Sunday, July 20, 2025

मार्क्सवाद की बुनियादी बातें

 

                  

कम्युनिस्ट पार्टी के नाम में ही मार्क्सवाद शामिल है इसलिए उसके बारे में जानना चाहिए । कार्ल मार्क्स का जन्म जर्मनी में 1818 में हुआ और 64 साल की उम्र उनको मिली थी । उनके दोस्त एंगेल्स ने उनके निधन के बाद कहा कि मार्क्स की सबसे बड़ी विशेषता उनका क्रांतिकारी जीवन था । असल में उनका जन्म जर्मनी के जिस इलाके में हुआ था उस पर फ़्रांसिसी क्रांति के मूल्यों का असर था । इसी असर में उनके पिता और ससुर रहे थे । जब उसे फिर से जर्मनी ने दखल किया तो इन मूल्यों से प्रभावित लोग नये शासन के विरोध में आपस में सलाह मशविरा करते रहते थे । नये शासन में स्कूलों में अध्यापकों और विद्यार्थियों पर निगरानी रखी जाती थी । स्कूल के बाद जब वे बर्लिन आये तो उन्हें नया माहौल मिला जिसमें वामपंथी दार्शनिक युवकों के समूह में वे शामिल हुए । ये युवक हेगेल नामक दार्शनिक से प्रभावित थे । नये शासन में क्रांतिकारियों को नौकरी मिलनी काफी मुश्किल हो गयी थी इसलिए लौटकर वे अपने इलाके में आये जहां एक अखबार के संपादक बने । इस अखबार में काम करते हुए उन्हें समाज के व्यापक सवालों का सामना करना पड़ा । इस अखबार में काम करते हुए उन्होंने प्रेस की आजादी का पक्ष लिया और जंगलात की लकड़ी पर स्थानीय लोगों के अधिकार का  समर्थन किया । इस दौरान उन्हें आर्थिक मामलों पर और अधिक जानकारी की जरूरत महसूस हुई क्योंकि अखबार में उस तरह के मामलों पर बहस होती थी । इसी दौरान उनकी शादी हुई और अखबार के बंद होने पर वे पेरिस चले गये । पेरिस में उनकी मुलाकात वहां के समाजवादियों से तो हुई ही जीवन भर के साथी एंगेल्स से भी वहीं भेंट हुई । मार्क्स ने एक पत्रिका का संपादन किया था जिसमें एंगेल्स ने आर्थिक मामलों के बारे में लिखा था । इसके बाद आर्थिक मामलों का अध्ययन उनके लिए जीवन भर का काम हो गया । जर्मनी की सरकार के दबाव से उन्हें फ़्रांस से भी निकाल दिया गया । परिवार समेत मार्क्स बेल्जियम आ गये । तब तक उन्होंने खुद भी राजनीतिक काम शुरू कर दिया था । बेल्जियम में ही उन्होंने एंगेल्स के साथ मिलकर कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र लिखा । यह घोषणापत्र मजदूरों के एक संगठन के लिए तैयार किया गया था । बेल्जियम से भी उन्हें देश निकाला मिला और कुछ समय फिर फ़्रांस रहने के बाद वे लंदन आ गये और जीवन भर वहीं रहे । लंदन में भी वहां के मजदूरों के साथ उनकी सक्रियता बनी रही । वहीं मजदूरों के अंतर्राष्ट्रीय संगठन की उन्होंने स्थापना की जिसे पहला इंटरनेशनल कहा जाता है और व्यापक स्तर पर मजदूर आंदोलन की नींव रखी । 

उनके लेखन के तीन पहलुओं को चिन्हित किया जाता है- दर्शन, अर्थशास्त्र और राजनीति । दर्शन में उनकी सोच को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद कहा जाता है । अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान मजदूरों के शोषण के तरीके की खोज है जिसे अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत कहते हैं । राजनीति के क्षेत्र में उन्होंने मजदूर वर्ग के पक्ष में वर्ग संघर्ष की बात की और राजनीतिक गोलबंदी के जरिए राजसत्ता पर मजदूर वर्ग के कब्जे की जरूरत बतायी । इन तीन प्रमुख पहलुओं के अलावे हम आज धर्म के सवाल पर मार्क्स की राय को भी देखने की कोशिश करेंगे । इसके साथ ही उपनिवेशवाद के उनके विरोध पर भी ध्यान रखना होगा क्योंकि इसके तहत ही उन्होंने भारत के अंग्रेजी राज का विरोध किया था ।

दर्शन की दुनिया हमें आम तौर पर अमूर्त चिंतन की लगती है लेकिन उसका गहरा संबंध मनुष्य की स्थिति से है । मनुष्य को अपना जीवन चलाने के लिए आसपास के वातावरण को समझना होता है । संसार को समझने का यही काम दर्शन के माध्यम से होता है । मार्क्स ने दर्शन के मामले में कहा कि दुनिया को समझने का तो काम बहुत हुआ लेकिन असली जिम्मेदारी इस दुनिया को बदलने की है । ध्यान रखिए कि बदलने का काम भी समझे बिना नहीं हो सकता इसलिए दर्शन की बात जरूरी हो जाती है । उनके दर्शन में द्वंद्ववाद का सीधा अर्थ किसी भी वस्तु या प्रक्रिया में दो विरोधी चीजों का एक साथ रहना है । उनके भीतर के इस विरोध को ही उनके विकास का स्रोत समझा जाता है । वस्तु या समाज का यह विकास घटना की जगह प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है । बदलाव की यह प्रक्रिया किसी भी वस्तु या समाज में उसके अंदरूनी विरोध की वजह से होती है जिसमें बाहरी परिस्थिति मदद देती है । इस विकास में धीरे धीरे बदलाव के अतिरिक्त अचानक होने वाले क्रांतिकारी बदलाव भी शामिल होते हैं । द्वंद्ववाद की यह पद्धति पुरानी थी और उसे हेगेल ने फिर से अपनाया । मार्क्स ने उसके साथ भौतिकवादी नजरिए को जोड़ दिया । भौतिकवाद के मामले में एंगेल्स ने बताया है कि संसार को देखने के मामले में बहुत पहले सवाल उठा कि आत्मा और प्रकृति में कौन प्राथमिक है । यही सवाल इस रूप में भी सामने आया कि ईश्वर ने संसार का सृजन किया है या संसार अनंत काल से मौजूद है । इन सवालों के जवाब के अनुरूप दार्शनिकों के दो खेमे बने । जिन्होंने आत्मा को प्राथमिकता दी वे भाववादी हुए और जिन्होंने प्रकृति को प्राथमिकता दी वे भौतिकवादी कहे गये ।  

                

इसी नजरिए को मार्क्स ने समाज के इतिहास पर लागू किया और सामाजिक विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट किया । इसे ऐतिहासिक भौतिकवाद कहते हैं । उनका कहना है कि अपने जीवन के सामाजिक उत्पादन में मनुष्य ऐसे निश्चित संबंधों में बंधते हैं जो अपरिहार्य होते हैं और उनकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं । उत्पादन के ये संबंध उत्पादन की भौतिक ताकतों के विकास की निश्चित मंजिल के अनुरूप होते हैं । इन उत्पादन संबंधों का पूर्ण समाहार ही समाज का आर्थिक ढांचा है- वह असली बुनियाद है जिस पर कानून और राजनीति का ऊपरी ढांचा खड़ा हो जाता है और जिसके अनुकूल ही सामाजिक चेतना के निश्चित रूप होते हैं । भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली जीवन की आम सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक प्रक्रिया को निर्धारित करती है । मनुष्यों की चेतना उनके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, बल्कि उलटे उनका सामाजिक अस्तित्व उनकी चेतना को निर्धारित करता है । अपने विकास की खास मंजिल पर पहुंचकर समाज की भौतिक उत्पादन शक्तियां तत्कालीन उत्पादन संबंधों से, या- उसी चीज को कानूनी शब्दावली में यों कहा जा सकता है- उन संपत्ति संबंधों से टकराती हैं, जिनके मातहत वे उस समय तक काम करती होती हैं । ये संबंध उत्पादन की शक्तियों के विकास के अनुरूप न रहकर उनके लिए बेड़ियां बन जाते हैं । तब सामाजिक क्रांति का युग शुरू होता है । आर्थिक बुनियाद के बदलने के साथ समूचा भारी भरकम ऊपरी ढांचा भी कमोबेश तेजी से बदल जाता है । इन दोनों बदलावों पर विचार करते हुए उन्होंने अंतर स्पष्ट किया । उनका कहना था कि जैसे किसी व्यक्ति के बारे मे हमारी राय इस बात पर नहीं निर्भर होती कि वह अपने बारे में क्या सोचता है उसी तरह हम ऐसे बदलाव के युग के बारे में स्वयं उस युग की चेतना के आधार पर निर्णय नहीं कर सकते । इसके विपरीत भौतिक जीवन के अंतर्विरोधों के आधार पर ही, समाज की उत्पादक शक्तियों और उत्पादन संबंधों की मौजूदा टक्कर के आधार पर ही इस चेतना की व्याख्या की जानी चाहिए । कोई भी समाज व्यवस्था तब तक खत्म नहीं होती जब तक उसके अंदर की तमाम उत्पादक शक्तियां, जिनके लिए उसमें जगह है, विकसित नहीं हो जातीं और नये ऊंचे दर्जे के उत्पादन संबंधों का जन्म तब तक नहीं होता जब तक उनके अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियां पुराने ही समाज के गर्भ में पुष्ट नहीं हो चुकी होतीं । इसलिए मानव जाति अपने लिए हमेशा केवल ऐसे ही काम तय करती है जिन्हें वह पूरा कर सके । कारण यह कि इस मामले को गौर से देखने पर हम हमेशा यही पाएंगे कि यह काम भी केवल तभी सामने आता है जब उसे पूरा करने के लिए जरूरी भौतिक परिस्थितियां पहले से तैयार होती हैं या कम से कम तैयार हो रही होती हैं । इस मान्यता के आधार पर उन्होंने मानव समाज के विकास को कुछ सामाजिक ढांचों में बांटा और कहा कि मोटे तौर से एशियाई, प्राचीन, सामंती और आधुनिक पूंजीवादी उत्पादन प्रणालियां हमारे समाज की आर्थिक संरचना के एक के बाद आने वाला दूसरा युग कही जा सकती हैं । पूंजीवादी उत्पादन संबंध उत्पादन की सामाजिक प्रक्रिया के अंतिम विरोधी रूप हैं- व्यक्तिगत विरोध के अर्थ में नहीं बल्कि व्यक्तियों के जीवन की सामाजिक अवस्थाओं से उत्पन्न विरोध के अर्थ में विरोधी हैं । साथ ही पूंजीवादी समाज के गर्भ में विकसित होती हुई उत्पादक शक्तियां इस विरोध के समाधान की भौतिक अवस्थाएं उत्पन्न करती हैं । इसलिए इस सामाजिक संरचना के साथ मानव समाज के विकास का प्रागैतिहासिक अध्याय समाप्त हो जाता है ।

मार्क्स का आर्थिक चिंतन थोड़ा जटिल है । मार्क्स ने पूंजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया को समझने पर जोर दिया । इस उत्पादन प्रक्रिया की सबसे बड़ी जो विशेषता है वह यह कि इसमें उत्पादन प्रमुख रूप से बिक्री के लिए किया जाता है । बिक्री बाजार में होती है । बाजार में बिक्री के लिए वस्तुओं को उपयोगी होना होता है । उनके भीतर के इस गुण को मार्क्स उपयोग मूल्य कहते हैं । दो उपयोगी मूल्यों के बीच लेनदेन ही बिक्री है और इस प्रक्रिया में वस्तु में विनिमय मूल्य भी पैदा हो जाता है । प्रत्येक उपयोगी वस्तु को बेचा जाना जरूरी नहीं, कुछ का निजी उपभोग भी हो सकता है लेकिन जिसे बेचा जाना है उसका उपयोगी होना जरूरी है । प्रकृति से कच्चे माल की तरह मिली वस्तु को उपयोगी बनाने में मनुष्य का श्रम लगता है इसलिए वस्तु के भीतर यह मूल्य मनुष्य के श्रम से पैदा होता है । मनुष्य का यह श्रम अलग अलग किस्म की वस्तुओं को बनाने में अलग अलग तरीके से लगता है । अलग अलग तरीके के इस श्रम को मूर्त श्रम कह सकते हैं । इस श्रम से बनी वस्तुओं की आपस में खरीद बिक्री के लिए उनके बीच साझा मानव श्रम को आपस में विनिमेय होना जरूरी होता है । इसके लिए हमें इन भिन्न भिन्न वस्तुओं को बनाने में लगे औसत श्रमकाल को लेनदेन की इकाई बनाना पड़ता है । इसी को अमूर्त श्रम कहा जा सकता है । वस्तुओं की खरीद बिक्री में इसका ही लेनदेन होता है इसलिए इसे विनिमय मूल्य का जनक माना जाता है । इस मूल्य को बाजार तय करता है ।

इसी हिसाब से मनुष्य के श्रम का मूल्य उसके उत्पादन के लिए जरूरी चीजों से तय होता है लेकिन इसकी खूबी यह होती है कि वह अपने लिए आवश्यक मूल्य से अधिक मूल्य पैदा करता है । यही अतिरिक्त मूल्य होता है जिसे पूंजीपति के मुनाफ़े का स्रोत कह सकते हैं । पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में उत्पादन की समूची प्रक्रिया तो सामूहिक होती है लेकिन उस उत्पादन पर कब्जा निजी हो जाता है । इस व्यवस्था में एक वर्ग ऐसा होता है जिसके पास अपने शरीर से की गयी मेहनत के अलावे कुछ भी अपना नहीं होता और दूसरा वर्ग ऐसा होता है जो इस मेहनत से पैदा प्रत्येक वस्तु का मालिक बन जाता है । इन दोनों के वर्गीय हित आपस में विरोधी हो जाते हैं । इनसे ही उनमें वर्गीय चेतना का जन्म होता है । इनके हितों के टकराव से वर्ग संघर्ष का जन्म होता है । यही वर्ग संघर्ष इनके हितों को राजनीतिक रूप से व्यक्त करने वाली पार्टियों के बीच संघर्ष का कारण बनता है । पूंजीपति वर्ग अपने हितों के पक्ष में कानून बनाने के लिए राजनीतिक सत्ता पर कब्जा जमाये रहना चाहता है । मजदूर वर्ग भी अपनी राजनीतिक पार्टी बनाकर इस सत्ता पर कब्जा करना चाहता है । इनके आपसी संघर्ष को मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का सर्वोच्च रूप कहा था और मजदूर वर्ग के हितों को बुलंद करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी की वकालत की थी ।

मार्क्स ने बार बार इस बात पर जोर दिया कि मजदूर वर्ग ही अपनी मुक्ति के लिए आवश्यक संगठन और आंदोलन चलाएगा बशर्ते उसे पूंजीवाद की असलियत और उसमें निहित उसकी रणनीतिक रूप से निर्णायक भूमिका का अहसास करा दिया जाय । अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी के प्रति मजदूर वर्ग का सचेत होना ही उसकी वर्ग चेतना है । उसकी नियति है कि समूचे समाज को मुक्त कराए बिना उसकी मुक्ति असंभव है । इसलिए उन्होंने हमेशा मजदूर वर्ग के सामने अन्य उत्पीड़ितों की मुक्ति का सवाल भी रखा । अमेरिका के गोरे मजदूरों को उन्होंने अश्वेत मजदूरों की मुक्ति का समर्थन करने के लिए कहा । इंग्लैंड के मजदूर वर्ग से उन्होंने उपनिवेशों की मुक्ति का समर्थन करने की अपील की । 

मार्क्स से पहले भी बहुत सारे लोगों ने ऐसे समाज का सपना देखा जिसमें वर्ग नहीं होंगे । इन्हें काल्पनिक समाजवादी कहते हैं । इनके विपरीत मार्क्स ने वर्ग विहीन समाज या साम्यवादी भविष्य को असंभव कल्पना की जगह पूंजीवादी समाज से ही उत्पन्न साबित किया । इसके लिए उन्होंने इसके निर्माण की प्रक्रिया को दो हिस्सों में बांटा है । पहला चरण पूंजीवादी समाज के साम्यवादी समाज में क्रांतिकारी रूपांतरण की अवधि है । इस अवधि में साम्यवादी समाज अभी अपनी ही बुनियाद पर नहीं खड़ा होता बल्कि जिस पूंजीवादी समाज के गर्भ से पैदा होता है हरेक मामले में उसके जन्म चिन्ह लिए हुए होता है । इसकी कोई निश्चित अवधि का संकेत मार्क्स ने नहीं किया है लेकिन इसकी समाप्ति के बाद क्रमशदूसरा चरण शुरू हो जाता है । पूंजीवाद के खात्मे के बाद स्थापित नए राज्य का प्रमुख दायित्व मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच भेदभावपरक अंतर की तरह ही खेती और उद्योग तथा शहर और देहात के बीच अंतर को खत्म करना भी होना चाहिए । सभी बच्चों के लिए मुफ़्त शिक्षाकारखाने से बाल श्रम का खात्मा और शिक्षा के साथ उत्पादक श्रम को जोड़ना बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है । कारखानों में क्रांति के फलस्वरूप काम के हालात में सुधार होगा । काम को सबसे पहले सहनीयफिर रुचिकर और अंततमानवीय बनाना इन सुधारों का लक्ष्य होगा । काम के घंटे कम करना यानी अवकाश को मूल्यवान समझना होगा । उत्पादन के क्षेत्र में किसी वस्तु का कितना उत्पादन होगा इसका फ़ैसला योजना बनाने वाले सामाजिक जरूरतउपलब्ध श्रम काल और उत्पादन के साधनों के मद्दे नजर करेंगे । इस दौर में लोगों को वही प्राप्त होगा जो वे समाज को देंगे । इसकी गणना श्रम-काल में होगी । इस दौर में धन की बजाए मार्क्स के शब्दों में ‘सर्टिफ़िकेट’ और ‘वाउचरों’ का इस्तेमाल होगा । उनके अनुसार ये वाउचर धन नहीं हैं क्योंकि उनका परिचालन नहीं होगा । इस तरह मजूरी के नकद भुगतान की ताकत और चलन के खात्मे से मुद्रा प्रणाली को समाप्त किया जाएगा ।

साम्यवाद के प्रथम चरण की समाप्ति के साथ ही साम्यवाद का दूसरा चरण क्रमशप्रकट होगा । पूंजीवाद द्वारा छोड़ी गई तथा प्रथम चरण में कई गुना बढ़ाई गई समृद्धि के चलते यह समय सामग्री वस्तुओं की प्रचुरता का समय होगा । बंजर जमीन में खेती शुरू हो गई होगी । कारखानों में काम करना सुखद हो गया होगा । शिक्षा के पुनर्गठन के चलते सबको कारखाने और कक्षा में प्रशिक्षण दिया जा रहा होगा । यह सब साम्यवाद की बुनियाद बनेगा । इसमें 1) श्रम विभाजन खत्म हो गया होगा इसलिए जो जिस भी काम को जरूरी समझेगा उसे करने में सक्षम होगा । 2) कामउपभोगऔर अवकाश के वक्त दूसरों के साथ और दूसरों के लिए काम व्यक्ति के जीवन का ज्यादातर हिस्सा होगा । 3) जमीन से लेकर समुद्र और भोजन तक सब कुछ सामाजिक स्वामित्व के मातहत होगा । 4) समूची दुनिया मनुष्य के मकसद के लिए सचेत तौर पर उत्पादित वस्तुओं से बनी होगी । प्राकृतिक शक्तियों के ज्ञान और उन पर नियंत्रण के जरिए मनुष्य अपने भाग्य का निर्धारण खुद ही करेगा । 5) लोगों की गतिविधियों को संगठित करने के लिए किसी भी बाहरी ताकत की जरूरत नहीं होगी । और 6) राष्ट्रनस्लधर्मरिहायशपेशावर्ग और परिवार पर आधारित सभी मानव विभाजन खत्म हो जाएंगे । इसी तरह मनुष्य का समाजीकरण और समाज का मानवीकरण होगा ।

धर्म का सवाल इस समय विशेष रूप से महत्वपूर्ण है । इस मामले में बहुत से भ्रम भी हैं । इसलिए जरूरी है कि मार्क्स की राय को समझा जाए । धर्म को खारिज करना उनके लिए आसान था लेकिन उन्होंने इसकी ताकत को समझना चाहा । उनका कहना था कि मनुष्य धर्म बनाता है, धर्म मनुष्य को नहीं बनाता । दूसरे शब्दों में, धर्म ऐसे आदमी की आत्मचेतना तथा आत्मानुभूति है जिसने या तो अभी तक अपना परिचय पाया नहीं, या पाकर फिर खो चुका है । परन्तु मानव कोई ऐसा हवाई प्राणी नहीं है जो दुनिया से बाहर कहीं पालथी मारे बैठा हुआ है । मनुष्य की दुनिया है, राज्य है, समाज है । यह राज्य, यह समाज ही धर्म को, उल्टी विश्वचेतना को जन्म देता है, क्योंकि वे स्वयं एक उल्टी दुनिया हैं । कहने का मतलब कि यह धार्मिक पीड़ा वास्तविक पीड़ा की अभिव्यक्ति और साथ-ही-साथ उसके खिलाफ विरोध-प्रदर्शन है । धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह है, हृदयहीन दुनिया का हृदय है, उसी तरह जिस तरह वह आत्माविहीन स्थिति की आत्मा है । वह जनता की अफीम है । उनको लगा कि धर्म से जनता को झूठा सुख मिलता है इसलिए जनता के वास्तविक सुख के लिए धर्म का उन्मूलन करना आवश्यक है ।

हमने पहले कहा कि मार्क्स ने भारत की स्थिति पर भी विचार किया और उस पर अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन का विरोध किया । उनका मानना है कि भारत पर अंग्रेजों द्वारा ढाई गयी मुसीबतें पहले की किसी भी मुसीबत से भिन्न हैं । इसे वे यूरोपीय तानाशाही से अधिक विनाशकारी मानते हैं । भारत में जिस तरह की कंपनियों का राज स्थापित हुआ उनकी बानगी देने के लिए उन्होंने हालैंड की कंपनी का उदाहरण दिया है जो अपने कामगारों का उतना भी ध्यान नहीं रखती थी जितना ध्यान गुलामों के मालिक अपने गुलामों का रखा करते थे । कारण कि गुलामों के शरीर खरीदने के लिए धन देना पड़ा था लेकिन अंग्रेजों को इस तरह का कोई खर्च नहीं करना पड़ा था । इस तरह की नृशंसता को तो वे यूरोपीय उपनिवेशकों का सहज आचरण मानते हैं । उनका मानना है कि अंग्रेजी शासन ने इससे भी अधिक गहरा और विनाशकारी हस्तक्षेप भारत में किया है । कहते हैं कि अंग्रेजों ने भारत का समूचा सामाजिक ढांचा ही नष्ट कर दिया और उसके पुनर्निर्माण के कोई निशान नहीं नजर आते ।

उनका कहना है कि पहले से ही भारत में शासन के तीन विभाग काम करते रहे हैं । पहला राजस्व या वित्त विभाग था जिसे वे देश की जनता की लूट का विभाग कहते हैं । दूसरे को वे युद्ध विभाग कहते हैं जिसका काम दूसरे देशों की जनता को लूटना था । इन दोनों के साथ ही सार्वजनिक निर्माण का विभाग भी हुआ करता था । इसका प्रमुख काम उन्होंने खेती के लिए सिंचाई की कृत्रिम व्यवस्था करना बताया है । इसके लिए नहरों के निर्माण और देखरेख की बात खास तौर पर उन्होंने की है । यूरोप में यही काम स्वैच्छिक तरीके से हुआ था लेकिन भारत में खेती की जमीन इतनी अधिक थी कि इसके लिए राजकीय प्रबंध जरूरी था । जब कभी पहले की सरकारों ने इस काम की ओर ध्यान नहीं दिया तो जमीन बंजर होने लगती थी । अंग्रेजों ने पहले के शासन से देश की अंदरूनी और बाहरी लूट के राजस्व और युद्ध विभाग तो ले लिये लेकिन साथ के तीसरे सार्वजनिक कल्याणकारी निर्माण के विभाग को अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया । मार्क्स के इस सूक्ष्म पर्यवेक्षण से हम अंग्रेजी राज में अकालों की भयावहता को समझ सकते हैं । असल में अंग्रेजों से पहले खेती अगर किसी एक शासन में बरबाद होती थी तो शासक बदल जाने के बाद फिर पनपने लगती थी । इसका मतलब कि खेती की सेहत का सीधा रिश्ता शासन की गुणवत्ता से होता था । अंग्रेजी शासन ने इस व्यवस्था की रीढ़ ही तोड़ दी । इससे भी भारत की स्थिति उस हद तक बर्बाद न होती जितनी हुई अगर इस देश के कारीगरों को तबाह न किया जाता । यहां मार्क्स ने भारत की एक और विशेषता का जिक्र किया है । उनके अनुसार भारत में तमाम राजनीतिक उथल पुथल के बावजूद समाजिक स्थिरता नजर आती है । करघा और चरखा को वे इस सामाजिक स्थिरता का मूल मानते हैं जिनकी वजह से अनगिनत बुनकर पैदा होते रहते थे । सारे यूरोप में इन बुनकरों के बनाये वस्त्र जाते रहे और बदले में भारत में मूल्यवान धातुओं का आगमन होता रहा । इन धातुओं से जुड़े सुनार समुदाय का भी उन्होंने उल्लेख किया है और भारत की इस मामले में संपन्नता का सबूत यह माना है कि सबके पास कोई न कोई आभूषण अवश्य होता है । कान की बाली, गले में आभूषण और उंगली में अंगूठी के लोकप्रिय प्रचलन को उन्होंने रेखांकित किया है । अंग्रेजों ने इस करघे को तोड़ा और चरखे को तबाह किया । अंग्रेजी प्रयास से भारत के बने कपड़ों को यूरोप के बाजार से बाहर किया गया और फिर भारत को अपने देश के कपड़ों से पाट दिया गया । सार्वजनिक निर्माण की तबाही और देश भर में फैली इस दस्तकारी के विनाश ने भारत को स्थायी नुकसान पहुंचाया ।

इसे मार्क्स ने सामाजिक क्रांति का नाम दिया और कहा कि इंग्लैंड ने यह काम निकृष्टतम सवार्थों से प्रेरित होकर किया । इसके बावजूद वे अंग्रेजी शासन को इस बदलाव का अनजाना वाहक कहते हैं । उनका यह निष्कर्ष बहुधा विवाद का कारण बनता रहा है । ध्यान देने की बात है कि अंग्रेजी शासन के अपराधों पर मार्क्स ने कभी परदा नहीं डाला । इस शासन की संचालक ईस्ट इंडिया कंपनी के बारे में उन्होंने साफ लिखा कि सरकार को रिश्वत देकर ही वह शक्तिशाली बनी और अपनी इस शक्ति को कायम रखने के लिए बार बार रिश्वत देती रही । भारत के साथ व्यापार पर उसका एकाधिकार था और इसका विरोध इंग्लैंड में हुआ करता था इसलिए जब भी उसके एकाधिकार की अवधि खत्म होने को आती, वह सरकार के सामने नये कर्जों के प्रस्ताव पेश करके तथा नये नये उपहार देकर अपना अधिकार पत्र बहाल करवाती थी ।

उनका कहना था कि भारत में अंग्रेजी शासन ने दोहरी भूमिका निभाने का काम किया । उसकी एक भूमिका विनाशकारी थी जिसके तहत उसने भारत के पुराने समाज को तहस नहस कर दिया । उन्होंने देशी समुदायों को छिन्न भिन्न करके, देशी उद्योग को जड़ से उखाड़कर और उस समाज में जो कुछ भी उन्नत तथा श्रेष्ठ था उसे नष्ट करके भारतीय सभ्यता का नाश किया । अंग्रेजी राज का इतिहास कुल मिलाकर नाश की ही कहानी है । देश को जिस तरह अंग्रेजों ने खंडहर बना दिया था मार्क्स के मुताबिक उसमें रचनात्मक काम शायद ही दिखाई पड़ें । फिर भी कुछ नये कामों की शुरुआत उन्होंने देखी और दर्ज की । इसमें सबसे पहले उन्होंने इस देश की एकता का उल्लेख किया और बताया कि भले उसे अंग्रेजों ने तलवार के जोर से कायम किया लेकिन अब वह बिजली के तार से मजबूत होगी और उसे स्थायित्व हासिल होगा । इसके बाद उन्होंने भारतीय सेना का जिक्र किया है जिसकी बदौलत भारत अपने प्रयत्नों से मुक्ति प्राप्त कर सकेगा और फिर किसी हमलावर का शिकार न बनेगा । इसके बाद उन्होंने आजाद अखबार के आगमन को देश के लिए महत्वपूर्ण माना जिसे भारतीय और यूरोपीयों के वंशज चला रहे थे । इसके बाद उन्होंने आधुनिक शिक्षा के कारण पैदा होने वाले नये वर्ग का भी उल्लेख किया जो देश का शासन चलाने की आवश्यक जानकारी रखता है और जिसने यूरोप के विज्ञान को भी अपनाया है । इन नयी सामाजिक ताकतों की उनकी पहचान किसी भी लिहाज से बेहद अंतर्दृष्टिपूर्ण और उल्लेखनीय है ।              

 

 

Tuesday, June 24, 2025

मार्क्स की नजर में राज्य और राष्ट्र

 

राज्य का सवाल मार्क्स से पहले भी दर्शन की चर्चा के केंद्र में रहा । इसका कारण समाज के साथ उसके रिश्तों की जटिलता है । राज्य की उत्पत्ति समाज के बीच से ही वर्गों के जन्म लेने के बाद हुई लेकिन वह अपने आपको वर्गोपरि दिखाने की कोशिश करता है । मार्क्स के मुताबिक राज्य का उदय ही वर्ग विभाजित समाज में शासक वर्ग की सत्ता को दमन के सहारे बनाए रखने के लिए हुआ था । यही नहीं राज्य की मौजूदगी का मतलब है कि समाज में न केवल परस्पर विरोधी वर्ग और उनके स्वार्थ बने हुए हैं बल्कि उनके बीच का अंतर्विरोध असमाधेय है । राज्य की भूमिका वर्ग संघर्ष को खत्म करने की नहीं होती । उसकी मौजूदगी ही वर्ग संघर्ष के तीखेपन का प्रमाण होती है । मजदूर वर्ग का काम न केवल वर्ग विहीन समाज का निर्माण करना है बल्कि वर्गों की समाप्ति के कारण स्वयं राज्य भी अनावश्यक हो जाता है और वर्ग विहीन समाज उसे संग्रहालय की वस्तु बना देता है ।

सभी लोग जानते हैं कि मार्क्स अंतर्राष्ट्रवादी थे । कम्युनिस्ट घोषणापत्र की प्रसिद्ध आखिरी पंक्तियां ‘दुनिया के मजदूरों’ को संबोधित हैं । इसका ही व्यावहारिक रूप मजदूरों के प्रथम इंटरनेशनल के बतौर गठित हुआ जिसके साथ मार्क्स का घनिष्ठ जुड़ाव रहा । उनके जीवनकाल में ही राष्ट्रवाद का उदय होने लगा था और राष्ट्र-राज्य की धारणा ने भी जड़ पकड़ना शुरू कर दिया था । इसी दार्शनिक और ठोस राजनीतिक परिस्थिति में राज्य के बारे में उनकी राय को देखना वाजिब होगा ।

एंगेल्स ने परिवार और निजी संपत्ति के उदय के साथ राज्य की उत्पत्ति के बारे में भी विचार किया और कहा कि राज्य को बाहर से लाकर समाज पर थोपा नहीं गया, न वह किसी नैतिक विचार या विवेक का साकार रूप है । वह समाज के विकास की निश्चित अवस्था में उसके भीतर से ही पैदा होता है । इसके जन्म से यह पता चलता है कि समाज कुछ असमाधेय अंतर्विरोधों में फंस गया है और उनसे बाहर निकलना उसके लिए सम्भव नहीं रह गया है । ये अंतर्विरोध आपसी स्तर पर विरोधी आर्थिक हितों वाले वर्गों के बीच हैं । इसके कारण उन वर्गों के बीच संघर्ष शुरू हो गया है । इस संघर्ष में ये वर्ग अपने आपको और समूचे समाज को नष्ट न कर डालें इसलिए एक ऐसी ताकत जरूरी बन गयी जो उनके ऊपर नजर आये । इससे संघर्ष को हल्का किया जा सकता था और उसे कथित व्यवस्था की सीमाओं के भीतर ही सीमित रखा जा सकता था । समाज से उत्पन्न होकर भी उससे ऊपर और अलग दिखने वाली इसी संस्था को उन्होंने राज्य कहा । उनका यह भी कहना था कि यदि वर्गों के बीच के विरोध का समाधान उनके समन्वय से हो सकता तो राज्य का जन्म ही नहीं होता । असल में राज्य के जरिए एक वर्ग दूसरे वर्ग पर प्रभुत्व कायम करता है और उसका उत्पीड़न करता है । इसके सहारे ही ऐसी व्यवस्था बनायी जाती है जो वर्गीय टकरावों को मंद करके उत्पीड़न को कानूनी और मजबूत बनाती है ।

राज्य के बारे में इस बुनियादी धारणा को स्पष्ट करने के बाद वे इसके जन्म की कहानी को थोड़ा विस्तार देते हैं । इसका जन्म कबीलाई समाज में हुआ तो पुरानी तरह के संगठन की जगह आयी इस नयी संस्था ने प्रजा को प्रदेशानुसार बांटा । यह विभाजन पुराने गोत्र आधारित संगठन के साथ लम्बे समय तक संघर्षरत रहा था । इसके अतिरिक्त कुछ और नयी चीजें नजर आने लगीं जो पुराने समाज में थीं ही नहीं । एक तो यह कि नयी सार्वजनिक सत्ता का उदय होता है जो सशस्त्र होती है और अपने आपको खुद ही संगठित करने वाली जनता से उसका मेल नहीं रह जाता । असल में जब समाज वर्गों में बंट जाता है तो उसका अपने आप संगठित होना मुश्किल हो जाता है । हथियार से सुसज्जित यह सार्वजनिक सत्ता प्रत्येक राज्य में होती है । उसके पास इन हथियारबंद लोगों के अतिरिक्त जेलखाने और तरह तरह की दमनकारी संस्थाओं का जाल भी आ जाता है । इन चीजों की मौजूदगी पुराने समाज में कभी थी ही नहीं ।

इससे पहले के समाज में लोग खुद को हथियारों के साथ संगठित कर सकते थे लेकिन राज्य के उदय के साथ यह अधिकार केवल उसके पास ही रह जाता है । इसका उनके समय ठोस रूप फौज और जेलखाने की शक्ल में था जिसके बारे में एंगेल्स कहने की कोशिश करते हैं कि इनका खास समय पर जन्म हुआ है इसलिए इनकी समाप्ति भी हो सकती है । बहुतेरे लोग समाज के इस प्रकार के संगठन को स्वाभाविक मानते हैं । वे इससे पहले के खुद ही संगठित हो सकने की क्षमता की कल्पना भी नहीं कर पाते जबकि एंगेल्स समाज के ऐसे संगठन को ही स्वाभाविक समझते हैं । राज्य के विशेष रूप के आगमन का कारण समाज का वर्गों में विभाजन था । तात्पर्य कि वर्ग विभाजन का अंत होते ही राज्य के इस रूप का औचित्य समाप्त हो जाता है ।       

वर्ग विभाजन के बाद उन वर्गों के बीच हितों के संघर्ष में हथियारों के अंधाधुंध इस्तेमाल पर काबू पाने के लिए ही राज्य ने यह अधिकार केवल अपने हाथ में रख लिया था । इस तरह वे दो किस्म के रूपों की बात करते हैं । एक में कुछ ही लोग हथियार रखने के अधिकारी होते हैं और दूसरे में सारे लोग खुद को संगठित करने में सक्षम होते हैं । कुछ इलाकों में राज्य की सार्वजनिक सत्ता कमजोर भी होती है लेकिन वर्ग विरोधों के बढ़ने, पड़ोसी राज्यों का विस्तार होने और आबादी बढ़ने के साथ यह सार्वजनिक सत्ता मजबूत होती जाती है । वर्ग संघर्ष और देश विजय की होड़ इस सार्वजनिक सत्ता को विराट बनाती जाती है और पूरे समाज के लिए खतरा बन जाती है ।

समाज के ऊपर खड़ी इस सार्वजनिक सत्ता को बनाये रखने के लिए टैक्स और राजकीय ॠण की जरूरत होती है । इस काम के लिए एक भारी भरकम तंत्र का निर्माण करना होता है जिसे समाज के ऊपर स्थित अधिकारी वर्ग के बतौर पहचाना जा सकता है । इन अधिकारियों के प्राधिकार की रक्षा के लिए नियम कानून बनाने पड़ते हैं । राज्य के जन्म की परिस्थितियों के कारण ही वह आर्थिक रूप से प्रभुत्वशाली वर्ग का राज्य होता है । इस राज्य का सहारा पाकर वह वर्ग राजनीतिक क्षेत्र में भी दबदबा कायम कर लेता है । इस तरह उसे उत्पीड़ित वर्ग को दबाकर रखने और शोषण करने का नया साधन मिल जाता है । इस नयी व्यवस्था में धनिक समुदाय और भी कारगर तरीके से असर डालता है । सरकारी अधिकारियों के भ्रष्टाचार के साथ ही सरकार और सट्टा बाजार के बीच गठबंधन भी इसका उपकरण बन जाते हैं । धन की यह स्वतंत्र सत्ता राजनीतिक मशीनरी पर निर्भर नहीं रह जाती । राजनीतिक सत्ता इस वास्तविक सत्ता का ऊपरी खोल बनकर रह जाती है । इसके बावजूद एंगेल्स ने सार्विक मताधिकार को मजदूर वर्ग की परिपक्वता की कसौटी कहा ।

एंगेल्स का कहना था कि चूंकि राज्य का जन्म समाज में वर्ग विभाजन से जुड़ा है और ऐसी स्थिति आ रही है जिसमें वर्गों का अस्तित्व न केवल अनावश्यक बल्कि उत्पादन के विकास के लिए बाधा बन जाएगा इसलिए वर्गों का विनाश हो जाएगा और उनके साथ साथ राज्य भी मिट जाएगा । आगामी समाज उत्पादकों के स्वतंत्र तथा समान सहयोग की बुनियाद पर चलेगा वह राज्य की पूरी मशीनरी को अजायबघर में रख देगा । इस नयी स्थिति का वर्णन करते हुए एंगेल्स कहते हैं कि जब मजदूर वर्ग राजनीतिक सत्ता पर अधिकार कर लेता है तो सबसे पहले उत्पादन के साधनों को राजकीय संपत्ति में बदल देता है । ऐसा करके वह अपने आपको मजदूर के रूप में खत्म कर देता है । इसके साथ वर्ग संघर्ष भी समाप्त हो जाता है और चूंकि राज्य की जरूरत वर्ग संघर्ष में ही थी इसलिए राज्य के रूप में राज्य का भी अंत हो जाता है ।

राज्य की एक और विशेषता को बताते हुए एंगेल्स कहते हैं कि राज्य पूरे समाज का अधिकृत प्रतिनिधि होता था । उसके रूप में पूरा समाज संयुक्त रूप से साकार हो जाता था । असल में राज्य उस वर्ग का राज्य होता था जो खुद ही अस्थायी तौर पर शासक के बतौर पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करता था । मजदूर वर्ग के हाथ में राजनीतिक सत्ता के आने के बाद राज्य सचमुच समूचे समाज का प्रतिनिधि बन जाता है और तब वह एकदम अनावश्यक हो जाता है । उस समय ऐसा कोई वर्ग नहीं रह जाता जिसे पराधीन बनाकर रखने की जरूरत हो । लोगों के निजी जीवन संग्राम पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था की अराजकता से उपजे हैं और उसी वजह से संघर्ष और ज्यादतियों की मौजूदगी होती है । इनके खात्मे के बाद किसी वर्ग को दबाकर रखने की जरूरत नहीं रह जाती और तब दमन की इस मशीनरी का भी अंत हो जाता है । समूचे समाज का प्रतिनिधि होने के लिए ही वह समाज के नाम पर उत्पादन के साधनों को अपने अधिकार में ले लेता है । राज्य के रूप में यही उसका आखिरी काम होता है । इसके बाद क्रमश: सामाजिक संबंधों की दुनिया में उसका हस्तक्षेप अनावश्यक होता जाता है । व्यक्तियों पर शासन की जरूरत नहीं रह जाती । वस्तुओं का प्रबंधन और उत्पादन की प्रक्रिया का संचालन समाज करने लगता है और इस तरह राज्य का लोप अपने आप हो जाता है ।

मार्क्स ने भी इस मान्यता को स्पष्ट करते हुए कहा था कि शोषक वर्गों को शोषण की व्यवस्था जारी रखने के लिए राजनीतिक प्रभुत्व की जरूरत होती है लेकिन शोषित वर्गों को हर प्रकार के शोषण के पूरी तरह से खात्मे के लिए इसी राजनीतिक प्रभुत्व की जरूरत होती है । मकसद के इस अंतर से इन राज्य के प्रति इन दोनों के रुख में भी अंतर आ जाता है । उनका मानना था कि पूंजीवाद ने ही शोषित वर्गों में किसानों आदि को जहां विखंडित और विभाजित किया वहीं मजदूरों को एकत्र, एकताबद्ध और संगठित किया इसलिए पूंजीवादी शासन के विरुद्ध संघर्ष में वही शोषित वर्ग का नेतृत्व कर सकता है । उसे खुद को पूंजीपति के विरोध में शासक के बतौर खड़ा होना पड़ता है । यही मजदूर वर्ग का राजनीतिक प्रभुत्व होता है और इसके लिए उसे राजसत्ता की जरूरत होती है । मार्क्स कहना चाहते थे कि राज्य को आम तौर पर पूंजीपतियों का वर्ग अपने कब्जे में रखता है और इस नाते खुद को समाज का प्रतिनिधि और राष्ट्र घोषित करता है । मजदूर वर्ग की जिम्मेदारी है कि पूंजीपति वर्ग को इस स्थिति से हटाकर अपने को इस स्थिति में ले आये । इस काम के लिए वह राज्य की पूंजीपति वर्ग द्वारा बनायी गयी इस मशीनरी का इस्तेमाल करता है ।

राज्य की मशीनरी के रूप में मार्क्स ने नौकरशाही और फौज नामक दो निकायों को चिन्हित किया और इन्हें डरावना परजीवी निकाय कहा । इसकी पैदाइश सामंती समाज के खात्मे के समय हुई थी और इसने सामंतवाद के खात्मे की प्रक्रिया को तेज किया था । प्रभुत्व के लिए होड़ करने वाली पार्टियों ने इस विशालकाय राजकीय ढांचे पर अपने अधिकार को जीत का पुरस्कार माना है । इस क्रम में उन्होंने इसे और भी मजबूती प्रदान की जबकि असली सवाल इस उत्पीड़क विशाल तंत्र को तोड़ फेंकने का है । इस प्रकरण में मार्क्स ने राजकीय तंत्र के विकास की कहानी सुनायी है और उसके संबंध में मजदूर वर्ग का ठोस क्रांतिकारी काम सुझाया है । उनके अनुसार राज्य के नौकरशाही और फौज नामक निकाय हजारों तरीकों से पूंजीपति वर्ग के साथ बंधे रहते हैं ।

ये दोनों निकाय पूंजीवादी समाज की जरूरत से पैदा होने के बावजूद परजीवी की तरह उसका खून चूसते हैं । सामंतवाद के पतन के बाद यूरोप में ढेर सारी पूंजीवादी क्रांतियां हुईं और उन सबने इन निकायों को सुधारा और मजबूत बनाया । इन निकायों के जरिए समाज के अन्य वर्गों के कुशल और महत्वाकांक्षी लोगों को पूंजीपति वर्ग की सेवा में लगाया जाता है । इनमें शामिल होते ही ये लोग सामान्य जनता से ऊपर उठ जाते हैं । इस तरह ये संस्थान समाज में पूंजीवादी शासन की पहुंच को विस्तारित करते हैं और वैधता भी प्रदान करते हैं । इसलिए मार्क्स ने इसके विनाश को मजदूर वर्ग का ध्येय कहा । राज्य के नाश के बाद की स्थिति को साफ ढंग से उन्होंने पेरिस कम्यून के अनुभव के बाद बताया ।

उन्होंने देखा कि पूंजीवादी शासन की लोकतांत्रिक पद्धति में भी मजदूर वर्ग के दमन की कार्यवाही के मामले में राज्य की मशीनरी का बल बढ़ा और इसके लिए नौकरशाही और फौज में लगातार बढ़ोत्तरी की गयी । इसलिए मजदूर वर्ग इस राज्य का तख्तापलट देते हैं और अंत में उसका संपूर्ण उन्मूलन कर देते हैं । जब वे राज्य को अपने कब्जे में लेते हैं तो वे नये ढंग के जनवाद की स्थापना करते हैं । पेरिस कम्यून के ही अनुभव के आधार पर मार्क्स ने घोषणापत्र की राज्य संबंधी धारणा में बदलाव किया । उन्होंने कहा कि राज्य की पहले से ही बनी बनायी मशीनरी का इस्तेमाल करके मजदूर वर्ग अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता । उसे इस पुरानी मशीन को तोड़ देना होगा और अपने मकसद को हासिल करने के लिए नये किस्म की मशीन को खड़ा करना होगा । पुरानी नौकरशाही और फौज पर आधारित मशीन को उखाड़ फेंकना मार्क्स के लिए किसी भी क्रांति की पूर्वशर्त थी । उस समय वे किसानों और मजदूरों को साथ लेकर की जाने वाली क्रांति का जरूरी काम इस मशीन को खत्म करना बता रहे थे ।

इसके खात्मे के बाद की वैकल्पिक मशीन का आदर्श उन्हें पेरिस कम्यून का ढांचा महसूस हुआ । इसे उन्होंने मजदूर वर्ग का सच्चा शासन कहा । इसने स्थायी सेना को समाप्त कर दिया था और उसकी जगह हथियारबंद जनता की निगरानी की धारणा प्रस्तुत की । कम्यून के सभी ढांचे सार्विक मताधिकार के आधार पर निर्वाचित हुए थे और उनमें जो भी जिम्मेदार पदों पर थे उन्हें इसी तरह कभी भी उनके पद से हटाया जा सकता था । कम्यून के ये निर्वाचित जिम्मेदार अधिकारी मजदूरों के सच्चे प्रतिनिधि थे । पुलिस को भी केंद्रीय सरकार के एजेंट की भूमिका से आजाद कर दिया गया था । इसका राजनीतिक चरित्र खत्म करके इसे सार्विक मताधिकार से निर्वाचित कम्यून के प्रति ही जवाबदेह ठहराया गया । प्रशासन की अन्य सभी शाखाओं के मामले में भी यही नियम लागू किया गया था । कम्यून के अधिकारियों के सभी विशेषाधिकार खत्म करके उनके खास भत्ते भी बंद कर दिये गये थे । उनका वेतन भी मजदूरों के वेतन की संगति में लाया गया था । न्याय विभाग पर से धार्मिक तंत्र की जकड़ समाप्त करके उसे भी जनता के प्रति जवाबदेह बनाया गया था । उन्हें भी निर्वाचित होना था और उसी प्रक्रिया से उन्हें पदमुक्त भी किया जा सकता था । राज्य की पुरानी मशीन की जगह पर कम्यून ने लोकतांत्रिकता की स्थापना की जिसमें सभी अधिकारियों का निर्वाचन होना था और मताधिकार से ही उन्हें पदमुक्त भी किया जा सकता था । इसे मार्क्स ने कुछ संस्थाओं के आगमन की जगह एकदम नये तरह के संस्थान की स्थापना माना । इसके रास्ते ही उन्हें राज्य के निषेध का उपाय लागू होता महसूस हुआ ।

यह नया संस्थान अब भी पूंजीवादी तत्वों का दमन करता है लेकिन उसके पक्ष में बहुसंख्यक जनता होती है । यह जनता ही राज्य होती है । इस जनता की पहलकदमी के कारण अब इस काम के लिए किसी विशेष निकाय की जरूरत ही नहीं रह जाती । राज्य के लिए निर्धारित कामों को जितना ही जनता पूरा करती जाती है उतना ही राज्य के पुराने अंग, चरित्र और रूप की जरूरत भी क्रमश: समाप्त होती जाती है । इस सिलसिले में मार्क्स ने प्रतिनिधित्व के भत्तों और अधिकारियों के विशेषाधिकारों के अंत का खासकर उल्लेख किया था । उन्हें भी राज्य के मजदूर मानकर उनकी मजदूरी भी एक स्तर तक ले आयी गयी थी । यह बात दमनकारी ताकत के रूप में राज्य के उत्पीड़कों को जनता द्वारा अनुशासित करने का और जनता की ताकत में बुनियादी बदलाव का पक्का उपाय मानी गयी थी । राज्य के अधिकारियों के वेतन में घटोत्तरी और उसे मजदूरों के स्तर तक लाना भी कोई हवाई आदर्श नहीं बल्कि पूंजीवाद से समाजवाद की ओर जाने की दिशा में एक कदम महसूस हुआ । इसके बिना पूरी जनता द्वारा राजकाज का संपादन किसी तरह सम्भव नहीं होगा । कम्यून की ये सीधी सादी कार्यवाहियां राज्य का पुनर्निर्माण करने तथा समाज के राजनीतिक पुनर्निर्माण से जुड़ी हैं । इनके सहारे ही समाज फिर से उस राज्य को अपने काबू में ला सकता है जो उससे ही जन्म लेकर केवल उससे अलग हो गया था बल्कि उस पर ही शासन थोपने का साधन बन गया था इसके बाद ही वह निर्णायक कदम उठाया जाना था जिसके जरिये समाज की ओर से राज्य उत्पादन के साधनों को सबमें बांटकर संपत्ति के अपहर्ताओ की संपत्ति का अपहरण कर लेगा

इसके अलावे कम्यून ने स्थायी सेना और नौकरशाही को खत्म करके पूंजीवादी क्रांति के सस्ती सरकार के ही वादे को पूरा किया था हमने पहले राज्य के जिन निकायों में शरीक होने के आकांक्षी समूहों का जिक्र किया उनका बहुत छोटा सा हिस्सा ही इसमें शरीक हो पाता है । शेष बची विशाल बहुसंख्या का सपना तो सस्ती और सुलभ सरकार ही होता है । इस सपने को पूरा करने का माद्दा मजदूर वर्ग में ही होता है । मार्क्स मानते थे कि संसदीय लोकतंत्र ही लोकतांत्रिक शासन का आखिरी और एकमात्र रूप नहीं है । संसदीय लोकतंत्र की यह मार्क्सी आलोचना उसके निषेध की जगह उसकी कमियों को दूर करने का प्रयास थी । कम्यून ने संसद जैसी तमाम प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं को गप्पबाजी के अड्डे के मुकाबले कार्यशाली संस्था में बदल देना चाहा था । असल में सभी लोकतांत्रिक देशों में राज्य के असली काम तो परदे की ओट से नौकरशाही करती है । संसद केवल ऊपरी आवरण बनकर रह जाती है । कम्यून ने इन संस्थाओं को वास्तविक तौर पर कार्यशाली बनाने की कोशिश की । उसने संसद जैसी प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं को असली ताकत प्रदान करने का उपाय किया । इसे ही पुराने समाज के गर्भ से नये समाज के जन्म की प्रक्रिया का आदर्श रूप समझना होगा । इसके तहत कम्यून पुरानी नौकरशाही को तत्काल ध्वस्त करके ऐसी नयी मशीनरी के निर्माण में लग गया जो धीरे धीरे तमाम किस्म की नौकरशाही को ही समाप्त कर दे । इसमें राज्य के ऊंचे पदाधिकारियों के हुक्म देने की आदत की जगह पर सीधे सादे मुनीमों के ऐसे काम होने थे जिन्हें प्रत्येक नागरिक पूरा कर सकता था । इसलिए ही उसका वेतन मजदूरों की मजदूरी के बराबर रखने का प्रस्ताव किया गया था । यह नये तरह की व्यवस्था वाला राज्य होगा जिसमें नियंत्रण और हिसाब किताब के काम आसान होते जाएंगे, उन्हें हर कोई बारी बारी अंजाम दे सकेगा और फिर वे आदत बन जाएंगे तो मनुष्य के विशेष तरीके के कामों के रूप में उनका खात्मा हो जायेगा ।

इसका एक और रूप सत्ता का विकेंद्रीकरण था जिसके तहत पेरिस कम्यून ने छोटे से छोटे गांव के भी कम्यून की कल्पना की थी जिनका चुना हुआ प्रतिनिधिमंडल पेरिस कम्यून होना था । कम्यून के शासन में देश की एकता को भंग नहीं होना था बल्कि उसे संगठित किया जाना था । उस समय की राजसत्ता अपने को राष्ट्र से स्वाधीन और श्रेष्ठ समझते हुए राष्ट्र की एकता का मूर्तिमान रूप समझती थी लेकिन असल में वह राष्ट्र के लिए परजीवी से अधिक कुछ नहीं थी । ऐसी सत्ता के नाश से राष्ट्र की एकता मजबूत बनती । उसके शासन तंत्र के दमनकारी अंगों को काटकर अलग कर दिया जाता और उसके वाजिब काम जिम्मेदार कर्ताओं के हाथ में सौंप दिये जाते । फिलहाल उन कामों को करने वाली सत्ता खुद को समाज से अधिक शक्तिशाली समझती थी इसलिए लोगों पर बोझ थी । मार्क्स ने असल में पूंजीवादी शासन की मशीनरी को पूरी तरह ध्वस्त करने का दायित्व पेरिस कम्यून से सीखा था । राष्ट्र की एकता के संबंध में मार्क्स के ये विचार जनता के हाथ में अधिकार और सत्ता से जुड़े हैं । इनको छोड़कर राष्ट्र की एकता नौकरशाही और फौज के बल पर जबरन थोपी एकता हो जाती है ।

मार्क्स ने पेरिस कम्यून के संविधान में राज्य के विलोप की सम्भावना देखी और उनका मानना था कि यह काम मजदूर वर्ग के नेतृत्व में ही हो सकता था । इससे पहले के सरकार के सभी रूप दमनकारी थे जबकि कम्यून उत्पादक वर्ग के संघर्ष की उपज था । उनके अनुसार कम्यून ऐसा राजनीतिक रूप था जिसमें श्रम की आर्थिक मुक्ति सम्भव थी । मार्क्स का मानना था कि राज्य का लोप अवश्य होगा और इसका संक्रमणकालीन रूप शासक वर्ग के रूप में संगठित मजदूर वर्ग होगा । पेरिस कम्यून को उन्होंने पूंजीवादी राजकीय मशीनरी को ध्वस्त करने का पहला सचेत प्रयत्न माना और उसकी जगह पर कायम होने वाली व्यवस्था का नमूना समझा ।