1. कविता कई तरह से परिभाषित, व्याख्यायित की गई है. आप की
दृष्टि से आज कविता की पहचान क्या है ?
उत्तर- इस सवाल का
सर्वोत्तम जवाब आचार्य शुक्ल ने बहुत पहले ‘कविता क्या है’ में दिया था और उसमें बदलाव की
कोई जरूरत महसूस नहीं होती । उनके अनुसार कविता शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक
संबंधों की रक्षा और निर्वाह का साधन है । आज तो उनकी इस परिभाषा का महत्व और भी
बढ़ गया है जब शेष सृष्टि में शामिल मानव समाज, अन्य प्राणी और प्रकृति के साथ
व्यक्ति के रिश्तों में टूटन बढ़ती जा रही है । सामाजिक ताने बाने को जातिभेद के
जहर ने पहले ही बहुत ढीला कर रखा था अब उसमें धार्मिक वैमनस्य का घोल भी डाला जा
रहा है । साहित्य के लिहाज से खतरनाक बात यह है कि उस उर्दू को धार्मिक पहचान के साथ
जोड़ा जा रहा है जिसका जन्म ही भारत में हुआ था और जो इस महाद्वीप के बाहर कहीं और
बोली भी नहीं जाती । वर्तमान मुस्लिम विरोध का जातिगत पहलू यह है कि हमारे देश के
बहुसंख्यक मुस्लिम वे हैं जो हिंदू समुदाय की निम्न जातियों से धर्मांतरित हुए थे ।
इस तरह जातिगत भेदभाव का विस्तार धार्मिक वैमनस्य तक हो गया है । इसके अलावे अन्य
प्राणियों का संहार बड़े पैमाने पर हो रहा है क्योंकि उनके वासस्थान पर मनुष्यों का
कब्जा होता जा रहा है । प्रकृति के साथ हमारे हिंसक व्यवहार ने धरती के अस्तित्व लिए
ही संकट पैदा कर दिया है । ये सभी संकट आधुनिक पूंजीवादी जीवन पद्धति के अनिवार्य
परिणाम हैं ।
2. कविता का दायित्व और जीवन पर इसके
असर को आप किस रूप में देखते हैं ?
उत्तर- कविता का दायित्व मनुष्य के इस
अकेलेपन से उसे उबारने में सहायता करना है । यह काम वह मनुष्य की संवेदना में
विस्तार करके करती है । इसे ही मुक्तिबोध ने आत्मविस्तार कहा था क्योंकि मनुष्य का
जीवन सबके जीवन पर निर्भर है । जिस पूंजीवादी जीवन पद्धति ने हमारे समाज को ग्रस
लिया है उसने मनुष्यों के भीतर भी जाति, नस्ल, लिंग और क्षमता के आधार पर भेद पैदा
किये हैं । लोभ और उपभोग की इस विजययात्रा ने नये नये हाशियों को जन्म दिया और उनके
प्रति समस्त समाज को संवेदनहीन बनाया है । इस व्यवस्था की रक्षा के लिए औपचारिक
लोकतंत्र भी बाधा बन गया है । इसके मानवभक्षी रुख का सबूत इससे अधिक क्या होगा कि
प्रतिदिन कोई न कोई पूंजीशाह काम के घंटे बढ़ाने की वकालत करते हुए बयान देता है और
शासन तथा सत्ता इससे संबंधित कानूनों को समाप्त करने का आश्वासन देती है ।
3. कविता के निकष को लेकर आपके क्या
विचार हैं ?
उत्तर- इस मानवभक्षी माहौल के शिकार लोगों
के पक्ष में खड़ा होना ही कविता की सार्थकता की सबसे बड़ी कसौटी है । इस सदी की
शुरुआत आशा के साथ हुई थी । लगा था कि अब दुनिया का दो ध्रुवों में विभाजन समाप्त
हो जाएगा । इससे युद्ध का माहौल हमेशा के लिए दफ़न हो जाएगा । हथियारों की होड़ में
संसाधनों की बरबादी बंद होने से मनुष्यता के लिए संसाधनों का प्राचुर्य होगा
। तकनीक ने जितने बड़े पैमाने पर लोगों को आपस में जोड़ा उससे सबके पास तक सुविधाओं
और सेवाओं की उपलब्धता की उम्मीद पैदा हुई थी । दुर्भाग्य से आज की दुनिया में
देशों के बीच और उनके भीतर विषमता बढ़ी है । जिस तकनीक को समाज को जोड़ना था उसने
व्यक्ति को और भी अकेला बनाया है । संसाधनों पर चंद अमीरों की पकड़ मजबूत हुई है ।
राजसत्ता न केवल पूंजी के इस आधिपत्य का पक्ष ले रही है बल्कि बहुतेरे शासक भी
पूंजीशाह हैं । कमजोर मनुष्य और अधिक असहाय हुआ है । इसी कमजोर मनुष्य के पक्ष में
खड़ा होकर तंत्र को ललकारने वाली कविता इस समय प्रासंगिक रह सकती है । एकायामी
आर्थिक मनुष्य पूंजी के लोभ को संतुष्ट करने के लिहाज से तो लाभदायक हो सकता है
लेकिन शुक्ल जी की जिस धारणा की हमने ऊपर चर्चा की उसका एक पक्ष यह भी है कि
मनुष्य के भीतर केवल आर्थिक हित प्रधान होने से वह एकायामी हो जाएगा । कविता का
काम उसके समग्र व्यक्तित्व की रक्षा है जो लोभ के अतिरिक्त त्याग और ममता तथा दया
जैसी प्रवृत्तियों की भी प्रतिष्ठा करने से ही हो सकती है । इन गुणों से ही मनुष्य
एक सामाजिक प्राणी के रूप में बना रह सकता है । यदि सभी मनुष्य स्वार्थी हो जाएंगे
तो सामाजिक सहकार का वह रास्ता ही बंद हो जाएगा जो धरती पर मनुष्य के जीवन की
रक्षा हेतु परमावश्यक है । इसके विपरीत वातावरण यह बनाया जा रहा है कि सामाजिक
बराबरी के मुकाबले विषमता आधारित आर्थिक उन्नति ही देश की उन्नति है ।
4. कविता की आयु किन बातों पर निर्भर
करती है ?
उत्तर- कविता अपने समय की पहचान कराकर
ही दीर्घजीवी हो सकती है । इसके भीतर मनुष्य विरोधी तंत्र और उससे लाभ लेने वाली
ताकतों की पहचान कराना भी शामिल है । इसी मानव विरोधी संकीर्णता ने दूसरे देश के
मनुष्यों को शत्रु के रूप में खड़ा किया है । देशों को भी उसने धार्मिक पहचान के
साथ जोड़ा है । जिस पाश्चात्य उपनिवेशवाद से लड़कर हमारे देश ने स्वाधीनता अर्जित की
उसकी ही नजर में आना देश की प्रतिष्ठा के रूप में पेश किया जा रहा है । कविता यह
काम अपने तरीके से करती है । वह मनुष्य की चिरजीवी एकता और उसके कष्ट का हरण
सामाजिक दायित्व के बतौर पेश करती है । प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य सुंदर की
सृष्टि करके असुंदर का मुकाबला करता है । जीवन की टूटी हुई लय को हासिल करने की
इच्छा पैदा करने के लिए लयदार वातावरण का निर्माण आवश्यक है । समाज में मौजूद
असंतुलन का मुकाबला संतुलन के सपने और आदर्श की रचना से ही हो सकता है ।
5. कविता में कला किस हद तक उपयोगी है
?
उत्तर- आचार्य शुक्ल
ने काव्य को कला से भिन्न और उसका समतुल्य माना था । शमशेर जी का कहना था कि समस्त
कला राजनीति है । इन दोनों वक्तव्यों से सिद्ध है कि कला के बारे में कोई
सर्वमान्य धारणा नहीं है । कला का जो सामान्य अर्थ है उस माने में कविता में कला
का उपयोग होता है । इससे उसकी गुणवत्ता में वृद्धि होती है । यदि रसों की बात की
जाय तो वीभत्स भी रस होता है । सभी जानते हैं कि जब प्रेमचंद को घृणा का प्रचारक
कहा गया तो उन्होंने साहित्य में घृणा की उपयोगिता बतलाई । संक्षेप में यह कि
असुंदर से अरुचि पैदा करके संसार को सुंदर बनाने की चाहत पैदा करने के लिए कला की
जरूरत पड़ती ही है । कविता मनुष्य के हृदय को व्यापक तथा संवेदनशील बनाने के लिए
समस्त कलात्मक उपादानों का सहारा लेती ही है । कला का जन्म ही समाज में व्याप्त
कुरूपता की आलोचना करने के सर्वोत्तम उपायों की खोज से हुआ है । शायद इसीलिए कला
ऊपर से तैरती नजर नहीं आती बल्कि कविता के कथ्य में समाई होती है ।
6. कविता का नारा बन जाना इसकी
उपलब्धि है या कमी ?
उत्तर- अगर जनता के कंठ में बस जाना कला
की सिद्धि है तो उसका नारा बन जाना बहुत बड़ी उपलब्धि है । हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल
हमारा नारा है या फ़ैज़ के गीत का नारों के बतौर इस्तेमाल इन सभी कविताओं को उनकी तात्कालिकता
से मुक्त करके उन्हें विभिन्न स्थितियों के योग्य बनाया । साहित्य का यही धर्म है
कि वह सबसे जटिल परिघटना की अभिव्यक्ति हेतु सबसे बेहतरीन शब्दावली मुहैया कराए । नारों
का भी यही काम होता है । वे विक्षोभ को ऐसी शाब्दिक अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं कि
हालात के मारे मनुष्य को अति दुष्कर कथनीय कह डालने का संतोष हो जाता है ।
सर्वोत्तम भाषाई रचनात्मकता से युक्त होने के कारण कविता भी बहुधा यह कार्य करती
है । लोकतंत्र के पक्ष में अक्सर ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ से बेहतर
अभिव्यक्ति नहीं मिल पाती तो इसका इस्तेमाल नारे की तरह होता है । दुष्यंत कुमार
की ग़ज़लों का भी ऐसा उपयोग हुआ है । कविता का जन्म मंत्र के रूप में हुआ तो उस समय
उससे शाप का भी काम लिया जाता था । बिना नारा बने भी कविता की उपयोगिता होती है ।
नारा बन जाने से उसकी गुणवत्ता बढ़ती ही है, कम नहीं होती ।
7. कविता - लेखन और मजदूरी के लिए किए
जाने वाले श्रम के संबंधों को किस रूप में चिह्नित किया जा सकता है ?
उत्तर- लिखने का काम भी एक तरह का श्रम ही
है । उसमें शारीरिक से अधिक मानसिक श्रम का निवेश होता है । इसके बावजूद पूंजीवादी
व्यवस्था के जो नियम मजदूरी के लिए किये जाने वाले श्रम पर लागू होते हैं वे लेखन
पर भी लागू होते हैं । असल में पूंजीवाद के बारे में यह धारणा है कि वह केवल
अर्थव्यवस्था है लेकिन यह सत्य नहीं है । वह अर्थव्यवस्था अपने लायक समाज और विचारों का भी
निर्माण करती है । इसके कारण ही उसका शोषण प्रत्यक्ष तौर पर नजर नहीं आता । इस
व्यवस्था में जो अमूर्तन होता है उसके कारण ही मनुष्यों के बीच संबंधों का स्थान
वस्तुओं के बीच का संबंध ले लेता है । मूल्य की अभिव्यक्ति मुद्रा में होने लगती
है और वस्तुओं के असली उत्पादक के बतौर मानव श्रम छिप जाता है । कविता के लेखन में
भाषा का व्यवहार भी कुछ इसी तरह का होता है और उसमें छिपे अर्थ का उद्घाटन खुद ही
जटिल प्रक्रिया का रूप ले लेता है । मानव समाज में कविता की मौजूदगी तबसे ही रही
है जबसे मनुष्य ने भाषा का आविष्कार किया है । कह सकते हैं कि किसी भी किस्म का
परिश्रम केवल शारीरिक नहीं होता । उस परिश्रम में दिमाग भी अनिवार्य रूप से शामिल
रहता है । पूंजीवाद मनुष्य के श्रम के रचनात्मक पहलू से उसे विरत कर देना चाहता है
और इसलिए श्रम के साथ सृजन को जोड़ना पूंजीवाद का प्रतिकार भी है ।
8. गैरदलित, गैरआदिवासी रचनाकारों की क्रमशः
दलित, आदिवासी जीवन- संस्कृति पर
केंद्रित रचनाएं दलित, आदिवासी
साहित्य के अंतर्गत रखना विवादास्पद है. यहां आपकी राय क्या है ?
उत्तर- यह सही है कि वंचित समुदाय
के अनुभव विशेष होते हैं लेकिन यह भी सही बात है कि साहित्य के परकाया प्रवेश भी
होता है । दलित, स्त्री और आदिवासी रचनाकारों के साहित्य को मान्यता न देने में
संरक्षण के पक्षधर मूल्यों का आग्रह सुनाई देता है । इसलिए उनके पक्ष से अपनी
विशेषता का दावा वाजिब ही लगता है । वैसे भी साहित्य कोई पवित्र मंदिर नहीं है
जिसमें शूद्रों और स्त्रियों के प्रवेश से पवित्रता भंग हो । इसके साथ एक बात यह
भी है कि इन अस्मिताओं के साहित्य ने बहुत समय बाद फिर से साहित्य को समाज के साथ
जोड़कर देखने की जरूरत पैदा की है । समस्या यह है भी नहीं असल में इसकी आड़ में
प्रगतिशील साहित्य की वैधता को चुनौती देने की कोशिश होती है । खुशी की बात है कि
देश के साथ दुनिया के पैमाने पर भी इन अस्मिताओं और वाम के बीच संवाद बढ़ा है ।
इसके साथ ही दलित और आदिवासी रचनाकारों के भीतर भी इस धारा की गुंजाइश बनी है ।
उदाहरण के लिए तुलसी राम के लेखन में यह सहकार नजर आता है । समय के साथ ऐसी
गुंजाइश बनेगी जिसमें अस्मिता साहित्य के भीतर वर्गीय नजरिया पैदा होगा और वामपंथ
भी वर्ग के बारे में यांत्रिक की जगह समावेशी नजरिया बनाएगा । समय बीतने के साथ यह
सम्भावना प्रबल होती जा रही है । देश में कारपोरेट फ़ासीवादी तानाशाही के उभार के
साथ बढ़ते पुनरुत्थानवाद ने भी ऐसे हालात का निर्माण किया है जिसमें दोनों ओर
वैचारिक व्यापकता आयी है । अस्मिता साहित्य के भीतर लोकतंत्र के क्षरण की भी चिंता
ने प्रवेश किया है तथा प्रगतिशील लेखन में दमन और सामाजिक बहिष्करण के बहुस्तरीय
तंत्र को देखने की समझ परिपक्व हुई है । साहित्य का रिश्ता मनुष्य की चेतना से
होता है और चेतना में बदलाव थोड़ा धीरे धीरे होता है ।
9. कोरोना त्रासदी का साहित्य पर क्या
असर रहा ?
उत्तर- कोरोना ने प्रकृति के साथ मनमानी
का नतीजा सबके लिए प्रत्यक्ष कर दिया । तात्कालिक रूप से तो इसका असर नकारात्मक ही
रहा । संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए दूरी को सामाजिक दूरी का नाम दिया गया ।
सभी जानते हैं कि पुस्तकालय बंद रहे, किताबों की उपलब्धता कम हुई और प्रत्यक्ष मेल
मुलाकात बंद रही । ऐसे में मनुष्य के सामाजिक व्यवहार पर तमाम तरह के प्रतिबंध
थोपे गये । न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में शासन की तानाशाही स्थापित हुई ।
सार्वजनिक सभा-संगोष्ठियों पर तालाबंदी ने पाठकों की चेतना के
उन्नयन का एक अवसर छीन लिया । इसकी भरपाई इंटरनेट आधारित संपर्क से कभी नहीं हो
सकती । प्रत्यक्ष प्रमाणन के अभाव ने अफवाहों का बाजार गर्म किया । साहित्य का
लेखक आम तौर पर मध्य वर्ग से जुड़ा होता है । उसके सीमित अनुभव से समाज का वह
हिस्सा अनुपस्थित हुआ जिसके लिए सामाजिक दूरी बरतने लायक आवास की सुविधा नहीं थी ।
लगभग तीन साल तक औपचारिक शिक्षा के अवसर न मिलने से विद्यार्थियों का ऐसा वर्ग
उभरा जो हमउम्रों की संगत से महरूम रहा था । पत्रिकाओं की छपाई भी स्थगित रही
जिससे आभासी अभिव्यक्ति संबंधी दिक्कतों का जन्म हुआ । सुविधा और संसाधन की कमी ने
पाठकों को लिखित शब्दों से दूर किया । पाठ्यक्रम में शासकों के लिए असुविधाजनक
हिस्सों की कटौती कर दी गयी । हमारे देश में स्कूली पाठ्यक्रम से मेंडलीफ़ की आवर्त
सारणी हटा दी गयी । नतीजा निकला कि उच्चतर स्तर पर वे विद्यार्थी पहुंचे जिन्होंने
आधार सामग्री देखी भी न थी । सबसे अधिक संसाधन शासन के पास रहे जिसके कारण ऐसी
सामग्री का प्रसार हुआ जिसे व्यंग्य से ह्वाट्सएप यूनिवर्सिटी का ज्ञान कहा जाता
है । इन सबने उत्तर कोरोना साहित्य के लिए मुश्किलें पैदा कर दी हैं । जिसे उत्तर
सत्य का प्रसार कहा जा रहा है वह इस माहौल की ही पैदाइश है । नयी चुनौतियों ने
तमाम नये अवसर भी उपलब्ध कराए हैं । साहित्य अब मानव जीवन के बुनियादी सवालों से
मुख मोड़कर प्रासंगिक नहीं रह सकता । उसे अपनी चिंताओं में समूची धरती को शामिल
करना होगा । समाज में वंचित समूहों के भीतर आकांक्षाओं का जन्म हुआ जिसे पूरा करने
का एकमात्र रास्ता उन्हें शिक्षा ही महसूस हुई । इसके कारण पाठकों का नया समूह
पैदा हुआ और उसने लेखन को नयी गति दी । प्रत्येक परिवर्तन के समय जैसा होता है वही
इस समय भी दिखाई पड़ा कि स्थापित रुचि ने नयी प्रवृत्तियों को सराहने में कंजूसी की
।
10. 21वीं सदी के इन वर्षों की काव्य
प्रकृति के बारे में आप क्या सोचते हैं ? क्या कविता की इधर कोई नई पहचान बनी है ?
उत्तर- शासन की तानाशाही बढ़ने के साथ ही
समाज में असहिष्णुता भी बढ़ी है । स्वयं सहित्य इस रस्साकशी का मैदान बन गया है ।
न्याय की अवधारणा को बुलडोजर जैसी हिंसक संरचना के साथ
जोड़ दिया गया है । बड़ी पूंजी ने प्राथमिक शिक्षा को हथियाया था अब उसकी निगाह उच्च
शिक्षा को मुनाफ़े का स्रोत बनाने पर लगी है । पिछली नयी शिक्षा नीति के दस्तावेज
में साहित्य शब्द ही नहीं था और प्रबंधन तथा वाणिज्य को ही लाभप्रद शिक्षा माना
जाने लगा था । सामाजिकी और मानविकी को हाशिये पर डाल देने के बाद अब साहित्य और
संस्कृति के बुनियादी मूल्यों पर व्यवस्थित हमला शुरू हुआ है । मनुष्य के जीवन के
बुनियादी सवालों में पर्यावरण और पारिस्थितिकी के साथ वंचित समूहों की दावेदारी भी
शामिल हुए हैं । कविता ने नागरिक जीवन में लोकतंत्र और परदुखकातरता की कमी महसूस
करके इन्हें कविता में स्थान देना शुरू भी किया है । स्त्री और दलित काव्य ने
पितृसत्ता और जातिवाद के महीन रूपों को उजागर करना आरम्भ किया है । इस नये जागरण
से पुराने कवि भी प्रभावित हुए हैं । साहित्य की भूमिका वंचित समुदाय से अधिक
सुविधा संपन्न समुदाय को संवेदनशील बनाने में निहित है । नयी पीढ़ी के नजरिये में
जो अंतर आया है उसके कारण कविता भी बदली है । उसकी भाषा में अन्याय के प्रति
आक्रोश से अधिक समझ और हकदारी की झलक आयी है ।
11. रचना के मूल्यांकन - क्रम में
आलोचक की दृष्टि क्या रचनाकार के व्यक्तित्व की ओर भी जाती है ? यदि हां, तो यह व्यक्तित्व किस हद तक मूल्यांकन को
प्रभावित करता है ?
उत्तर- व्यक्तित्व कोई सतही परिघटना नहीं
होता जो सहज ही प्रकट हो । उसकी अभिव्यक्ति लेखक की रचना में
होती है । कोई भी आलोचक सभी रचनाकारों को निजी रूप से नहीं जानता । अंतत: उसके
सामने भी रचना ही होती है । सभी पाठकों की तरह वह भी पाठक होता है । पाठक के बतौर
रचना के प्रभाव का विश्लेषण उसका दायित्व है । वह भी रचनाकार होता है । बस उसकी
रचना का क्षेत्र सहानुभूतिपरक मूल्यांकन का होता है । रचनाकार और आलोचक के बीच ऐसी
कोई दीवार नहीं होती जो रचनाकार को आलोचक होने से रोके और आलोचक के लेखन को
रचनात्मक न होने दे ।
12. विचारधारा और साहित्य के संबंध को
लेकर आप क्या कहना चाहेंगे ?
उत्तर- विचार विहीन
लेखन वदतो व्याघात है । रच/लिखने की प्रेरणा ही यथास्थिति से असंतोष के कारण होती
है । कबीर ने बहुत पहले रचनाकार को दुखिया कहा था । वह अपना रुदन दूसरों को सुनाना
चाहता है । इसके लिए स्थिति के बारे में अपने बोध में वह सुनने वाले को भागीदार
बनाता है । विचार के बिना यह काम सम्भव ही नहीं । बस यह है कि विचार तेल की तरह
साहित्य में तैरता नहीं रहता बल्कि रचना में गहरे समा जाता है । इसलिए भी उसकी
पहचान करनी पड़ती है ।
13. क्रांतिकारी लेखन वस्तुतः
मानवतावादी लेखन है. आपका क्या मत है ?
उत्तर- इस अर्थ में अवश्य कि मनुष्य को
बंधनमुक्त करना उसका ध्येय होता है ।
14. साहित्य अग्रगामी परिवर्तन का वाहक
; नई ऊर्जा, सौंदर्य का एक रूप है, आप इससे कितना सहमत हैं ?
उत्तर- असल में उसका जन्म असंतोष से होता
है इसलिए वह आकांक्षा की अभिव्यक्ति बन जाता है । यह आकांक्षा समाज के प्रतिनिधि
के रूप में लेखक के माध्यम से व्यक्त होती है । पाठकों का संस्कार करके वह ऐसे
समूह को जन्म देता है जो नये मूल्यों का सामाजिक आधार और स्रोत बन जाते हैं ।
15. क्या रचनाकार को रचना तक ही सीमित
रहना चाहिए या उसे सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आंदोलनों का भागीदार भी
बनना चाहिए ?
उत्तर- वैसे तो उसका प्राथमिक दायित्व रचना ही है
लेकिन यदि वह सामाजिक प्राणी के रूप में सार्वजनिक हस्तक्षेप करता है तो और भी
अच्छा । इससे सामाजिक ताकतों को बल अवश्य मिलता है । उसकी शाब्दिक अभिव्यक्ति
पर्याप्त है । बहुधा इन दोनों भूमिकाओं को एक दूसरे के विपरीत समझा जाता है लेकिन
उसकी इन दोनों भूमिकाओं को पूरक मानना सही होगा ।
16. रचनाकार के लिए अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता किस हद तक अपेक्षित है ? भ्रष्टाचारी, लूटवादी,दमनकारी शक्तियों के विरुद्ध
रचनाकर्मी को क्या करना चाहिए ?
उत्तर- उसे असंतोष की अभिव्यक्ति के लिए
उपलब्ध सभी रूपों का उपयोग करना चाहिए । उसे बेखौफ़ आजादी हासिल होनी चाहिए ।
17. राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले
युद्ध, मानवीय संकट के संदर्भ में कवि, कलाकार की क्या भूमिका हो सकती है ?
उत्तर- इस तरह की स्थितियों में रचनाकारों के
हस्तक्षेप की लम्बी परम्परा रही है । रचनाकारों ने स्पेन में फ़ासीवाद से लड़ाई में
प्राणों की आहुति देने से लेकर सभी तरह की भूमिकाएं निभाई हैं । अभी छतीसगढ़ में
लेखन के कारण ही पत्रकार को जान देनी पड़ी । फ़ैज़ ने कहा ही है कि न उनकी रीत नयी है
न अपनी रस्म नयी ।
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