Thursday, December 31, 2015

निष्पक्षता के विरुद्ध


हावर्ड ज़िन की किताबयू कांट बी न्यूट्रल इन ए मूविंग ट्रेन: ए पर्सनल हिस्ट्री आफ़ आवर टाइम्सका प्रकाशन बीकन प्रेस से 1994 के बाद 2002 में फिर से हुआ है । असल में यह किताब ज़िन की आत्मकथा है । इस दूसरे संस्करण की भूमिका लिखते हुए ज़िन ने विश्व व्यापार केंद्र पर हमले को याद किया है । इस हमले से पूरे देश की तरह ज़िन सकते में थे लेकिन जब बुश ने इसके बहाने युद्ध की घोषणा की तो उन्हें लगा कि बम से किसी मसले को हल नहीं किया जा सकता । अफ़गानिस्तान में अमेरिका जो कर रहा है उसे भी आतंकवाद ही कहना होगा । दूसरे विश्व युद्ध में ज़िन ने भी फ़ासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में यूरोपीय शहरों पर बम गिराए थे लेकिन बाद में उन्हें लगा कि कोई भी युद्ध बुनियादी समस्याओं को नहीं हल कर सकता । द्वितीय विश्व युद्ध के तर्क को ही अमेरिकी सरकार पिछले पचास सालों से प्रत्येक युद्ध को जायज ठहराने के लिए इस्तेमाल कर रही है । दूसरे विश्व युद्ध के केवल पांच साल बाद कोरिया में गांवों पर नापाम बम बरसाए गए । उसके तत्काल बाद वियतनाम में इतने बम गिराए गए जितने पहले कभी नहीं गिराए गए थे । इसके विरोध में चले आंदोलन में ज़िन शरीक हुए । सरकार ने पनामा, इराक और यूगोस्लाविया पर बम बरसाने के बहाने ढूंढ़े । अमेरिका को युद्ध की लत लग गई है । अब तो फ़िल्मों के जरिए लड़ाकू दर्शन को प्रतिष्ठा प्रदान की जा रही है । गर्व की भावना भरने के लिए विश्व युद्ध को ताजा किया जा रहा है । युद्ध के साधन और उद्देश्य दोनों ही दोषपूर्ण होते हैं । साधन निर्दोष नगरिकों का कत्लेआम है तो मकसद महात्वाकांक्षा की तुष्टि या मुनाफ़ा बढ़ाना होता है । अफ़गानिस्तान में जो बच्चे मारे जा रहे हैं उनका विश्व व्यापार केंद्र पर हुए हमले से क्या लेना देना है ! हिंसा को जायज ठहराने के लिए लोकतंत्र, स्वतंत्रता, आत्म रक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे शब्दों का खेल चल रहा है और इसके पीछे मुट्ठी भर लोगों के हाथ में अकूत संपत्ति ले जाने की योजना काम कर रही है । कभी आइजनहावर ने खुद युद्ध की तैयारी में लगे अरबों डालरों को जनता के भोजन और मकान की चोरी कहा था । ऐसा महसूस हो रहा है मानो देश पर किसी विदेशी ताकत ने कब्जा कर लिया है- विदेशी इस अर्थ में कि हमारे देश के लिए कल्याणकारी मूल्यों और सिद्धांतों से पूरी तरह भिन्न । युद्धोन्माद का माहौल बनाया जा रहा है जिसकी आड़ में राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर नागरिकों के अधिकार रद्दी की टोकरी में फेंक दिए गए हैं । इस युद्ध से दुनिया भर में अमेरिकी नागरिकों की सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है । यह किताब कानून और न्याय की बात भी करती है तथा जेल और कचहरी की भी । हमने इतनी जेलें बना ली हैं जितनी पहले कभी नहीं थीं । इन जेलों में गरीब, अश्वेत और विद्रोही बंद रखे जाते हैं जबकि कारपोरेट लुटेरे और युद्ध के हत्यारे मस्ती में मौज मनाते हैं । ज़िन भी अवसादग्रस्त हो गए होते अगर उनके जीवन में वे स्मरणीय क्षण न रहे होते जिनका जिक्र भी इस किताब में हुआ है । बचपन के सात बरस उन्होंने पत्नी और बच्चों के साथ दक्षिणी भाग में बिताए, अश्वेत समुदाय के साथ रहे और नस्ली भेदभाव के विरुद्ध लड़ाई में भाग लिया । उन्हें सीख मिली कि सत्ता के विरोध में प्रतिरोध की छोटी घटनाएं भी बड़े सामाजिक आंदोलनों को जन्म दे सकती हैं । सामान्य लोग प्रचंड साहस के धनी होते हैं । जो शासक बदलाव को असंभव कहते हैं उन्हें मुंह की खानी पड़ती है । सामाजिक संघर्षों की दुनिया में अचम्भे होते हैं, जनता का नैतिक बोध अनजाने जागता है और इतिहास में छोटी जीतों में भी बड़े संदेश निहित होते हैं । उन्होंने यह भी सीखा कि लोकतंत्र का मतलब सरकार, संविधान और कानूनी ढांचा ही नहीं होता; अधिकतर तो ये लोकतंत्र के दुश्मन ही साबित होते हैं । इस देश में दो सौ सालों का अश्वेत लोगों का अनुभव यही है । ज़िन को लगता है कि पूरे देश की जनता न्यायपूर्ण और शांत दुनिया में जिंदगी बिताना चाहती है, वह युद्ध और नफ़रत का प्रतिरोध करेगी और लोकतंत्र को जिंदा करेगी । उनकी सबसे कीमती सीख यह थी कि शासक नहीं, बल्कि आम जनता ही लोकतंत्र को सार्थक बनाती है ।
पहला संस्करण भी एक भूमिका से शुरू होता है । यह शुरुआत एक घटना के वर्णन से होती है । आत्मकथा लिखने के दस साल पहले उन्होंने अपनी सबसे मशहूर किताबए पीपुलस हिस्ट्री आफ़ द यूनाइटेड स्टेट्सलिखी थी । उसके शुरू में ही कोलम्बस का जो चित्रण था वह चौंकाने वाला था । कोलम्बस को उन्होंने पूरी तरह से धार्मिक और साथ ही स्थानीय निवासियों को गुलाम बनाने वाला, सताने वाला और हत्यारा बताया था । उसे लोभ, हिंसा, शोषण, नस्लवाद की मूर्ति तथा हमलावर और घमंडी साबित किया गया था । किताब बेहद मशहूर हुई । छपने के दस साल के भीतर उसे चौबीस बार छापना पड़ा, तीन लाख प्रतियों की बिक्री हुई थी । सबसे अधिक सवाल उनसे कोलम्बस के बारे में पूछे जाते थे । किसी ने तो स्कूल से उस अध्यापिका की छानबीन कराने को कहा जिसने उनकी किताब पढ़ने के लिए बच्चों से कहा था । समस्या केवल कोलम्बस की नहीं थी । असुविधा अमेरिका के इतिहास के बारे में उनके नजरिए से हो रही थी । इस किताब में नायकों और खलनायकों की पूरी सूची ही उलट दी गई थी । उनके मुताबिक अमेरिका के संस्थापक मुझे धनी और गोरे गुलाम मालिक लगते थे जो निचले तबकों के विद्रोह से डरते थे, हमारे योद्धा मुझे नस्लवादी, मुलवासियों के हत्यारे, युद्ध पिपासु और साम्राज्यवादी महसूस होते थे, जो लोग उदारवादी थे भी वे अश्वेतों के अधिकारों की बजाए अपनी राजनीतिक सत्ता के बारे में चिंतित रहते थे । इनके मुकाबले ज़िन के नायक किसान और अश्वेत थे जो कानून से लड़कर भी आजादी हासिल करना चाहते थे । उनके नायक पहले विश्व युद्ध के विरोध में जेल जाने वाले लोग थे, शक्तिशाली कारपोरेशनों के विरुद्ध पुलिस से डरे बिना हड़ताल करने वाले मजदूर थे, वियतनाम युद्ध के विरोधी थे और जीवन के सभी क्षेत्रों में बराबरी की मांग करने वाली औरतें थीं । इसी वजह से उनसे ढेर सारे सवाल पूछे जाते थे । इसी वजह से उनकी देशभक्ति को लेकर भी सवाल उठाए जाते थे । जवाब में वे सरकार और देश में अंतर करने पर जोर देते थे । सरकार को देश के लोग बनाते हैं । जब भी कोई सरकार देश के लोगों के अधिकारों पर हमला करती है तो वह देशद्रोह करती है, न कि उस पर सवाल उठाने वाले । लोकतंत्र से अगर आप प्रेम करते हैं तो सरकार के विरोध में खड़ा होना ही पड़ेगा । इसी किताब के बारे में जब वे एक जगह बोल रहे थे तो किसी ने उनसे उनके आशावाद का स्रोत जानना चाहा । सवाल करने वाले को उन्होंने जो भी जवाब दिया हो लेकिन सवाल दिमाग में अटका रहा । यह आत्मकथा इसी सवाल का जवाब है कि खराब हालात के बावजूद बदलाव की उम्मीद क्यों बनाए रखनी चाहिए । इसके लिए बदलाव का निश्चित होना जरुरी नहीं, बल्कि इतिहास के अध्ययन से झलकने वाली बदलाव की संभावना ही काफी है । इतिहास में युद्ध हैं तो युद्ध का प्रतिरोध भी है, अन्याय है तो अन्याय से विद्रोह भी है, स्वार्थ है तो त्याग भी है, दमन पर खामोशी के अतिरिक्त उसका प्रतिकार भी है, निर्दयता के साथ करुणा भी है । मनुष्यों में तमाम किस्म के गुण-अवगुण होते हैं लेकिन आम तौर पर महज अवगुण की बात की जाती है । फलस्वरूप हमारी उम्मीदें कमजोर पड़ने लगती हैं लेकिन कुल के बावजूद वह मरती नहीं, कायम रहती है । इतिहास गवाह है कि तमाम मुश्किलों के बावजूद लोग स्वतंत्रता और न्याय के लिए लड़ाई करने को एकजुट हुए हैं और उन्हें जीत भी मिली है; अक्सर तो नहीं लेकिन इतनी बार जरूर कि भविष्य में भी उनके विजयी होने की संभावना पैदा हो सके । न्याय के लिए इस संघर्ष के योद्धा मनुष्य होते हैं । यही मनुष्य एक क्षण के लिए ही सही डरते डरते भी कुछ ऐसा कर जाता है जो महत्वहीन होते हुए भी युगांतरकारी बदलावों का कारण बन जाता है । ज़िन का जीवन ऐसे साधारण लोगों से घिरा रहा है और उन्हीं से उन्हें उम्मीद भी मिलती रही है ।
एक दिन पहले सार्वजनिक भोज में उनकी मुलाकत एक पादरी से हुई जो युद्ध का विरोधी था । उसने अपने ऐसा होने का कारण वियतनाम को बताया । ज़िन के अनुसार लोगों के जीवन इसी तरह की घटनाओं से बदलते हैं । इसी तरह एक समाजशास्त्र के अध्यापक मिले जो अपराधशास्त्र पर शोध करते हैं । चोरों-डकैतों पर नहीं, बल्कि सरकारी अधिकारियों और कारपोरेट घरानों पर जिनके अपराध का शिकार कोई व्यक्ति नहीं समूचा समाज होता है । ऐसे ही लोगों के जीवन में इतिहास छिपा हुआ है । अगर कठिन दिनों में आशा बनाए रखना है तो ऐसे लोगों के अतीत से उसके स्रोत मिलेंगे ।    
ज़िन ने जब अध्यापन शुरू किया तो अपनी मान्यताओं और अनुभवों से अपने शिक्षण को उन्होंने धार दी अपने बारे में विद्यार्थियों से कोई बात करना उन्हें इस समझ का विस्तार महसूस हुआ कि साहित्य, इतिहास, दर्शन, राजनीति और कला के अध्ययन को एक दूसरे से अलग रखा जाना चाहिए, साथ ही इन्हें सही गलत के बारे में अपनी मान्यताओं से भी दूर रखा जाना चाहिए ज़िन ने युद्ध और सैन्यवाद का विरोध, नस्ली असमानता के प्रति क्रोध, लोकतांत्रिक समाजवाद में विश्वास और संपदा के न्यायपूर्ण बंटवारे के प्रति अपने आग्रह को कभी छिपाया नहीं धौंस-धमकी उन्हें कभी नहीं भायी- चाहे शक्तिशाली देश कमजोर मुल्कों के साथ करें या सरकार नागरिकों के साथ या फिर नियोक्ता अपने कर्मचारियों के साथ कार्यकर्ता और अध्यापक का यह मिश्रण उनकी इस समझ का नतीजा था कि हमारे समय के सवालों से शिक्षा निरपेक्ष नहीं रह सकती है कक्षा के भीतर और बाहर संघर्षों की यह आवाजाही इस उम्मीद से जारी रही कि विद्यार्थी भी आगे चलकर यही रास्ता अपनाएंगे इससे पारंपरिक शिक्षा के पक्षधरों को डर लगता है वे चाहते हैं कि शिक्षा से नई पीढ़ी पुरानी व्यवस्था में सिर्फ उचित जगह लेने लायक हो जाए, व्यवस्था पर सवाल उठाए उन्हें कभी नहीं लगा कि कक्षा में बैठा विद्यार्थी कोरी स्लेट है परिवार और जन संचार माध्यमों के जरिए विद्यार्थियों का राजनीतिक प्रशिक्षण बहुत हद तक हो चुका होता है इन विद्यार्थियों से भी उन्हें उम्मीद को जिंदा रखने में मदद मिली अस्सी के दशक में जब छात्रों की सक्रियता उतार पर थी, अच्छा बनने का चौतरफा आर्थिक दबाव था, सफल होने की होड़ मची हुई थी तो भी ज़िन ने उम्मीद नहीं खोई उनके सामने पचास के दशक का उदाहरण था जब युवा समुदाय को खामोश पीढ़ी कहा जाता था लेकिन उसके तुरंत बाद साठ का उथल पुथल से भरा दशक आया

आज अगर निराशा महसूस हो रही है तो उसका कारण यह भी है कि हम सतह के नीचे मौजूद बदलाव की ताकतों को देख नहीं पा रहे दमित अपमान, सहज बोध, सामुदायिकता की जरूरत, बच्चों से प्यार, सही समय के लिए इंतजार का धीरज- ये ही चीजें इतिहास में आंदोलनों को बल प्रदान करती रही हैं लोग व्यावहारिक होते हैं, बदलाव तो चाहते हैं लेकिन खुद को अकेला और कमजोर पाते हैं, चाहते हैं कोई दूसरा पहला कदम उठाए अगर हम इस बात को समझ लें तो पहला कदम उठा सकते हैं यह कोई दिवास्वप्न नहीं है, इतिहास में बदलाव इसी तरह होते हैं और हुए हैं वर्तमान हमें इतना अधिक घेरे रहता है कि यह इतिहास हमारी चेतना से ओझल हो जाता है         

Thursday, December 24, 2015

कार्यकर्ताओं की कला


                              
                                                               

2013 में स्टेट यूनिवर्सिटी आफ़ न्यूयार्क प्रेस से नैन्सी एस लव और मार्क मैटर्न के संपादन में डूइंग डेमोक्रेसी: ऐक्टिविस्ट आर्ट ऐंड कल्चरल पालिटिक्सका प्रकाशन हुआ । किताब आठ भागों में बंटी है जिसमें पहला भाग प्रस्तावना का है और संपादकों का लिखा हुआ है । दुसरा भाग फोटोग्राफी और कार्टून पर केंद्रित दो लेखों का है । तीसरा भाग स्मारकों और संग्रहालयों पर लिखे दो लेखों का है । चौथा भाग साहित्य और कविता पर केंद्रित है और इसमें भी दो ही लेख हैं । पांचवें भाग में संगीत का विवेचन करने वाले दो लेख संकलित हैं । छठवां भाग नाटक पर केंद्रित दो ही लेखों का है । सातवां भाग उत्सवों और प्रदर्शनों का विश्लेषण करने वाले दो लेखों का संग्रह है । आखिरी आठवां भाग भी संपादकों का लिखा उपसंहार है । इस तरह यह किताब राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों के कुछ सृजनात्मक आयामों का पूरा वर्णन और विवेचन करती है । इसमें संकलित चौदह लेखों में से आधे लेख ऐसे हैं जो 2010 में प्रकाशित न्यू पोलिटिकल साइंस: ए जर्नल आफ़ पालिटिक्स ऐंड कल्चर में प्रकाशित होने के बाद संशोधित होकर इस पुस्तक में शामिल किए गए हैं । प्रस्तावना में संपादकों का कहना है कि लेखकों ने अपने लेखों में सवाल उठाया है कि क्या कला और संस्कृति के विभिन्न रूप वर्तमान समाज को अधिक लोकतांत्रिक बनाने की आशा का कोई आधार मुहैया कराते हैं ? कला और लोकप्रिय संस्कृति से जुड़ी हुई राजनीतिक सक्रियता नए राजनीतिक अर्थतंत्र और अधिक लोकतांत्रिक राजनीति की दिशा में ले जा पाएगी ? मौजूदा आर्थिक और राजनीतिक यथार्थ से उसका कैसा रिश्ता है ? कला और लोकप्रिय संस्कृति से जुड़े ये रूप किस हद तक कार्यकर्ताओं की क्षमता में बढ़ोत्तरी करते हैं ? ऐतिहासिक तौर पर हाशिए पर स्थित समुदाय अपने राजनीतिक दावों को आगे बढ़ाने और लोकतंत्र को अमली जामा पहनाने में कला और लोकप्रिय संस्कृति का किस तरह इस्तेमाल करते हैं ? ये सवाल तेजी से विस्तारित हो रहे वैश्विक संचार के संदर्भ में उठाए गए हैं । स्मार्ट फोन और इंटरनेट के प्रसार से कला और लोकप्रिय संस्कृति तक लोगों की पहुंच काफी बढ़ गई है । फ़ेसबुक, ट्विटर और यू-ट्यूब के सहारे संगीतकार, फोटोग्राफर, चित्रकार, नर्तक, फ़िल्मकार, लेखक और अन्य तमाम लोग अपनी रचनाओं को प्रचारित कर रहे हैं । इस स्थिति का एक परिणाम तो यह निकला है कि राजनीतिक चिंतन और कार्यवाही का फलक कला और संस्कृति के इस्तेमाल से चौड़ा हुआ है । इंटरनेट ने स्थानीय और वैश्विक समुदायों तथा पारंपरिक और आधुनिक संस्कृतियों के बीच फ़र्क कम किया है लेकिन सीमाओं का खात्मा नहीं हुआ है । गरीब-अमीर और उत्तर-दक्षिण के बीच अंतर बना हुआ है । इसके बावजूद इंटरनेट ने आभासी प्रवासी समुदायों, वैश्विक सामाजिक आंदोलनों और इंटरनेट आधारित साइबर राष्ट्रों का निर्माण किया है । राष्ट्र-राज्यों की पारंपरिक राजनीति जब वैश्वीकरण और सांस्कृतिक बहुलतावाद से जुड़ी तो तथाकथिक सांस्कृतिक युद्ध शुरू हो गए । दुनिया भर के नागरिकों के दिलो-दिमाग पर नियंत्रण करना इनका मकसद है । इसीलिए नागरिकों को आत्म-चेतस और आलोचनात्मक विवेक से लैस करने की जो चुनौती दरपेश है उसके मद्देनजर अभिव्यक्ति के तमाम रूपों, खासकर कला और लोकप्रिय संस्कृति से जुड़े रूपों का महत्व बढ़ जाता है । ज्यादातर लोकप्रिय संस्कृति आलोचनात्मक चेतना के विकास का दमन करती है और समरूपीकरण या अमेरिकीकरण करती है लेकिन इनका उपयोग आलोचनात्मक विवेक और विविधता के पोषण के लिए भी व्यापक रूप से सफलतापूर्वक हुआ है । केंद्रीय सवाल यह है कि पूंजी के मालिकान किस हद तक दुनिया को भौतिक और प्रतीकात्मक रूप से अपने निजी हितों के अनुरूप ढालना जारी रखेंगे और किस हद तक कार्यकर्ता इस प्रभुत्व और ताकत को तहस नहस करने के लिए कला और लोकप्रिय संस्कृति को काम में ला पाएंगे । इस किताब के विभिन्न अध्यायों के लेखकों ने आम तौर पर तो लोकतांत्रिक और प्रगतिशील मूल्यों के विकास में कार्यकर्ताओं की कला के समर्थन पर जोर दिया है लेकिन कुछेक लेखकों ने इस बात को भी उजागर किया है कि किस तरह कला और लोकप्रिय संस्कृति का उपयोग लोकतांत्रिक बदलावों का विरोध करने और वर्ग, लिंग तथा नस्ल संबंधी ऊंच-नीच को स्थापित करने के लिए भी हुआ है । इन परस्पर विरोधी बातों से यही सिद्ध होता है कि लोकतांत्रिक समाज का निर्माण निरंतर चलने वाली लड़ाई है और इस लड़ाई में दोनों पक्ष कलात्मक सांस्कृतिक रूपों का इस्तेमाल कर रहे हैं । संपादकों ने कला और लोकप्रिय संस्कृति का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि बहुत से लोग उच्च कला और निम्न कला का भेद करते हैं । उनके लिए कला वीथिकाओं में लटके चित्र और सभा कक्षों में संगीत उच्च कला हैं जबकि दीवारों पर लिखे नारे और जुलूसों के गाने निम्न कला हैं जिसे वे लोकप्रिय संस्कृति भी कहते हैं । इस विभाजन में तत्व नहीं है । मार्शल मैकलुहान का कहना है कि किसी भी नए कला रूप को उच्च कला के मानदंड के लिए आम तौर पर भ्रष्टकारी माना जाता है । किसे उच्च कला और किसे निम्न कला माना जाएगा इसकी परिभाषा ऐतिहासिक संदर्भों से रूपायित होती है । लेकिन मामला सिर्फ़ ऐतिहासिक संदर्भ का नहीं है । लोकप्रिय संस्कृति से जुड़े कला रूपों को भीड़ के मनोरंजन हेतु निर्मित बाजारू कला कहकर अक्सर खारिज कर दिया जाता है । फिर भी रोजमर्रा का जीवन बिना इन कलाओं के नीरस होता है । इससे भी आगे बढ़कर ये कला रूप हमारी कल्पना को उत्प्रेरित करते, सृजनात्मकता को व्यक्त करते, सार्थक प्रतीक मुहैया कराते, सुंदरता और सामरस्य का बोध बनाए रखते, समरूपता का मुकाबला करते और यथास्थिति का विरोध करते हैं । इन कारणों के चलते इनका राजनीति के लिए बहुत महत्व है । संपादकों ने कला की बहसों से परहेज किया है और कला तथा लोकप्रिय संस्कृति के सौंदर्यात्मक अनुभव पर जोर दिया है जिसे वे जीवन की समूची ऐंद्रिक संवेदना और बोध का अखंड हिस्सा मानते हैं । यह अनुभव कला के परे रोजमर्रा के जीवन, प्राकृतिक जगत और आध्यात्मिक दुनिया तक फैला हुआ है । धारणा के स्तर पर कलात्मक अनुभव और सौंदर्यात्मक अनुभव भले अलग किए जाएं लेकिन व्यावहारिक तौर पर वे अलग नहीं होते । उच्च कला और लोकप्रिय संस्कृति में जो भेद किया जाता है वैसा ही भेद रूपगत तथा प्रदर्शनमूलक सौंदर्य के बीच किया जाता है । रूपगत सौंदर्यशास्त्र में जोर कलाकृति की अमूर्त व्यवस्था, संरचना और तकनीक पर होता है । इस सौंदर्यशास्त्र के मानदडों पर लोकप्रिय कला रूप खरे नहीं उतरते । लोकप्रिय कला पर विचार करने के लिए कलात्मक रूप की धारणा को विस्तारित किया गया है, साथ ही जिन्हें उच्च कला रूप माना जाता है उनके बारे में भी इस किताब में शामिल लेखों के लेखकों ने अधिक गतिमान और लोकतांत्रिक समझ से काम लिया है । संगीत की अशब्द अभिव्यक्ति पर कई लेखों में विचार किया गया है । टेलीविजन, रेडियो और अखबार जैसे माध्यम कला की राजनीतिक ताकत बढ़ा देते हैं । प्रदर्शनमूलक सौंदर्य की धारणा के चलते मुख्य धारा की राजनीति द्वारा हाशिए पर फेंक दिए गए और बहिष्कृत समूहों की पहचान बनाने और उनकी जरूरतों को स्वर देने में कला की भूमिका को समझने में मदद मिलती है । प्रदर्शनमूलक सौंदर्यशास्त्र श्रोताओं या दर्शकों को कलात्मक अनुभव का भागीदार मानता है तथा व्यापक समुदाय के साथ कलाकार की संलग्नता पर जोर देता है । इससे समाजार्थिक और राजनीतिक बदलाव की प्रक्रिया में कला की सहभागिता नजर आने लगती है । इस नजरिए से देखने पर सार्वजनिक और निजी के बीच का बंटवारा भी भहरा जाता है ।