2013 में स्टेट यूनिवर्सिटी आफ़ न्यूयार्क प्रेस से नैन्सी एस लव
और मार्क मैटर्न के संपादन में ‘डूइंग डेमोक्रेसी: ऐक्टिविस्ट आर्ट ऐंड कल्चरल पालिटिक्स’ का प्रकाशन हुआ
। किताब आठ भागों में बंटी है जिसमें पहला भाग प्रस्तावना का है और संपादकों का लिखा
हुआ है । दुसरा भाग फोटोग्राफी और कार्टून पर केंद्रित दो लेखों का है । तीसरा भाग
स्मारकों और संग्रहालयों पर लिखे दो लेखों का है । चौथा भाग साहित्य और कविता पर केंद्रित
है और इसमें भी दो ही लेख हैं । पांचवें भाग में संगीत का विवेचन करने वाले दो लेख
संकलित हैं । छठवां भाग नाटक पर केंद्रित दो ही लेखों का है । सातवां भाग उत्सवों और
प्रदर्शनों का विश्लेषण करने वाले दो लेखों का संग्रह है । आखिरी आठवां भाग भी संपादकों
का लिखा उपसंहार है । इस तरह यह किताब राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों के कुछ सृजनात्मक
आयामों का पूरा वर्णन और विवेचन करती है । इसमें संकलित चौदह लेखों में से आधे लेख
ऐसे हैं जो 2010 में प्रकाशित न्यू पोलिटिकल साइंस: ए जर्नल आफ़ पालिटिक्स ऐंड
कल्चर में प्रकाशित होने के बाद संशोधित होकर इस पुस्तक में शामिल किए गए हैं ।
प्रस्तावना में संपादकों का कहना है कि लेखकों ने अपने लेखों में सवाल उठाया है कि
क्या कला और संस्कृति के विभिन्न रूप वर्तमान समाज को अधिक लोकतांत्रिक बनाने की
आशा का कोई आधार मुहैया कराते हैं ? कला और लोकप्रिय संस्कृति से जुड़ी हुई
राजनीतिक सक्रियता नए राजनीतिक अर्थतंत्र और अधिक लोकतांत्रिक राजनीति की दिशा में
ले जा पाएगी ? मौजूदा आर्थिक और राजनीतिक यथार्थ से उसका कैसा रिश्ता है ? कला और
लोकप्रिय संस्कृति से जुड़े ये रूप किस हद तक कार्यकर्ताओं की क्षमता में बढ़ोत्तरी
करते हैं ? ऐतिहासिक तौर पर हाशिए पर स्थित समुदाय अपने राजनीतिक दावों को आगे
बढ़ाने और लोकतंत्र को अमली जामा पहनाने में कला और लोकप्रिय संस्कृति का किस तरह
इस्तेमाल करते हैं ? ये सवाल तेजी से विस्तारित हो रहे वैश्विक संचार के संदर्भ
में उठाए गए हैं । स्मार्ट फोन और इंटरनेट के प्रसार से कला और लोकप्रिय संस्कृति
तक लोगों की पहुंच काफी बढ़ गई है । फ़ेसबुक, ट्विटर और यू-ट्यूब के सहारे संगीतकार,
फोटोग्राफर, चित्रकार, नर्तक, फ़िल्मकार, लेखक और अन्य तमाम लोग अपनी रचनाओं को
प्रचारित कर रहे हैं । इस स्थिति का एक परिणाम तो यह निकला है कि राजनीतिक चिंतन
और कार्यवाही का फलक कला और संस्कृति के इस्तेमाल से चौड़ा हुआ है । इंटरनेट ने
स्थानीय और वैश्विक समुदायों तथा पारंपरिक और आधुनिक संस्कृतियों के बीच फ़र्क कम
किया है लेकिन सीमाओं का खात्मा नहीं हुआ है । गरीब-अमीर और उत्तर-दक्षिण के बीच
अंतर बना हुआ है । इसके बावजूद इंटरनेट ने आभासी प्रवासी समुदायों, वैश्विक
सामाजिक आंदोलनों और इंटरनेट आधारित साइबर राष्ट्रों का निर्माण किया है । राष्ट्र-राज्यों
की पारंपरिक राजनीति जब वैश्वीकरण और सांस्कृतिक बहुलतावाद से जुड़ी तो तथाकथिक
सांस्कृतिक युद्ध शुरू हो गए । दुनिया भर के नागरिकों के दिलो-दिमाग पर नियंत्रण
करना इनका मकसद है । इसीलिए नागरिकों को आत्म-चेतस और आलोचनात्मक विवेक से लैस
करने की जो चुनौती दरपेश है उसके मद्देनजर अभिव्यक्ति के तमाम रूपों, खासकर कला और
लोकप्रिय संस्कृति से जुड़े रूपों का महत्व बढ़ जाता है । ज्यादातर लोकप्रिय
संस्कृति आलोचनात्मक चेतना के विकास का दमन करती है और समरूपीकरण या अमेरिकीकरण
करती है लेकिन इनका उपयोग आलोचनात्मक विवेक और विविधता के पोषण के लिए भी व्यापक
रूप से सफलतापूर्वक हुआ है । केंद्रीय सवाल यह है कि पूंजी के मालिकान किस हद तक
दुनिया को भौतिक और प्रतीकात्मक रूप से अपने निजी हितों के अनुरूप ढालना जारी
रखेंगे और किस हद तक कार्यकर्ता इस प्रभुत्व और ताकत को तहस नहस करने के लिए कला
और लोकप्रिय संस्कृति को काम में ला पाएंगे । इस किताब के विभिन्न अध्यायों के
लेखकों ने आम तौर पर तो लोकतांत्रिक और प्रगतिशील मूल्यों के विकास में
कार्यकर्ताओं की कला के समर्थन पर जोर दिया है लेकिन कुछेक लेखकों ने इस बात को भी
उजागर किया है कि किस तरह कला और लोकप्रिय संस्कृति का उपयोग लोकतांत्रिक बदलावों का
विरोध करने और वर्ग, लिंग तथा नस्ल संबंधी ऊंच-नीच को स्थापित करने के लिए भी हुआ
है । इन परस्पर विरोधी बातों से यही सिद्ध होता है कि लोकतांत्रिक समाज का निर्माण
निरंतर चलने वाली लड़ाई है और इस लड़ाई में दोनों पक्ष कलात्मक सांस्कृतिक रूपों का
इस्तेमाल कर रहे हैं । संपादकों ने कला और लोकप्रिय संस्कृति का अर्थ स्पष्ट करते
हुए लिखा है कि बहुत से लोग उच्च कला और निम्न कला का भेद करते हैं । उनके लिए कला
वीथिकाओं में लटके चित्र और सभा कक्षों में संगीत उच्च कला हैं जबकि दीवारों पर
लिखे नारे और जुलूसों के गाने निम्न कला हैं जिसे वे लोकप्रिय संस्कृति भी कहते
हैं । इस विभाजन में तत्व नहीं है । मार्शल मैकलुहान का कहना है कि किसी भी नए कला
रूप को उच्च कला के मानदंड के लिए आम तौर पर भ्रष्टकारी माना जाता है । किसे उच्च
कला और किसे निम्न कला माना जाएगा इसकी परिभाषा ऐतिहासिक संदर्भों से रूपायित होती
है । लेकिन मामला सिर्फ़ ऐतिहासिक संदर्भ का नहीं है । लोकप्रिय संस्कृति से जुड़े
कला रूपों को भीड़ के मनोरंजन हेतु निर्मित बाजारू कला कहकर अक्सर खारिज कर दिया
जाता है । फिर भी रोजमर्रा का जीवन बिना इन कलाओं के नीरस होता है । इससे भी आगे बढ़कर
ये कला रूप हमारी कल्पना को उत्प्रेरित करते, सृजनात्मकता को व्यक्त करते, सार्थक
प्रतीक मुहैया कराते, सुंदरता और सामरस्य का बोध बनाए रखते, समरूपता का मुकाबला
करते और यथास्थिति का विरोध करते हैं । इन कारणों के चलते इनका राजनीति के लिए
बहुत महत्व है । संपादकों ने कला की बहसों से परहेज किया है और कला तथा लोकप्रिय
संस्कृति के सौंदर्यात्मक अनुभव पर जोर दिया है जिसे वे जीवन की समूची ऐंद्रिक
संवेदना और बोध का अखंड हिस्सा मानते हैं । यह अनुभव कला के परे रोजमर्रा के जीवन,
प्राकृतिक जगत और आध्यात्मिक दुनिया तक फैला हुआ है । धारणा के स्तर पर कलात्मक
अनुभव और सौंदर्यात्मक अनुभव भले अलग किए जाएं लेकिन व्यावहारिक तौर पर वे अलग
नहीं होते । उच्च कला और लोकप्रिय संस्कृति में जो भेद किया जाता है वैसा ही भेद रूपगत
तथा प्रदर्शनमूलक सौंदर्य के बीच किया जाता है । रूपगत सौंदर्यशास्त्र में जोर
कलाकृति की अमूर्त व्यवस्था, संरचना और तकनीक पर होता है । इस सौंदर्यशास्त्र के
मानदडों पर लोकप्रिय कला रूप खरे नहीं उतरते । लोकप्रिय कला पर विचार करने के लिए कलात्मक
रूप की धारणा को विस्तारित किया गया है, साथ ही जिन्हें उच्च कला रूप माना जाता है
उनके बारे में भी इस किताब में शामिल लेखों के लेखकों ने अधिक गतिमान और
लोकतांत्रिक समझ से काम लिया है । संगीत की अशब्द अभिव्यक्ति पर कई लेखों में
विचार किया गया है । टेलीविजन, रेडियो और अखबार जैसे माध्यम कला की राजनीतिक ताकत
बढ़ा देते हैं । प्रदर्शनमूलक सौंदर्य की धारणा के चलते मुख्य धारा की राजनीति
द्वारा हाशिए पर फेंक दिए गए और बहिष्कृत समूहों की पहचान बनाने और उनकी जरूरतों
को स्वर देने में कला की भूमिका को समझने में मदद मिलती है । प्रदर्शनमूलक
सौंदर्यशास्त्र श्रोताओं या दर्शकों को कलात्मक अनुभव का भागीदार मानता है तथा
व्यापक समुदाय के साथ कलाकार की संलग्नता पर जोर देता है । इससे समाजार्थिक और
राजनीतिक बदलाव की प्रक्रिया में कला की सहभागिता नजर आने लगती है । इस नजरिए से
देखने पर सार्वजनिक और निजी के बीच का बंटवारा भी भहरा जाता है ।
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