मार्क्स ने अपने समय अंग्रेजी राज का
विरोध किया । रूसी क्रांति के बाद लेनिन ने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों के साथ
एकजुटता बनायी । भगत सिंह का लेनिन के प्रति आदर अकारण नहीं था । बहुत कुछ इसी
कारण से रूसी क्रांति के बाद हमारे देश में कम्युनिस्ट पार्टी बनाने की कोशिश शुरू
होती है । पार्टी बनाने की इन सभी शुरुआती कोशिशों को देश के मजदूर और किसान
आंदोलनों के कारण ठोस जमीन मिली । एक ओर प्रथम विश्वयुद्ध के चलते महंगाई बढ़ी और
युद्ध में लड़ने के लिए सैनिकों की भरती हुई थी । इससे जनता में विक्षोभ पैदा हुआ
तो रौलट ऐक्ट लगाकर जनता को काबू करने की कोशिश होने लगी । पंजाब में इसके विरोध
में हुई जलियांवाला बाग की सभा पर गोली चली । मजदूर और किसान आंदोलनों ने देश की
आजादी के आंदोलन को गहराई दी । मार्क्स ने मजदूर आंदोलन के कारगर हथियार के रूप
में हड़ताल की वकालत की थी । भारत में भी मजदूर आंदोलन का यह रूप सामने आया ।
असहयोग आंदोलन के दौरान 1857 के बाद पहली बार हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बड़े
पैमाने पर एकता नजर आयी । इसी दौरान भगत सिंह का उभार हुआ । गदर पार्टी की परिघटना
हो चुकी थी । समाजवाद की बातें हवा में थीं । ऐसे ही वातावरण में विभिन्न केंद्रों
के कम्युनिस्ट कार्यकर्ता कानपुर में एक सम्मेलन में मिले और पार्टी की स्थापना
हुई ।
आजादी की लड़ाई के दौरान की इस विरासत
में हमारी पार्टी की जड़ होने का उल्लेख कामरेड विनोद मिश्र ने किया जब उन्होंने
1990 में कहा कि नक्सलबाड़ी की धारा को किसान जागरण के आधार पर भारतीय राजनीति में
क्रांतिकारी आंदोलन के उभार की तरह देखना चाहिए । इसके मूल में किसान आंदोलनों की
लम्बी विरासत तो थी ही, कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर की दो कार्यनीतियों का संघर्ष
भी था । इस सिलसिले में ध्यान रखना चाहिए कि आंदोलन ही क्रांतिकारी राजनीति के लिए
एकमात्र गारंटी नहीं होता उसके साथ सही नेतृत्व भी जरूरी होता है । दुनिया के सभी
देशों में आंदोलन और कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच इस तरह के सही संतुलन से ही सफलता
मिल पाती है । प्रथम विश्वयुद्ध के बाद के दौर में किसान आंदोलन का विस्तार अवध से
लेकर बंगाल, केरल और पंजाब तक था । रूसी क्रांति के बाद अंग्रेज सरकार भी उसके
प्रभाव को लेकर परेशान थी । देश के अखबारों में रूसी क्रांति की सकारात्मक खबरें
छप रही थीं । आजादी के आंदोलन की क्रांतिकारी धारा के लोग कम्युनिस्ट विचारधारा की
ओर आकर्षित हो रहे थे । कुछ लोग रूस गये भी और विदेश में पार्टी बनाने की कोशिश की
लेकिन इस कोशिश को देश के भीतर की हलचलों में कोई जगह नहीं मिली । उनकी प्रचार
सामग्री से केवल कुछ अंग्रेजी जानने वाले प्रभावित हुए । इधर देश में बंबई,
कलकत्ता, मद्रास और लाहौर के कम्युनिस्ट समूह डांगे, मुजफ़्फ़र अहमद, सिंगरावेलू और
गुलाम हुसैन के नेतृत्व में उभर रहे थे ।
जब गांधी ने चौरा चौरी के बाद अचानक
असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो देश के भीतर विकल्प की तेजी से तलाश होने लगी । यह
विकल्प रूसी क्रांति के रूप में प्रत्यक्ष नजर आ रहा था । लेनिन ने उपनिवेशवाद से
ग्रस्त देशों के मुक्ति आंदोलनों को भी अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी क्रांति के अभिन्न
अंग के रूप में देखना शुरू किया । उनके इस रुख ने इन आंदोलनों के भीतर
कम्युनिस्टों की मौजूदगी बढ़ाने में मदद की । चीन और भारत के भीतर इसी प्रक्रिया
में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन ने अपनी जगह बनायी । देश के भीतर मजदूर वर्ग भी
बढ़ रहा था । उनके भीतर ट्रेड यूनियनों की तादाद बढ़ने लगी । कहने की जरूरत नहीं कि
इसका मतलब मजदूरों का संगठित होना है । उनका आंदोलन अपने शोषण के विरोध में तो था
ही आजादी के आंदोलन का महत्वपूर्ण घटक भी बन गया । कम्युनिस्टों ने मजदूर किसान
पार्टियों का भी गठन किया जो जनता के और भी व्यापक हिस्सों को शामिल करने का जरिया
बने । ये पार्टियां कांग्रेस के साथ भी काम करती थीं । इस प्रयोग से पार्टी की बात
तो दूर दूर तक गयी लेकिन कुछ तो दमन की वजह से और कुछ सुविधा के कारण पार्टी इस
मंच के मुकाबले कम नजर आने लगी । पार्टी के मुखपत्रों से अधिक प्रसार इसकी
पत्रिकाओं का था । किसानों के बीच से सदस्यों की भरती की ठोस योजना नहीं बनी । इसी
तरह का एक प्रयोग पंजाब में भगत सिंह भी कर रहे थे और नौजवान भारत सभा से शुरू
करके हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन तक पहुंचे । उनके अन्य साथियों की
समाजवादी रुझान के कारण ही अजय घोष जैसे साथी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए । वे
लोग आजादी की लड़ाई में सभी रूपों का इस्तेमाल करने के पक्ष में थे । भगत सिंह ने
लाहौर जेल से क्रांतिकारी कार्यक्रम भी तैयार किया था । इसमें उन्होंने संघर्ष के
जरिए राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने के साथ सामंतवाद के खात्मे को भी अपना लक्ष्य
घोषित किया था । साथ ही कारखानों का राष्ट्रीकरण भी उनके कार्यक्रम का अंग था ।
कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हो गयी
थी, वह लोकप्रिय भी थी लेकिन पार्टी के सांगठनिक मजबूती का काम उपेक्षा का शिकार
रहा । यहां हमें फिर से ध्यान रखना होगा कि आंदोलन और लोकप्रियता के साथ संगठन की
मजबूती भी जरूरी होती है । इसके बिना आंदोलन का असर बिखर जाता है । कम्युनिस्ट
आंदोलन के सामने साम्राज्यवाद से मुक्ति के साथ मेहनतकश जनता को सामंती और
पूंजीवादी शोषण तथा उत्पीड़न से मुक्त करना भी जरूरी कार्यभार था ।
इस प्रसंग में मजदूर आंदोलन की बात जरूरी है क्योंकि उसको शहरों में इकट्ठा रहना होता था । हमने पहले ही बताया कि इन्हीं बड़े शहरों में पहले कम्युनिस्ट सामने आये थे । बंबई का सूती वस्त्र उद्योग, कलकत्ते की जूट मिल आदि में हड़तालों की लहर आयी । ये हड़तालें इन क्षेत्रों से फैलकर रेलवे जैसे देशव्यापी जाल तक पहुंच गयीं । शुरुआती ट्रेड यूनियन पर कांग्रेस का कब्जा था और वह नेतृत्व जितना अधिक जुझारू
होना चाहिए था उस जरूरत के मुकाबले कम क्रांतिकारी था । इसलिए इन हड़तालों के साथ ही कम्युनिस्टों के नेतृत्व में नयी यूनियन बनी । जब 1937 में कांग्रेस की सरकारें अनेक प्रांतों में बनीं तो उनसे उम्मीद पैदा हुई । नतीजे के बतौर मजदूरों के संघर्ष में फिर उछाल आया । सभी जगह इन कांग्रेसी सरकारों ने दमन की नीति अपनायी । इन सभी संघर्षों में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता और नेता अगुआ कतार में रहे । उनकी यही भूमिका आजादी के बाद भी रही । इन संघर्षों के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व ने अर्थवादी रुख अपनाया और उनके भीतर से पार्टी सदस्यों की भरती नहीं की । सभी जानते हैं कि मजदूर वर्ग में वर्गीय राजनीतिक चेतना का प्रवेश बाहर से कराना होता है अन्यथा वे अपने ही कारखाने की सीमित दुनिया में केवल आर्थिक मांगों तक रह जाते हैं । इसी तरह किसान मोर्चे पर भी कोई गम्भीर पहल नहीं ली जा सकी । इन बुनियादी कमजोरियों का असर द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके बाद आजादी के दौरान बने माहौल में निर्णायक भूमिका न निभा पाने में प्रकट हुआ । जब देश भर में किसानों के आंदोलन फूटे तो उसके मामले में भी पार्टी की कोई केंद्रीय नीति नहीं थी । बंगाल में इस किसान आंदोलन ने उग्र रूप धारण किया तो वाम दुस्साहस की निंदा की गयी । पार्टी नेतृत्व का आंदोलन की स्थिति में यही रुख फिर से नक्सलबाड़ी के समय नजर आया ।
जब आजादी आयी तो उस समय भी कम्युनिस्ट पार्टी के
नेतृत्व में तेलंगाना आंदोलन जारी था । उस इलाके में निजाम का शासन था । इस आंदोलन
नें तेलुगु भाषी प्रांत बनाने का भी समर्थन किया । उस आंदोलन की व्यापकता इतनी थी
कि 3000 गांवों को आजाद करा लिया गया था और इन इलाकों में भूमि सुधार भी लागू किया
गया था । उस समय बंबई में भी नाविकों का विद्रोह हुआ था । आजादी की घोषणा होने के
साथ स्थिति बदल गयी तो कम्युनिस्ट पार्टी ने निर्देश लेने के लिए कुछ नेताओं को
मास्को भेजा । स्तालिन के साथ बातचीत में जिस तरह की तस्वीर पेश की गयी उसके आधार
पर सशस्त्र संघर्ष की वापसी और जन आंदोलन तेज करने की सहमति बनी । तेलंगाना आंदोलन
की वापसी उस समय के कम्युनिस्टों के लिए बहुत भारी धक्का था । असल में भारत की
आजादी और तेलंगाना के भारत में विलय से परिस्थिति बदल तो गयी थी लेकिन पार्टी
नेतृत्व ने स्थानीय कार्यकर्ताओं को विश्वास में लिये बिना और योजनाबद्ध तैयारी के
बिना आंदोलन वापस ले लिया । स्थानीय कमिटी ने आंदोलन को आगे ले जाने की एक योजना
बनायी थी जिसके अनुसार बड़े जमींदारों को अलगाव में डालकर छोटे जमींदारों से संबंध
सुधारना था, केंद्र सरकार के सशस्त्र बल के विरुद्ध संघर्ष केंद्रित रखना था,
पार्टी, लड़ाकू दस्ते और जन संगठनों को मजबूत तथा शिक्षित करना था, अपनी मांगों के
पक्ष में जोरदार प्रचार चलाकर अन्य प्रगतिशील पार्टियों और समूहों से एकता बनानी
थी, शहरों में मजदूर वर्ग
का मजबूत आंदोलन चलाना था ताकि देहाती लड़ाकुओं को ताकत मिले तथा समझौते के लिए
माकूल वक्त का इंतजार करना था लेकिन पार्टी नेतृत्व ने वापसी का फैसला कर लिया था
। सही बात है कि आजादी मिलने और हैदराबाद के विलय के बाद हालात बदल गये थे और
संघर्ष को पहले की तरह जारी रखना असम्भव था लेकिन वापसी की योजना सही तरीके से
बनायी जा सकती थी । आजादी की लड़ाई के दौरान तेभागा और पुनप्रा वायलार में जो
संघर्ष हुए उन्हें पार्टी नेतृत्व राजनीतिक ऊंचाई नहीं दे सका और तेलंगाना में
पार्टी का हस्तक्षेप देर से हुआ और उसमें भ्रम की स्थिति रही । अंग्रेजी सम्राज्य
और देशी प्रतिक्रिया के विरोध में किसान विद्रोह को धुरी बनाकर सभी क्रांतिकारी
संघर्षों का समन्वय करते हुए देशव्यापी विद्रोह की दिशा में पार्टी का कोई संकल्प
नहीं नजर आया । तेलंगाना आंदोलन की वापसी के बाद सारी ऊर्जा चुनाव में लगाने का
फैसला किया गया । उसी तरह के आंदोलनों के कारण पार्टी ने चुनावों में कांग्रेस के
बाद सबसे अधिक सीटें जीतीं और सबसे अधिक वोटों से जीत भी कम्युनिस्ट पार्टी के
प्रत्याशी को आंध्र में मिली । दूसरे चुनाव में तो पार्टी ने केरल में सरकार भी
बना ली ।
इसी दौरान रूस में भी सत्ता की ओर से शांतिपूर्ण
संक्रमण आदि का सिद्धांत आना शुरू हो चुका था और देश में चुनावी सफलता मिल रही थी
। ऐसे में कम्युनिस्ट पार्टी में क्रांतिकारी और सुधारवादी धाराओं के भीतर संघर्ष
तेज हुआ । इस तरह के संघर्षों के बारे में चारु मजुमदार ने लिखा है कि पार्टी के
भीतर क्रांतिकारी धारा और सुधारवादी धाराओं के बीच की लड़ाई में हमेशा मध्यमार्गी
गुट ने नेतृत्व पर कब्जा किया । केरल में बनी सरकार को चलाने के लिए सचमुच कुछ
बहुत ही बेहतरीन प्रयोग किये गये । पार्टी और सरकार में तालमेल बिठाने के लिए 1200
इकाइयों का गठन किया गया था । शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रबंधन का कब्जा तोड़कर
शिक्षकों और कर्मचारियों को राहत दी गयी । उसी सरकार के दौरान एक प्रवृत्ति देखी
गयी जो बाद में बंगाल की सरकार के साथ भी दोहराई गयी । आंदोलनों को सीमा में रखने
और सरकारी मशीनरी पर निर्भरता की आदत लगी । कांग्रेस की केंद्रीय सरकार ने
विद्यार्थियों और पुलिस के बीच झड़प का बहाना लेकर सरकार गिरा दी ।
जब केंद्र सरकार के साथ टकराव चल रहा था उसी समय से
पार्टी में वैचारिक संघर्ष भी जारी था । इसी संघर्ष के क्रम में पहले माकपा और फिर
हमारी पार्टी का उदय हुआ । इन बहसों को ठीक से देखने के लिए पार्टी की पालघाट
कांग्रेस का उल्लेख जरूरी है । इसमें शांतिपूर्ण संक्रमण की रूसी नीति के लिए भारत
और इंडोनेशिया को आदर्श की तरह प्रस्तुत किया गया । साथ ही इस नीति को व्यापक एकता
के लिए उपयोगी बताया गया । नेहरू की सरकार की विदेश नीति को प्रगतिशील और गृह नीति
को अंशत: प्रतिक्रियावादी मानकर एकता और संघर्ष की नीति की वकालत की गयी ।
कांग्रेस पार्टी द्वारा 1955 में समाजवाद की बात को धोखा कहते हुए भी उसमें
सम्भावना देखी गयी और माना गया कि इससे कांग्रेसियों में वाम झुकाव बढ़ेगा । इसलिए
व्यापक जनवादी आंदोलन के लिए निचले स्तर पर कांग्रेस के साथ संयुक्त कार्यवाही की
वकालत की गयी । पी सी जोशी ने सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी ताकतों को छोड़कर शेष सबको
मिलाकर संयुक्त सरकार बनाने का प्रस्ताव पेश किया । प्रस्ताव खारिज तो हुआ लेकिन
उसे चार सौ प्रतिनिधियों का समर्थन मिला । कांग्रेस पार्टी के वाम पक्ष के साथ
मोर्चा बनाने की इस कोशिश को तेज झटका लगा जब अमृतसर कांग्रेस में पार्टी ने किसी भी अन्य पार्टी के साथ संयुक्त
कार्यवाही के प्रस्ताव को रद्द कर दिया । साफ है कि पार्टी में चल रही रस्साकशी
में कभी यह पक्ष जीतता तो कभी उसका विरोधी पक्ष जीत जाता था ।
इस कांग्रेस के बाद कांग्रेस के साथ एकता के सवाल
पर बहस तीखी हुई । थोड़े समय तक दोनों गुटों को साथ रखने की कोशिश हुई लेकिन इससे
आंतरिक बहस में कमी नहीं आयी । चीनी हमले के सवाल पर एक गुट ने निंदा की तो दूसरे
गुट ने इस्तीफा दे दिया । माकपा की स्थापना कांग्रेस में कहा गया कि उस प्रस्ताव
ने पार्टी को भारत सरकार का दुमछल्ला साबित कर दिया । इसी समय चीन की कम्युनिस्ट
पार्टी ने शांतिपूर्ण संक्रमण की रूसी नीतियों का विरोध किया जिसके चलते
क्रांतिकारी लोग चीन की पार्टी के साथ चले आये । पार्टी में रूस समर्थक और चीन
समर्थक गुट बन गये । उसी समय डांगे द्वारा 1924 में अंग्रेजी सरकार को लिखी चिट्ठी
छप गयी और दोनों गुटों में संघर्ष तेज हो गया । वामपंथी सदस्य अलग हो गये और माकपा
बनायी तथा खुद को मूल पार्टी का असली वारिस बताया । उस समय दोनों के बीच के
वैचारिक संघर्ष को इस तरह समझा जा सकता है कि भाकपा ने राष्ट्रीय जनवादी क्रांति
का लक्ष्य अपनाया जिसमें नेहरू के नेतृत्व में साम्राज्यवाद तथा एकाधिकार विरोधी भारतीय
पूंजीपति वर्ग को साथ रखना था । दूसरी ओर माकपा ने जनता की जनवादी क्रांति का
लक्ष्य घोषित किया जिसमें कांग्रेस के साथ कोई एकता नहीं होनी थी । जोर किसान
आंदोलन खड़ा करने पर था । भाकपा ने संसद में बहुमत हासिल करने की सम्भावना देखी तो
माकपा ने कुछ राज्यों में सरकार बनाने की गुंजाइश समझी । माकपा ने कहा कि सत्ता का
उपयोग व्यवस्था की सीमाओं के बारे में जनता को सचेत करने के लिए किया जाएगा ताकि
वर्ग संघर्ष तेज हो । इसलिए नारा था कि वाम सरकार वर्ग संघर्ष का हथियार है ।
क्रांतिकारी कम्युनिस्ट नयी पार्टी में शामिल हुए लेकिन बहस बंद नहीं हुई और
उन्हें फिर से एक नयी पार्टी बनानी पड़ी । असल में माकपा के भीतर भी मध्यमार्गी और
क्रांतिकारी गुट थे । इनके ही बीच की बहस से बनी यही नयी पार्टी माले के नाम से
जानी गयी ।
माकपा के भीतर के क्रांतिकारी तत्वों का नेतृत्व
कामरेड चारु मजुमदार ने किया । वे बंगाल के दार्जिलिंग तथा सिलीगुड़ी इलाके के
साथियों के अगुआ थे । माकपा के भीतर सरकार बनाने की सम्भावना और उसकी भूमिका के
बारे में बंगाल और आंध्र के साथियों ने क्रांतिकारी रुख अपनाया था । इन दोनों
जगहों पर नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलम उनकी गतिविधि का केंद्र बने । इसका कारण यह भी
हो सकता है कि इन्हीं इलाकों में तेभागा और तेलंगाना के मशहूर आंदोलन हुए थे । इस
नयी पार्टी के बनने में भी साठ दशक के बहुतेरे कारकों का योगदान था । जनता में
केंद्र और प्रदेशों की कांग्रेसी सरकारों के प्रति मोहभंग और विक्षोभ बहुत था ।
आर्थिक संकट था और शासक वर्ग में आपसी विरोध थे । संकट का बोझ जनता पर लादने की
कोशिश के कारण जनता सड़कों पर थी । सरकारी दमन के विरोध में राष्ट्रीय स्तर पर
लोकतंत्र के पक्ष में व्यापक जुझारू उभार था । रूसी नीति के विरोध में माओ की चीनी
पार्टी ने हल्ला बोला हुआ था । इन हालात ने नयी पार्टी के पक्ष में क्रांतिकारियों
में भारी रुचि पैदा की ।
आंदोलन का माहौल समूचे देश में था लेकिन बंगाल में
उभार में खासी तेजी थी । कलकत्ता में ट्राम भाड़ा बढ़ने के विरोध में हड़ताल हुई और
इस आंदोलन में विद्यार्थियों ने मुख्य भूमिका निभायी । 1959 में अन्न संकट पैदा
होने पर वाम पार्टियों ने महीने भर अभियान चलाने के बाद शहीद मीनार मैदान में रैली
की । उस पर बर्बर पुलिस दमन हुआ जिसमें लगभग अस्सी लोग मरे और सैकड़ों बुरी तरह
घायल हुए । दूसरे दिन विद्यार्थियों की हड़ताल में समूचा कलकत्ता उमड़ पड़ा । सेना
बुलानी पड़ी । इस लड़ाई के दौरान पचास लोग मरे और सैकड़ों घायल हुए । बार बार
विद्यार्थी आंदोलन भड़कने लगा । 1965 में ट्राम भाड़ा बढ़ने पर फिर आंदोलन हुआ और
तमाम जगहों पर झड़प हुई । इनमें आम लोग भी शामिल होते । समूचे देश में आंदोलनों पर
बर्बर पुलिसिया दमन देखा गया और कम्युनिस्टों की गिरफ़्तारी थोक भाव से होती थी ।
1966 के आरम्भ में तमाम वस्तुओं की महंगाई के विरोध में विद्यार्थी फिर से सड़क पर
उतर आये । महीने भर के आंदोलन में जगह जगह पुलिस और आम लोगों के बीच टकराव होता
रहा । कांग्रेस के नेताओं के घरों पर हमले होने लगे । कलकत्ता शहर में युवकों ने
अंधेरा होने के बाद गलियों में लगभग गुरिल्ला संघर्ष छेड़ दिया । आंदोलन बहुत हद तक
स्वत:स्फूर्त था, देहाती इलाकों से बढ़कर राजधानी कलकत्ता पहुंचा था और इसमें
जुझारूपन बहुत अधिक था । इसमें चारु मजुमदार ने क्रांतिकारी संकट के बीज देखे और
सिद्धांत तथा व्यवहार में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी बनाने की जरूरत महसूस की
। दूसरी ओर माकपा ने इस विक्षोभ के आधार पर केरल की सरकार के दस साल बाद नयी सरकार
बनाने का अवसर देखा । कम्युनिस्ट आंदोलन की ये दोनों धाराएं अपने अपने मकसद को
पूरा करने की दिशा में आगे गयीं । इन दोनों को कृषि क्रांति की और संसदीय रास्ते
की धारा कहा जा सकता है । इनके बीच के संघर्ष को जानना हमारी पार्टी के जन्म को
समझने के लिहाज से जरूरी है ।
1966 में माकपा की केंद्रीय कमेटी ने मजदूरों और
किसानों के संघर्ष तेज करने की अपील करते हुए भी विपक्षी दलों के साथ चुनावी
तालमेल की वकालत की ताकि जहां सम्भव हो वहां सरकार बनायी जा सके, कांग्रेस पार्टी
को अधिकतम जगहों पर हराया जा सके और संसद तथा विधानसभाओं में लोकतांत्रिक विपक्ष
की मजबूती के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की संख्या बढ़ायी जाय । जिन
प्रदेशों में पार्टी मजबूत थी वहां कांग्रेस पार्टी को हराने के लिए सभी विपक्षी
पार्टियों के साथ चुनावी तालमेल को मंजूरी दी गयी । उन जगहों पर अपने कार्यक्रम को
प्रचारित करने के साथ जनता को राहत देने के लिहाज से न्यूनतम साझा कार्यक्रम की
बात भी कही गयी । सरकार बनाने के लिए किसी भी पार्टी का समर्थन लेने की छूट दी गयी
। 1967 के चुनाव में बंगाल में भाकपा और माकपा अलग अलग पार्टियों के गंठजोड़ में थे
। माकपा कांग्रेस विरोधी गठबंधन में थी तो भाकपा के साथ कांग्रेस का एक धड़ा था ।
एक दूसरे के विरोध में लड़ी इन पार्टियों ने चुनाव के बाद आपस में मिलकर सरकार
बनायी । स्वाभाविक था कि सरकार बहुत स्थिर नहीं रहनी थी । सरकार ने सबको यूनियन
बनाने का अधिकार दिया और जनता के संघर्षों का दमन न करने का आश्वासन दिया ।
औद्योगिक संकट का बोझ मजदूरों के ऊपर डाला जा रहा
था और सरकार अपने पक्ष की थी इसलिए मजदूरों के संघर्ष बहुत तेजी के साथ फूट पड़े ।
उनके संघर्षों में हड़ताल के अतिरिक्त घेराव का नया हथियार भी शामिल हुआ । सरकार ने
तय किया कि घेराव की स्थिति में श्रम मंत्री की राय लेने के बाद ही पुलिस की दखलंदाजी
होगी । घेराव इतना लोकप्रिय हुआ कि पार्टी के मजदूर नेताओं ने भी इसे मान्यता दी ।
तीखे मजदूर संघर्षों के अलावे किसान मोर्चे पर भी खलबली थी । बेनामी और सीलिंग से
बची जमीन पर कार्यकर्ता दखल कर रहे थे । ये कार्यकर्ता नक्सलबाड़ी विद्रोह के असर
में ऐसा कदम उठा रहे थे । चारु मजुमदार ने महसूस किया कि नेता लोग क्रांतिकारी
दिशा अपनाने की जगह समय समय पर खोखली लफ़्फ़ाजी से काम चला रहे हैं । भाकपा से अलग होते समय ही उन्हें लगा था कि इस लड़ाई को सिद्धांत के साथ
व्यवहार में चलाना होगा । इसके लिए किसान आंदोलन को क्रांतिकारी रास्ते पर ले जाना
उन्हें सबसे बेहतर उपाय महसूस हुआ था । उन्होंने एक ओर आठ दस्तावेज नामक
सैद्धांतिक लेखन तो किया ही नक्सलबाड़ी विद्रोह का भी संगठन किया । व्यापक विक्षोभ
के बीच जुझारू संघर्ष के जरिए उसे व्यावहारिक दिशा देने के लिहाज से वह प्रयोग अब
भी सीखने लायक है ।
इन लेखों में चारु मजुमदार ने जनता
की ताकत पर भरोसा करते हुए क्रांतिकारी जिम्मेदारी का निर्वाह किया । उन्होंने
किसी भी बुर्जुआ पार्टी के साथ गठबंधन को खारिज किया क्योंकि साम्राज्यवाद और
सामंतवाद के साथ इनकी यारी थी । इसके मुकाबले गरीब और भूमिहीन किसानों के नेतृत्व
में हथियारबंद कृषि क्रांति का संगठन करना था क्योंकि जमीन पर यही वर्ग मजदूर वर्ग
का प्रतिनिधित्व करते थे । आंदोलन को संसदीय राजनीति और खुले जन संगठनों तक ही
सीमित नहीं रहना था । इलाकावार सत्ता दखल के लिए किसानों को गोलबंद करना था । इन
सब लक्ष्यों को हासिल करने के लिए मार्क्सवाद-लेनिनवाद और माओ विचारधारा के
निर्देशन में क्रांतिकारी पार्टी का गठन करना था । पहले ही लेख में उन्होंने शासक
वर्ग के अंदरूनी टकराव की बात की और कहा कि अन्न संकट और महंगाई के कारण पंच
वर्षीय योजना में बाधा आ रही है इसलिए शासक वर्ग संकट से पार पाने के लिए अधिकाधिक
साम्राज्यवादी पूंजी का आयात करेगा । साम्राज्यवाद पर इस निर्भरता के कारण संकट
दिनोदिन गहरा होगा । तब लोकतंत्र का गला घोंटने के अलावे उसके पास और कोई रास्ता
नहीं रह जाएगा । लोकतंत्र पर हमले के कारण जनता का विक्षोभ संघर्षों को जन्म देगा
। इसलिए आगामी समय न केवल बड़े संघर्षों का बल्कि बड़ी जीतों का भी समय होगा । ऐसे
में कम्युनिस्ट पार्टी को जनता के क्रांतिकारी संघर्षों का नेतृत्व करने की
जिम्मेदारी निभानी होगी । इसके लिए पार्टी संगठन को क्रांतिकारी संगठन बनाना होगा
।
ये सभी लेख लगातार लिखे गये और इनमें चारु मजुमदार ने आगामी कामों की व्याख्या की और पार्टी के भीतर के अर्थवाद और रूढ़िवाद की बखिया उधेड़ दी । केंद्रीय कमेटी के प्रस्ताव की आलोचना करते हुए छ्ठें लेख में उन्होंने कहा कि इसमें जन आंदोलनों के भीतर उभरते जुझारूपन यानी प्रतिक्रांतिकारी हिंसा के मुकाबले क्रांतिकारी हिंसा की उपेक्षा की गयी है और जिस तरह का विश्लेषण है उससे आगामी चुनावों से गैर कांग्रेसी सरकार की स्थापना का लक्ष्य ही उभरता है । जब भी क्रांतिकारी प्रतिरोध का जिक्र आता है तो दुस्साहसवाद का हौवा खड़ा किया जाता है और घेराव आदि की खोखली बातें की जाती हैं । जब जुझारू आंदोलन के कारण दमन होता है और उसके प्रतिरोध की आशंका हो तो दुस्साहस की बात होने लगती है । प्रदेश स्तरीय अनिश्चित हड़ताल की बात बस एक चरमपंथी नारा है । एक ओर तो इस किस्म का नारा और व्यवहार में चुनावी गंठजोड़ की कोशिश! सातवें लेख में उन्होंने परिस्थिति के बारे में अपना विश्लेषण पेश किया ।
उनको
यह समय सक्रिय प्रतिरोध आंदोलन का महसूस हुआ । यह आंदोलन जनता की क्रांतिकारी
ऊर्जा को मुक्त कर देने वाला होगा । क्रांति का ज्वार सारे भारत में व्याप्त हो
जाने की उम्मीद नजर आयी । ऐसे में क्रांतिकारी कार्यकर्ता केवल खुले संगठनों को
अपना प्रमुख काम नहीं बना सकते । क्रांतिकारी ज्वार के दौर में इन संगठनों को
मुख्य नहीं बनाया जा सकता । ये संगठन क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं और मजदूर किसानों
के बीच एकता के
लिए होते हैं । इस एकता को क्रांतिकारी पार्टी का गठन करके और क्रांतिकारी
प्रतिरोध आंदोलन से ही मजबूत किया जा सकता है । आगामी चुनाव में विक्षुब्ध जनता
राजनीति की बात करेगी और सुनेगी । ऐसे में पार्टी को अपनी राजनीति का प्रचार करना
चाहिए । गैर कांग्रेस सरकार बनाने की जगह पर साहस के साथ जनता की जनवादी क्रांति
की राजनीति का प्रचार किया जाना चाहिए जिसका अर्थ है मजदूर वर्ग के नेतृत्व में
मजदूर किसान एकता, हथियारबंद लड़ाई और पार्टी नेतृत्व की स्थापना ।
आखिरी लेख में चारु मजुमदार ने मूलगामी भूमि सुधार
की बात की । पार्टी कार्यक्रम में किसानों के हित में इसकी बात की गयी थी । इसके
जरिए देहाती इलाकों में सामंती सत्ता को नष्ट करना था । सामंतों से जमीन छीनकर उसे
भूमिहीन और गरीब किसानों में बांट देना इसका एकमात्र उपाय था । अर्थवाद में सीमित
रहकर इसे करना सम्भव नहीं था । इसका मतलब किसानों की आंशिक मांगों पर आंदोलन बंद
कर देना नहीं है । हमारे देश में इसकी जरूरत हमेशा रहेगी क्योंकि सभी इलाकों और
सभी वर्गों में राजनीतिक चेतना समान नहीं रहेगी । इसलिए आंशिक मांगों पर आंदोलन की
अंभावना हमेशा रहेगी और कम्युनिस्टों को उसका लाभ उठाना चाहिए क्योंकि इससे वर्ग
संघर्ष तेज होगा, जनता की राजनीतिक चेतना उन्नत होगी और संघर्ष का नये इलाकों में
विस्तार होगा । इस संघर्ष का रूप कोई भी हो सकता है लेकिन कम्युनिस्ट संघर्ष के
उच्चतर रूपों का प्रचार करेंगे । इसके बावजूद किसान प्रतिनिधि मंडल और समझौता वार्ता
का रास्ता अपना सकते हैं और इसमें उन्हें किसानों का साथ देना होगा । आंशिक मांगों
पर संघर्ष की निंदा सही नहीं है लेकिन उन्हें अर्थवादी तरीके से नहीं चलाना चाहिए
और यह नहीं मानना चाहिए कि आर्थिक मांग ही राजनीतिक संघर्ष का रूप ले लेगी ।
इन लेखों के जरिए चारु मजुमदार ने कहने की कोशिश की
कि भारत की आजादी के बाद शासकों और शासितों के बीच यह पहला गंभीर टकराव सरकारी दमन
के बावजूद चल रहा है और तमाम मुद्दों पर स्वतंस्फूर्त आंदोलन इसमें जुझारूपन के
बढ़ने का संकेत है । जनता पुराने तरीके से रहने को अब तैयार नहीं है और शासक वर्ग
भी अन्न संकट आदि को हल न कर पाने के कारण कांग्रेस पार्टी के जरिए पुराने तरीके
से शासन नहीं कर पा रहे हैं । ऐसी स्थिति में संघर्ष के उच्चतर रूपों,
कम्युनिस्टों की सचेत अगुवाई और एक सच्ची क्रांतिकारी पार्टी के मजबूत संगठन की
जरूरत है । आम तौर पर माना जाता है कि चारु मजुमदार केवल हथियारबंद संघर्ष और
गुप्त संगठन के पक्ष में थे लेकिन इन लेखों में संघर्ष और संगठन के सभी रूपों का
उल्लेख मिलता है । यह बात जरूर है कि उन्होंने हालात के मुताबिक उच्चतर रूपों पर
जोर दिया । लेनिन की तरह ही चारु मजुमदार ने इन लेखों में पार्टी की सचेत अगुआ
भूमिका और क्रांतिकारियों के सुसंबद्ध संगठन पर जोर दिया था । इनमें सही
क्रांतिकारी मार्क्सवादी लेनिनवादी पार्टी की वैचारिक बुनियाद, कार्यक्रम और
राजनीति की दिशा, सांगठनिक उसूल और कार्यपद्धति तय कर दी गयी थी इसलिए ही नक्सलबाड़ी
और भाकपा (माले) के जन्म से इन लेखों का गहरा रिश्ता है । खास बात कि इनमें चुनाव
बहिष्कार की बात कहीं नहीं है । बल्कि चुनाव में क्रांतिकारी राजनीति के प्रचार की
जरूरत बतायी गयी है ।
1967 चुनाव के बाद भारतीय राजनीति में सचमुच भारी
बदलाव आया । आठ प्रदेशों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं । बंगाल में माकपा की
सरकार बनी । चारु मजुमदार ने इन हालात में साम्राज्यवाद और सामंतवाद की समाप्ति के
काम में इन सरकारों के उपयोग की वकालत की । बंगाल की सरकार के बारे में उन्होंने
कहा कि आंदोलन चलाने के मकासद से ही सरकार में शामिल होना चाहिए । अगर आंदोलन का
नारा दिया जाय और भूस्वामियों को निर्भय रहने का आश्वासन दिया जाय तो इससे वर्ग
सहयोग का ही रास्ता खुलेगा । साफ है कि वे सरकार में शामिल होने का विरोध नहीं कर
रहे थे बल्कि वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए वे सरकार का उपयोग करना चाहते थे ।
इस मामले में माकपा का रास्ता उन्हें उलटा नजर आ रहा था ।
इस बीच चारु मजुमदार और उनके साथी जुझारू किसान
आंदोलन में जुटे थे । फसल दखल और बेनामी तथा सीलिंग से बची जमीन पर कब्जा अभियान
जारी था । यह अभियान नक्सलबाड़ी के 250 वर्ग किलोमीटर के दायरे में चल रहा था ।
माकपा के नेताओं ने उस इलाके के कार्यकर्ताओं के साथ सरकार के मेल मिलाप की कोशिश
की । इसके तहत हरेकृष्ण कोन्नार को नक्सलबाड़ी भेजा गया । कार्यकर्ताओं ने किसानों
से समर्पण की बात कहने से इनकार कर दिया और सरकार ने पुलिस दमन की राह अपनायी ।
किसानों और जोतदारों के बीच झड़पें तेज हो गयीं । 24 मई को नक्सलबाड़ी में एक झड़प
में आदिवासी किसानों के तीर लगने से एक पुलिस इंस्पेक्टर की जान चली गयी और दो
घायल हो गये । अगले ही दिन सरकार ने बदला लिया । पुलिस कार्यवाही के विरोध में
धनेश्वरी देवी के नेतृत्व में महिलाओं के एक जुलूस पर पुलिस ने नेता की जान लेने
के मकसद से गोली चलायी । धनेश्वरी देवी समेत सात स्त्रियां, एक पुरुष और दो बच्चे
पुलिस की गोली का शिकार हुए । तभी से 25 मई को नक्सलबाड़ी दिवस मनाया जाता है । समूचे
इलाके में भयानक पुलिस दमन जारी था । चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने बसंत का वज्रनाद
कहकर इसकी प्रशंसा की । केंद्र सरकार ने इसे राष्ट्रीय मामला कहकर सीधे दखल की
धमकी दी । माकपा के नेताओं ने तत्काल पुलिस दमन का साथ दिया और क्रांतिकारियों को
पार्टी से बाहर निकाल दिया । नतीजा निकला कि माकपा के भीतर ही विरोध होने लगा ।
नक्सलबाड़ी के साथ एकजुटता जाहिर करते हुए उत्तर प्रदेश, दिल्ली और जम्मू कश्मीर की
समूची राज्य कमेटी बाहर आ गयी तथा बंगाल, आंध्र और बिहार में पार्टी का विभाजन हो
गया ।
तमाम इलाकों में नक्सलबाड़ी के समर्थन में जो समूह
बने वे माकपा क्रांतिकारियों के अखिल भारतीय समन्वय समिति के झंडे तले गोलबंद हुए
। माकपा ने इन्हें पार्टी में रोके रखने के लिए एक सम्मेलन किया लेकिन कोई असर
नहीं पड़ा । क्रांतिकारियों ने समन्वय समिति में से माकपा का नाम हटाया और उसकी जगह
कम्युनिस्ट ले आये । इस तरह क्रांतिकारी कम्युनिस्टों की अखिल भारतीय समन्वय समिति
की स्थापना हुई । इसके ही झंडे तले श्रीकाकुलम, मुशहरी, लखीमपुर खीरी और बहुतेरे अन्य इलाकों में किसान संघर्ष खड़े किये गये । वर्ग संघर्ष की इसी आंच में लेनिन के जन्मदिन पर 1969 में देश के कम्युनिस्ट आंदोलन की क्रांतिकारी धारा की पार्टी भाकपा (माले) का जन्म हुआ ।