Saturday, March 8, 2025

फ़्रायड और आलोचना सिद्धांत

 

                              

                                                                   

2025 में ब्रिल से डस्टिन जे बिर्ड और सैयद जवाद मिरी के संपादन में ‘सिगमंड फ़्रायड ऐज ए क्रिटिकल सोशल थियरिस्ट: साइकोएनालीसिस ऐंड द न्यूराटिक इन कनटेम्पोरेरी सोसाइटी’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब के छह हिस्सों में उन्नीस लेख हैं । पहले में फ़्रायड के पुनर्जागरण के बारे में, दूसरे में फ़्रायड और फ़्रैंकफ़र्त स्कूल के बारे में, तीसरे में फ़्रायड और धर्म, चौथे में फ़्रायड और राजनीतिक क्षेत्र, पांचवें में फ़्रायड, नैतिकता और मृत्यु तथा आखिरी हिस्से में फ़्रायड, नव फ़्रायडवादी और फ़्रायडेतर आदि के बारे में लेख संकलित हैं । संपादकों के अनुसार 2020 के दशक में फ़्रायड और मनोविश्लेषण में फिर से रुचि पैदा हुई है । वैसे तो फ़्रायड के बारे में शिक्षा जगत और मनोविज्ञान की व्यापक दुनिया में हमेशा ही किताबें छपती रही हैं फिर भी इसमें उतार चढ़ाव भी आता रहा है । उन्हें गम्भीर वैज्ञानिक, समाजशास्त्री या दार्शनिक की जगह कितना भी रहस्यवादी कहा जाय उन पर बात हमेशा होती रही । जब भी संसार में अराजकता बढ़ी, सामाजिक अस्थिरता की वजह से दुश्चिंता पैदा हुई, अलगाव महसूस हुआ या जीवन से मोहभंग हुआ उनकी वापसी हुई । जो संसार अक्सर व्यर्थ महसूस होता है उसमें अर्थ की खोज ही फ़्रायडीय प्रयास साबित होता है । उन्हें अनिश्चितता के युग का गहन सिद्धांतकार माना जाता है । उनका जीवन और सिद्धांत यूरोप के मुश्किल भरे जीवन से आक्रांत रहा ।

लम्बे समय तक वे उन्माद की चिकित्सा के लिए सम्मोहन का इस्तेमाल करने वाले एक फ़्रांसिसी स्नायु चिकित्सक के प्रभाव में थे । उन्हें लगा कि व्यक्ति का व्यवहार उसके अचेतन से निर्धारित होता है । बहुत हद तक अचेतन की इस अज्ञेय परिघटना को मनोविश्लेषण के आधार पर ही समझा जा सकता है । इसके जरिये मनुष्य के मन की आंतरिक गतिविधियों तक भी खूब आसानी से पहुंचा जा सकता है । इसकी जानकारी फ़्रायड से पहले उस हद तक नहीं थी । इसके बाद अपराधों की अचेतन प्रेरणाओं का भी पता लगाना सम्भव लगने लगा । सिनेमा में भी फ़्रायड की पद्धतियों का उपयोग करते हुए ढेर सारी कहानियों का निर्माण किया गया । एक समय उन्हें फ़िल्मों के सलाहकार का काम भी सौंपने की कोशिश हुई थी जिससे उन्होंने इनकार कर दिया था । अन्य मनोविश्लेषकों से भी उन्होंने इस तरह का काम न करने की गुजारिश की थी । इसके पीछे अमेरिकी व्यापारिकता से उनकी चिढ़ थी । उन्हें लगा कि इससे मनोविश्लेषण में तो हलकापन आयेगा ही उसे मनोरंजन की सामग्री बना दिया जायेगा । इसके बावजूद फ़िल्म उद्योग ने मनोविश्लेषण का इस्तेमाल भारी पैमाने पर किया । ऐसा लगता है कि आधुनिक जीवन की किसी अनसुलझी गुत्थी का समाधान मनोविश्लेषण में मिलने की उम्मीद बनी रहती है ।

दार्शनिकों ने भी फ़्रायड में रुचि ली है । ऐसा फ़्रैंकफ़र्त स्कूल और ज़िज़ैक के बाद विशेष तौर पर हुआ है । अनेक सामाजिक व्याधियों की चिकित्सा और लोकतंत्र को समाप्त कर देने पर आमादा पापुलिज्म के उभार को समझने के लिए मनोविश्लेषण की मदद ली जा रही है । वर्तमान नवउदारवाद के विरोध में दक्षिणपंथी पापुलिज्म के उभार को समझने के लिए समूह की मनोवृत्ति संबंधी फ़्रायडीय चिंतन को देखा परखा जा रहा है । डोनाल्ड ट्रम्प की लोकप्रियता को समझने के लिए भी गोरे अमेरिकी लोगों के सांस्कृतिक अलगाव और उनके राजनीतिक विक्षोभ को समझने की कोशिश की जा रही है । इस पड़ताल के लिए फ़्रायड के साथ ही परवर्ती व्यक्तित्व के मनोविज्ञान, सामाजिक मनोविज्ञान और वक्तृता के विश्लेषण की भी मदद ली जा रही है । फ़्रायड के मनोविश्लेषण के आधार पर ऐसी तमाम जटिल कोटियों और धारणाओं का विकास हो रहा है जिनसे वर्तमान सामाजिक राजनीतिक परिघटनाओं की भी व्याख्या की जा सके । इसी वजह से इस समय मनोचिकित्सक होने की जगह समाजवैज्ञानिक होने के लिए फ़्रायड को अधिक उपयोगी माना जा रहा है । कुछ लोग वर्तमान परिस्थितियों में व्यक्ति और समाज के सुकून और बेहतरी के लिए दर्शन और मनोविश्लेषण के सहमेल की जरूरत भी बताते हैं  क्योंकि वर्तमान समाज मानसिक व्याधियों का जनक हो गया है ।

मनोविश्लेषण के इस प्रयोग के बारे में वाद विवाद भी जारी है । इसके बावजूद क्रांतिकारी राजनीति द्वारा अन्य अनुशासनों की तरह इसे भी उपनिवेशवाद, नस्लभेद, पूंजीवादी शोषण, लिंग विभेद और वर्गयुद्ध की विरासत को समझने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है । हमारे जीवन के मनोसामाजिक आयामों के उद्घाटन हेतु सामाजिक, राजनीतिक और निजी मामलों को हिंसा और टकराव, जेंडर और यौनिकता, नस्लभेद और प्रवासी अनुभव तथा देखरेख और जन कल्याण के प्रसंग में विवेचित किया जा रहा है । वर्तमान सदी में फ़्रायड की वापसी के साथ ही उनका यह सामाजिक अनुप्रयोग जुड़ा हुआ है । हमारे उथल पुथल भरे समय के अनुरूप ही इस कोशिश में भूलें होंगी, धक्के लगेंगे और कुछ अतियों की भी सम्भावना होगी । इसके बावजूद मनोविश्लेषण को क्लिनिक की सुरक्षित दुनिया से बाहर निकालकर सामाजिक क्षेत्र में ले जाने का दबाव समाज की मांगों के चलते कायम रहेगा । इसी क्रम में ऐसे मनोविश्लेषण का भी विकास हुआ जिसमें पराधीन देशों में उपनिवेशित जनता के मनोविज्ञान पर उपनिवेशवाद के विनाशकारी असर को देखने की कोशिश हुई है । पहले भी लोगों ने नस्लवाद के सवाल पर मनोविज्ञान की खामोशी पर एतराज जाहिर किया था । उसी क्रम में पूंजीवाद और उपनिवेशवाद के साथ उसको जोड़ने की कोशिश हो रही है ताकि उसकी सामाजिक प्रासंगिकता साबित हो । इस कोशिश के विरोधी निष्पक्षता और वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठता का तर्क दे रहे हैं ।  

इस तरह मनोविश्लेषण की दुनिया टकराव का क्षेत्र बन गयी है । इसमें एक ओर नस्लवाद, लिंगभेद, वर्ग संघर्ष और उपनिवेशीकरण की पड़ताल में मनोविश्लेषण के उपकरणों के उपयोग की हिमायत करने वाले हैं तो दूसरी ओर ऐसे लोग हैं जो इस अनुशासन को बौद्धिक घेरेबंदी से आजाद करने और व्यक्तिगत समस्याओं के विश्लेषण के मुकाबले सामाजिक समस्याओं को समझने में उसके उपयोग का कड़ा विरोध करते हैं । वैसे तो फ़्रायड ने भी अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने का प्रयास किया था इसलिए उनके सामाजिक आयाम की यह धारा उतनी नयी नहीं समझी जानी चाहिए । फ़्रायड की विरासत का विकास उनके समाजीकरण में ही निहित है । मनोविश्लेषण केवल चिकित्सा का साधन नहीं है बल्कि वह ऐसी धारणाओं का भी जन्मदाता है जिनके सहारे सवाल उठाये जा सकते हैं । इसे व्यक्ति की चिकित्सा तक सीमित समझने वाले फ़्रायड को संकुचित घेरे में बांध देते हैं ।

संपादकों का मानना है कि इस समय न केवल फ़्रायड और मनोविश्लेषण में नयी रुचि पैदा हुई है बल्कि उसमें विविधता भी आयी है । उनके सहारे मनोचिकित्सक बनने के साथ ही मानव जीवन को समझने और बेहतर करने में भी उनके इस्तेमाल के हामी लोग सामने आये हैं । इस प्रवृत्ति का विकास वर्तमान सदी के आगामी कुछेक बरसों में दिखाई देगा । सम्भव है कि इससे मनोविश्लेषण की दुनिया ही बुनियादी रूप से बदल जाय । फ़्रायड को पुराना और व्यर्थ कहने की जगह उनकी प्रासंगिकता बहुत हद तक इस विकास पर भी निर्भर होगी । इस समय मनुष्य की हालत के विश्लेषण के लिए फ़्रायड को खारिज करने की जगह उनकी तमाम भूलों और असंगतियों के बावजूद उनकी अंतर्दृष्टि को पैना करने की जरूरत है ।

अतीत के विचारकों के साथ द्वंद्वात्मक बरताव की मांग यही है कि उनके अंतर्विरोधों को सही संदर्भ में समझा जाय । उनके किसी एक पहलू के ही आधार पर उनके समूचे लेखन को खारिज करना सही नहीं होगा । इस तरह का बरताव हेगेल के साथ भी बहुधा करने की कोशिश हुई है । देशकाल की सीमा से कोई भी चिंतक कभी मुक्त नहीं रहा है । हेगेल की तरह ही फ़्रायड की भी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए उनकी आलोचना का विकास किया जाना चाहिए ।

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