तक के लिखने में हुई देरी की वजह बताते हुए उन्होंने लिखा
है कि उन्हें आशा थी कि कोई न कोई इस काम को ज्यादा तरतीब से करेगा और उनकी उम्मीद
पूरी हुई क्योंकि इसी बीच इस्तवान मेज़ारोस की किताब ‘बीयांड कैपिटल-टुवार्ड्स ए थियरी आफ़ ट्रांजीशन’ प्रकाशित हुई जिससे
उन्होंने काफी मदद ली । लेकिन यह रणधीर सिंह की विनम्रता है क्योंकि उनकी किताब का
स्वतंत्र महत्व था ।
इस किताब की खासियत यह थी कि इसने प्रतिबद्ध वामपंथी
कार्यकर्ताओं को वाहियात किस्म की बातों को परे हटाकर सही मुद्दे को पहचानने में मदद
की जो घटनाओं की तीव्रता और दुश्मनों के ताबड़तोड़ हमलों के समक्ष कुछ हद तक किंकर्तव्यविमूढ़
हो गए थे । उस समय तो अनेक लोग यही कहने को महान आविष्कार समझ रहे थे कि मार्क्सवाद
में लोकतंत्र की गुंजाइश नहीं है इसलिए विपक्ष न होने से कम्युनिस्ट पार्टी को अपनी
गलतियों का पता नहीं चला । रणधीर सिंह ने ठीक ही मजाक उड़ाते हुए लिखा कि क्या इस कमी
को दूर करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी अपने को ही विभाजित करके विपक्ष बनाती ! इसी तरह जो लोग कह रहे थे कि पिछड़े देश में क्रांति होने से अथवा एक ही देश
में समाजवाद के निर्माण का निर्णय होने से विकृतियों का जन्म हुआ उनके तर्कों को खारिज
करते हुए वे कहते हैं कि यह सब विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों के प्रति रूसी कम्युनिस्टों
का उत्तर था जिसमें कोई बुनियादी खामी नहीं थी ।
हाल में 2008 में अकार बुक्स से उनकी किताब
‘मार्क्सिज्म, सोशलिज्म, इंडियन पालिटिक्स: ए व्यू फ़्राम द लेफ़्ट’ का प्रकाशन हुआ
। उनकी सभी किताबों की तरह इस किताब के भी शुरू में उनका मशहूर लेख ‘बायोडाटा के
बदले में’ है । पुस्तक का सबसे बड़ा लेख ‘आफ़ मार्क्सिज्म आफ़ कार्ल मार्क्स’ है जो
अलग से पुस्तिका के रूप में भी प्रकाशित हुआ था । मार्क्सवाद, समाजवाद और वाम
राजनीति के इस अनथक योद्धा को सलाम !
We in Mahapandit Rahul Sankrityayan Pratishthan invited Prof. Randhir Singh for Memorial Lecture. It was indeed indeed listening to a Professor who was Professing his subject. He said emphasize that Rahul Ji was not only a Mahapan but a Mahayoddha.
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