Thursday, December 31, 2015

निष्पक्षता के विरुद्ध


हावर्ड ज़िन की किताबयू कांट बी न्यूट्रल इन ए मूविंग ट्रेन: ए पर्सनल हिस्ट्री आफ़ आवर टाइम्सका प्रकाशन बीकन प्रेस से 1994 के बाद 2002 में फिर से हुआ है । असल में यह किताब ज़िन की आत्मकथा है । इस दूसरे संस्करण की भूमिका लिखते हुए ज़िन ने विश्व व्यापार केंद्र पर हमले को याद किया है । इस हमले से पूरे देश की तरह ज़िन सकते में थे लेकिन जब बुश ने इसके बहाने युद्ध की घोषणा की तो उन्हें लगा कि बम से किसी मसले को हल नहीं किया जा सकता । अफ़गानिस्तान में अमेरिका जो कर रहा है उसे भी आतंकवाद ही कहना होगा । दूसरे विश्व युद्ध में ज़िन ने भी फ़ासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में यूरोपीय शहरों पर बम गिराए थे लेकिन बाद में उन्हें लगा कि कोई भी युद्ध बुनियादी समस्याओं को नहीं हल कर सकता । द्वितीय विश्व युद्ध के तर्क को ही अमेरिकी सरकार पिछले पचास सालों से प्रत्येक युद्ध को जायज ठहराने के लिए इस्तेमाल कर रही है । दूसरे विश्व युद्ध के केवल पांच साल बाद कोरिया में गांवों पर नापाम बम बरसाए गए । उसके तत्काल बाद वियतनाम में इतने बम गिराए गए जितने पहले कभी नहीं गिराए गए थे । इसके विरोध में चले आंदोलन में ज़िन शरीक हुए । सरकार ने पनामा, इराक और यूगोस्लाविया पर बम बरसाने के बहाने ढूंढ़े । अमेरिका को युद्ध की लत लग गई है । अब तो फ़िल्मों के जरिए लड़ाकू दर्शन को प्रतिष्ठा प्रदान की जा रही है । गर्व की भावना भरने के लिए विश्व युद्ध को ताजा किया जा रहा है । युद्ध के साधन और उद्देश्य दोनों ही दोषपूर्ण होते हैं । साधन निर्दोष नगरिकों का कत्लेआम है तो मकसद महात्वाकांक्षा की तुष्टि या मुनाफ़ा बढ़ाना होता है । अफ़गानिस्तान में जो बच्चे मारे जा रहे हैं उनका विश्व व्यापार केंद्र पर हुए हमले से क्या लेना देना है ! हिंसा को जायज ठहराने के लिए लोकतंत्र, स्वतंत्रता, आत्म रक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे शब्दों का खेल चल रहा है और इसके पीछे मुट्ठी भर लोगों के हाथ में अकूत संपत्ति ले जाने की योजना काम कर रही है । कभी आइजनहावर ने खुद युद्ध की तैयारी में लगे अरबों डालरों को जनता के भोजन और मकान की चोरी कहा था । ऐसा महसूस हो रहा है मानो देश पर किसी विदेशी ताकत ने कब्जा कर लिया है- विदेशी इस अर्थ में कि हमारे देश के लिए कल्याणकारी मूल्यों और सिद्धांतों से पूरी तरह भिन्न । युद्धोन्माद का माहौल बनाया जा रहा है जिसकी आड़ में राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर नागरिकों के अधिकार रद्दी की टोकरी में फेंक दिए गए हैं । इस युद्ध से दुनिया भर में अमेरिकी नागरिकों की सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है । यह किताब कानून और न्याय की बात भी करती है तथा जेल और कचहरी की भी । हमने इतनी जेलें बना ली हैं जितनी पहले कभी नहीं थीं । इन जेलों में गरीब, अश्वेत और विद्रोही बंद रखे जाते हैं जबकि कारपोरेट लुटेरे और युद्ध के हत्यारे मस्ती में मौज मनाते हैं । ज़िन भी अवसादग्रस्त हो गए होते अगर उनके जीवन में वे स्मरणीय क्षण न रहे होते जिनका जिक्र भी इस किताब में हुआ है । बचपन के सात बरस उन्होंने पत्नी और बच्चों के साथ दक्षिणी भाग में बिताए, अश्वेत समुदाय के साथ रहे और नस्ली भेदभाव के विरुद्ध लड़ाई में भाग लिया । उन्हें सीख मिली कि सत्ता के विरोध में प्रतिरोध की छोटी घटनाएं भी बड़े सामाजिक आंदोलनों को जन्म दे सकती हैं । सामान्य लोग प्रचंड साहस के धनी होते हैं । जो शासक बदलाव को असंभव कहते हैं उन्हें मुंह की खानी पड़ती है । सामाजिक संघर्षों की दुनिया में अचम्भे होते हैं, जनता का नैतिक बोध अनजाने जागता है और इतिहास में छोटी जीतों में भी बड़े संदेश निहित होते हैं । उन्होंने यह भी सीखा कि लोकतंत्र का मतलब सरकार, संविधान और कानूनी ढांचा ही नहीं होता; अधिकतर तो ये लोकतंत्र के दुश्मन ही साबित होते हैं । इस देश में दो सौ सालों का अश्वेत लोगों का अनुभव यही है । ज़िन को लगता है कि पूरे देश की जनता न्यायपूर्ण और शांत दुनिया में जिंदगी बिताना चाहती है, वह युद्ध और नफ़रत का प्रतिरोध करेगी और लोकतंत्र को जिंदा करेगी । उनकी सबसे कीमती सीख यह थी कि शासक नहीं, बल्कि आम जनता ही लोकतंत्र को सार्थक बनाती है ।
पहला संस्करण भी एक भूमिका से शुरू होता है । यह शुरुआत एक घटना के वर्णन से होती है । आत्मकथा लिखने के दस साल पहले उन्होंने अपनी सबसे मशहूर किताबए पीपुलस हिस्ट्री आफ़ द यूनाइटेड स्टेट्सलिखी थी । उसके शुरू में ही कोलम्बस का जो चित्रण था वह चौंकाने वाला था । कोलम्बस को उन्होंने पूरी तरह से धार्मिक और साथ ही स्थानीय निवासियों को गुलाम बनाने वाला, सताने वाला और हत्यारा बताया था । उसे लोभ, हिंसा, शोषण, नस्लवाद की मूर्ति तथा हमलावर और घमंडी साबित किया गया था । किताब बेहद मशहूर हुई । छपने के दस साल के भीतर उसे चौबीस बार छापना पड़ा, तीन लाख प्रतियों की बिक्री हुई थी । सबसे अधिक सवाल उनसे कोलम्बस के बारे में पूछे जाते थे । किसी ने तो स्कूल से उस अध्यापिका की छानबीन कराने को कहा जिसने उनकी किताब पढ़ने के लिए बच्चों से कहा था । समस्या केवल कोलम्बस की नहीं थी । असुविधा अमेरिका के इतिहास के बारे में उनके नजरिए से हो रही थी । इस किताब में नायकों और खलनायकों की पूरी सूची ही उलट दी गई थी । उनके मुताबिक अमेरिका के संस्थापक मुझे धनी और गोरे गुलाम मालिक लगते थे जो निचले तबकों के विद्रोह से डरते थे, हमारे योद्धा मुझे नस्लवादी, मुलवासियों के हत्यारे, युद्ध पिपासु और साम्राज्यवादी महसूस होते थे, जो लोग उदारवादी थे भी वे अश्वेतों के अधिकारों की बजाए अपनी राजनीतिक सत्ता के बारे में चिंतित रहते थे । इनके मुकाबले ज़िन के नायक किसान और अश्वेत थे जो कानून से लड़कर भी आजादी हासिल करना चाहते थे । उनके नायक पहले विश्व युद्ध के विरोध में जेल जाने वाले लोग थे, शक्तिशाली कारपोरेशनों के विरुद्ध पुलिस से डरे बिना हड़ताल करने वाले मजदूर थे, वियतनाम युद्ध के विरोधी थे और जीवन के सभी क्षेत्रों में बराबरी की मांग करने वाली औरतें थीं । इसी वजह से उनसे ढेर सारे सवाल पूछे जाते थे । इसी वजह से उनकी देशभक्ति को लेकर भी सवाल उठाए जाते थे । जवाब में वे सरकार और देश में अंतर करने पर जोर देते थे । सरकार को देश के लोग बनाते हैं । जब भी कोई सरकार देश के लोगों के अधिकारों पर हमला करती है तो वह देशद्रोह करती है, न कि उस पर सवाल उठाने वाले । लोकतंत्र से अगर आप प्रेम करते हैं तो सरकार के विरोध में खड़ा होना ही पड़ेगा । इसी किताब के बारे में जब वे एक जगह बोल रहे थे तो किसी ने उनसे उनके आशावाद का स्रोत जानना चाहा । सवाल करने वाले को उन्होंने जो भी जवाब दिया हो लेकिन सवाल दिमाग में अटका रहा । यह आत्मकथा इसी सवाल का जवाब है कि खराब हालात के बावजूद बदलाव की उम्मीद क्यों बनाए रखनी चाहिए । इसके लिए बदलाव का निश्चित होना जरुरी नहीं, बल्कि इतिहास के अध्ययन से झलकने वाली बदलाव की संभावना ही काफी है । इतिहास में युद्ध हैं तो युद्ध का प्रतिरोध भी है, अन्याय है तो अन्याय से विद्रोह भी है, स्वार्थ है तो त्याग भी है, दमन पर खामोशी के अतिरिक्त उसका प्रतिकार भी है, निर्दयता के साथ करुणा भी है । मनुष्यों में तमाम किस्म के गुण-अवगुण होते हैं लेकिन आम तौर पर महज अवगुण की बात की जाती है । फलस्वरूप हमारी उम्मीदें कमजोर पड़ने लगती हैं लेकिन कुल के बावजूद वह मरती नहीं, कायम रहती है । इतिहास गवाह है कि तमाम मुश्किलों के बावजूद लोग स्वतंत्रता और न्याय के लिए लड़ाई करने को एकजुट हुए हैं और उन्हें जीत भी मिली है; अक्सर तो नहीं लेकिन इतनी बार जरूर कि भविष्य में भी उनके विजयी होने की संभावना पैदा हो सके । न्याय के लिए इस संघर्ष के योद्धा मनुष्य होते हैं । यही मनुष्य एक क्षण के लिए ही सही डरते डरते भी कुछ ऐसा कर जाता है जो महत्वहीन होते हुए भी युगांतरकारी बदलावों का कारण बन जाता है । ज़िन का जीवन ऐसे साधारण लोगों से घिरा रहा है और उन्हीं से उन्हें उम्मीद भी मिलती रही है ।
एक दिन पहले सार्वजनिक भोज में उनकी मुलाकत एक पादरी से हुई जो युद्ध का विरोधी था । उसने अपने ऐसा होने का कारण वियतनाम को बताया । ज़िन के अनुसार लोगों के जीवन इसी तरह की घटनाओं से बदलते हैं । इसी तरह एक समाजशास्त्र के अध्यापक मिले जो अपराधशास्त्र पर शोध करते हैं । चोरों-डकैतों पर नहीं, बल्कि सरकारी अधिकारियों और कारपोरेट घरानों पर जिनके अपराध का शिकार कोई व्यक्ति नहीं समूचा समाज होता है । ऐसे ही लोगों के जीवन में इतिहास छिपा हुआ है । अगर कठिन दिनों में आशा बनाए रखना है तो ऐसे लोगों के अतीत से उसके स्रोत मिलेंगे ।    
ज़िन ने जब अध्यापन शुरू किया तो अपनी मान्यताओं और अनुभवों से अपने शिक्षण को उन्होंने धार दी अपने बारे में विद्यार्थियों से कोई बात करना उन्हें इस समझ का विस्तार महसूस हुआ कि साहित्य, इतिहास, दर्शन, राजनीति और कला के अध्ययन को एक दूसरे से अलग रखा जाना चाहिए, साथ ही इन्हें सही गलत के बारे में अपनी मान्यताओं से भी दूर रखा जाना चाहिए ज़िन ने युद्ध और सैन्यवाद का विरोध, नस्ली असमानता के प्रति क्रोध, लोकतांत्रिक समाजवाद में विश्वास और संपदा के न्यायपूर्ण बंटवारे के प्रति अपने आग्रह को कभी छिपाया नहीं धौंस-धमकी उन्हें कभी नहीं भायी- चाहे शक्तिशाली देश कमजोर मुल्कों के साथ करें या सरकार नागरिकों के साथ या फिर नियोक्ता अपने कर्मचारियों के साथ कार्यकर्ता और अध्यापक का यह मिश्रण उनकी इस समझ का नतीजा था कि हमारे समय के सवालों से शिक्षा निरपेक्ष नहीं रह सकती है कक्षा के भीतर और बाहर संघर्षों की यह आवाजाही इस उम्मीद से जारी रही कि विद्यार्थी भी आगे चलकर यही रास्ता अपनाएंगे इससे पारंपरिक शिक्षा के पक्षधरों को डर लगता है वे चाहते हैं कि शिक्षा से नई पीढ़ी पुरानी व्यवस्था में सिर्फ उचित जगह लेने लायक हो जाए, व्यवस्था पर सवाल उठाए उन्हें कभी नहीं लगा कि कक्षा में बैठा विद्यार्थी कोरी स्लेट है परिवार और जन संचार माध्यमों के जरिए विद्यार्थियों का राजनीतिक प्रशिक्षण बहुत हद तक हो चुका होता है इन विद्यार्थियों से भी उन्हें उम्मीद को जिंदा रखने में मदद मिली अस्सी के दशक में जब छात्रों की सक्रियता उतार पर थी, अच्छा बनने का चौतरफा आर्थिक दबाव था, सफल होने की होड़ मची हुई थी तो भी ज़िन ने उम्मीद नहीं खोई उनके सामने पचास के दशक का उदाहरण था जब युवा समुदाय को खामोश पीढ़ी कहा जाता था लेकिन उसके तुरंत बाद साठ का उथल पुथल से भरा दशक आया

आज अगर निराशा महसूस हो रही है तो उसका कारण यह भी है कि हम सतह के नीचे मौजूद बदलाव की ताकतों को देख नहीं पा रहे दमित अपमान, सहज बोध, सामुदायिकता की जरूरत, बच्चों से प्यार, सही समय के लिए इंतजार का धीरज- ये ही चीजें इतिहास में आंदोलनों को बल प्रदान करती रही हैं लोग व्यावहारिक होते हैं, बदलाव तो चाहते हैं लेकिन खुद को अकेला और कमजोर पाते हैं, चाहते हैं कोई दूसरा पहला कदम उठाए अगर हम इस बात को समझ लें तो पहला कदम उठा सकते हैं यह कोई दिवास्वप्न नहीं है, इतिहास में बदलाव इसी तरह होते हैं और हुए हैं वर्तमान हमें इतना अधिक घेरे रहता है कि यह इतिहास हमारी चेतना से ओझल हो जाता है         

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