वस्तुनिष्ठता
मनुष्य द्वारा दुनिया
के ज्ञान की प्रक्रिया को बताने के लिए प्रयुक्त एक दार्शनिक प्रत्यय है । इसे हम यूरोपीय दर्शन की अनुभववादी परंपरा से जोड़कर देख सकते हैं जिसके अनुसार किसी भी वस्तु का ज्ञान हमें इंद्रिय संवेदन से होता है । प्राकृतिक विज्ञानों में इसका महत्व बहुत अधिक है । इसमें यह पूर्व मान्यता
होती है कि जिसके बारे में जानना है (ज्ञेय) वह जानने वाले
(ज्ञाता) से स्वतंत्र है । यथार्थ, सत्य और विश्वसनीयता जैसी धारणाओं का आधार वस्तुनिष्ठता है । यह ऐसा ज्ञान
होता है जिसके प्रमाण के रूप में साक्ष्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं ।
ऐसा नहीं है कि दर्शन की दुनिया में इसे बिना किसी संदेह के
मान लिया गया है क्योंकि ज्ञाता के लिए वह स्वयं भी ज्ञेय हो सकता है । प्रसिद्ध
चिंतक लाक ने एक उदाहरण के जरिए इसकी सीमा का उद्घाटन किया । उन्होंने कहा कि अगर
आप अपना एक हाथ ठंडे पानी में रखें और दूसरे को गरम पानी में और फिर गुनगुने पानी
में दोनों हाथ डालें तो गरम पानी वाले हाथ को वह ठंडा लगेगा जबकि ठंडे पानी वाले
हाथ को गरम लगेगा । इस उदाहरण से उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यथार्थ का ज्ञान
ज्ञाता की स्थिति से भी प्रभावित होता है । इस तरह से बहुत से लोग मनुष्य द्वारा यथार्थ
के यथातथ्य ज्ञान की क्षमता पर संदेह जाहिर करते हैं । समस्या के समाधान के बतौर कहा
जाता है कि पैमाने के सहारे हम सच्चाई के काफी निकट पहुंच सकते हैं । लेकिन इस पद्धति
पर भी सवाल उठाते हुए लाक ने ध्वनि और रंग के अनुभव का हवाला दिया जो हमारी इंद्रियों
की प्रकृति से रूपायित होता है । प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक इमानुएल कांट ने भी ‘वस्तु
निज रूप’ के इंद्रिय संवेदन जन्य ज्ञान की इस सीमा की बात की
थी । मनुष्य के कान उसे 20 से 20 हजार तक
की बारंबारता की ध्वनि ही सुना सकते हैं । उसकी आंख भी इसी तरह किसी वस्तु के सभी पहलू
एक साथ नहीं दिखा सकती है । इसी आधार पर उसने कहा कि वस्तु का हमारा ज्ञान वस्तुत:
उसकी प्रतीति है । इसके विरोध में कहा जा सकता है कि मनुष्य होने के नाते हम अपने अनुभव
से परे की चीजों के बारे में नहीं जान सकते लेकिन इसी बात से यह भी प्रमाणित है कि
हमारे अनुभव से परे भी यथार्थ की सत्ता है ।
देकार्त ने ऐसी स्पष्ट मानसिक छवियों की बात की है जिनमें वस्तुओं की यथार्थ सत्ता
के विश्वसनीय संकेतक अंतर्निहित होते हैं । हमारे ज्ञान के वस्तुनिष्ठ होने का दूसरा
स्रोत उसकी व्यापक सामाजिक मान्यता होती है । इसके पीछे यह पूर्वमान्यता है कि हमारे
अतिरिक्त अन्य अनेक ज्ञाता हैं और उनका सम्मिलित ज्ञान सत्य के निकट हो सकता है । एक
और पूर्वमान्यता यह है कि वस्तुगत यथार्थ तार्किक रूप से सुसंगत होता है और इसीलिए
अधिकांश लोगों को समान दिखाई देता है । फिर भी वस्तुनिष्ठता दार्शनिक रूप से विवादास्पद
प्रश्न है । इसके लिए ऐसे स्वतंत्र निर्धारकों को खोजना होगा जो वस्तुगत यथार्थ के
ज्ञान का समर्थन करने वाली आत्मगत छवियों को अलगा सकें । इसी के साथ ज्ञाता और ज्ञेय
की एकता का सवाल भी जुड़ा हुआ है क्योंकि चेतन मनुष्य अपने आपको भी अपने ज्ञान का विषय
बनाता है । इसे आप मस्तिष्क का दर्शन भी कह सकते हैं । यह गुत्थी अब तक सुलझ नहीं सकी
है कि मानव मस्तिष्क में किस सीमा के बाद पदार्थ विचार में बदल जाता है । असल में तो
चिंतन का यह विचार पक्ष ही मस्तिष्क के पदार्थ पक्ष को ज्ञान का विषय बनाता है । इन
सब विवादों के बावजूद यह निश्चित है कि एक ऐसी दुनिया है जो हमारी चेतना से स्वतंत्र
है और हमारे सर्वेक्षण और विश्लेषण का विषय है । इसी दुबिधा के कारण अनादि काल से ज्ञाता
और ज्ञेय की भिन्नता और अभिन्नता का झगड़ा चला आ रहा है ।
No comments:
Post a Comment