हिंदी के मशहूर
कथाकार अमरकांत के राजकमल से 2003 में पहली बार प्रकाशित उपन्यास ‘इन्हीं
हथियारों से’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार तो मिल गया लेकिन यह एक
तरह से उसे चर्चा से बाहर करने की रणनीति के बतौर नजर आया । इसे सम्मान के लायक तो
समझा गया लेकिन मानदंड के निर्धारण के लिए असुविधाजनक समझकर हिंदी के बौद्धिक समाज
ने खामोशी भरी चुप्पी अपनाई । आखिर इस चुप्पी का समाजशास्त्र है क्या ? एक तो यह हो सकता है कि किसी भी रचना के बारे में गंभीरता से बात करने का
चलन खत्म हो जाने से ऐसा हुआ हो । गंभीर आलोचना की संस्कृति पर प्रहार किये बिना नेता के
प्रति भक्ति और समर्पण का माहौल बनाना मुश्किल होता है । इसकी उपेक्षा का दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि अमरकांत के इस उपन्यास
को कथावस्तु और शिल्प के स्तर पर वर्तमान फ़ैशन के खिलाफ़ महसूस किया गया हो और इसलिए इस पर बात भी न करना उचित माना गया हो । इस कारण के ही सक्रिय होने की अधिक आशा की जा सकती है
। लगता तो ऐसा ही है और यह बेहद गंभीर समस्या है । इससे पता चलता है कि प्रेमचंदीय वस्तु और शिल्प से हिंदी कथा साहित्य की एक समय निर्मित असामाजिक
समझ ने जो किनारा किया उसके पीछे केवल कला पर रीझने का चलन नहीं था, औपनिवेशिक हालात की मौजूदगी से इनकार करने की शुतुरमुर्गी हड़बड़ी भी थी । आजादी मिलने के साथ ही उपनिवेशवाद को लगभग समाप्त मानकर उत्तर औपनिवेशिक वातावरण की बात करने की जल्दी मचाई जाने लगी थी ।
यह उपन्यास न सिर्फ़ विषयवस्तु के स्तर पर बल्कि भाषा के स्तर पर भी प्रेमचंदीय विरासत को आगे बढ़ाता है और सही मायनों में उपनिवेशवाद विरोधी विमर्श का निर्माण करता है । यहीं एक दूसरी समस्या के बारे में भी बात करना अनुचित न होगा । हिंदी में साहित्य को समाजशास्त्रीय रूप से उपयोगी मानने के खिलाफ़ एक दुराग्रहपूर्ण अभियान चलाया गया है जिसके चलते किसी रचना की खूबसूरती की बात इस तरह की जाती है मानो सामाजिक उपयोग और सुंदरता में मौलिक और असमाधेय विरोध हो । मानो सामाजिक तौर पर अनुपयोगी होना ही कलात्मक
श्रेष्ठता का पैमाना हो । इस धारणा ने साहित्य की समझ में उसके उद्देश्य से
ध्यान हटाया है । रचनाओं की
संरचना और बुनावट की चर्चा इस तरह की जाती है जैसे उसे पढ़ने और प्रेरणा लेने के
मुकाबले केवल सराहने के लिए लिखा जाता हो । यह काम देश की उस भाषा में किया गया जिसके साथ उपनिवेशवाद के विरोध की लम्बी परम्परा जुड़ी थी और जिसके सबसे बड़े लेखक ने अपने उपन्यास लेखन को आज़ादी की लड़ाई का अंग माना था । यह दुराग्रह इतना गहरा था कि समाजशास्त्रीय नजरिये
को कुत्सित का विशेषण भी दिया गया । इसी चक्कर में ऐतिहासिक घटनाओं या
व्यक्तित्वों से जुड़े हुए उपन्यासों की आमद को उपन्यासहीनता का दावा करके विचार
लायक ही नहीं माना गया, जबकि हम सभी जानते हैं कि उपन्यास के शिल्प का
लचीलापन ही उसकी ताकत है । एक जमाने में जिस तरह कविता के भीतर साधारण के चित्रण को निकृष्ट का सबूत माना
जाता था उसी तरह उपन्यास में भी वास्तव का प्रवेश अनुचित माना जाने लगा ।
अमरकांत का यह
उपन्यास सन 1942 के आंदोलन में पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले की
घटनाओं पर केंद्रित है जहाँ आम जनता ने इस दौरान लगभग एक हफ़्ते तक अंग्रेजी शासन
को मिटाकर अपना राज स्थापित किया था लेकिन आज़ादी के बाद की घटनाओं को भी शामिल
करता है ताकि आज़ादी के लिए लड़ने वाली जनता तथा कांग्रेस पार्टी के रिश्तों के
सामने आज़ादी के बाद सत्तानशीन कांग्रेस के साथ जनता के रिश्तों को रखकर इस त्रासदी
को समझा जा सके कि आखिर दुनिया के सबसे परिपक्व स्वतंत्रता आंदोलन की ऐसी परिणति
क्यों हुई । एक ऐतिहासिक घटना से जुड़े होने के कारण इसमें कथा की अनुपस्थिति की जो
आशंका थी उसे लेखक ने खूबसूरती के साथ विभिन्न पात्रों की निजी जिंदगी में आये उलट
फेर के साथ जोड़कर औत्सुक्य का तत्व पैदा किया है जो कहीं से भी कथा से अलग पैबंद
की तरह नहीं लगता । लेकिन इसके अलावे भी उस घटना के ऐतिहासिक-सामाजिक महत्व
पर गंभीर सोच विचार का आमंत्रण यह उपन्यास देता है । 1942 का आंदोलन कांग्रेसी नेतृत्व की हदों के पार चला गया था और उसमें तरह तरह
के आंदोलनकारी शरीक हो गए थे । और 42 ही क्यों कांग्रेस के नेतृत्व में चले स्वाधीनता
आंदोलन के अहिंसात्मक होने के बावजूद उसकी शक्ति को समझने की एक महत्वपूर्ण कोशिश
के बतौर भी इस उपन्यास को देखा जा सकता है । इस सवाल पर लेखक की उलझन का अंदाजा
शुरू में ही हो जाता है जब ‘कथा संदर्भ’ के अंतर्गत बलिया के
टाउन हाल में आयोजित सभा में भाषण देने के लिए बनारस से आए सुरंजन शास्त्री को हम
लंबी सफाई देते हुए देखते हैं । बलिया में आज़ादी के आंदोलन का गौरवशाली इतिहास का
बयान करने के बाद वे गांधी की रणनीति की व्याख्या करते हैं । कहते हैं-‘जहाँ तक अहिंसा का सवाल है, आज के जमाने में उसकी उपयोगिता जनता के व्यापक हितों
के लिए इस्तेमाल किये जाने से ही सिद्ध हो सकती है । शोषक इसका इस्तेमाल अपने पक्ष
में कर सकते हैं । इससे सावधान रहने की जरूरत है । अहिंसा, कायरता और पलायन का पर्याय नहीं है ।---यदि गांधीजी ने स्वातंत्र्य आंदोलन और
स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए इसका इस्तेमाल न किया होता तो इसकी विशेष उपयोगिता और
सार्थकता न होती । हमारी लड़ाई अहिंसात्मक अवश्य है, लेकिन वह पूर्ण स्वतंत्रता
के प्रश्न पर किसी प्रकार का समझौता नहीं करेगी ।’ भाषण जून 1942 में हो रहा था और आगामी संघर्ष के आसार दिखाई पड़ने शुरू हो गए थे जिसे वे
तमाम जन संघर्षों की निरंतरता में साबित करना चाहते हैं । अतीत और वर्तमान में
जारी इन संघर्षों की सूची से पता चलता है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई में तमाम किस्म
के वैचारिक प्रभाव काम कर रहे थे । वे गिनाते हैं- ‘मुक्ति की आँधी है यह । वह कभी फ़्रांस में
आई, कभी रूस में आई । अन्य देशों में भी वह आ चुकी है । 1857 में भी हमारे देश में आई थी ।---यह गुलामी और जुल्म को मिटाकर आज़ाद, शोषणहीन समाज बनाने का संकल्प लेकर आ रही है ।’ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को दुनिया को बदल देने वाले जिन आंदोलनों की
निरंतरता में बताया गया है उसे हम कांग्रेसी नेतृत्व में चले आंदोलन के प्रति
कम्युनिस्टों के रुख की उलझन की लेखकीय निशानदेही समझ सकते हैं ।
बात भोजपुरी भाषी
समाज की हो तो स्वाभाविक रूप से ग्रियर्सन की उस उक्ति की याद आती है जिसमें उसने
भोजपुरी भाषी किसान और उसके पारंपरिक हथियार, लाठी, के बीच बहुत ही काव्यात्मक संबंध बताया था । उपन्यास ठीक ठीक इसी हथियार का
तो महिमा मंडन नहीं करता लेकिन संबंधित जन समुदाय की उस प्रतिरोधी चेतना से
अनुप्राणित जरूर है जो गुलामी को बहुत आसानी से मंजूर नहीं करती । अमरकांत की भाषा
में इस इलाके के नौजवानों का स्वाभिमान और उसके प्रति औपनिवेशिक प्रभुओं का नजरिया
साफ हो जाता है जब वे एकाधिक बार इस बात का जिक्र करते हैं कि यहां के नौजवान
किशोर होते होते छाती निकालकर चलने लगते हैं ।
अगर वास्तविक
ऐतिहासिक घटनाओं को केंद्र में रखकर उपन्यास की रचना की गई है तो हिंदी लेखन की
ऐसी परंपरा का जिक्र होगा ही जिसमें पात्रों के भाग्य विपर्यय को बाहरी घटनाओं से
जोड़कर प्रदर्शित किया गया है । इस कौशल का सबसे सफल प्रयोग हिंदी में जय शंकर
प्रसाद ने अपने नाटकों में किया था । उसके बाद कुछ हद तक यशपाल ने ‘झूठा सच’ में इसका इस्तेमाल किया लेकिन वे उतने कारकों का
समावेश न कर सके थे । अमरकांत ने इस उपन्यास में पात्रों की स्थिति में उलट फेर के
लिए जितने कारकों का रचनात्मक विनियोग किया है वह किसी भी उपन्यास लेखक के लिए
स्पृहणीय है ।
कथा संदर्भ के बाद
उपन्यास का आरंभ तीन साल पहले से होता है और धीरे धीरे हमारा परिचय उपन्यास के
मुख्य पात्रों से होने लगता है । शुरुआत 9 सितंबर 1939 से होती है जब इंग्लैंड के सम्राट द्वारा जर्मनी के विरुद्ध युद्ध का
अल्टिमेटम दिए जाने के अवसर पर गवर्नमेंट हाई स्कूल में समर्थन, एकजुटता और राजभक्ति के प्रदर्शन के लिए आम सभा का आयोजन होता है और इस आशय
का एक प्रस्ताव पारित करके वायसराय के पास भेजे जाने की तैयारी होती है । इस
सिलसिले में यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि 1937 के चुनावों में युक्त
प्रांत, जिसमें बलिया जिला आता था, कांग्रेस की सरकार बनी थी और कांग्रेसी मंत्रिमंडल ने युद्ध में भारत को
जबरिया शामिल करने के विरुद्ध ही इस्तीफ़ा दिया था । सभा की समाप्ति के बाद क्लास
के लिए जा रहे उपन्यास के नायक, नीलेश, से हमारा परिचय होता है जो तीन दोस्तों, दयाशंकर, गोबर्धन और नफ़ीस के साथ उम्र और समझदारी में बड़ा हो
रहा है । आज़ादी के आंदोलन के उन सरगर्मी भरे दिनों में जवान होने का मतलब आंदोलन
में सक्रियता का बढ़ना भी था ।
जल्दी ही हमारा साबका
नौजवान होते लोगों की सार्वभौमिक समस्या यानी प्रेम से पड़ता है जो उस समय
जाति-बिरादरी की जकड़बंदी के विरोध में इन पात्रों को खड़ा करने लगता है । नीलेश
कायस्थ है और उसके पिता के साथ कचहरी में काम करने वाले ठाकुर मुख्तार सिंह की
लड़की, नम्रता, के प्रति उसे आकर्षण होने लगता है । यह आकर्षण आज़ादी
के आंदोलन की कहानी के उतार चढ़ाव के साथ लगातार जारी रहता है और उसका स्वरूप भी
आंदोलन में भागीदारी के साथ बदलता रहता है, इसलिए उपन्यास को सही तरीके से समझने के
लिए इसे भी नजर में रखना होगा । एक तरह से ये दोनों कहानियां एक दूसरे में गुंथकर
पाठक के सामने स्त्री की सामाजिक भूमिका की अनोखी तस्वीर पेश करती हैं जिसे स्त्री
विमर्श के पैरोकार कतई उभार नहीं पाते । इसी आकर्षण के चलते वह एक दिन नम्रता का
हाथ पकड़ लेता है । संभ्रम में नम्रता भाग खड़ी होती है । इधर लज्जावश नीलेश भी एक
देहाती मित्र के यहां बिना किसी को बताये चला जाता है । पिता जाकर उसे ले आते हैं
। नम्रता ने घर पर किसी को सच नहीं बताया होता है । यहीं से नीलेश के लिए उसके
प्रेम की पुष्टि शुरू होती है ।
इधर देश का माहौल गरम
हो रहा था । लोग सुभाष चंद्र बोस आदि की कहानियां सुनकर थोड़ी उग्रता की ओर बढ़ रहे
थे । ‘---हिंदुस्तान की जनता क्रांतिकारी जोश से भर गई थी ।---लोग ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ जबरदस्त कार्रवाई करना चाहते थे ।’ इसी बीच नीलेश अपने दोस्त गोबर्धन के घर गया । गोबर्धन की मार्फ़त स्त्री
समुदाय के ऐसे हिस्से से पाठक का परिचय होता है जिसके बारे में सहजता के साथ कलम
उठाने की हिम्मत प्रेमचंद के बाद हिंदी का कोई कथाकार नहीं कर सका था । यह समुदाय
वेश्या समुदाय है । प्रेमचंद के ‘सेवासदन’ में यह समुदाय
सामान्य मनुष्य की तरह चित्रित हुआ था और उसकी भी एक सामाजिक-सार्वजनिक
उपस्थिति थी । बाद में तो तथाकथित आधुनिकतावादी भी उन्हें सेक्स आब्जेक्ट से अधिक
कुछ नहीं चित्रित कर पाए । यहां तक कि स्त्री मनोविज्ञान में डुबकी लगाने वाले भी
इस दुनिया में पैठने की हिम्मत नहीं जुटा सके । लंबे अरसे बाद अमरकांत का यह
उपन्यास हमारे सामने वेश्या समुदाय को जीता जागता यथार्थ बनाकर प्रस्तुत करता है ।
यहां तक कि आज़ादी के आंदोलन की आंच से उनके भीतर भी हलचल होती दिखाई गयी है ।
गोबर्धन जिस वेश्या के पास जाने लगा था उसका असली नाम तो लवंगलता है लेकिन घर में
पुकारने का नाम ढेला है । यह नामकरण भी हमें उसके बारे में बहुत कुछ बता देता है ।
याद दिलाने की जरूरत नहीं कि पात्रों का नामकरण भी उपन्यासकार के कौशल का
महत्वपूर्ण हिस्सा होता है । वेश्या का जिवन किस तरह के मूल्यों से संचालित होता
है इसकी बानगी देते हुए लेखक बताता है ‘—वेश्या पुत्री को एक
सूदखोर बनिए की तरह निर्दयी यानी मीठी छुरी बनना चाहिए, जो दूसरों की बरबादी पर खुशहाल बनता है ।’ यह मान्यता ढेला की
मां श्यामदासी की है जो ढेला के खुले व्यवहार से परेशान रहती है और इसीलिए गोबर्धन
से उसे छुटकारा दिलाना चाहती है । मां के दबाव में ढेला गोबर्धन को अपमानित करके
भगा देती है लेकिन उदास रहने लगती है तो मां समझाती है ‘—बेसवा का मतलब है जवान, खूबसूरत देह । देह ही उसकी माई है, बाप है, धरम है, ईमान है । बड़ा से बड़ा
दरियादिल, दिलफेंक भी शरीर से चुचकी-पिचकी की ओर
नहीं देखता, जैसे प्लेग के बीमार चूहे को साँप भी नहीं पूछता ।’ इस समझ में पुरुष प्रधान समाज के समूचे शोषण का भयानक प्रतिकार है । असल
में ढेला गोबर्धन से पहले नीलेश के दोस्त दयाशंकर से परिचित हो चुकी थी । दयाशंकर
की यह कहानी वेश्या को भी मनुष्य मानकर उसकी मानसिक उथल पुथल के भीतर प्रवेश करने
की लेखक की सामर्थ्य से हमें दो चार कराती है । हुआ था यूं कि स्कूल में पढ़ने वाले
विद्यार्थियों की यह टोली गंगा नहाकर आपस में चुहल करती उसी रास्ते से लौट रही थी
जिधर वेश्याओं के आवास थे । ढेला ने उन्हें यूं ही बुला लिया और वे चले भी गये ।
स्कूली बच्चों के हंसी-मजाक हुए और वे लौट आये । फिर दयाशंकर को ढेला
क्रांतिकारी काम के लिए उपयोगी प्रतीत हुई और इसकी परीक्षा के लिए उसने उसे कुछ
रुपए उसे रखने के लिए दिये जिसे उसने सुरक्षित रखा । इसके बाद रात में पुलिस से
छिपने के लिए एकाध बार आया और सुबह होते होते चला गया । इसी क्रम में उसे ढेला के
प्रति आकर्षण का अनुभव हुआ लेकिन अपनी इस कमजोरी से डरकर वह भाग गया और दोबारा कभी
नहीं आया । ढेला को भी उसकी याद आती रहती थी इसीलिए गोबर्धन के आने पर वह उसे दिल
दे बैठी थी । गोबर्धन के बाद की ढेला की उदासी के चलते उसे टी बी हो जाती है ।
कहानी दोबारा नीलेश
के प्रेम पर लौटकर आती है और युवा प्रेम की मनोवैज्ञानिक उतार चढ़ाव का नमूना बन
जाती है लेकिन आज़ादी का आंदोलन कहीं भी उपन्यासकार के हाथ से छूटता नहीं है ।
नीलेश से नम्रता की मुलाकात जब एक मेले में हुई तो उन दोनों की बातचीत में साफ हुआ
कि नम्रता का हाथ जब नीलेश ने पकड़ लिया था और लज्जा के चलते दोस्त के यहां चला गया
था उसके बाद नम्रता ने क्या किया या सोचा और इस बातचीत के क्रम में हम स्त्री की
स्वाधीन हैसियत की दावेदारी सुन सकते हैं । पहले तो नम्रता घबराकर घर आकर पड़ गयी
थी । फिर उसे प्रेरणा मिली एक अध्यापिका से जो कांग्रेस की सदस्य भी थीं जो कहतीं ‘स्त्री कोई काठ की लकड़ी, रेत पाई नहीं है, उसमें भी सुंदर
इच्छाएँ हैं, स्वाभिमान है, विवेक है, अत्याचार और उत्पीड़न के विरुद्ध घृणा के भाव हैं, राष्ट्रप्रेम और साहित्यप्रेम है ।’ एक खास बात और भी इस
उपन्यास में है और यह कि साहित्यकारों के ढेर सारे संदर्भ आये हैं क्योंकि उपन्यास
के पात्र ज्यादातर विद्यार्थी हैं लेकिन ये साहित्यकार उन साहित्यकारों से पूरी
तरह अलग हैं जिनके नाम ‘शेखर: एक जीवनी’ में आये हैं । इन
साहित्यकारों की सूची पर नजर डालने से पता चलता है कि आज़ादी के आंदोलन को किस तरह
के साहित्य से प्रेरणा मिल रही थी । ये हैं- प्रेमचंद की ‘गोदान’, इलाचंदजी की ‘संन्यासी’, यशपालजी की ‘दादा कामरेड’ और अज्ञेयजी की ‘शेखर : एक जीवनी’ । इन किताबों को पढ़ने
की सलाह देने के बाद नम्रता की अध्यापिका ने कहा ‘पुरुष और स्त्री एक
दूसरे के लिए बने हैं । एक के बिना दूसरा रह नहीं सकता । फिर नारी के लिए ही इतने
जेलखाने क्यों ?---पुरुष की तरह ही नारी में भी पर्याप्त आध्यात्मिक
शक्ति है, वह जीवन संघर्षों में प्रोफ़ेस्रर मेहता और मालती की
तरह, अपने जीवन साथी के साथ प्रेम के उच्चतम आदर्श तक पहुँच सकती है---।‘ प्रेमचंद के उपन्यास तत्कालीन समाज में किस तरह की
भूमिकाएं निभा रहे थे इसके सिलसिले में यह एक मार्गदर्शक साक्ष्य है ।
नीलेश के सामने प्रेम
की यह व्याख्या खुलने से उसकी निराशा कुछ कम हुई और दोबारा कहानी आज़ादी के आंदोलन
के साथ उसकी शिरकत के बहाने इस आंदोलन के वैचारिक वितान और अंतर्विरोधों को पाठक
के सामने खोलने लगती है । अब हम सुरंजन शास्त्री की कक्षा में पहुँचते हैं जहां
विभिन्न विचारों के लोग खुलकर आपस में बहस मुबाहिसा करते हैं । यहीं हमारी मुलाकात
एक और विचित्र किरदार से होती है जिसका प्रवेश यह बताने के लिए काफी है कि इस
आलोड़न में कितने विविध किस्म के लोग सामाजिक जीवन में चले आये थे । उनका नाम सदाशय
व्रत है जिनके यहां यह कक्षा चलती है । उपन्यास को पढ़ते हुए कभी कभी यह डर लगता है
कि इतने पात्रों के प्रवेश से बिखराव न आ जाये लेकिन वर्जीनिया वुल्फ़ ने ठीक ही
लिखा है कि पात्रों की बहुतायत से अधिक महत्वपूर्ण बात है कि उपन्यासकार इन सबको
एक ही नाव में बिठा पाता है या नहीं और इस मामले में बिना किसी हिचक के अमरकांत की
सफलता की गवाही दी जा सकती है । वह नाव बलिया में अगस्त 1942 में प्रशासन को जनता द्वारा कुछ दिनों के लिए अपने हाथ में ले लेना है
जिसके इर्द गिर्द इन सारे पात्रों की विविधता खूब अच्छी तरह निभ जाती है ।
कांग्रेस के बारे में उनका कहना है कि यह ‘एक बड़ा स्वातंत्र्य
आंदोलन है, जिसमें समाजवादी, कम्युनिस्ट तथा कई
अन्य विचारों के लोग भी शामिल हैं ।’ शास्त्री जी
समाजवादियों की कक्षा चलाते हैं ‘ताकि स्वतंत्रता के बाद देश में किसान मजदूर और
साधारण जनता की समतावादी और समाजवादी सरकार बने ।’ इसी मकसद से
कम्युनिस्ट लोग भी अपनी अलग क्लास चलाते हैं । आज़ादी के आंदोलन में सभी शामिल थे
इसलिए आपसी बहस मुबाहिसा भी होता रहता था । शास्त्री जी की इन कक्षाओं में नीलेश
की सक्रियता के दौरान ही उसका परीक्षाफल आता है और वह प्रथम श्रेणी में पास हो
जाता है । उसके पास होने की खुशी में बधाई देने नम्रता उसके घर आती है । फिर नीलेश
के भाई बहन और वह भी नम्रता के यहां जाकर नाश्ता करते हैं । इसे लेखक बलिया जैसे
छोटे शहर में रिश्तों में आयी प्रदर्शनपरक आधुनिकता का लक्षण मानता प्रतीत होता है
। आधुनिकता का ही एक और लक्षण नीलेश के जरिए जाहिर होता है जब वह अपनी मूँछें साफ
कर लेता है । आज भी ऐसा करना बुरा माना जाता है खासकर पिता के जीवित रहते । घर में
तनाव पैदा होता है लेकिन नीलेश के पिता की सदाशयता के कारण बात सुलझ जाती है ।
पिता सीतानाथ की यह उदार सदाशयता अनेक अवसरों पर मनोवैज्ञानिक दबाव में पड़े नीलेश
को उबार लेती है और पिछले खेवे के अभिभावकों की एक पौध का यथार्थ चित्र प्रस्तुत
करती है ।
सुरंजन शास्त्री की
कक्षा आज़ादी के आंदोलन की विविध धाराओं की टकराहट का रंगमंच बन जाती है । वहां
नीलेश का एक दोस्त और सहपाठी गोपालराम भी आता था । गोपालराम दलित अछूत जाति का था
और समाजवादियों के मुकाबले कम्युनिस्टों के साथ ज्यादा घनिष्ठता महसूस करता था ।
उसने कक्षा में आना छोड़ दिया था । दोनों की बहस में 42 के आंदोलन में
कम्युनिस्टों की दुविधा का खुलासा होता है । सुरंजन शास्त्री का तर्क है ‘समाजवाद तो हम भी चाहते हैं, क्रांतिकारी हम भी हैं, मगर किसी दूसरे देश
का पिछलग्गू बनना नहीं चाहते । अनैतिक हिंसात्मक राजनीति में भी हमारा विश्वास नहीं
।’ गोपालराम का तर्क है ‘इस समय हमें कोई भी काम ऐसा नहीं करना चाहिए, जो हिटलर विरोधी युद्ध प्रयत्नो को नुकसान पहुँचाए ।---विजय से मित्र देशों के साथ सोवियत रूस भी मजबूत होगा, जो निश्चित रूप से अंग्रेजों पर दबाव डालेगा कि भारत तथा अन्य उपनिवेशों को
वह फ़ौरन स्वतंत्र कर दे ।’ सुरंजन शास्त्री जब कम्युनिस्टों के विरोध में यह
तर्क देते हैं कि अंग्रेजों द्वारा ‘पृथक निर्वाचक प्रणाली द्वारा हिंदू-मुसलमान को
बाँटने’ तथा ‘अछूतों—और देशी रियासतों का भी एक अलग टुकड़ा’ तराशने का सवाल कम्युनिस्टों के लिए ‘आत्म-निर्णय के
जनतांत्रिक अधिकारों के तहत होंगे, परंतु हिंदुस्तान के लिए तो विनाशकारी ही सिद्ध होंगे’ तो पलटकर गोपालराम अछूतों के बारे में कांग्रेस की योजना की बाबत पूछता है
। सुरंजन शास्त्री निरुत्तर रह जाते हैं । नीलेश अपने सहपाठी की तुर्शी से चकित रह
जाता है और उससे राजनीति में आने की अपेक्षा करता है । उत्तर में गोपालराम का कथन
उस समय भी जारी वंचना के अहसास से पाठक को परिचित कराता है । ‘मैं चमार जाति का हूँ, यह तुम जानते ही हो । हमारी तरह ही करोड़ों अछूत और
गरीब जातियाँ हैं, जो एकदम निरक्षर, गँवार और नासमझ हैं ।
ये लोग राजनीति क्या करेंगे ?’ फिर सवर्णों के राजनीतिक वर्चस्व पर सवाल उठाता है ‘—सर्वव्यापी बड़ी जातियों के शिक्षित लोग हर जगह अपनी-अपनी जातियों
के अपने कुएँ में ही क्यों रहते हैं ?—अगर आज़ादी मिली तो
निश्चित ही बड़े संपन्न लोगों का ही शासन जरूर चलेगा ।’ और भी आगे की बात करता है ‘अक्सर शहर के अनेक समाजवादी या कम्युनिस्ट अपने गाँव
में जाकर अपने गरीब या अछूत कामरेड के लिए मालिक और बाबू नहीं बन जाते ?—पूँजीपति और मजदूर का भेद तो अलग किस्म का है, लेकिन सामाजिक और धार्मिक अस्पृश्यता भयंकर है, मर्मांतक है ।’
बहरहाल गोपाल की इस
बेबाकी के परिणामस्वरूप नीलेश उसे अपने घर खाना खिलाने ले जाता है । खाना खाने के
क्रम में वह वास्तविकता सामने आ जाती है जिसकी बात गोपालराम कर रहा था । प्रत्यक्ष
रूप से तो कुछ नहीं होता लेकिन उसकी जाति का पता चलने पर माता दादी आदि बुरा भला
कहती हैं । यहां भी पिता की उदारता ही नीलेश की मदद करती है और कुछ खास नहीं घटित
होता । गोपालराम के बहुत दिनों तक दोबारा न आने के चलते नीलेश उसके घर जाता है तो
पता चलता है वह बीमार हो गया था । गोपालराम बीमारी की वजह नीलेश के घर का खाना
मानता है । नीलेश के दुखी होने पर कहता है ‘तुम्हारा कुछ नहीं, तुम्हारे वर्ग का दोष है । तुम बुर्जुआ लोग मेहनतकशों द्वारा पैदा किया हुआ
अन्न खाकर मस्ती से आकाश में बिस्तर लगाते हो और वहीं से अपने उच्च विचारों की
गलाजत नीचे, उसी किसान पर थूकते हो ।’ इसी क्रम में वह गांधी के स्वराज की आलोचना भी करता है तो नीलेश दुखी होकर
वापस घर चला आता है ।
स्वतंत्रता आंदोलन की
इसी गर्मी के दौरान एक ऐसी बात का जिक्र लेखक करता है जिसका उल्लेख आम तौर पर
उपनिवेशवाद विरोधी विमर्श में नहीं होता । वह है कि आम जनता में ब्रिटिश राज के
प्रति इतनी नफ़रत थी कि लोगों में ‘संवत दो हजार में पीले रंग की एक जाति (के) माटा-चींटी की तरह दुनिया में फैल’ जाने की अफवाह फैल गई थी और उसे लोगों ने ‘सुखसागर’ नामक एक धार्मिक ग्रंथ में की गयी भविष्यवाणी मान लिया था तथा जापान की
विजय को उसके साथ जोड़कर देखने लगे थे । इस पर लेखक की टिप्पणी है ‘आततायी व्यवस्था से लड़ने के लिए विद्रोही जनता अनेक तरीके अपनाती है, जिनमें धार्मिक और पौराणिक ग्रंथों की मनमानी व्याख्या से निकाले जुज़ से
झटपट तैयार अफवाहें भी होती है ।’ माहौल गर्म था और जापानियों को रोकने की पागलभरी
कोशिशों के चलते एक तरह की उत्तेजना हमेशा बनी रहने लगी थी । पूर्वी मोर्चे पर
फ़ौजी जा रहे थे । ये फ़ौजी ट्रेनों से ले जाए जाते । जब ये ट्रेनें आने वाली होतीं ‘उस समय मुसाफिरों को भगा दिया जाता और स्टेशनों के बाहर भी, खास तरह से कोई भी औरत, चाहे वह बूढ़ी ही क्यों न हो, आस-पास नजर तक न आवे ।’ ऐसे में एक सुनसान स्टेशन बकुलिया पर किसी लड़की को
फ़ौजियों ने उठा लिया और उसकी लाश बाद में मिली थी । इस घटना की खबर आग की तरह फैली
और उत्तेजना का कारण बन गयी । तनाव के वातावरण में पुलिस और मुखबिरों की बन आयी थी
। नम्रता देरी से स्कूल जा रही थी कि रास्ते में खड़े एक मुखबिर अइगा पांडे ने
फ़ब्ती कसी “अरे झरेला कहाँ जात बाड़ू, चलऽ बकुलहा ले चलीं---।” कचहरी में काम करने वाले ठाकुर मुख्तार सिंह की बेटी
नम्रता के साथ ऐसी हरकत ! बात तुरत फैल गई । सहानुभूति जाहिर करने जब नीलेश के
पिता सीतानाथ आते हैं तो अपने भोलेपन में नम्रता से नीलेश की शादी का प्रस्ताव
रखते हैं जिसे मुख्तार सिंह अपना अपमान समझते हैं । बहरहाल सदाशय व्रत भी जो अपने
कांग्रेसी साथियों में सेनापति कहे जाते हैं आते हैं और इस घटना का बदला लेने का
इरादा करते हैं । बदला लेने की उनकी क्षमता के लिए हमें उनके विचित्र अतीत के बारे
में जानना होगा ।
सदाशय व्रत के पिता
रामनिवास ओझा पेशे से शिक्षक थे लेकिन सदाशय व्रत का मन पढ़ाई में नहीं लगा । वे
कुश्ती लड़ते थे । कुश्ती में ख्याति भी अर्जित की उन्होंने । किसी प्रतियोगिता में
उनकी मुलाकात अनग्राहित ठाकुर से हुई जिन्होंने उन्हें लाठी चलाना सिखाने का
आमंत्रण दिया । प्रशिक्षण के साथ ही उन्हें लाठी चलाने की कला भी समझ में आने लगती
है ‘लठैती, तलवारबाजी के निकट पड़ती है लेकिन उसमें ढाल की जरूरत
नहीं होती क्योंकि लाठी स्वयं ढाल होती है । लठैत का शरीर, गुल्ली या नट की तरह होना चाहिए, जो छटककर उस दिशा में
चला जाए, जिधर उम्मीद ही न हो । और फिर उचित मौका देखकर तथा
कत्थक नर्तक की तरह तेजी से घूमकर प्रहार करना चाहिए ।’ लेकिन ओझा जी को पता चलता है कि अनग्राहित ठाकुर डकैती करते हैं । इस
उपन्यास में जिस तरह कथाओं के भीतर कथाएं मौजूद हैं उसे देखते हुए विक्रम सेठ के
उपन्यास ‘कोई अच्छा सा लड़का’ के एक रूपक की याद हो
आती है जो असल में उस उपन्यास की संरचना की व्याख्या के लिए उपन्यासकार ने बुना है
। सेठ का कहना है कि उपन्यास बरगद के पेड़ की तरह होते हैं जिसमें पेड़ की डाली से
लटकी हुई कोई जटा जमीन से मिलकर एक स्वतंत्र जड़ बन जाती है और ऐसी ही जड़ों और
जटाओं और डालियों का समुच्चय उपन्यास होता है । अनग्राहित ठाकुर अपने काम का
औचित्य बताते हुए कहते हैं ‘—हमारे जिला-जवार में—ऐसे-ऐसे दबंग ठाकुर, ब्राह्मण और बनिए हैं, जो गरीबों को जबरदस्ती गुलाम बनाकर उनका निरंतर शोषण
करते हैं ।--मैं इन्हीं लोगों से अपने लिए और गरीबों के लिए
वसूलता हूँ ।’ धीरे धीरे ओझा जी भी उनके इस काम में शरीक होते जाते
हैं । डाका डालने के काम की मुश्किलों के साथ लगातार पकड़े और मारे जाने का डर रहता
था । जैसे शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी के उपन्यास ‘कई चाँद थे सरे आसमाँ’ में ठग समुदाय के बारे में गंभीर जानकारी दी गई है उसी तरह इस उपन्यास में
डाकुओं के बारे में तमाम बातें दर्ज की गयी हैं । बहरहाल एक बार डाका एक ऐसे गाँव
में डाला गया जहाँ हिंदू-मुसलमान पड़ोसी गाँव थे । डाके के दौरान एक डाकू को
बिच्छू ने डंक मार दिया । वह दर्द से चिल्लाने लगा । घर वाले जाग गए । बचने का कोई
रास्ता न देखकर सारे लोग भागने लगे और अनग्राहित ठाकुर ओझा जी को एक परिचित के
यहाँ छोड़कर अपने कहीं और चले जाते हैं । उस व्यक्ति के यहाँ रहते हुए एक दिन वे
बाहर घूमने निकलते हैं तो रेलवे क्वार्टरों में उन्हें एक अपूर्व सुंदरी नजर आती
है । पहले पहलवानी फिर लाठीबाजी और फिर डकैती की दुनिया में रहते हुए उन्हें अब तक
ऐसे अनुभव से साबका ही नहीं पड़ा था । वे जिसके यहाँ रुके थे वह भूतपूर्व डाकू ही
था । उसने ताड़ लिया । पकड़कर उस स्त्री को लाया गया लेकिन वह स्त्री पिता की गरीबी
के कारण एक बूढ़े के हाथ बेची गयी थी और इस समय एक नौजवान से प्रेम करती थी । प्रेम
को वह ‘ममता’ कहती है और उसकी दुहाई देकर ओझा जी के साथ ब्याह के
लिए राजी नहीं होती । निराश होकर वे आत्म घात करने के लिए नदी किनारे जाते हैं
जहाँ एक स्वामी का रसोइया उन्हें बचा लेता है और आश्रम में ले आता है । आश्रम में
मन लगाकर वे खाना बनाना सीख लेते हैं । एक प्रभावशाली पुजारी की लड़की उन पर मुग्ध
हो जाती है लेकिन अबकी बार ओझा जी उसे इनकार कर देते हैं और वापस घर लौट आते हैं ।
पिता उन्हें वापस पाकर प्रसन्न होते हैं और पिता की सलाह पर वे होटल खोल लेते हैं
। होटल में राजनीतिक लोग आते हैं और उन्हीं में से एक कार्यकर्ता उन्हें पढ़ने
लिखने और कांग्रेस की राजनीति से परिचित कराता है । कांग्रेसी कार्यकर्ता उन्हें
सेनापति कहते हैं और इसी जिम्मेदारी के चलते उन्होंने नम्रता के साथ हुए व्यवहार
का बदला लेने की बात की थी । उनके साथियों को पता चलता है कि सिपाही अइगा पांडे
पास के गाँव में है । सदाशय व्रत अपने साथियों के साथ पहुँचते हैं और अइगा पांडे
को समझाने की कोशिश करते हैं लेकिन सत्ता के नशे में चूर वह उनके होटल दूसरे दिन
अनेक बदमाशों को लेकर जा धमकता है । लाठीबाजी के प्रशिक्षण से फुर्तीला हुआ ओझा जी
का शरीर उन सब बदमाशों पर भारी पड़ता है और अइगा पांडे को माफी माँगनी पड़ती है ।
इधर नीलेश स्कूल पास
करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बनारस आ गया था और क्वींस कालेज में दाखिला लेकर
नियमित पढ़ने लगा था । बनारस में उसे नम्रता की याद आती रहती और बलिया में नम्रता
को उसकी याद आती । दोनों ने एक दूसरे को पत्र भी लिखे लेकिन भेजने की हिम्मत नहीं
जुटा सके । नीलेश का राजनीतिक क्षितिज बनारस में रहते हुए विस्तृत होना शुरू हो
चुका था । वह कांग्रेस और समाजवादियों के बीच की बहसों का अर्थ बहुत कुछ समझने लगा
था । बहरहाल पहले साल की परीक्षा देने के बाद अप्रैल महीने में ही नीलेश वापस
बलिया जा सका । उसके बलिया पहुँचने से पहले ही कचहरी के एक पेशकार मुसद्दीलाल
नीलेश के पिता सीतानाथ को यह समझाने में कामयाब रहे कि इस बार बड़ा जोरदार आंदोलन
छिड़नेवाला है और नीलेश का खाली घर रहना खतरे से खाली नहीं है । सीतानाथ भी चिंतित
हुए और समाधान यह निकाला कि नीलेश की शादी कर दी जाए । नीलेश के घर पहुँचने से
पहले ही रिश्ता तय किया जा चुका था । नीलेश से सभी इशारों में बात करते । बहरहाल
नीलेश ने सख्ती से शादी करने से इनकार कर दिया । पिता को यह बेहद नागवार गुजरी और
वे गरजे तड़पे । दुखी नीलेश उनके बारे में शिकायती ढंग से सोचने लगा लेकिन फिर उसे
उनकी अच्छाइयाँ याद आने लगीं । इस नाटक में पाँच दिन गुजर चुके थे और वह किसी
दोस्त मित्र से मिलने नहीं जा सका था । गोबर्धन के यहाँ गया तो उसकी नव विवाहिता
पत्नी से मिला जो संयोग से नम्रता की सहेली निकली । उसने एक गीत सुनाया दोस्तों के
जुटने के अवसर पर । गीत किन्हीं ‘राष्ट्रभक्त, प्रगतिशील, क्रांतिकारी कवि प्रभुनाथ मिश्र’ का लिखा हुआ था और इस
गीत के जरिए हमें वह सूत्र दिखाई पड़ता है जो छायावाद को आज़ादी के आंदोलन से जोड़ता
था । गीत के बोल हैं- ‘प्रलय घन छा रहे साथी । महा विध्वंस बेला का सन्देशा
ला रहे साथी । पुराने खंडहर ढहते, गगनचुंबी महल बहते, अडिग प्राचीर वाले
दुर्ग भी स्थिर नहीं रहते, उन्हीं पर झोंपड़ी के तृण उछलते जा रहे साथी । प्रलय
ही सृष्टि है नूतन, निधन में निहित है नवजीवन, इसी अवसान में ही है नवल निर्माण परिवर्तन, मिली इति आज अथ-पथ में नये
दिन आ रहे साथी ।’ नम्रता का जिक्र आते ही नीलेश का मन खराब हो गया और
वह घर के लिए चल पड़ा । घर लौटते हुए सदाशय व्रत जी के पास जा पहुँचा । सदाशय व्रत
जी ने अपने घर पर दूर देहात के कांग्रेसियों की बैठक बुला रखी थी जिसका न्यौता जगह
जगह नीलेश ने पहुँचाया । गोपनीय तरीके से बैठक संपन्न हुई जिसमें क्रांतिकारी
नौजवानों और कम्युनिस्टों के साथ कांग्रेस के मतभेद भी खुलकर सामने आये । इस बैठक
में क्रांतिकारियों की ओर से दयाशंकर और कम्युनिस्टों की ओर से गोपालराम ने ऊपर
वर्णित सवाल कांग्रेस की नीतियों पर उठाये । दयाशंकर ने अहिंसा के प्रश्न पर
असहमति दर्ज की तो गोपालराम ने लड़ाई छेड़ने का सही वक्त न होने का तर्क दिया । फिर
भी आंदोलन का वातावरण बन ही गया ।
इधर नम्रता का जिक्र
आने से गोबर्धन की पत्नी भी उससे मिलने के लिए व्याकुल हो उठी थी । उसने नीलेश से
नम्रता के लिए संदेश भिजवाना चाहा था जिसे नीलेश ने मना कर दिया था । हारकर उसने
अपने नौकर के हाथ पत्र भेजकर उसे बुलवाया । नम्रता भी इधर उदास रहने लगी थी इसलिए
उसे भी मन बहलाव लगा तो मिलने चली गयी । उससे भी जब नीलेश का जिक्र किया गया तो
बेतरह उखड़ गयी । इससे गोबर्धन की पत्नी को हल्की शंका हुई कि जरूर कोई बात है ।
नीलेश के पिता सीतानाथ को राजनीतिक गर्मी का अंदाजा हो रहा था क्योंकि सदाशय व्रत
के घर की बैठक का सुराग सरकार को लग गया जिसके चलते अनेक लोगों की गिरफ़्तारी हुई
थी । वे नीलेश को लेकर चिंतित रहने लगे और उन्हें उचित यही लगा कि नीलेश बनारस
निकल जाएं । नम्रता को उसके जाने और शादी से इनकार करने का पता लगा तो इतना गहरा
धक्का लगा कि एक ही दिन में दो बार बेहोश हो गयी ।
उपन्यास में इसके बाद
तीसरी कथा की शुरुआत होती है जो स्वाधीनता आंदोलन के जिक्र के साथ ही प्रारंभ होती
है- ‘स्वातंत्र्य आंदोलन में बमपुलिस गली की भी एक सार्थक भूमिका है ।’ यह शब्द (बमपुलिस) थोड़ी व्याख्या की अपेक्षा करता है ताकि यह समझ में आये
कि इस गली के रहने वालों का मतलब समाज का एक और कमजोर तबका है । इसका अर्थ
सार्वजनिक शौचालय है जो पहले बांस के डंडों यानी बम्बू पोल्स पर खड़ा रखा जाता था
जहां से इस शब्द की व्युत्पत्ति जुड़ी हुई है । यानी वह गली जहां सार्वजनिक शौचालय
है । साफ है कि यहां गंदगी होगी और गंदगी का रोग टी बी भी । तो इस गली के रहने
वालों को अक्सर यह रोग हो जाता था और वह भी पुरुषों को ज्यादा । ऐसे ही एक परिवार
की बहू भगजोगिनी देवी की त्रासद कथा उन महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है जिन्हें
रोज रोज की गलाजत भरी जिंदगी से बाहर निकलने का मौका लेकर आज़ादी का आंदोलन आया था
। यह कथा लेखक की सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण की गहरी क्षमता का परिचायक है लेकिन
समीक्षा की सीमा में इसका निदर्शन संभव नहीं है । हम कहानी की मोटी रूपरेखा तक ही
अपने आपको सीमित रखेंगे । भगजोगिनी देवी के ससुर की अच्छी खासी फलों की दूकान थी
लेकिन अचानक उन्हें टी बी हो गयी और वे गुजर गये । ससुर की मृत्यु के बाद पति ने
इस काम को संभाल लिया था । पति को भी इस बीमारी ने जकड़ लिया और वे भी असमय ही काल
कवलित हो गये । पति की दूकान में उनका एक हिस्सेदार दामोदर था जो भगजोगिनी देवी पर
मन ही मन मुग्ध था । पति की मृत्यु के बाद उसने षड़यंत्र करके भगजोगिनी देवी के साथ
गंधर्व विवाह का नाटक करके शारीरिक संबंध कायम किये । दामोदर पहले से ही विवाहित
था, चार बेटियां भी थीं लेकिन उसकी पत्नी पूजा पाठ में लगी रहती थी जिससे उसका
यह रसिक पति खिन्न रहता था । पत्नी की उदासीनता का कारण दामोदर की यौन उच्छृंखलता
थी । दोनों को निभाने के वर्णन में और भगजोगिनी देवी पर डोरे डालने के प्रसंगों
में लेखक ने बेहद कुशलता का परिचय दिया है । उसे यह लगता था कि उसके धन पर हक
जमाना ही पत्नी या प्रेमिका के प्यार का लक्षण है क्योंकि इससे उसका अहं तुष्ट
होता था । लेकिन उसकी पत्नी और भगजोगिनी देवी इसकी बजाए उससे निष्ठा की मांग करती
थीं । संक्षेप में यह कि इसी कारण वह दोनों से असंतुष्ट रहने लगा । संयोगवश उसकी
पत्नी को शंका हो गयी और एक रात वह भगजोगिनी देवी के यहां जा धमकी जब दामोदर भी
वहीं था । खूब झगड़ा हुआ और कांग्रेसी कार्यकर्ता रमाशंकर ने कहा- ‘दामोदर प्रसाद, हम आपको जानते हैं । देश को आजाद होने दीजिए तब हम सभी उन गद्दारों और
पुलिस दलालों को कड़ा-से-कड़ा दंड दिलाएँगे, जिन्होंने देश और जनता के साथ विश्वासघात
किया है । ध्यान रहे, इस गली में आप भूल से भी न आएँ । बस जाइए । कभी इधर
आपको देख लिया तो शहर कांग्रेस कमेटी इसे बरदाश्त नहीं करेगी ---।’ दामोदर शर्मवश दूसरे ही दिन अपने गाँव अपनी लड़की की शादी के लिए लड़का देखने
के बहाने चले गये । वहां एक ईंट भट्ठे को आग देने के सामाजिक समारोह में उन्हें
बुलाया गया जहां आग लगने के बाद औरतें गा रही थीं- ‘पाको हे ईंट पाको, जइसे दू मेहरी का मरद पाके--’। इस उपन्यास के भाषिक बरताव पर अलग से
विचार करने की जरूरत है जिसका अवकाश इस समीक्षा में नहीं है । इसी गली में एक
कांग्रेसी कार्यकर्ता रमाशंकर रहते हैं जो अन्य बड़े नेताओं की अनुपस्थिति में
अचानक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए मजबूर हो जाते हैं । उनको अखबार से
पता चलता है कि बंबई में कांग्रेस के नेता गिरफ़्तार कर लिये गये हैं । वे बलिया
में एक विशाल प्रदर्शन की योजना बनाते हैं । रमाशंकर का सोचना है कि इस बार
प्रदर्शन में महिलाओं को भी शरीक किया जाए । वे भगजोगिनी देवी को जुलूस में शामिल
होने का निमंत्रण देने गए । भगजोगिनी देवी की इच्छा देखते हुए उनकी सास भी बहू का
साथ देने जुलूस में जाने को तैयार हो जाती हैं । उस समय ऐसे ही मामूली लोगों के
असाधारण कामों के सिलसिले में लेखक की मार्मिक टिप्पणी है- ‘एक मामूली
आदमी नहीं जानता कि वह कभी, कोई क्रांतिकारी कार्य कर सकता है । वह अपने काम-धंधे, ईर्ष्या-द्वेष, सुख-दु:ख, छोटी-छोटी चालाकियों में लिप्त रहकर
फूँक-फूँककर आत्मरक्षात्मक कदम आगे बढ़ाता है, तब आश्चर्य होता है कि कैसे यही लोग किसी
संकटकालीन ऐतिहासिक मौके पर उठ खड़े होते हैं और मिलजुलकर जोर-जुल्म, अन्याय, गुलामी का विरोध करने के लिए घरों से बाहर निकल आते
हैं ।’
हिंदी में राजनीति से
जुड़े जुलूस, नारा, प्रतिबद्धता आदि शब्दों को देश निकाला देने की कोशिश होती है ।
यह बोध शीतयुद्ध के दौरान के वैचारिक संघर्ष और खेमेबंदी की छाया है । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि
प्रेमचंद की एक कहानी का शीर्षक ही जुलूस है । इस उपन्यास में जनता के आंदोलन के
वर्णन में निहित सौंदर्य को देखना इस सिलसिले में जरूरी है । दस अगस्त सन बयालिस को जुलूस निकला । जुलूस
विद्यार्थियों का था । वर्णन देखिए-
‘जुलूस किसी तरंगित सरिता की तरह आगे बढ़
रहा है । बीच-बीच में कुछ साधारण लोग भी शामिल हो जाते हैं छोटी-छोटी नदियों
और नालों की तरह । ये ही लोग सुबह की उमस में मुर्दे की तरह पड़े थे, लेकिन इस समय चैतन्य होकर देश की आजादी के इस ऐतिहासिक आंदोलन में अपना सब
कुछ कुर्बान करने के लिए तैयार हो गए हैं ।---लोग नदी से नद बन रहे हैं । दोनों किनारों
पर खड़े लोगों में से कोई कुछ देर तक देखता है, फिर सोचता है और अंत
में बढ़ते हुए जुलूस में गायब हो जाता है । कई लोग अगल-बगल गलियों से
अचानक सिर झुकाए तेजी से आते हैं और पीछे जाकर तथा पंक्ति बनाकर चल देते हैं शहीदी
राष्ट्रगान गाते और चिल्ला-चीखकर नारे लगाते हुए ।’ अचानक जुलूस वेश्याओं के मुहल्ले की ओर घूम जाता है ‘—जुलूस अब इशरतगंज होकर चलेगा, वहाँ भारत की अनेक
देवियाँ जिस्म बेचने को मजबूर की जा रही हैं । आजादी मिलने पर यह अन्याय नहीं होने
दिया जाएगा---’ । आज़ादी का मतलब उस समय इतना व्यापक हो गया था कि
किसी के लिए उससे अलग रहना संभव ही नहीं था । जुलूस को देखकर उत्साहित होकर ढेला
नीचे आ गयी और नारे लगाने लगी । उसे खाँसी आयी और खून की उल्टी हुई, वह बेहोश होकर सड़क पर गिर पड़ी । गिरी भगजोगिनी देवी के पैरों के पास ।
भगजोगिनी देवी अपने पूर्व अनुभव के बल पर बिना घबराए ढेला को लिये रहीं । आखिरकार
खून की सफाई करने के बाद ढेला को उसके घर छोड़कर जुलूस आगे चला । जुलूस जब कचहरी के
पास पहुँचा तो ‘जहाँ आकाश विस्तृत नहीं था अथवा कम खुला था, वहाँ मकान और और घनी पत्तियों वाले वृक्ष भी नारे दोहरा रहे थे । और खुली
जगह पर पीछे का क्षितिज भी गूँज उठता जैसे उधर से एक और विशाल जुलूस आ रहा हो, वैसे ही नारे लगाते हुए जिसकी आवाज दूरी की वजह से बहुत मद्धिम थी ।’ धारा 144 लगा दी गयी और कचहरी बंद हो गयी ।
इधर नीलेश बनारस से
बलिया की ओर लड़ाई में हाथ बंटाने के लिए चला । ट्रेन इलाहाबाद से बनारस होते हुए
बलिया जानी थी । इलाहाबाद से ही ट्रेन में नम्रता और उसके माता-पिता थे ।
बनारस से ट्रेन चली तो रुकती रुकाती आखिर गाज़ीपुर से थोड़ा पहले पूरी तरह थम गयी
क्योंकि आगे की पटरी उखड़ी हुई थी । पैदल ही नीलेश नम्रता के पूरे परिवार के साथ
गाज़ीपुर आया और अपने एक रिश्तेदार के यहाँ रुक गया । नीलेश ने जिस तरह इस मुसीबत
में साथ दिया उसके बारे में लेखक का कहना है कि ‘परिश्रम के ऐसे आनंद
को एक-दो शब्दों में परिभाषित करना संभव नहीं है, जिसमें देशभक्ति, कुर्बानी, दायित्व, गर्व एवं स्वार्थरहित
प्यार की भावनाएँ एकीकृत हो गई हों ।’ तीसरे दिन वे लोग नाव
से बलिया के लिए चले । इतने दिन तो नम्रता नीलेश से दूर रही थी लेकिन नाव से उतरकर
जब उसके माता-पिता गौसपुर में एक रिश्तेदार के पास मिलने गये तो वह
सहसा नीलेश से कभी दूर न जाने का वादा कर बैठी । बलिया में घर पर एक दूसरी मुसीबत
मौजूद थी । कचहरी बंद होने से कमाई बंद थी । कुछ दिन चला लेकिन दो तीन दिन बीतने
पर घर पर रखा जौ और चना ही खाने को रह गये । जब नीलेश घर आया तो यही आलम था । उसने
पास रखे पैसे दिये तो घर पर भोजन के मामले में रौनक आयी । एकाध दिन बाद नीलेश
गोबर्धन से मिलने गया तो उसी दौरान गुदड़ी बाज़ार में गोली चल गयी और अनेक लोग मारे
गये जिनमें से कुछ देहात से बाज़ार खुलने की खबर पाकर खरीद-बिक्री करने
शहर आये थे । अब आंदोलन देहात में फैल गया । देहात के आंदोलन के प्रसंग में लेखक
ने बैरिया की लड़ाई का ही जिक्र किया है क्योंकि अन्य जगहों पर तो थानेदारों ने हवा
का रुख पहचानकर समर्पण कर दिया था लेकिन बैरिया थाने का थानेदार बेहद धूर्त था ।
नीलेश को गोबर्धन के यहां से घर लौटने में देर हुई थी । अन्य छोटे भाई खासकर वीरेश
लाशों को ढोने और घायलों को अस्पताल पहुँचाने में व्यस्त रहा था । चिंता के मारे
सीतानाथ की हालत खराब थी । दोनों लौटे तो उनकी जान में जान आयी । दूसरे दिन एक और
छोटे भाई को हैजा हो गया और शहर में गड़बड़ी का माहौल होने से चिकित्सा की भी दिक्कत
हुई तो नम्रता न केवल घर में रखी दवा लायी बल्कि एक वैद्य के यहां से दवा लाने की
सलाह भी दी जिसे सीतानाथ ले भी आये और उसी से सुरेश ठीक हो गया । इस प्रसंग के
जरिए शायद लेखक नम्रता की होशियारी की प्रतिष्ठा करना चाहता था लेकिन इस तरह के
कुछ अनावश्यक प्रसंग इस उपन्यास के कलेवर को जरूरत से अधिक विस्फारित करते प्रतीत
होते हैं या संभव है लघुता प्रेमी समय ने बड़े उपन्यासों को सराहने की हमारी क्षमता
ही खत्म कर दी हो ।
बैरिया की लड़ाई की
मुख्य बात यह है कि उसके जरिए इस आंदोलन के स्वत:स्फूर्त उभार और नेतृत्व को लेखक उभारकर
ले आता है । कहते हैं ‘जहाँ कोई नेता नहीं है, वहाँ स्वयं ही लोग दल
बनाकर और अपने ही बीच में से किसी को नेतृत्व सौंपकर निकल पड़ते हैं नारे लगाते हुए
।’ इस उभार की तुलना किसी कलात्मक चित्र से करते हुए कहते हैं ‘स्वतंत्रता के भारत छोड़ो आंदोलन में उन दिनों जो दृश्य दिखाई दिए उनका
अंदाजा शायद किसी महान कलाकार द्वारा बनाए गए जन-विद्रोह या दावानल के कलात्मक चित्रों से
लगाया जा सके । कहना तो यह चाहिए कि जनता स्वयं उच्चकोटि के कलाकारों के समान, समय और इतिहास को नया मोड़ देकर देश के जीवित चरित्रों और उनकी महान विविध
संभावनाओं को निर्मित कर रही थी, जो किसी अन्य कवि या आर्टिस्ट द्वारा संभव नहीं है ।’ आंदोलन की इस रचनात्मक क्षमता का स्वीकार और उसका सृजनात्मक चित्रण इस
उपन्यास का प्राण है । बहरहाल इस लड़ाई में हमारा पूर्व परिचित क्रांतिकारी पात्र
दयाशंकर शहीद हो गया ।
विद्रोही बलिया के
अलग अलग हिस्सों की लड़ाई में जीत जाने के बाद जिला मुख्यालय की ओर चल पड़े । बलिया
के जिला कलक्टर सुरेश्वर प्रसाद को समझ में नहीं आया कि इसका मुकाबला कैसे करें ।
उन्होंने सोच विचारकर कांग्रेस के जिला अध्यक्ष से जेल में मुलाकात की । अध्यक्ष
जी ने उनसे जिला प्रशासन कांग्रेस के हाथ सौंप देने की मांग रखी । धूर्तता के साथ
सुरेश्वर प्रसाद इसके लिए राजी हो गये लेकिन अपने हाथ में कचहरी का इलाका रखा ।
कांग्रेस अध्यक्ष ने सभी बंदियों की रिहाई करवायी और ऐसा होने पर कलक्टर की बातों
पर भोलेपन के साथ यकीन कर लिया । इधर सुरेश्वर प्रसाद ने अपने एक अधिकारी को बनारस
कमिश्नरी सहायता की याचना के साथ रवाना किया और समय काटने लगे । कांग्रेस अध्यक्ष
ने जनता से अपील की कि वे अपने अपने गांव लौट जाएं और आज़ाद प्रशासन का गठन करें ।
भीड़ में से कुछ लोग लौटने के लिए राजी नहीं हुए जिन्हें एक सभा में विचार विमर्श
के लिए अध्यक्ष जी ने आमंत्रित किया । ये लोग ज्यादातर समाजवादी थे । जेल से रिहा
हुए लोगों में ही सदाशय व्रत भी थे । अचानक उन्हें पता चलता है कि जिस स्त्री पर
उनका दिल डकैती के दिनों में आया था उसका प्रेमी रामचरन भी उन्हीं समाजवादियों में
है जो अध्यक्ष जी के इस फ़ैसले का विरोध कर रहे हैं । इतने दिनों से दबी हुई
ईर्ष्या की चिनगारी फिर से सुलगने लगी लेकिन सभा के दौरान और उसके बाद उसका आचरण
और दृढ़ता देखकर वे मान गए कि उस स्त्री के प्रेम का सच्चा अधिकारी रामचरन ही था ।
दूसरे दिन शहर खाली
हो गया । धीरे धीरे लोग अपने दैनिक कामों के ढर्रे पर लौटे । लगा महीनों बाद सब्जी
बिक रही है । दूध, घी, चूड़ी बेचने वाले, बंदर, भालू और साँप का तमाशा दिखाने वाले जाने कहाँ से आ निकले और जीवन चल निकला
। इधर ढेला को डाक्टर ने भवाली ले जाने की सलाह दी थी । माँ श्यामदासी पुराने
ग्राहकों से पैसा माँगने निकली थी । रास्ते में रमाशंकर से मुलाकात हुई तो अपनी
मुसीबत बतायी । रमाशंकर ने मदद जुटाने का वादा किया और गोबर्धन के घर गये । गोबर्धन
ने शुरुआती ना नुकुर के बाद मदद करना कबूल कर लिया । इधर सुरेश्वर प्रसाद को जैसे
ही खबर मिली कि उनका भेजा हुआ अधिकारी कमिश्नर से मिलकर कल आने वाला है तो उनका
उत्साह जाग उठा और उन्होंने सशस्त्र लारी को शहर में चक्कर लगाने के लिए भेज दिया
। यह इक्कीस अगस्त की तारीख थी । गोली चली और दो लोग मारे गये । जनता का संदेह
पक्का हो गया । लोग अध्यक्ष जी के पास शिकायत लेकर गये । अध्यक्ष जी ने कलक्टर से
पूछने की बात कही लेकिन रात में ही किसी ने आकर उन्हें बताया कि अंग्रेजी फौज रेल
की पटरियों को जोड़ते हुए आ रही है । फ़ौज रात के दो बजे बलिया स्टेशन पर उतरी और
आगमन की मुनादी दो फ़ायर करके किया । सुरेश्वर प्रसाद को निलंबित किया गया । रात
में ही बीन बीन कर कांग्रेस के लोगों को पकड़ लिया गया । अध्यक्ष जी बच निकले थे ।
रमाशंकर पकड़ में आये । दिन में एक दूसरी टुकड़ी नदी मार्ग से आ पहुँची । कचहरी के
मैदान में सबको एकत्र करके सजाएं दी गईं । गाँवों में भी भय और आतंक का राज कायम
हो गया । कांग्रेसी लोग छुप गये । हिंदुस्तानी पुलिस कप्तान को भी हटाकर अंग्रेज
कप्तान नियुक्त किया गया । खराब माहौल में सीतानाथ के साले यदुनंदन प्रसाद, जो सिविक गार्ड के कमांडर थे, भांजे नीलेश के प्रति
चिंता से भरे आये और उसे कहीं दो चार दिन के लिए छिपा देने की सलाह देने लगे ।
सीतानाथ ने नीलेश को सामने मुख्तार रतन सिंह के यहाँ कुछ दिनों के लिए रहने भेज
दिया । नीलेश के वहीं रहते हुए एक रात नम्रता ने गोली चलने की आवाज सुनी जो लोगों
में भय का वातावरण बनाये रखने के लिए अंग्रेजी फौज यूँ ही चला दिया करती थी तो
नीलेश के प्रति उसकी चिंता का प्रकटीकरण प्रेम के रूप में हुआ जिसमें रात में उसके
कमरे की मसहरी लगा देना, छत पर मिलना आदि हुआ । एक दिन किसी गुप्त सूचना के
आधार पर नीलेश देहात में किसी सभा में गया तो गिरफ़्तार कर लिया गया । पुलिस उसे घर
ले आयी तो नम्रता मजिस्ट्रेट से जमकर लड़ी । रतन सिंह को बुरा लगा और उन्होंने वजह
पूछी तो नम्रता ने अपने प्रेम की बात स्वीकार की । डाँट पड़ने पर उसने चूहा मारने
की दवा खा ली तो मजबूर होकर रतन सिंह ने विवाह करना मंजूर कर लिया ।
आंदोलन के उतार के
दिनों में कांग्रेस की प्रांतीय समिति द्वारा नियुक्त एक व्यक्ति बैकुंठ ने रात
दिन मेहनत करके किसी तरह संगठन को जिंदा रखा । उस समय की नीति के बारे में लेखक का
मत है- ‘ज्वार खत्म होने पर भाटा के समय यह उम्मीद या इच्छा करना कि फौरन ज्वार आ
जाएगा, भ्रम या मूर्खता का ही विचार है । इसीलिए महात्मा
गांधी अथवा दुनिया के अन्य जननेता रचनात्मक कार्यों द्वारा तैयारी करते हुए ज्वार
के उचित समय की प्रतीक्षा करते हैं ।’ इसी कठिन समय में
उपन्यास के तकरीबन अंत में प्रेमानंद नामक एक ऐसा पात्र खड़ा होता है जो अपनी
भास्वरता में अप्रतिम है । आश्चर्यजनक रूप से इसी तरह के नाम का पात्र आत्मानंद
प्रेमचंद के ‘कर्मभूमि’ में भी है इससे लगता
है कि यह कल्पित नहीं एक हद तक वास्तविक पात्रों की दुनिया है । प्रेमानंद संयोग
से पुलिस की पकड़ में आते हैं । उनकी पिटाई अंग्रेज अधिकारियों की क्रूरता और
आंदोलनकारी की सहनशीलता की टकराहट में बदल जाती है जिसमें अक्सर प्रेमानंद ही
विजयी होते हैं । अंतत: पुलिस कप्तान वुड उनकी पिटाई करने आता है और असफल
होकर चला जाता है । फिर शहर कोतवाल मुइनुद्दीन उन्हें घर पर पिटाई के लिए बुलवाता
है । जब प्रेमानंद उसकी कलाई पकड़ लेते हैं तो लाख जोर लगाने पर भी वह छुड़ा नहीं
पाता । इससे प्रभावित होकर वह उन्हें हथकड़ी बेड़ी से मुक्त कर देता है ।
ढेला की भवाली में
इतनी अच्छी तरह चिकित्सा होती है कि अब वह पहचान में ही नहीं आती । इसमें डाक्टर
आनंद स्वरूप का प्रमुख योगदान है । वे बीमारी के प्रति सैनिकों का नजरिया अपनाते
हैं और मानते हैं कि ‘हम भी तो युद्ध के सैनिकों की तरह बीमारी के खिलाफ
लड़ाई लड़ते हैं । हमारी लड़ाई तो हमेशा जारी है आखिरी जीत की उम्मीद के साथ कि एक
दिन दुनिया से रोग-शोक खत्म हो जाएगा ।’ उसका कहना है कि ‘बीमारी से शरीर कलुषित और अपवित्र हो जाता है और गलत विचार से मन । बीमारी
दूर होने से जैसे शरीर स्वच्छ और पवित्र हो जाता है, उसी तरह सुंदर विचार
से मन और आत्मा ।’ ढेला के ठीक होने के बाद डाक्टर उसे बलिया नहीं लौटने
देता बल्कि अपने साथ रखकर उसे वहीं सैनेटोरियम में नर्स बनवा देता है ।
1943 में नम्रता ने हाई स्कूल की परीक्षा दी थी और आगे
पढ़ने के लिए इलाहाबाद जाने वाली थी । इलाहाबाद में उसकी पढ़ाई के दौरान ही जेल में
बंद लोगों के छूटने की प्रक्रिया शुरू होती है । युद्ध की समाप्ति के बाद रिहाई की
प्रक्रिया तेज हो जाती है । नीलेश के साथ एक नेता अनिरुद्ध दास पहले फैजाबाद जेल
में फिर नैनी जेल में रहते हैं । अनिरुद्ध दास उन नेताओं में से हैं जो जानते हैं
कि आज़ादी के बाद उन्हें ही प्रशासन सँभालना है । वे नीलेश को इसके लिए व्यक्तिगत
सहयोगी के रूप में ताड़ लेते हैं और प्रशंसा का भूखा नीलेश क्रमश: इस जाल में फँसता जाता है । रिहाई के बाद वह अनिरुद्ध दास के घर पर रहकर
उनके निजी सचिव का काम करने लगता है । दास साहब की लड़की प्रियादास नीलेश के करीब
आती जाती है और नीलेश को नम्रता भूलती जाती है । यहाँ आकर भेद खुलता है कि नीलेश-नम्रता की
कहानी क्यों इतना जगह घेरे हुए है । असल में उनके संबंधों का उतार चढ़ाव जनता और
सत्ता संरचना की नजदीकी-दूरी का रूपक बन जाता है । व्यक्तिगत प्रेम को
सामाजिक घटनाओं के साथ इस तरह गूँथना एक बड़े उपन्यासकार के लिए ही संभव था और यह
काम अमरकांत ने बखूबी निभाया है । सत्ता के करीब जाने पर सुख सुविधा का जीवन
बिताने के लिए कैसे अवसरवादी तर्क बनाये जाते हैं इसे नीलेश की चिंतन प्रक्रिया के
जरिए उपन्यासकार ने अच्छी तरह चित्रित किया है । वीरेश के धिक्कारने पर नीलेश अपने
आपको बदलने की कोशिश करता है लेकिन अनिरुद्ध दास का आभामंडल उसे दलदल में लगातार
खींचता जाता है । उपसंहार में हमें सूचना मिलती है कि नम्रता का विवाह किसी नामी
जमींदार के साथ हो गया था । दामोदर की लड़कियों की शादी हो गई । भगजोगिनी देवी को
कन्या विद्यालय में दाई की नौकरी मिल गई । बलिया में चौक में एक सभा हुई जिसमें
अन्य सभी तो शरीक हुए लेकिन नीलेश ‘इलाहाबाद से ही अनिरुद्ध दास के साथ कार से दिल्ली
चला गया’ है । सभा में सदाशय व्रत के भाषण में बँटवारे का दुख
बोलता है और वे कहते हैं कि इस दुर्घटना का कारण दोनों पार्टियों की गलती के साथ
ही तीसरी पार्टी के षड़यंत्र भी थे । वह पार्टी तो विदेश चली गयी लेकिन हमें सावधान
रहने की जरूरत है । उपन्यास के इस कमजोर अंत से उसकी महत्ता कम नहीं होती ।
शमशेर बहादुर सिंह ने
लिखा था कि समस्त कला राजनीति है । उनके इस सूत्र की उलझन को समझने से इस उपन्यास
की बहुत सारी खूबियों का पता चलता है । बहुत पुरानी मान्यता है कि लेखन का मकसद पाठक के भावों को जागृत
करना है । लेखन के समस्त उपकरणों की अर्थवत्ता की परीक्षा इसी कसौटी पर की जा सकती
है । इस नाते हमारे सामने इस कथन का नया अर्थ खुलता है । आम तौर पर इसका नकारात्मक अर्थ निकाला जाता है और माना जाता है कि कला की मौजूदगी सृजनात्मक लेखन में समाज की मौजूदगी को रोकने का काम करती है । लेकिन इस कथन का अर्थ यह है कि जनता की भावनाओं को सर्वोत्तम तरीके से स्वर देने में ही कला की सार्थकता है । इसी आधार पर कोई लेखन लोगों के भीतर लोकप्रिय हो जाता है । फिर उसकी इस सफलता का रहस्य समझने के क्रम में कलात्मक उपादानों को पहचाना जाता है । व्यंग्य जैसी कथन भंगिमा को इसके लिए ही अपनाया जाता रहा है । बिना स्पष्ट रूप से नाम लिए जो कोई शासन की नग्नता को भले प्रकार से उजागर कर देता है उसकी कला उतनी ही लोकप्रिय और कालजीवी हो जाती है ।
स्वाधीनता आंदोलन की याद से निर्मित इस उपन्यास के लेखन के समय को देखने से अमरकांत की एक और खूबी का पता चलता है । वह समय नवउदारवाद का है जब उपन्यासकार को स्वाधीनता आंदोलन की याद आना शुरू होती है । जिस तरह भिवंडी के दंगों ने भीष्म साहनी के मन में विभाजन की यादों को जगा दिया था उसी तरह देश के पुन:उपनिवेशीकरण की आशंका ने शायद अमरकांत के मन में बलिया के उस दौर की यादों को जगा दिया होगा जब जनता की स्वतंत्र पहल ने आबादी के बहुत बड़े हिस्से को सड़क पर उतार दिया था । जब आंदोलनों और जन विक्षोभों की अभिव्यक्ति को बदनाम किया जा रहा था तो अमरकांत जी को यह काम जरूरी लगा रहा होगा । सड़क को जब केवल बाजार के विज्ञापन की चकाचौंध की नुमाइश के लिए ही आरक्षित करने का तानाशाही उत्साह था तब अमरकांत ने उन छवियों को दर्ज करना जरूरी समझा जब सड़क पर जनता का भी दखल हुआ करता था । यह भी देखने की बत है कि पहले इसका प्रकाशन धारावाहिक हुआ था और सम्भवत: कथा की टेलीविजनी धारावाहिकता का यह भी एक सांकेतिक प्रतिपक्ष उन्हें सही लगा होगा ।
स्त्री-पुरुष संबंधों
को लेकर इस उपन्यास में बहुत कुछ कहा गया है जिसकी परिणति उपन्यासकार के सहकार और
सहकारिता पर आधारित सहजीवन की स्वीकृति में होती है । इस संबंध में विस्तृत
विश्लेषण का अवकाश न मिल सका । भाषा का उपनिवेशवाद विरोधी विमर्श निश्चय ही अलग से
विचार योग्य है जिसमें भोजपुरी केवल शब्द तक ही नहीं अभिव्यक्ति की प्रणाली में भी
समायी हुई है लेकिन उत्सव धर्मी होने से बच गई है । ‘तैं’ और ‘हटे’ मिल जाने से यही भोजपुरी गिटपिट हो जाती है तो फ़ारसी
लदी अदालती जुबान ‘आबा-काबा’ । कहने की जरूरत नहीं कि शासकों की भाषा उन्हें जनता के जीवन से दूर ले जाकर विशेष बनाती है । इस दूरी की जरूरत शासन हेतु होती है । इस मामले में भाषिक प्रतिकार भी प्रेमचंद की भाषा की विशेषता के बतौर दर्ज किया जाना चाहिए । प्रेमचंद के इस संघर्ष के साथ अमरकांत की भी भाषा खड़ी मिलती है ।
आज के दौर में इस उपन्यास को याद करने का संदर्भ इससे भी निर्मित होता है कि शासन की ओर से देश की आजादी के आंदोलन को झुठलाने की कोशिशों में निर्लज्ज उभार आया है । आजादी को कोई सिरफिरा 2014 में आया बता रहा है तो कोई प्रमुख 2024 में । यहां तक कि औपनिवेशिक शासन की बर्बरता और विशेषता पर परदा डालने के लिए गुलामी की अवधि को हजार साल कहा जा रहा है । स्वाधीनता आंदोलन की विरासत लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को मटियामेट करने के लिए सामाजिक और राजनीतिक रूढ़िवाद को सरकारी संरक्षण प्रदान किया जा रहा है । इस उपन्यास को इस समय पढ़ने की जरूरत सही साहित्य बोध के लिए जितना अधिक है उतना ही अधिक इसे स्वाधीनता आंदोलन को सही परिप्रेक्ष्य में देखने के लिए पढ़ा जाना चाहिए । आजादी के आंदोलन से उपजी लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष चेतना को रेखांकित करने के मौजूदा संघर्ष में अमरकांत का यह हस्तक्षेप उनका दीर्घजीवी योगदान भी था ।
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