Tuesday, January 14, 2025

रिचर्ड वोल्फ़ के मुताबिक पूंजीवाद क्या है

 

2024 में डेमोक्रेसी ऐट वर्क से रिचर्ड डी वोल्फ़ की किताब ‘अंडरस्टैंडिंग कैपिटलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । इसका संपादन जेसन टी बटलर और जेनिसा मुनरो ने किया है । लेखक का कहना है कि जबसे पूंजीवाद आया है तबसे ही उसके स्वरूप के बारे में लोगों के बीच मतभेद भी रहा है । इसके समर्थक और विरोधी तो रहे ही हैं  इसकी कार्यपद्धति के बारे में उत्सुकों की संख्या भी कम नहीं है । उसकी परिभाषा के अनुरूप ही उसके बारे में लोगों के भाव भी होते हैं । इसीलिए सबसे पहले उन्होंने इस किताब के लिखने की वजह बतायी है । बहुत सारे लोग यह तो मानने लगे हैं कि पूंजीवाद से समस्याओं का छुटकारा सम्भव नहीं है लेकिन बुनियादी आर्थिक धारणाओं की उनकी समझ पक्की नहीं होती । पूंजीवाद की समस्याओं की वजह समझने और तरह तरह के समाधानों का मूल्यांकन करने के लिए इन धारणाओं की समझ बहुत जरूरी है । दुर्भाग्य से सारी दुनिया में अर्थशास्त्र की जानकारी कम है । पाठ्यक्रम, नेता और मीडिया इस मामले में मदद करने की जगह उलझन पैदा करते हैं । इसलिए किताब की शुरुआत बुनियादी परिभाषा से हुई है जिसका उपयोग इसे समझने के मकसद से किया गया है । इसी क्रम में विरोधी मान्यताओं का भी विश्लेषण किया गया है । अपने पांच सौ साल के जीवन में पूंजीवाद सचमुच वैश्विक व्यवस्था बन चुका है । कुछ लोग इसका उत्सव मनाते हैं तो अधिकतर लोग इसकी आलोचना करते हैं । ऐसा ही दास प्रथा, सामंतवाद या अन्य आर्थिक व्यवस्थाओं के साथ भी था । सभी व्यवस्थाओं के तहत सोचने विचारने वालों को लगा कि उस व्यवस्था को ठीक से समझने के लिए उसके समर्थकों के साथ आलोचकों की राय पर भी ध्यान देना होगा । अगर एक ही पक्ष की बात सुनेंगे तो समझदार की जगह प्रचारक बनेंगे । इसलिए किताब में पूंजीवाद की जयकार की जगह उसकी आलोचना को प्रमुखता दी गयी है । इस आलोचना को अक्सर उपेक्षा, तिरस्कार या प्रतिबंध का सामना करना पड़ता है । लेखक ने निष्पक्ष होने से इनकार भी किया है । अधिकांश नेता, पत्रकार और शिक्षक पूंजीवाद के समर्थक हैं लेकिन लेखक उसके आलोचकों में गिने जाते हैं । इसका कारण लेखक ने कुछ लोगों के लाभ के लिए अधिकतर लोगों को खटाने के इसके नग्न यथार्थ का गवाह होना बताया है । उनको मनुष्य की बेहतरी की उम्मीद है । सही बात है कि इस समय युद्ध, जलवायु परिवर्तन, आर्थिक विषमता, प्रवास और जन असंतोष जैसे संकट हैं और विफलता बहुमुखी है लेकिन हमारे समय की अर्थव्यवस्था यानी पूंजीवाद की समझ से कुछ हद तक इन संकटों से पार पाया जा सकता है ।

इस समय पूंजीवाद मुसीबत में है । इस मुसीबत की जड़ उसकी व्यवस्था में मौजूद है । इस व्यवस्था के बारे में बहुत मतभेद हैं । इसे समझने के लिए बुनियादी धारणाओं और विचारों की समझ जरूरी है । यह काम शुरुआती अध्यायों में किया गया है । उसके बाद ही इनके सहारे पूंजीवादी व्यवस्था का विश्लेषण किया गया है । संदर्भ उसकी वर्तमान मुसीबतों का खास तौर पर लिया गया है । शुरुआती अध्याय कुछ कठिन हैं । किसी भी विश्लेषण की शुरुआत कठिन होती ही है । इसके बाद पूंजीवाद के वर्तमान मुद्दों को किताब में अधिक जगह दी गयी है । पूंजीवाद की गलती और कमजोरी का उल्लेख करने से लेखक ने परहेज नहीं किया है क्योंकि ये उसकी मुसीबतों का  स्रोत बने हुए हैं । आलोचना के साथ ही समाधान प्रस्तुत करने की किम्मेदारी भी लेखक ने निभायी है । इसके तहत व्यवस्था में सुधार से लेकर वैकल्पिक नयी व्यवस्था में संक्रमण तक का रास्ता सुझाया गया है ।

सत्रहवीं सदी में इंग्लैंड में इसका जन्म हुआ और तबसे वर्तमान वैश्विक प्रसार तक पूंजीवाद विभिन्न देशों, संस्कृतियों और अर्थतंत्रों के सम्पर्क में आया जिसके चलते इसकी अलग अलग समझ बनी । बुनियादी धारणाओं तक के अर्थ तरह तरह के निकाले गये । बात गलत या सही के मुकाबले उनके अर्थ वैभिन्य की है । पूंजीवाद को परिभाषित करने के मामले में लेखक का कहना है कि मानव समुदाय जिन वस्तुओं और सेवाओं पर निर्भर है उनके उत्पादन हेतु वह खुद को जिस तरह संगठित करता है उसके एक रूप को पूंजीवाद कहा जाता है । परिवार, देश या दुनिया तक प्रत्येक समुदाय इन वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करता है । अलग अलग समयों और स्थानों पर उत्पादन की व्यवस्था अलग अलग होती है । इनका उद्भव, विकास और अंत होता रहा है । कभी उनका भौगोलिक प्रसार होता है तो कभी एक ही समय एक ही जगह एकाधिक व्यवस्थाएं नजर आती हैं ।

इस समय दुनिया के अधिकांश भाग में पूंजीवाद प्रमुख उत्पादन पद्धति है । इसका उद्भव और प्रसार यूरोप में सामतंवाद के पराभव के साथ हुआ । इसी तरह सामंतवाद भी सदियों पहले दास प्रथा के पराभव के साथ हुआ था । इतिहास की इसी गति के कारण पूंजीवाद का भी अंत होगा और उसकी जगह कोई अन्य उत्पादन पद्धति आयेगी । पूंजीवाद को समझने के लिए लेखक को उसके पहले की इन दोनों पद्धतियों को समझना जरूरी लगता है । दास प्रथा के अंतर्गत समाज दास मालिक और दास नामक दो संबद्ध समूहों में संगठित था । उनका बुनियादी रिश्ता यह था कि दास को उसके स्वामी की संपत्ति माना जाता था । काम तो अधिकतर दास करते थे लेकिन उत्पादन, काम और उत्पाद के बारे में फैसला लेने का उनको अधिकार नहीं था । ये सभी फैसले उनके मालिक करते थे । दास का अपने ऊपर भी कोई अधिकार नहीं होता था । सारी उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं का अधिकार मालिक के पास होता था और वही इनका वितरण भी तय करता था । इनका एक हिस्सा बाजार में बेचकर मालिक नये उपकरण और बीज ले आता था ताकि उत्पादन जारी रह सके । एक और हिस्सा दास और उसके परिवार हेतु भोजन के रूप में जाता था । शेष हिस्सा मालिक के पास उसकी आय के रूप में रह जाता था । दास को मिलने वाले हिस्से में कटौती करके ही उसका मालिक अपनी आय में बढ़ोत्तरी कर सकता था इसलिए वह अक्सर दासों की जरूरतों को नजरअंदाज कर देता था । इन्हीं दासों के प्रतिरोध ने दास प्रथा का अंत कर दिया और इस समय बहुत कम ही उत्पादन इस तरह की व्यवस्था में होता है ।

इसके बाद सामंतवाद में उत्पादन के लिए भूदास और जमीन के मालिकों की नयी व्यवस्था बनी । भूदास ही अधिकांश काम करते थे लेकिन सारे जरूरी फैसले जमीन के मालिक लिया करते थे लेकिन भूदास को जमींदार की संपत्ति नहीं माना जाता था । इन दोनों के बीच का रिश्ता धार्मिक किस्म की सामाजिक व्यवस्था का होता था । जमींदार किसी प्रभु की तरह जमीन का मालिक होता था, उसे भूदासों के बीच वितरित करता था और उनकी रक्षा करता था ताकि वे जमीन पर काम करते रहें । भूदास प्रभु की आज्ञा का पालन करते और जमीन की उपज का एक हिस्सा प्रभु को अर्पित करते थे । शेष को वे अपने और परिवार के पालन पोषण हेतु प्रसाद की तरह ग्रहण करते थे । दास प्रथा की तरह ही समर्पित उपज का प्रभु अपनी मर्जी से उपभोग करता था । इसका विक्रय भी होता था ताकि प्राप्त धन से नये किले बनें या समारोह का आयोजन हो । इसके बाद नये उपकरण भी खरीदने होते थे । इसी धन से चर्च और बादशाह को भी अर्पित करना होता था ताकि वे भी इस व्यवस्था का अबाध समर्थन करते रहें । भूदासों के विरोध से इस व्यवस्था का अवसान हुआ । दासों के मुकाबले वे आजाद तो थे लेकिन तत्कालीन विषमता का उन्होंने जोरदार प्रतिरोध भी किया । इन दोनों का एक साथ होना भी कुछ इलाकों की विशेषता रहा । पूंजीवाद के साथ भी ये दोनों व्यवस्थाएं मौजूद रही हैं । अमेरिका की जेलों में अब भी दास प्रथा संवैधानिक रूप से मौजूद है । इसी तरह कुछ घरों में भी सामंती व्यवस्था की तरह काम होता है । ऐसा हो सकता है लेकिन ऐसा होना अनिवार्य नहीं होता । तो फिर लेखक का सवाल है कि पूंजीवाद आखिर क्या है । उनके अनुसार इसमें नियोक्ता और नियुक्त के बीच विनिमय का समझौता होता है । पगार के लिए नियुक्त श्रमिक अपनी कार्यक्षमता को नियोक्ता के हाथों बेचता है । उपकरण या कच्चे माल जैसे उत्पादन के साधनों पर नियोक्ता का ही अधिकार होता है । किसी वस्तु के उत्पादन हेतु काम का संगठन नियोक्ता ही करता है ।

दास प्रथा और सामंतवाद में श्रमशक्ति की खरीद बिक्री नहीं होती थी । उस समय श्रमशक्ति कोई विक्रेय माल नहीं थी । संसाधनों, उत्पादों और मनुष्यों की खरीद बिक्री का बाजार तो था लेकिन मेहनत करने की क्षमता को कामगार किसी दूसरे को नहीं बेचता था । श्रमशक्ति की बिक्री ही वह खास बात है जो अन्य व्यवस्थाओं से पूंजीवाद को अलगाती है । नियोक्ता और नियुक्त के बीच विनिमय के समझौते में नियुक्त की मेहनत के उत्पाद पर नियोक्ता का तुरंत ही कब्जा हो जाता है । आधुनिक पूंजीवाद में उत्पाद के वितरण का प्रधान जरिया बाजार है । श्रमशक्ति की खरीद बिक्री के साथ ही अधिकांश नियोक्ता संसाधनों और उत्पादों की भी खरीद बिक्री करते हैं । नियुक्त कामगार अपनी पगार से भुगतान करके अपनी श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन हेतु आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं को खरीदता है । नियुक्त कामगार अपने ही श्रम से उत्पादित वस्तुओं का उपभोग करता है । इस पूरी प्रक्रिया में नियोक्ता महज मध्यस्थ होता है लेकिन पूंजीवाद में सभी फैसले वही लेता है ।

इस समझौते के कारण पूंजीवाद शेष व्यवस्थाओं से अलग तो होता है लेकिन दास प्रथा और सामतवाद की कुछ खूबियां इसमें भी होती हैं । उदाहरण के लिए उत्पादन, तकनीक और मुनाफ़े के मामले में फैसले लेने का अधिकार इसमें भी मुट्ठी भर मालिकों के ही हाथ में होता है । बहुसंख्यक कामगारों को इन फैसलों की प्रक्रिया से बाहर रखा जाता है । इसके बावजूद कामगारों को ही उन फैसलों के नतीजे भुगतने पड़ते हैं । कार्यस्थल पर प्राधिकार की यह अद्भुत विषमता उसे दास प्रथा और सामंतवाद के साथ जोड़ती है ।

इसके बाद लेखक ने वर्ग को परिभाषित करने की कोशिश की है । उनके मुताबिक बहुतेरे लोग इस मामले में सत्ता और संपत्ति का ध्यान रखते हैं । उनके अनुसार समाज में विभिन्न समूहों को शेष समूहों के मुकाबले अधिक शक्ति प्रदान की गयी है । कुछ लोगों को दूसरों को आदेशित करने का अधिकार हासिल होता है । वे आदेश देने वाले होते हैं, लेने वाले नहीं । इसके मुकाबले जो आदेश लेने वाले होते हैं उनके पास प्राधिकार नहीं होता । आदेश देने वाले शक्तिशाली शासक वर्ग के होते हैं जबकि अन्य शक्तिहीन शासित वर्ग के । इनके बीच मध्य वर्ग होता है जिसके पास थोड़ी शक्ति होती है लेकिन शासक वर्ग से कम होती है । इसी तरह संपत्ति के बंटवारे के अनुसार भी वर्ग को परिभाषित किया जाता है । उदाहरण के लिए अमीर लोग ऊपरी वर्ग के होते हैं जबकि गरीब निचले वर्ग के । इनके बीच वाले मध्य वर्ग के कहलाते हैं । सैकड़ों साल तक वर्गों को इसी अर्थ में समझा जाता रहा । सामाजिक समस्याओं की वजह भी वर्ग विभेद बताया जाता रहा । लोकतंत्र के समर्थकों का मानना है कि उसकी स्थिरता मध्य वर्ग के विस्तार पर निर्भर है क्योंकि उनमें सत्ता और संपत्ति की कुछ समानता होती है । सबके लिए बेहतर समाज बनाने का रास्ता भी वर्ग विभेद को खत्म करने का ही सुझाया गया । इस दिशा में सफलता आंशिक और अस्थायी ही रही है । पूरी दुनिया में सत्ता और संपत्ति के मामले में वर्ग विभेद व्याप्त है । इस पर विजय पाना अनेक कोशिशों के बावजूद आज तक सम्भव नहीं हो सका है । मार्क्स ने वर्ग को पूंजीवादी व्यवस्था में नये तरह से विभाजित किया और उन्हें उत्पादन की प्रक्रिया में नियोक्ता और नियुक्त की तरह व्याख्यायित किया । सत्ता और संपत्ति के मुकाबले उत्पादन की प्रक्रिया में व्यक्ति की हैसियत को उन्होंने उसके वर्ग का निर्धारक माना । वर्ग को समझने का उनका यह नया रुख उनके जीवन में ही लोकप्रिय हो गया और 1883 में उनके देहांत के बाद तो और भी अधिक मशहूर हुआ । मार्क्सवाद सामाजिक चिंतन की विश्व परम्परा का अभिन्न अंग हो गया । किताब में वर्ग की इसी मार्क्सी धारणा का इस्तेमाल किया गया है क्योंकि उसके आधार पर पूंजीवाद को गहराई से समझा जा सकता है ।

नियोक्ता वर्ग की संख्या बहुत कम है । अमेरिकी वयस्क आबादी में उनका अनुपात 1 से 3 प्रतिशत तक अनुमानित है । इसके मुकाबले नियुक्त लोगों की संख्या आबादी का आधा है । अधिकांश अमेरिकी नियुक्त कामगार हैं फिर भी उत्पादन और उत्पाद के मामले में सभी फैसले मुट्ठी भर नियोक्ता ही लेते हैं । ये कामगार अपनी कार्यक्षमता किसी को भी बेचने के लिए आजाद हैं और नियोक्ता इसे खरीदने या न खरीदने के लिए आजाद हैं । लेकिन उत्पादन की प्रक्रिया और उत्पाद के बारे में फैसला लेने के मामले में दोनों के बीच कोई साझा नहीं है । इस पर नियोक्ताओं का ही इजारा रहता है । पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में एक वर्ग के पास सारी शक्ति होती है जो दूसरे वर्ग से छीन ली गयी होती है । उनकी इन शक्तियों का स्रोत उत्पादन की प्रक्रिया में उनकी हैसियत पर ही निर्भर होती है । इस यथार्थ का लोकतांत्रिक शासन से सीधा विरोध होता है । लोकतंत्र में एक व्यक्ति-एक मत का अर्थ राजनीतिक शक्ति का समान बंटवारा है लेकिन पूंजीवाद में शक्तियों का असमान विभाजन अंतर्निहित होता है । मार्क्स के इस वर्ग विश्लेषण को अन्य उत्पादन पद्धतियों पर भी लागू किया जा सकता है । दास प्रथा और सामंतवाद में मालिकों के हाथ में अकूत संपदा और शक्ति केंद्रित थी । इन व्यवस्थाओं के आलोचक इस विषमता पर ही ध्यान देते थे । मार्क्स ने इस विषमता के स्रोत उन उत्पादन पद्धतियों में तलाशे ।

गुलामों और भूदासों ने इन व्यवस्थाओं से आजादी की मांग की और पूंजीवाद को मुक्त समाज के बतौर अपनाया । कामगार सचमुच आजाद थे और उन्होंने पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था को अपनी इच्छा से स्वीकार किया । पिछली व्यवस्थाओं से यह कुछ बेहतर तो थी लेकिन इसमें भी नियुक्त कामगार मेहनत करके जिस संपत्ति का उत्पादन करते उस पर नियोक्ता कब्जा करके व्यवस्था को कायम रखने के लिए उसका वितरण करते हैं । इस तरह मार्क्स वर्ग विश्लेषण के आधार पर इन तीनों व्यवस्थाओं के साझा तत्व को देख पाते हैं और इस आधार पर इसमें बदलाव की जरूरत को रेखांकित करते हैं । उनके अनुसार मुट्ठी भर लोगों का विशाल बहुसंख्या पर ऐसा नियंत्रण समाप्त होना ही चाहिए । पूंजीवाद के प्रवक्ताओं का वादा था कि वे दास प्रथा और सामंतवाद में मौजूद संपत्ति और शक्ति की विषमता को दूर करेंगे । इसीलिए स्वंत्रता, समानता और लोकतंत्र को उन्होंने अपना ध्येय घोषित किया । मार्क्स ने कहा कि पूंजीवाद ने अपना वादा नहीं निभाया और नये तरह की दासता थोप दी । पूंजीवाद के ही वादे को पूरा करने के लिए नियोक्ता और नियुक्त के इस संबंध के पार जाना होगा और ऐसी उत्पादन पद्धति कायम करनी होगी जिसमें उत्पादन प्रक्रिया के दौरान लोगों को शक्ति संपन्न और शक्तिहीन, अमीर और गरीब में न बांटा जाय । उनके मुताबिक कार्यस्थल का पूंजीवादी ढांचा पूंजीवाद के ही आदर्शों को अमल में लाने में बाधा साबित होता है । मार्क्स का कहना था कि इन सभी व्यवस्थाओं में कामगार अधिशेष का उत्पादन करते हैं । अधिशेष वह राशि है जो उत्पादक के अपने जीवन हेतु आवश्यक उपभोग और उत्पादन के प्रयुक्त साधनों को बदलने के बाद भी बची रहती है । इस अधिशेष का उत्पादन कामगार अपने उपभोग के लिए नहीं, दूसरों के लिए करते हैं इसलिए मार्क्स ने कामगार को शोषित माना है । पूंजीवाद के प्रगतिशील आलोचक शोषण को पूंजीवाद का बुनियादी अन्याय मानकर उसका विरोध किया । शोषण की इस धारणा के साथ ही यह सवाल उठता है कि शोषणहीन उत्पादन व्यवस्था कैसी होगी । लेखक ने इसका उत्तर मजदूरों की सहकारिता में दिया है ।  

उनके इस आदर्श कार्यस्थल पर सभी भागीदारों के बीच का रिश्ता लोकतांत्रिक होगा । उत्पादन और वितरण के मामले में फैसला लेते समय प्रत्येक कामगार की राय का वजन बराबर होगा । सहकारिता द्वारा उत्पादित अधिशेष पर तत्काल किसी और का कब्जा नहीं होगा । स्वतंत्रता, समता और लोकतंत्र का सपना शोषक अर्थव्यवस्थाओं में साकार नहीं हो सका था । पूंजीवाद ने इसे पूरा करने का वादा किया था लेकिन विफल रहा । मार्क्स ने बताया कि पूंजीवाद भी क्यों शोषक व्यवस्था ही बना । अच्छी बात यह कि भविष्य का कर्तव्य पता है । जिस तरह हमारे पूर्वजों ने दास प्रथा और सामंतवाद से आगे की राह पायी उसी तरह हमें भी पूंजीवाद के पार जाना होगा । इसके लिए कार्यस्थल पर कामगार के जीवन में भी लोकतंत्र उतारना होगा ।

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