Sunday, December 20, 2015

अलका सरावगी के शिल्प की नवीनता का कारण क्या हो सकता है ?

         
                                                                
अलका सरावगी के पहले उपन्यास से ही यह दिखाई देने लगा था कि वे उपन्यास के शिल्प के साथ खिलवाड़ करके पाठक को बांध लेना चाहती हैं । इस नए शिल्प को मेटा-नैरेटिव कहा जा सकता है जिसमें वे कथा के साथ ही कथा की कथा भी बताती चलती हैं । लेकिन सवाल तो यह है कि शिल्प का यह बदलाव यथार्थ के बदलाव को अधिक प्रभावी तरीके से व्यक्त कर पाता है या नहीं ।जानकीदास तेजपाल मैनशनउनका नवीनतम उपन्यास है । इसमें भी उन्होंने शिल्प के स्तर पर प्रयोग की अपनी ही बनाई परम्परा को कायम रखा है । उपन्यास एक आत्मकथा है जो जयगोविन्द नामक पात्र ने अपने को जयदीप के रूप में कल्पित करके लिखी है ।
इस संक्षिप्त धोखे के खुलासे के बाद उपन्यास के वर्ण्य विषय की जानकारी जरूरी है ताकि शिल्प की चर्चा में वह चिंता आंखों से ओझल न हो जाए जिससे यह पूरा उपन्यास आप्लावित है । निर्माण कार्य खासकर शहरों में भवन निर्माण का पागलपन पहले बंबई को लगा था जिसकी हिंसक छवियां पिछले एकाध दशक की माफ़िया केंद्रित बालीवुड फ़िल्मों में थोड़े थोड़े अंतराल पर दिखाई पड़ती रही थीं । उन बरसों में माफ़िया पर बनी ज्यादातर फ़िल्मों में अपराध की दुनिया पुरानी इमारतों से उनके मालिकों को बेदखल करने के लिए बने गिरोहों के इर्द गिर्द घूमती थी । देश की राजधानी दिल्ली को भी यह रोग लगे कुछ दिन बीत गए हैं । यह तथ्य भौतिक और रूपक दोनों ही अर्थों में प्रकट है । स्मार्ट सिटी के नाम से अब तो इसे बाकायदे एक कलात्मक विक्रेय वस्तु में भी बदला जा चुका है । भू-माफ़िया अब अपराधी नहीं, देशभक्त है क्योंकि वह विकास का दूत है । सट्टा बाजार की तरह भविष्य की बढ़त के सहारे वर्तमान को दांव पर लगा देने के लिए जनता को प्रेरित करने का सबसे नया इंद्रजाल है ।
सबसे हाल में यह रोग कलकत्ते को लगा है । सैकड़ों साल पुरानी इमारतों को धराशायी करके अंधाधुंध निर्माण चल रहा है । इस घातक विकास से भारत में आधुनिकता के इस सबसे प्राचीन जीवित स्मारक की सांस घुट रही है । इसी माहौल को अलका सरावगी ने अपने उपन्यास का विषय बनाया है । मानव विरोधी इस नव-उदारवादी समय का प्रतिवाद अलका अपने पहले उपन्यास से ही रचती आ रही हैं । शेष लोगों से इस मामले में उनका फ़र्क यह है कि जहां बाकी लोग इस प्रतिवाद के लिए गरीब और मेहनतकश लोगों का पक्ष चुनते हैं वहीं अलका सरावगी इसके लिए धनाढ्य समुदाय के भीतर से ही बदलाव से परेशान अतीतप्रेमी समुदाय की तरफ से इस हमले का प्रतिकार करती हैं । इस चुनाव से ही उनकी शक्ति और सीमा दोनों निर्धारित होते हैं और उनकी विशेषता भी प्रकट होती है । यही अतीतप्रेम असल में उनके अन्य उपन्यासों की तरह इस उपन्यास के भी शिल्प को प्रभावित करता है । जयगोविन्द को जयदीप का लिखा जो आत्मकथात्मक उपन्यास मिलता है उसमें अधिकतर अतीत की याद है । बीच बीच में वर्तमान दिखाई पड़ता है । पहले उपन्यास में अतीत थोड़ा कम था, इसमें कुछ अधिक ही है ।
कलकत्ता शहर के भीतर का मारवाड़ी समुदाय उनका जाना हुआ है । इस समुदाय के जीवन की परिस्थितियों में आने वाले बदलावों के चलते जीवन मूल्यों में भी बदलाव आते हैं और इनकी कशमकश का जीवंत दस्तावेज उनके उपन्यास हैं । आश्चर्य की बात नहीं कि जब प्रेमचंद को आधुनिकता की चीरफाड़ करनी थी तो ‘गबन’ में इलाहाबाद और कलकत्ता उनकी कथा की रंगभूमि बने । शहर और आधुनिकता के इस रिश्ते को हम अलका सरावगी के इस उपन्यास में कलकत्ता और बंबई तथा अमेरिका तक विस्तारित होते देखते हैं । प्रेमचंद के समय के मुकाबले भारत के मध्य वर्ग के भौतिक क्षितिज में विस्तार भले न हुआ हो, उसके मानसिक क्षितिज में अमेरिका का सपना आ गया है । अलका सरावगी के उपन्यासों में भी क्रमश: यह विकास परिलक्षित हुआ है । अमेरिका नामक यह जगह इतनी वायवीय है कि पूरा देश मानो कोई एक ही स्थान हो । पूरे उपन्यास को पढ़ जाने पर भी पता नहीं चलता कि जयदीप उर्फ़ जयगोविंद उर्फ़ जैग अमेरिका के किस विश्वविद्यालय से दीक्षित है । सिर्फ़ अमेरिका से पढ़कर आए होने का वैभव और दर्द वर्णित हैं । वर्णन तो दर्द का ही है लेकिन इस तरह कि अमेरिका से उसके पढ़े होने का वैभव छलकता रहे । किसी ठोस स्थान के रूप में उभरने की जगह उपन्यास में अमेरिका कल्पना प्रसूत स्वप्नलोक की तरह सामने आता है । उपन्यास के पात्र के मन में उसकी देवलोक सरीखी छवि हो तो कोई बात नहीं लेकिन लगता है कि उपन्यासकार के लिए भी वह जगह संज्ञा न होकर विशेषण है । इसी विशेषण से जयदीप की संबद्धता उपन्यास के पहले पन्ने से लेकर आखिरी पन्ने तक छाई हुई है । उसकी त्रासदी से लेकर सफलता तक सब कुछ जयदीप के अमेरिका से शिक्षित होने की वजह से उसके खाते में दर्ज हुए हैं ।
उपन्यास में जयगोविंद को जीवन के अंतिम दिनों में बेटे के पास बम्बई जाने के लिए सामान बांधते समय एक लिफ़ाफ़ा मिलता है जिसमें युवावस्था में लिखे एक आत्मकथात्मक उपन्यास के पन्ने मिलते हैं । इन पन्नों में लिखे उस उपन्यास के अलग अलग अध्याय और जयगोविंद का वर्तमान लगातार एक के बाद पाठक के सामने खुलते हैं इसलिए कहानी के गुम हो जाने की आशंका भी बनी रहती है । सुविधा के लिए उपन्यास की छपाई में ऐसी व्यवस्था की गई है कि वर्तमान का अध्याय लगभग आधे पन्ने पर है तो उसके लिखे उपन्यास वाले अध्याय पूरे पन्ने पर हैं । इस तरह शिल्प के क्षेत्र में होने वाले प्रयोगों में यह भी एक अभिनव प्रयोग है । इससे पहले यह अंतर बताने के लिए कुछेक अंग्रेजी उपन्यासों में अतीत तिरछे अक्षरों में तो वर्तमान सामान्य अक्षरों में छपा होता था । बहुत संभव है यह प्रयोग चल निकले । इससे शिल्प अपने नाम को सार्थक करेगा । अब तक इसका इस्तेमाल कला के अर्थ में किया जाता था ।
जयगोविंद के लिखे उस उपन्यास में जयदीप गुप्ता नामक पात्र मुख्य पात्र है । जयगोविंद ने उस पात्र का नाम जयदीप इसलिए रखा क्योंकि उसकी पत्नी का नाम दीपा था । आधा अपना और आधा पत्नी का-इस तरह उसका कथात्मक नाम हुआ । वह एडवोकेट बाबू का बेटा है । एडवोकेट बाबू का असली नाम किसी को याद नहीं, उनकी पत्नी को भी नहीं । उनका असली नाम सिर्फ़ उनकी खुद की जन्मपत्री में बन्द था, जिससे निकालकर अमेरिका जाते वक्त जयदीप के पासपोर्ट में लिखा गया था ।’  इन एडवोकेट बाबू को बीस साल की उम्र से ही कलकत्ते के विभिन्न इलाकों में राजस्थान के धनी व्यापारियों के लिए प्लाट की खरीदारी में मदद करने का तजुर्बा था । इस अनुभव के चलते सेठ जानकीदास ने अपनी बनवाई इमारत में उनके रहने के लिए दूसरे तल्ले पर तीन कमरे दे दिए थे । चारों ओर तीन-चार मंजिल तक बने कमरों से घिरे आंगन को चौक कहते थे । जिस इमारत में एडवोकेट बाबू को रहने के लिए कमरे मिले उसे तेजपाल मैनशन कहते थे और उसमें दो चौक थे । इन्हीं कमरों में जयदीप का बचपन बीता था । ऊपर नीचे रहने वाले परिवारों के जीवन के रहस्यों के बीच जयदीप जवान हुआ था ।
एडवोकेट बाबू बहुत कम बोलते थे इसलिए उन्होंने सीधे अपना फैसला सुनाया था कि जादवपुर के बाद आगे की पढ़ाई के लिए जयदीप अमेरिका जाएगा तो उनके फैसले पर सवाल उठाने की किसी को हिम्मत नहीं हुई । अमेरिका में जयदीप पढ़ाई के दौरान एक लड़की से मुहब्बत कर बैठा । इसकी भनक घर के लोगों को लग गई तो एडवोकेट बाबू के बीमार होने का बहाना बनाकर उसे कलकत्ते वापस बुला लिया गया । घर में उसकी हिम्मत नहीं पड़ी कि अमेरिका में रिसर्च के अधूरे काम को पूरा करने के लिए किसी से कह सके । मां उसके पास बैठते ही अपनी बीमारियों की बात शुरू कर देतीं । बहनें पिता से बात करने को तैयार नहीं थीं । जब उसने तय किया कि खुद बात करेगा तो पिता के सामने पड़ते ही पिता ने उससे बिड़ला की कार बनाने की कंपनी में नौकरी के लिए इंटरव्यू देने का आदेश दिया । दूसरे दिन उसे नौकरी मिल गई ।
जयदीप की नौकरी के बहाने पुरानी नौकरशाही और काम करने के अमेरिकी तरीके के बीच की कशमकश दर्ज हुई है । इस संघर्ष में लेखिका की सहानुभूति जयदीप के साथ है । इसी बहाने हमारे सामने समकालीन भारत में सतह के नीचे चल रही वह खामोश प्रक्रिया उजागर होती है जिसके जरिए सरकारी सेवाओं को अक्षम साबित करके निजीकरण के पक्ष में मध्यवर्ग का बौद्धिक समर्थन हासिल किया गया । जयदीप को काम से हटाने के लिए पुराने ढर्रे के बाबू लोग अनेक षड़यंत्र करते हैं लेकिन वह न केवल अमेरिका से शिक्षित है बल्कि अमेरिकी पूंजीवाद की जिद और चालाकी भी उसके भीतर समाई हुई है इसलिए न केवल टिका रहता है, बल्कि एक हद तक अपने काम में सफलता भी हासिल करता है लेकिन फिर इस्तीफ़ा दे देता है । इस्तीफ़ा मंजूर नहीं होता और उसे कार बनाने वाली एक नई कंपनी के खुलने की अफ़वाह की सचाई जानने के लिए उस संभावित कंपनी में डालने के लिए आवेदन भरवाया जाता है । पता लगता है कि यह कंपनी नहीं खुलेगी । आखिरकार वह निजी कंसल्टेंसी एजेंसी खोलने का बहाना बनाकर मालिकों से इस्तीफ़ा मंजूर कराने में सक्षम हो जाता है । इस बीच उसका विवाह दीपा से हो जाता है । बिड़ला की कारखाने की नौकरी छोड़कर उसने जूट मिलों में कम्प्यूटर लगाने का काम शुरू किया । काम चल निकला लेकिन बोरे बनाने के लिए प्लास्टिक का उपयोग शुरू होने से जूट मिलें बंद होने लगीं । तरह तरह के काम करने के क्रम में उसने लोहे की खरीद का धंधा शुरू किया तो पुलिस थाने का चक्कर लगाना पड़ा । दीपा के साथ दांपत्य, पिता की मृत्यु, मेट्रो की खुदाई के कारण तेजपाल मैनशन का तिरछा होकर लटक जाना, मेट्रो पीड़ित बंधु एसोसिएशन की ओर से मुआवजे की लंबी लड़ाई के क्रम में कलकत्ते का राजनीतिक अंडरवर्ल्ड, इसी क्रम में युवावस्था के दिनों के नक्सल प्रभाव के कारण पुलिस के हत्थे चढ़े और फिर अनेक उतार चढ़ावों से गुजरकर समाज और राजनीति में समायोजित होने की जद्दो जहद में लगे साथी, बंद होने वाली मिलों की खरीदारी के लिए दलाली और इसके क्रम में राजनीति और व्यापार का आपसी खेल- कुल मिलाकर उपन्यास आकार में छोटा होने के बावजूद व्यापक आयाम समेटे हुए है । सबसे आखीर में तेजपाल मैनशन के किराएदारों को बिल्डिंग माफ़िया की ओर से हिंसक तरीके से एक एक करके भगाया जाता है । मेट्रो के कारण उसका झुक जाना एक संयोग है जिससे पुरानी इमारतों को तोड़कर आलीशान इमारतें बनाकर करोड़ों में उन्हें बेचने का धंधा करने वाले उत्साहित होकर गुंडों के जरिए डरा धमका कर रहनेवालों से खाली कराते हैं । उनसे अकेले मोर्चा लेने वाले जयदीप की यह लड़ाई महाकाव्यात्मक स्वरूप लिए हुए है । वह भी अंत में हार जाता है ।
नक्सल आंदोलन से लेकर नव-उदारवादी आर्थिकी के हमले तक के समय की कथा को खूबसूरती के साथ आकार में छोटे और सुपाठ्य उपन्यास में अलका सरावगी ने बांधा है । इसके लिए उन्होंने अतीत और वर्तमान में निरंतर आवाजाही का नया शिल्प अपनाया है । इस नए शिल्प की प्रस्तुति के लिए उन्होंने छपाई इस तरह कराई है कि पाठक समय के इस अंतराल को महसूस कर सकता है । प्रयोग व्याकुल हिंदी जगत में कथ्य और प्रस्तुति के लिहाह से लोकप्रिय होने की पर्याप्त संभावना इस उपन्यास में है । लेकिन कुल के बावजूद यह सवाल तो रह ही जाता है कि नव-उदारवादी हिंसक आर्थिकी के विरोध में लेखिका ने प्रतिरोध की भूमि मध्यवर्ग के भीतर ही क्यों खोजने की कोशिश की है ?
भाषा के स्तर पर कथा साहित्य की हिंदी ने हमारे मध्यवर्गीय जीवन की पटुता अपना ली है और यह भाषा अलका सरावगी के लेखन में सबसे अधिक प्रत्यक्ष है । एक मुलायम सी सुबोध-सुपाच्य हिंदी हमारी ताकत है या सुविधा से पैदा नमनीयता है इसे सर्व सम्मति के चलते बहस और विवाद का विषय भी नहीं माना जाता ।

     

   


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