जिस संस्था की स्थापना विश्वविद्यालयों को अनुदान हेतु की गयी थी उसने अपना दायित्व उन्हें खत्म करना तय किया है । धन या अनुदान के लिए एक अन्य संस्था स्थापित की गयी है जिसे आद्यक्षरों के आधार पर हेफ़ा (Higher Education Funding Agency) कहा जा रहा है । शिक्षा के महंगा होने की वजह से शिक्षार्थी को कर्ज देने का चलन तो था ही, अब शिक्षण संस्थाएं भी कर्जखोर होंगी । अनुदान का कार्यभार त्याग देने के बाद यू जी सी नामक इस संस्था ने शेष सभी काम आरम्भ कर दिये हैं । इसका सबसे ताजा फ़रमान विश्वविद्यालय नामक संस्था को शिक्षा से मुक्त कर देने के मकसद से जारी किया गया है ।
यह आदेश इस साल के आरम्भ में जारी किया गया और धमकी दी गयी कि इस आदेश को न
मानने वाले विश्वविद्यालयों को दंडित किया जा सकता है । इस धमकी के बारे में थोड़ा
रुककर सोचने की जरूरत है । हम जानते हैं कि सभी विश्वविद्यालय संसद या विधानसभा
में पारित कानूनों के जरिये स्थापित होते हैं । यह प्रक्रिया निजी विश्वविद्यालयों
के साथ भी अपनायी जाती है । दंडित करने का अधिकार अपने हाथ में लेकर यूजीसी ने
निर्वाचित विधायिका से भी ऊपर की हैसियत हासिल कर ली है । उसने इस तरह के तमाम
फ़रमान जारी करके संविधान के एक प्रावधान का उल्लंघन भी किया है । हमारे संविधान
में शिक्षा समवर्ती सूची में है । इसका अर्थ है कि यदि प्रांतीय सरकारों ने कोई
कानून बनाया है तो केंद्र उसे मटियामेट नहीं कर सकता । शिक्षा को समवर्ती सूची में
रखने का एक कारण भाषा भी है जो विभिन्न प्रांतों में अलग अलग है । कहने की जरूरत
नहीं कि भाषा के मामले में भी एकरूपीकरण का पागलपन छाया हुआ है। केंद्र सरकार
द्वारा संघीय ढांचे के साथ छेड़छाड़ का एक नमूना यह आदेश भी है । हमारे नये निजाम की
निर्णय प्रक्रिया का सर्वोत्तम प्रतीक बुलडोजर यूं ही नहीं है ।
इस नये आदेश से इस तथ्य का का भी पता
लगता है कि सरकार ने मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा तो किया लेकिन उसकी सोच में
भारतीयता से अधिक कारपोरेट का मुनाफ़ा है । ढेर सारे पाठ्यक्रम और उन सबके लिए
अतिरिक्त धन की वसूली के पीछे और क्या नजरिया हो सकता है । इस मकसद को किसी परदे
में छिपाने की जगह साफ घोषित कर दिया गया है कि कुलपति का पद शिक्षा जगत के
व्यक्तियों के मुकाबले अन्य लोगों और खासकर उद्योग जगत के लिए खोला जा रहा है । पुरानी
वाली नयी शिक्षा नीति में इस काम के लिए प्रति कुलपति का पद ही बनाया गया था । अचरज
नहीं कि उसमें साहित्य शब्द ही कहीं नहीं था । शिक्षा में साहित्य और मानविकी की
जगह प्रबंधन आदि की प्रमुखता स्थापित करने में इसका योगदान था । इस बार शिक्षण
संस्थान ही पूंजी के शिकार बना दिये गये हैं । इस कार्य को सरकार की देखरेख में
संपन्न करने के लिए कुलपति के चयनकर्ताओं में राष्ट्रपति या राज्यपाल को निर्णायक
बना दिया गया है । विभिन्न विश्वविद्यालयों की अलग अलग चयन प्रक्रिया को बाधा
मानकर सबके लिए समान रूप से इसी प्रक्रिया को अपनाने का सख्त निर्देश दिया गया है
। इसे हम वर्तमान शासन के एकरूपीकरण की सनक का पक्का सबूत भी मान सकते हैं ।
फिलहाल यूजीसी नामक संस्था लगातार
नये नये आदेश निकालने और उन्हें वापस लेने की आदी हो चली है । हाल हाल तक शोध और
अध्यापन की दुनिया में इस संस्था द्वारा निर्धारित पत्रिकाओं में लेखों का प्रकाशन
अनिवार्य रखा गया था और इसके इर्द गिर्द अवैध वसूली का गिरोह खड़ा हो गया था ।
शोधार्थियों को शोधोपाधि पाने के लिए इस सूची में शामिल पत्रिकाओं में शोधालेख
छपाने होते थे और अध्यापकों को भी चयन तथा प्रोन्नति हेतु इनकी आवश्यकता होती थी ।
घूस देकर इस सूची में शामिल इन पत्रिकाओं में जरूरत के लिहाज से छपाने का शुल्क
लगता था । अगर शोध के लिए छापने की कीमत एक या दो तथा तीन हजार थी तो प्रोन्नति
हेतु छपाने का शुल्क दस हजार तक हुआ करता था । नये आदेश में इस चक्र से आजाद तो कर
दिया गया है लेकिन इससे मनमानी की आशंका भी पैदा हो गयी है । इसकी जगह नया झमेला
यह खड़ा हुआ है कि मानविकी के अध्यापकों को अध्यापन की प्रयोगशाला विकसित करने,
स्टार्टअप व्यवसाय चलाने या धनप्राप्त परियोजनाओं में सलाहकार बनने का कौशल अपनाना
होगा क्योंकि इन गुणों को प्रोन्नति हेतु गणनीय बना दिया गया है । इसी तरह विज्ञान
या गणित के अध्यापकों को अपने अनुशासनों को भारतीय ज्ञान प्रणाली के साथ जोड़ने की
जहमत उठानी होगी ।
अध्यापन की शुरुआत में एकाध
प्रोन्नतियों में आंतरिक स्तर की समितियों से काम चल जाता था, अब सभी स्तरों पर
साक्षात्कार अनिवार्य कर दिया गया है । साथ ही समयबद्ध अनिवार्य प्रोन्नति का भी
प्रावधान समाप्त कर दिया गया है । इससे अध्यापक की प्रोन्नति उसके अधिकार से अधिक
नियोक्ता की कृपा बन जाने की आशंका है । प्रोन्नति को सेवासमय की जगह उपलब्धियों
के साथ जोड़ देने से येन केन प्रकारेण उपलब्धि हासिल करने की नयी आपाधापी का मार्ग
खुलने की सम्भावना बन गयी है । इन उपलब्धियों में वास्तविक कक्षा का अध्यापन कहीं
भी दर्ज नहीं है । किसी भी शिक्षण संस्थान की खूबी कक्षा का वास्तविक अध्यापन होता
है । इसी प्रक्रिया में अध्यापक और विद्यार्थी का प्रत्यक्ष सम्पर्क होता है । खुद
विद्यार्थी भी अन्य विद्यार्थियों के साथ मिलकर ज्ञान के पिपासुओं की नयी पीढ़ी का
निर्माण करता है । इसी जगह समाज और पुस्तक का आपस में एक दूसरे से सामना होता है
और ज्ञान का समाज सापेक्ष उत्पादन तथा अभिग्रहण होता है । वास्तविक कक्षा अध्यापन
से परहेज की आदत शासकों को कोरोना के दौरान लगी थी और उन्हें इसका सबसे बड़ा लाभ
विद्यार्थी आंदोलन की अनुपस्थिति महसूस हुआ था । उसी समय से कक्षा के अध्यापन की
झंझट खत्म करने का कोई न कोई उपाय खोजा जाता रहा है । मूक्स या ज्ञान जैसे इंटरनेट
आधारित पाठ्यक्रमों को बढ़ावा देने या अनिवार्य करने के पीछे यही सोच काम कर रही है
।
कक्षा के अध्यापन के मुकाबले धन
जुटाने, प्रयोगशाला बनाने, इंटरनेट आधारित पाठ्यक्रम की सामग्री तैयार करने और
सामुदायिक सेवा आदि को प्रोन्नति की अर्हता बना दिया गया है । कहने की जरूरत नहीं
कि इन गुणों के साथ अध्यापक की जगह उद्यमी अधिक बना जा सकता है । इन गुणों की परख
का वस्तुनिष्ठ पैमाना बनाना न केवल मुश्किल है बल्कि सामुदायिक सेवा के नाम पर
वर्तमान समाज की आलोचना के मुकाबले रूढ़ियों को मजबूत करने वाली प्रथाओं और
संस्थाओं को ही प्रोत्साहन दिये जाने की आशा की जा सकती है । अध्यापन को उपेक्षित
करते हुए न्यूनतम अध्यापन का प्रावधान भी समाप्त कर दिया गया है । यदि प्रत्यक्ष
अध्यापन की कोई निश्चित अवधि ही नहीं होगी तो इस मामले में भी नियोक्ता की मनमानी
की गुंजाइश पैदा होगी । नतीजा यह होगा कि अध्यापक के पास शोध का अवसर नहीं होगा ।
उसे अध्यापन की तैयारी का भी मौका नहीं मिलेगा । नीति निर्माताओं की यह सोच
अध्यापन के बुनियादी चरित्र की नासमझी से पैदा होती है ।
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नये
निजाम ने भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता के ऊँचे कीर्तिमान स्थापित किये हैं । प्रवेश
परीक्षा का दायित्व सीयूईटी नामक जिस संस्था को प्रदान किया गया है उसने सभी
सरकारी विश्वविद्यालयों के शिक्षा सत्र की ऐसी तैसी कर दी है । विश्वविद्यालयों
में श्रेणीकरण की नियामक संस्था नैक से जुड़े सात लोग उच्च अंक देने के लिए करोड़ों
की घूस लेने के आरोप में गिरफ़्तार हैं । यूजीसी के नये अध्यक्ष देश की सर्वोत्तम
शिक्षण संस्था, जनेवि को बरबाद करने की योग्यता के आधार पर इस पद पर बिठाये गये ।
अब उन्होंने समूचे देश के विश्वविद्यालयों को दंडित करने का अभिनव दायित्व ओढ़ लिया
है जिसमें उनकी मान्यता रद्द करने से लेकर उनकी उपाधियों को अवैध और अनुपयुक्त
बनाना भी शामिल है ।
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