2011 में मैकमिलन से राबर्ट सर्विस की किताब ‘स्पाइज ऐंड कमिसार्स: बोल्शेविक रशिया ऐंड द वेस्ट’
का प्रकाशन हुआ । किताब में रूस की नवंबर क्रांति के साथ पश्चिमी दुनिया
के बरताव का विश्लेषण किया गया है । साथ ही रूसी क्रांतिकारियों की पश्चिमी दुनिया
के साथ अंत:क्रिया का भी विवेचन किया गया है । ज्ञातव्य है कि
राबर्ट सर्विस इतिहासकार हैं और रूसी नेताओं- लेनिन, स्तालिन और त्रात्सकी- की जीवनियों के लेखक हैं । लेनिन
की जीवनी में ही उन्होंने इस बात की ओर ध्यान दिया था कि लेनिन पश्चिम की ओर
आकर्षित थे । उनका कहना है कि रूसी क्रांति के बाद के कुछ सालों में पश्चिम के साथ
नए रूस की उल्लेखनीय गतिशील अंत:क्रिया चली । ये साल रूस में गृहयुद्ध के साल थे ।
पश्चिम की कोशिश रूस को समझने और काबू में रखने की थी । बोल्शेविक सत्ता की कोशिश
अर्थतंत्र को चलायमान रखने के लिए व्यापार समझौतों को बरकरार रखते हुए क्रांति का
पश्चिम में प्रसार करने की थी । इस स्थिति में रूस के साथ बाहरी दुनिया के रिश्ते
केवल लेनिन या त्रात्सकी नहीं तय कर रहे थे, बल्कि ढेर सारे कूटनीतिज्ञों,
खबरनवीसों, बुद्धिजीवियों, व्यापारियों और यात्रियों की भूमिका भी इस मामले में कम
महत्वपूर्ण नहीं थी ।
क्रांति के नेताओं को लगता था कि अगर क्रांति एक ही देश तक
महदूद रही तो उसे बचाना मुश्किल होगा । उन्हें उम्मीद थी कि रूस की ही राह पर अन्य
यूरोपीय देश भी चलेंगे । जब क्रांति हुई तो विश्वयुद्ध चल ही रहा था इसलिए 1918 से
पहले दुनिया के ताकतवर देशों को रूस पर ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं थी । युद्ध
खत्म होने के बाद उनकी चिंता यह थी कि कम्यूनिज्म के संक्रमण को कैसे रूस के बाहर
फैलने से रोका जाए । जर्मनी, हंगरी और इटली में छिटपुट क्रांतिकारी घटनाएं घटीं
लेकिन खास कुछ हुआ नहीं । पश्चिमी ताकतों ने रूस की कम्यूनिस्ट विरोधी फौजों को
सहायता देना शुरू किया लेकिन 1919 के अंत तक हालात काबू में आ गए तो उन्हें भी हाथ
पीछे खींचना पड़ा । पहली अंतर्राष्ट्रीय जोर आजमाइश में रूस सफल रहा था ।
रूस ने क्रांति के प्रसार के लिए इंटरनेशनल का गठन किया
ताकि विश्व पूंजीवाद के खात्मे के लिए अन्य देशों में कम्यूनिस्ट पार्टियों की
स्थापना हो । 1920 में पोलैंड में लाल सेना भेजी गई । लेखक को इस किताब की प्ररणा
तब मिली जब ब्रिटेन के जासूस पाल ड्यूक्स के निजी कागजात उन्हें देखने का अवसर
मिला । उसके संस्मरण आरम्भिक सोवियत शासन के हालात का अद्भुत आंखों देखा विवरण थे
। ड्यूक्स ने लाल सेना की जासूसी करते हुए बाहरी आदमी की निगाह से जो कुछ देखा उसे
दर्ज किया था । इसके बाद उन्होंने रूसी क्रांति की रिपोर्ट लिखने वाले जान रीड से
लेकर एक हद तक आलोचक रहे बर्ट्रांड रसेल तक शेष लोगों के संस्मरण देखे । फिर उनकी
निगाह कूटनीतिज्ञों की खबरों और आत्मकथाओं पर पड़ी । पहले उन्हें लगा था कि ये लोग
अक्षम और मंद बुद्धि होते हैं लेकिन इन संवादों की गुणवत्ता से वे भौंचक्का रह गए
। इसके बाद उन्होंने व्यवसायियों की छानबीन की जो 1920-21 में रूस के साथ व्यापार
शुरू करने के इच्छुक थे । रूस के इतिहास लेखन के लिए रूसी संग्रहालय से प्राप्त
सामग्री के आधार पर बनी धारणा की पुष्टि के लिए ये स्रोत उन्हें जरूरी लगते हैं ।
पहले लेखक को लगता था कि क्रांतिकारी और उनके विरोधी एक दूसरे
के बारे में कुछ खास नहीं जानते थे लेकिन इन स्रोतों को खंगालने पर उनकी यह धारणा खंडित
हो गई । नई सरकार के सत्ता में आने के बाद कूटनीति के पांरम्परिक रास्ते तो बंद हो
गए लेकिन दोनों खेमों के जासूसों ने अपना काम बखूबी किया था । उनके द्वारा सही समय
पर मुहैया सटीक जानकारी की बदौलत दोनों को योजनाएं और रणनीतियां बनाने में आसानी हुई
। क्रांति के तुरंत बाद रूसी सेना की हालत बहुत अच्छी नहीं थी । अगर 1918 में
जर्मनी ने हमला कर दिया होता तो रूस की हार तय थी । ब्रेस्त-लितोव्स्क
की संधि को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना ठीक होगा जिसके चलते इस हमले को टाला जा सका
।
जब बोल्शेविकों ने सत्ता पर कब्जा किया तो उन्हें शासन के जारी
रहने का यकीन नहीं था लेकिन इससे उनकी उम्मीद कायम रखने की क्षमता कम नहीं हुई । अगर
रूसी लोग क्रांति कर सकते हैं तो अन्य देशों के लिए यह और आसान होगा ! इसीलिए
बोल्शेविकों ने अपनी नीतियों को बनाने में वैश्विक संदर्भ को ओझल नहीं होने दिया ।
बह्रहाल विश्व क्रांति का इरादा होने के बावजूद बोल्शेविक नेता सचाई से नावाकिफ़
नहीं थे । उन्हें पता था कि पश्चिमी ताकतें अगर मिलकर हमला कर दें तो रूस को हराने
में उन्हें मुश्किल नहीं होगी इसलिए वे इन ताकतों से बातचीत भी करते रहे । अक्टूबर
क्रांति के साल भर के भीतर पश्चिमी देशों के राजदूतों ने देश छोड़ दिया जब ब्रिटेन,
फ़्रांस और अमेरिका के अधिकारियों पर कम्यूनिस्ट सत्ता ने मुकदमे चलाए । अर्थतंत्र
युद्ध और क्रांति के चलते तबाह हो चुका था इसलिए सरकार के चलते रहने के लिए विदेश
व्यापार जारी रहना जरूरी था । रूस के राजदूतों ने विकसित औद्योगिक देशों के साथ
व्यापारिक और कूटनीतिक संपर्क जारी रखने की भरपूर कोशिश की । नतीजतन मार्च 1921
में इंग्लैंड के साथ सोवियत संघ का व्यापार समझौता हुआ ।
अक्टूबर क्रांति के बाद पश्चिमी दूतावासों ने लेनिन की
सरकार को मान्यता न देते हुए अनधिकृत मध्यस्थों के सहारे संपर्क जारी रखा । दूसरी
ओर लंदन और वाशिंगटन की सरकारों ने भी रूसी सरकार के साथ संवाद के लिए इसी तरह के
गोपनीय संपर्क सूत्र खोज लिए थे । लेकिन जब उन्होंने देखा कि सोवियत रूस कूटनीति
और क्रांति का दोहरा खेल खेल रहा है तो उन्होंने लेनिन और त्रात्सकी की सरकार को
उलट देने की योजना पर काम करना शुरू किया । लगभग सौ सालों से इन कोशिशों पर परदा
पड़ा रहा था । पश्चिमी राजदूत विध्वंसक गतिविधियों में गहराई से शरीक थे लेकिन इनका
पर्दाफ़ाश होने से सोवियत संघ के साथ उन देशों की परवर्ती राजनीतिक और सैनिक होड़ के
तरीकों के सिलसिले में उनकी बदनामी होती । वे यह आरोप लगाते रहने की सुविधा चाहते
थे कि सारी गलतियों का दोषी सोवियत संघ था । पश्चिमी राजदूतों के रूस छोड़ने के बाद
भी क्रांति विरोधी ताकतों को धन दिया जाता रहा और संवेदनशील सूचनाएं जुटाई जाती
रहीं । सोवियत सत्ता को पलटा तो नहीं जा सका लेकिन पश्चिमी सरकारों के लिए उपयोगी
तथ्य उन्हें मिलते रहे ।
ब्रेस्त-लितोव्सक की संधि के बाद ब्रिटेन, फ़्रांस, जापान और
अमेरिका ने सेनाएं भेजीं लेकिन वे पुराने साम्राज्य की सीमाओं के बाहर ही रहीं ।
जर्मनी के साथ लड़ाई में फंसे होने के चलते वे कुछ खास कर नहीं पा रहे थे । युद्ध
खत्म होने के बाद आर्थिक और राजनीतिक कारणों से उन्होंने दुबारा ऐसी कोशिश नहीं की
। विंस्टन चर्चिल को भी घुसपैठ का कोई तरीका नहीं सूझ रहा था । इसके बाद भी
कोशिशें बंद नहीं हुईं । फ़्रांसिसी लोग दक्षिणी यूक्रेन में रुचि लेते रहे ।
अमेरिकी उद्यमी साइबेरिया में धंधा करना चाहते थे । ब्रिटेन के खुफ़िया अफ़सरों ने
कम्यूनिस्ट सत्ता के पतन के बाद रूस के लिए व्यावसायिक योजनाएं बना रखी थीं ।
अमेरिकी सरकार ने खाद्य आपूर्ति का इस्तेमाल कम्यूनिस्टो के विरुद्ध करना चाहा था
। 1919 में योजना बनाई गई कि लेनिन को राजनीतिक शर्तों पर अन्न दिया जाए और
कम्यूनिस्ट विरोधियों के कब्जे वाले क्षेत्रों में मुफ़्त आपूर्ति की जाए ।
गृह युद्ध की समाप्ति के बाद लेनिन और त्रात्सकी ने रूस के
सात व्यापार का लोभ अनेक देशों को दिया लेकिन इसके लिए वैचारिक प्रभाव के विस्तार
की योजनाओं पर विराम नहीं लगाया । 1921 में जर्मनी में सत्ता पलटने की कोशिश
कोमिंटर्न के निर्देश पर हुई इसके बावजूद कि फ़्रांसिसी और ब्रिटिश सेनाओं द्वारा
जर्मनी में पश्चिमी प्रभाव कायम रखने के लिए हस्तक्षेप का खतरा था । कोमिंटर्न की कोशिशों
के बावजूद जर्मनी में क्रांति नहीं हुई । रूसी नेताओं ने जर्मनी में कम्यूनिस्ट
विरोधी समूहों की ताकत को कम करके आंका था । इसी तरह 1920 में उन्हें पोलैंड में
राष्ट्रवादी भावनाओं को समझने में भूल हुई थी । राजनेताओं को जितनी भी बेहतर सूचना
हासिल हो वे उसका अपनी योजना के अनुसार ही इस्तेमाल कर सकते हैं । लेनिन और
त्रात्सकी को लगता था कि यूरोप कम्यूनिस्ट क्रांति के मुहाने पर खड़ा है । जो लोग
इन्हें सूचनाएं देते थे वे भी इन्हीं मान्यताओं से संचालित थे । दूसरी ओर पश्चिमी
नेताओं का भी यही हाल था । अंतर बस यह था कि वे रूस के लिए जितने जासूस लगा सकते
थे उतने जासूस रूस कभी पश्चिमी देशों में नहीं लगा सकता था । सूचनाओं की मात्रा
अधिक होने से ही कर्तव्य तय नहीं हो जाता । पश्चिमी नेताओं के सामने घरेलू बवालों के
अलावा मध्य यूरोप की उलझनें भी थीं । लायड जार्ज ने ब्रिटेन के युद्धोत्तर आर्थिक भलाई
के लिए फ़्रांस और अमेरिका को किनारे करते हुए सोवियत संघ से 1921 में
व्यापार समझौता कर लिया । इससे सोवियत संघ को सांस लेने का मौका मिल गया और लेनिन की
नई आर्थिक नीति ने अर्थतंत्र को स्थिरता दी ।
लेखक के मुताबिक इस किताब में सोवियत संघ और पश्चिम के रिश्तों
को अंतर्राष्ट्रीय नजरिए से देखा गया है । दोनों पक्षों के नायक अपनी अपनी कब्रों में
चले गए हैं । लेनिन का शव हटाने के लिए रूस की जनता तैयार नहीं है । उनके नेतृत्व में
हुई क्रांति ने सोवियत संघ को जन्म दिया था जिसने द्वितीय विश्व युद्ध में नाज़ी जर्मनी
को तो हराया ही, चालीस साला शीत युद्ध भी झेला । अक्टूबर क्रांति ने जिन सवालों
को जन्म दिया था वे आज भी प्रासंगिक हैं । रूस और पश्चिम का विरोध भी समाप्त नहीं हुआ
है इसलिए इन दोनों का आपस में उलझा हुआ इतिहास आज भी जानना उपयोगी होगा ।
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