Saturday, March 22, 2025

आधुनिक हिंदी कविता के सौ साल

 

          

                                    

राजपाल प्रकाशन से 2018 में सुरेश सलिल के संपादन में छपी ‘’कविता सदी: आधुनिक हिंदी कविता का प्रतिनिधि संचयन’ एकाधिक कारणों से चर्चा के लायक है । संग्रह इतना समृद्ध है कि इसके सहारे आधुनिक हिंदी काव्य साहित्य का समूचा इतिहास भी समझा जा सकता है । संपादक ने अपनी भूमिका में इसका खाका विस्तार से खींचा है । आधुनिक हिंदी कविता के प्रारम्भ को उन्होंने हिंदी नवजागरण से जोड़ा है और कविता में खड़ी बोली के इस्तेमाल के अभियान को इसका उत्प्रेरक प्रस्तुत किया है । आधुनिकता के आगमन को उन्होंने यूरोप के साथ भारत के सम्पर्क से जोड़ा है । इटली, इंग्लैंड और फ़्रांस में इसके विभिन्न आयामों का विकास हुआ था । भारत के साथ इसका सम्पर्क वैसे तो दक्षिण भारत में सबसे पहले हुआ लेकिन हिंदी में हुए बदलाव को समझने के लिहाज से सभी इसे बंगाल से शुरू हुआ मानते हैं । बिहार-उत्तर प्रदेश से बंगाल से सटे होने के कारण यह असर हिंदी पर भी पड़ा ।

आम तौर पर हिंदी का विद्यार्थी भारतेंदु के बाद सीधे द्विवेदी काल पर आता है लेकिन संपादक ने उसके बाद श्रीधर पाठक, हरिऔध और सनेही को रखा है । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि पाठक जी को आचार्य शुक्ल ने हिंदी की स्वाभाविक स्वच्छंद कविता का पुरस्कर्ता माना था । उन्होंने छायावाद को अस्वाभाविक साबित करने के लिए उनका उल्लेख किया था इसलिए उनकी कविता की नवीनता बहुत हद तक छायावाद के सामने लुप्त हो जाती है लेकिन संग्रह में शायद उनके योगदान को ही रेखांकित करने के लिए कालक्रम के लिहाज से उन्हें मैथिली शरण गुप्त से पहले स्थान दिया गया है । हरिऔध की काव्यभाषा को देखकर सहज ही अनुमान लग जाता है कि कविता में खड़ी बोली हिंदी के प्रयोग के मामले में मैथिली शरण गुप्त ने कितनी बड़ी छलांग लगायी थी । सनेही जी की कविता से हमें हिंदी कविता की मूल धारा का अनुमान होने लगता है । यह मूल धारा देश के किसानों की समस्याओं को कविता की दुनिया में ले आना था । भारत की आजादी के आंदोलन और आधुनिक भारतीय साहित्य में किसानों का आगमन अनायास नहीं हुआ । इसके पीछे भारत की कृषि में औपनिवेशिक हस्तक्षेप था । इस हस्तक्षेप ने देश के किसान समुदाय को इस कदर विपन्न बना डाला था कि उस दौरान अकाल से मरने वालों की तादाद किसी भी शासन के लिए लज्जा की बात है ।

कदाचित इसीलिए बाद की कविता का अनुक्रम बनाते हुए भी संपादक ने ऐसे कवियों को प्रमुखता दी है जिनकी कविताओं में देश का हाल मुखर रहा । इसी क्रम को आगे बरकरार रखते हुए उन्होंने राष्ट्रवादी धारा के ऐसे कवियों को स्थान दिया है जिनकी कविता में जोश और उमंग के साथ देश की चिंता भी शामिल थी । संग्रह ने उचित ही प्रगतिशील कविता को हिंदी कविता की इस मुख्य धारा का विकास समझा है । यहां भी मान्य तीन प्रगतिशील कवियों के साथ ही शील और शंकर शैलेंद्र को शामिल करके संपादक ने प्रगतिशील कविता का दायरा बढ़ाया है । इन दोनों के आगमन के कारण ही फ़ैज़, साहिर और कैफ़ी की भी उपस्थिति की जरूरत महसूस होती है । रामविलास शर्मा की आम छवि आलोचना में ही उनकी सक्रियता ही है लेकिन उसके उलट संपादक ने संग्रह में उनको भी कवि के रूप में शामिल किया है ।     

पहले ही हमने उम्मीद जताई कि अगर फ़िल्म से जुड़े होने के बावजूद शंकर शैलेंद्र इस संग्रह में हो सकते हैं तो कुछ अन्य लोकप्रिय गीतकारों की जगह भी बन सकती थी लेकिन दुर्भाग्य से इतना बड़ा संग्रह होने के बावजूद इसमें उर्दू पूरी तरह अनुपस्थित है । वह भी तब जब जिसे हिंदी कहा जाता है उसका अर्थ कभी उर्दू ही हुआ करता था । इससे अधिक प्रातिनिधिक तो आचार्य शुक्ल थे ही जिनकी आलोचना बहुधा इसी विंदु पर की जाती रही है । उर्दू से यह दुराव इस हद तक है कि भारतेंदु की रसा उपनाम से लिखी ग़ज़लो को जगह नहीं  मिल सकी है । त्रिलोचन की कविताओं में भी ग़ालिब पर लिखी उनकी कविता अनुपस्थित है । तर्क दिया जा सकता है कि कविताओं की अधिकता से परहेज किया गया है और बहुत लोकप्रिय रचनाओं को ही शामिल किया गया है । यहीं आकर संपादक का नजरिया स्पष्ट होता है कि वह खास तरह की परम्परा को इस संग्रह के आधार पर पुष्ट और पुनरुत्पादित करना चाहता है । इसके लिए विसंवादी स्वरों का लोप उसे आवश्यक प्रतीत होता है ।

कहने का तात्पर्य यह नहीं कि इस तरह का संग्रह अनावश्यक है । इस समय जब हिंदी साहित्य के नाम पर हिंदीतर भाषाओं के उग्र विरोध की छवि को उभारा जा रहा है तो उसके ऐसे प्रातिनिधिक संग्रह का आना सही ही है जिससे हिंदी कविता की मुख्यधारा जनपक्षधर दिखायी पड़े । हिंदी कविता की छवि साम्राज्यवाद विरोधी स्वाधीनता आंदोलन से उपजी नजर आना भी आज के समय बहुत जरूरी है । उसकी बड़ी वजह स्वाधीनता आंदोलन के बारे में अगंभीर किस्म की बातों का जिम्मेदार व्यक्तियों की ओर से उद्घोष है । हास्यास्पद रूप से स्वाधीनता की तिथि को लेकर भी मनमानी टिप्पणियों की बाढ़ आयी है । कोई उसे 2014 तो कोई 2024 बता रहा है । यहां तक कि वर्तमान समय जिस तरह नक्सलवाद की बात को देशद्रोह समझा जा रहा है उस समय उससे प्रेरित कविताओं को संग्रह में शामिल करना साहस की बात है । इसके लिए संपादक निश्चित रूप से प्रशंसा के हकदार हैं । उन्होंने भूमिका में दर्ज किया ‘1967 में नक्सलबाड़ी से धधकी किसान क्रांति की ज्वाला ने देश को, दुनिया को जिस तरह प्रभावित किया उस पर बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है । लगभग सभी भारतीय भाषाओं का साहित्य उससे प्रभावित हुआ ।’ स्वाभाविक था कि उनमें हिंदी के भी कवि शरीक थे । इनमें जाने पहचाने नामों के साथ वे ज्ञानेंद्रपति की भी शुरुआती कविताओं को शामिल मानते हैं । इतना ही नहीं पहले के धूमिल और कुमार विकल की कविताओं में भी उसकी अनुगूंज सुनते हैं । साथ ही संपादक ने विश्व कविता के अनुवादों की बात करके इस समय की साहित्यिक उठान को वैश्विकता के साथ भी जोड़ दिया ।

संग्रह में कुछ उपेक्षित कवियों को उचित ही जगह प्रदान किया गया है । उदाहरण के लिए मैथिली शरण गुप्त के सामने उनके छोटे भाई सियाराम शरण गुप्त को बहुतेरे लोग भूल जाते हैं लेकिन सुरेश सलिल ने उनकी कविताओं को भी यथोचित जगह दी है । नब्बे के बाद की हिंदी कविता में दलित और स्त्री स्वर बेहद मजबूती के साथ उभरा । संपादक ने इन हस्ताक्षरों को जगह देने के साथ ही स्त्री स्वर के मामले में पहले की लेखिकाओं को भी पर्याप्त जगह दी है । महादेवी को तो सभी लोग जानते हैं लेकिन सुरेश सलिल ने सुमित्रा कुमारी सिन्हा, विद्यावती, तारा पांडे, कीर्ति चौधरी और स्नेहमयी चौधरी को जगह देकर परम्परा की निरंतरता को सही तरीके से पहचनवाया है ।                 

इस संग्रह पर बात करते हुए आधुनिक हिंदी कविता की एक और समस्या को पहचाना जा सकता है । यह समस्या कविता में प्रकृति की उपस्थिति का कम होते जाना है । छायावाद तक तो फिर भी उसकी स्वतंत्र छटा मिलती है लेकिन उसके बाद से लगातार उसका वर्ण्य विषय के रूप में क्षरण होता गया । इसके कुछ अपवाद भी रहे जिनकी मौजूदगी इस संग्रह में भी है लेकिन हैं वे अपवाद ही । इस विंदु पर भी आचार्य शुक्ल को गहराई से याद किया जाना चाहिए । वे कविता को परिभाषित करते हुए शेष सृष्टि के साथ रागात्मक संबंधों की रक्षा का सवाल उठाते हैं । उनकी शेष सृष्टि में प्रकृति के साथ ही मानवेतर प्राणी भी आते हैं । अकारण नहीं कि मानव समाज और उसकी समस्याओं की सर्वाश्लेषी उपस्थिति ने मानवेतर प्राणियों को भी कविता से बाहर कर दिया । 

किसी भी संग्रह से अपेक्षा बहुत हो सकती है और कोई भी चयनित संग्रह सभी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकता । फिर भी इसे आधुनिक हिंदी कविता का पर्याप्त भरा पूरा संचय कहा जा सकता है । हिंदी कविता के उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों के साथ ही इसकी उपयोगिता हिंदी के आम पाठक के लिए भी कुछ कम नहीं है । एक समय था जब हिंदी क्षेत्र के मध्य वर्ग को हिंदी साहित्य में रुचि हुआ करती थी । नब्बे दशक की समृद्धि ने उसे सांस्कृतिक दरिद्रता से भर दिया और अब तो उसकी चेतना पर इतना गाढ़ा सांप्रदायिक खोल चढ़ गया है कि उससे हिंदी कविता की इस विरासत पर गर्व करने की आशा व्यर्थ है । इस निराशा के बावजूद उम्मीद पर ही दुनिया कायम है ।              

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