Tuesday, June 14, 2011

दलित नेता के लिए


एक आदमी अछूत पैदा हुआ । गाँव के एक तरफ़ की बस्ती के एक घर में उसकी आँखें खुलीं । उसे बताया गया कि इस बस्ती के तो सारे लोगों के साथ उसका अपनापा है । दरअसल बताया भी नहीं गया उसने सहज बोध से जान लिया । और उसी गाँव की बाकी बस्तियों के लिए वह अछूत है । हालाँकि उस बस्ती में कोई दुकान नहीं थी और न ही खाने कमाने का कोई जरिया वहाँ से खुलता था । इसलिए दूसरी बस्तियों के साथ संबंध तो उसका रहेगा रोज रोज का लेकिन एक अजीब किस्म का । जाकर काम करने का, बेगार खटने का, हाथ पर ऊपर से टपका दी गई रोटी और नमक को कुत्ते की तरह खाने का, शाम को कुछ अनाज देकर एक शीशी तेल पुड़िया भर मसाला और नमक खरीदने का, पर वहाँ रोज रोज जाने के बावजूद वह बाहरी ही रहेगा । इस संबंध को समाजशास्त्रियों ने अनेक तुलनाओं के जरिए समझने की कोशिश की लेकिन इससे इसकी जटिलता और विचित्रता कम नहीं हुई ।

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सदियों से एक ही कहानी चलती आ रही है । शायद बहुत दिनों तक वह और भी दोहराई जायेगी । कुछ ने इसे सिर झुकाकर मान लिया कुछ ने कहा नहीं । कभी यह आवाज जिबह किए जाते हुए बकरे की तरह फूटी कभी चीख की तरह कभी एक खामोश ऐंठन सीने और पेट को जलाती रही कभी सारी बस्ती में एक चूल्हा नहीं जला कभी चोरी कभी डाका कभी षड़यंत्र कभी खून कभी हत्या- सबमें वही एक नहीं गूँजता रहा । नौजवानों के बदन बार बार धान की बालियों की तरह फूट फूट बाहर आते रहे । तेल चुपड़े हुए लंबे बाल, छींटदार लुंगी, हाथ में रेडियो पकड़कर एक क्षण को उन्हें लगता बाकी सारे नौजवानों की तरह उन पर भी जवानी आई है । लेकिन यह अहसास तभी तक रह सकता था जब तक कोई बाबू किनारीदार धोती पहने, जनेऊ डाले दिखे नहीं । उनके दर्शन हुए नहीं कि आत्मा तक सकुच जाती । क्या क्या नहीं किया उन्होंने इस संकोच से जी छुड़ाने के लिए ।

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उनके सभी नेता अछूत मरे । हाथ में देश का संविधान रहे या राइफ़ल की अकड़, दर्शन की ऊँचाइयाँ हों या लाखों लोगों का साथ- जीवन भर वे अछूत रहे और जब मरे तो भी अछूत । शायद वे ऐसी जलती हुई आग हैं जिनमें कोई मिलावट संभव नहीं । शायद यही उनकी सच्चाई का सबूत है । वे स्वीकार किए जाने की माँग नहीं करेंगे क्योंकि इसकी आशा ही व्यर्थ है । वे तो सब कुछ भस्म कर देंगे । एक के मरने से निश्चिंत होने की कोई जरूरत नहीं । उन्हें तो यह धरती ही पैदा करती है । वे रक्तबीज हैं ।

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