वीरेन डंगवाल की कविता को
इसी तरह से देखना संभव है । उन्हें तो असल में महज कवि के रूप में देखना भी
मुश्किल है । उनकी कविता गहरे स्तर पर उनकी वैचारिक समझ को अभिव्यक्त करती है । वे
लेखन को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से अलगाते नहीं थे । इसलिए उनकी कविता, उनके
विचार और उनकी सामाजिकता आपस में घनिष्ठ तौर पर जुड़े हुए हैं । थे लिखने की हिम्मत
नहीं हो रही । किसी की भी अनुपस्थिति बहुत देर तक बोलती रहती है खासकर जब लगातार
का मिलना न होते हुए भी साथ चलने का अहसास होता रहा हो । वैसे भी वे मुश्किल में
काम आने वाले इन्सान थे, रोज के मददगार नहीं ।
उनसे पहली बार मिलने की जो याद है उससे पहले भी मिलना हुआ था ऐसा लगता है । तब मेरी उम्र सोलह के आसपास रही होगी । आई पी एफ़ का पहला राज्य
सम्मेलन बरेली में होना था । स्थान था बरेली कालेज । दिल्ली में हुए राष्ट्रीय
सम्मेलन में आनंद गया था । हसरत भरे दिल से बनारस रेलवे स्टेशन पर काशी विश्वनाथ
में बिठाकर विदा किया था । राज्य सम्मेलन में गाजीपुर के कार्यकर्ताओं की टोली के
साथ जाना था । तब पैसे कहां होते थे! बनारस बरेली पैसेन्जर में बिना टिकट मैं,
रामविलास, हरिबंशी मास्टर साहब और एकाध अन्य लोग चले । संख्या पांच की थी क्योंकि
टी टी को पचीस रुपए घूस दिया गया था । बहरहाल बरेली रात को ट्रेन से उतरकर बाहर
लगे बैनर तले सभी लेट गए । अन्य जगहों से आए प्रतिभागी भी वहीं थे । सुबह सबको
जुलूस बनाकर सम्मेलन स्थल पहुंचना था । रात में तीसेक साल का एक नौजवान कुछ और
वालंटियरों के साथ मिलने आया । हमने समझा शायद यह देखने के लिए कि कहां कहां से
लोग आ गए हैं संगठन के साथियों ने भेजा होगा । वे लोग उत्सुकता के साथ काम-धाम के
बारे में जानकारी ले रहे थे । कभी जिक्र करके साफ नहीं किया लेकिन संदेह होता है
कि वह नौजवान वीरेन थे ।
जबकी याद है वहां से शुरू
करना सही होगा । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध के लिए ठहरने की सारी
संभावनाओं को खत्म करके शोध जमा करने के बाद छात्रावास खाली करना था । विवाह हो
चुका था इसलिए विवाहितों के छात्रावास में ठाट से रहता था । दिल्ली में रुकने की
संभावना आम तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेजों में अध्यापन के अवसर से पैदा
होती है लेकिन वह रास्ता हम जे एन यू वालों के लिए बंद माना जाता था और अनुभव से
भी इसी की पुष्टि होती थी । हमसे पहले पुरुषोत्तम अग्रवाल और वीरभारत तलवार ने
वहां प्रवेश पाया था लेकिन उनकी प्रतिभा विशेष थी इसलिए वापस जे एन यू आने में सफल
हुए । एक नियुक्ति जे एन यू में भी होनी थी लेकिन उसमें हमारे एक अन्य सहपाठी की
प्रतिभा काम आई । राजस्थान के कालेजों के लिए अजमेर में घातक साक्षात्कार हो चुका
था । इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सिफारिश के मुकाबले अन्य चीजों का जोर रहा । इस
महाकाव्यात्मक संग्राम का निचोड़ यह था कि स्थापित प्रोफ़ेसरान अपनी बिरादरी में
घुसने नहीं देंगे । तो पत्रकारिता में हाथ आजमाते हैं! आनंद दिल्ली आ चुके थे । आज
तक वाले एस पी सिंह से जनमत में मुलाकात हो चुकी थी । आनंद के साथ नौकरी मांगने
गया । उन्होंने पत्रकारिता के लिहाजन कुछ अधिक ही शिक्षित होने की बात कहकर सम्मानजनक
तरीके से वापस किया । लेकिन राजेश रपरिया से बात करके अमर उजाला भेजा । उनके
दिल्ली ब्यूरो के एकाध चक्कर काटने के बाद उन्होंने बरेली भेजा । वीरेन जी से फोन
पर बात की और बस से रात भर सफर करके सुबह बरेली पहुंचा । बस भोर में पहुंच गई थी ।
बस स्टेशन पर ही कपड़े बदले और वीरेन के घर पहुंचा । दिल्ली से चलते वक्त श्याम बिहारी राय से आगामी जीवन में बोरियत का अनुमान करके हिन्दी अनुवाद के लिए रवीद्रनाथ ठाकुर के शिक्षा चिंतन के बारे में एल्महर्स्ट की किताब ‘पायनियर इन एजुकेशन’ ले लिया था । वीरेन से बातें होती रहीं । शाम को अखबार के दफ़्तर उन्हीं के साथ गया । उसी दिन नीचे संपादकीय विभाग में काम शुरू कर दिया । रात हो जाने पर पैदल घर आता । एकाध दिन बाद वीरेन नीचे देखने आए तो अंग्रेजी हिन्दी शब्दकोश लेकर किसी खबर का अनुवाद कर रहा था । घर पहुंचने पर वीरेन जागते हुए मिले । पहुंचते ही हड़काने लगे । बोले इलाहाबाद जाओ । मेरी नियुक्ति कालेज में अध्यापन हेतु हो चुकी थी । दूसरे दिन स्कूटी से रेलवे स्टेशन छोड़ने आए । साथ में एक कुर्ता, एक टी शर्ट, विनोद कुमार शुक्ल का एक कहानी संग्रह ‘महाविद्यालय’ दिया । मजाक में पूछा कि दस दिन का वेतन लोगे । मना कर दिया । दस दिन मजेदार बीते थे । उन्होंने कुछ कविताएं सुनाई थीं । मैंने राय देने का बचपना किया था । उसी समय उन्होंने बताया कि कविताएं वे कहीं भेजते नहीं, दोस्त मित्र ले जाते हैं । मंगलेश वाली कविता जमी भी थी ।
जन संस्कृति मंच और जे एन यू में हिंदी का शोधार्थी होने के बावजूद साहित्य के मुकाबले
राजनीति में अधिक रुचि थी इसलिए शुरू में तालमेल बिठाने में मेरी ओर से दिक्कत आई ।
लेकिन फिर साहित्य के समकालीन वातावरण से परिचिति का आरंभ भी वहीं से हुआ जिसके बिना
दोस्तों के बीच उजबक जैसा बैठा रहना पड़ता था । कविता में गोरख पांडे से आगे बढ़ने को
मन तैयार नहीं होता था । उन्हीं दस दिनों के संग की करामात थी कि कविता सराहने के लिए
पढ़ने की कोशिश करते करते कान कुछ अभ्यस्त हो चले ।
बगल में शाहजहांपुर में नौकरी शुरू की थी । कभी किसी बहाने वे आ जाते, कभी किसी बहाने मैं चला जाता । बहुत नहीं तो भी इस तरह का मिलना जुलना दसेक बार हुआ होगा ।
इन मुलाकातों में साझा परिचितों के बारे में ढेर सारी बातें इसलिए होतीं क्योंकि मुझे
लोगों के बारे में रुख तय करने में हमेशा से समस्या होती रही है । मैं अपनी राय बताता
और उनसे मुहर लगवाता । क्षुद्रता से उन्हें बहुत चिढ़ थी । दिखावा बेहद नापसंद । टुच्चई
को वे सीधे पहचान जाते । उन्हें निकट के लोगों पर भी राय कायम करने में कृपा करते हुए
नहीं पाया । व्यक्तियों के बारे में धारणा जाहिर करने के लिए इतने सटीक शब्दों का इस्तेमाल
और किसी को करते नहीं सुना । उदाहरण देना उचित नहीं जान पड़ता । जैसे सामाजिक किस्म
के वे आदमी थे उसमें एक बड़ी मंडली उनके परिचितों की थी । उनमें से कुछ सीढ़ियां भी चढ़े
। अपने ऐसे परिचितों का छोटी मोटी सुविधाओं के लिए लाभ तो वे ले लेते,
खुद से अधिक दूसरों के काम करवाने के लिए, लेकिन
इन लोगों को लेकर उन्हें कोई मुगालता नहीं रहता । बगल का जिला होने से कुछ लोग साझा
परिचित थे । वे उन्हें पहले से जानते थे मैं हाल में पहुंचा था इसलिए जानकारी जरूरी
थी । भाषा प्रयोग के मामले में सधी अचूकता उनमें थी और आश्चर्यजनक रूप से वाचिक स्तर
पर भी । इसका एक निजी उदाहरण । सिल्चर के साथी कृष्णमोहन झा कवि विनोद कुमार शुक्ल
पर कोई निबंध लिखना चाहते थे । छोटी छोटी चीजों का वैभव उजागर करने की उनकी खूबी व्यक्त
करने के लिए सटीक शब्द नहीं मिल रहा था तब वीरेन के ‘नगण्य’
शब्द ने राह दिखाई । पता नहीं वह निबंध लिखा गया या नहीं ! वीरेन के यहां कथ्य की अभिव्यक्ति के लिए इतनी बहुस्तरीय भाषा का बरताव हुआ
है कि इसे सृजनात्मक भाषिक साधना ही कहा जा सकता है ।
कभी उन्होंने कहा नहीं लेकिन हिंदी कविता की
हजार साल की समूची परंपरा के साथ उनका बेहद जीवंत संवाद था । एक बार उनके साथ
कालेज जाना हुआ था । मुझे विभाग के कार्यालय में बिठाकर वे क्लास लेने चले गए ।
हिंदी के विभाग आम तौर पर ऊब भरे होते हैं, सो मैं बाहर निकल आया । क्लास में
बीसलदेव रासो पढ़ा रहे थे । आवाज बाहर तक आ रही थी । इस आवाज पर उन्हें अभिमान था ।
नजरुल के विद्रोही की आवृत्ति से मैं बहुत प्रभावित था । प्रस्तावित किया कि हिंदी
कविताओं के वैसे पाठ के कैसेट बाजार में होने चाहिए । केदार नाथ सिंह की कविता के
अपने एक पाठ का उनसे जिक्र किया और थोड़ा इतराकर कहा कि उन्होंने मेरे पाठ की तारीफ़
की थी । वीरेन ने खुद के पाठ के लिए कहा कि मैं भी अच्छा पाठ करता हूं । प्रमाण
बहुत बाद में दिल्ली में शमशेर पर हुई एक गोष्ठी में उनके पाठ को सुनकर मिला ।
बीसलदेव रासो से लेकर शमशेर तक की कविता से उनके
संवाद के साथ ही उत्तराखंड की बोलियों और संस्कृति के साथ उनके रिश्ते को समझे बिना
भाषा के साथ तोड़ फोड़ की उनकी क्षमता को भी समझना मुश्किल है । उनका साहित्यिक संवाद
नाजिम हिकमत और पाब्लो नेरुदा जैसे विश्व कवियों से भी था । मैं एक समय नेरुदा की आत्मकथा
के नशे में था और मूल रूप से जिसे जादुई यथार्थवाद कहा जाता है वह किस तरह लैटिन अमेरिका
का यथार्थ है इसे समझने के लिए उसका संदर्भ दे रहा था । वीरेन ने कहा कि उसमें ऐंद्रिकता
बहुत है । तब मैंने इस बात की ओर ध्यान दिया कि खुद वीरेन की कविता की भी यह बड़ी विशेषता
है । मनुष्य की खुशी को व्यक्त करने के उनकी सारी आकांक्षाएं अत्यंत ऐंद्रिक हैं ।
यह चीज भी उन्होंने चार चनों को अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष मानने वाले और तृप्ति को छप्पन भोग से तुलनीय
समझने की काव्य परंपरा से ली है । ‘घुटनों-घुटनों भात हो मालिक/ और कमर कमर तक दाल’- सुख की ऐसी कल्पना का स्रोत लोक के साथ परंपरा भी है । वाम धारा की कविता के
अतिरिक्त वे कलावाद के कारीगरों से भी टक्कर लेते थे । इस व्यापक स्रोत से उन्होंने
इस तरह शक्ति खींची कि व्यर्थ से भी अर्थ पैदा कर लेते थे । कभी-कभी तो ध्वनि मात्र को भी वे सार्थक अभिव्यक्ति में ढाल लेते थे । लिखा उन्होंने
कम लेकिन जो भी लिखा उसे अन्य कोई शायद ही लिख सकता था ।
उदारीकरण के बाद की दुनिया में पोंगापंथ और अत्याधुनिकता
के घातक मेल को उनकी भाषा ही बता सकी है और इस मामले में वे हिन्दी कविता में अनुपम
हैं । विचार की काव्यात्मक अभिव्यक्ति उनकी अनूठी विशेषता है । इस मामले में उन्होंने
ऐसे कवियों से टक्कर ली है जो मार्क्सवाद को पचा गए हैं । विचार तेल की तरह सतह पर
तैरता हुआ नहीं पोर पोर समाया हुआ । भूमंडलीकरण के विरोध के नाम पर वे स्वदेशी के अंध
समर्थन में नहीं उतरते । उनकी तीखी आलोचनात्मक निगाह की ज़द से कोई नहीं छूटता । लांछन,
अपमान और वंचना के जीवन प्रसंग लाकर वे कविता की दुनिया को समृद्ध तो
करते ही हैं, लांछित समुदाय के भीतर खुद को शामिल भी कर लेते
हैं । जिनसे वे प्रेम करते हैं, भरपूर करते हैं, बल्कि अलग रहकर प्रेम करने की बजाए उनमें से ही एक हो जाते हैं । मसलन वे ऐसे
बच्चे हैं जिसे नेकर में टट्टी हो गई थी । वे उस बच्चे के दादा हैं जो अपने नन्हे अंगों
को खींचता रहता है । मामूली प्रसंगों से दार्शनिक ऊंचाई तक कविता को एक ही पंक्ति में
सहजता के साथ उठा लेते हैं । इसके लिए शब्दों को वे उनकी पूरी अनगढ़ता के साथ ले आते
हैं और वाक्य की लय में इस तरह से बिठाते हैं कि लय टूटती भी नहीं लेकिन अर्थ को आंकने
के लिए ठहरना लाजिमी हो जाता है ।
अगर नागार्जुन का स्थायी भाव प्रतिहिंसा है तो
वीरेन डंगवाल का स्थायी भाव नफरत है । वे चूंकि मनुष्य से टूटकर प्यार करते हैं इसलिए
मानव विरोधी ताकतों से नफरत उनके भीतर भरी हुई है । मनुष्य के प्रति उनका प्रेम उसके
हंसी-खुशी भरे जीवन की आकांक्षा को स्वर देने में व्यक्त
हुआ है तो मानव विरोधी ताकतों के प्रति उनकी नफरत प्रकृति वर्णन पर भी हावी हो जाती
है । हवा और नदी की पारंपरिक छवियों के मोह को तोड़कर उनके विपरीत छवियों के निर्माण
की ताकत उन्हें अपनी इसी चिंता की गहराई से मिलती है ।
शाहजहांपुर के बाद वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय
हिंदी विश्वविद्यालय गया जो उनकी एक कविता की नई कसमों में आता है । असल में वह प्रेमी
की झूठी कसमों में से एक कसम है । जाने और एक साल बाद निकाले जाने पर उसकी कव्यात्मक
सत्ता का पता चला । उस एक साल पर आधारित संस्मरण उन्होंने पढ़ा था । फिर काफी घूम-घामकर दिल्ली आया । वीरेन भी सेवानिवृत्त होकर दिल्ली रह रहे थे लेकिन खबरें
चिकित्सा की अधिक सुनाई पड़तीं । जाकर मिलने की हिम्मत नहीं होती थी । कविताएं
पढ़ता रहता था । मेट्रो पर लिखी कविताओं में भी उनकी सौंदर्य पिपासा प्रत्यक्ष है ।
मौत को मुंह बिराते हुए जीवन का अकुंठ उत्सव ! अस्पताल की खिड़की से मेट्रो तीर की तरह
गुजरती दिखाई देती । कुल एक बार प्रेमशंकर के साथ नोएडा गया । चेहरे
की ओर देखने से बच रहा था । वीरेन ने पूछा- यह दृश्य तो तुम्हारे
लिए नया होगा ? क्या बोलता ! बात बदल दी
।
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