Tuesday, January 10, 2023

कोरोना के दूरगामी प्रभाव

 

         

                            

कोरोना की तीसरी लहर के चीन में फूट पड़ने की अफवाहों के बीच समूची दुनिया के साथ हमारे देश की साँस भी अटक गयी । संयोग से चीन के प्रतिवाद के साथ ही हमारे देश में भी इसके राजनीतिक पहलू को उजागर किया गया । असल में पहली लहर में यूरोप और अमेरिका तथा ब्राजील और दूसरी लहर ने भारत में जैसी भारी तबाही मचायी थी उसके चलते इसका नाम सुनते ही लोगों के प्राण सूख गये । सहसा निर्मम लाकडाउन से लेकर अस्पतालों और श्मशानों की मारामारी के भयावह चित्र याददाश्त में ताजा हो आये । शासकों की इस क्रूर लापरवाही की बात छोड़ दें तो भी इस महामारी के घटिया राजनीतिक इस्तेमाल का इतिहास जानना हमारे वर्तमान समय को समझने के लिए अत्यंत जरूरी है । तब के अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने इसे चीनी बीमारी कहा था । उनके इस रुख के कारण अमेरिका के वासी चीनियों के लिए बहुत भारी दिक्कत पैदा हो गयी थी । हमारे देश में भी ठेले पर फल बेचनेवालों से लेकर तबलीग के लोगों तक की बदनामी की कोशिशों में राजनीतिक पहलू देखना मुश्किल नहीं होना चाहिए ।

इन सबके साथ ही यह भी याद रखना होगा कि टीके लगाने के मामले में भी पर्याप्त राजनीति हुई थी । शुरू में टीके के निर्माताओं ने खूब मुनाफा कमाया । टीके की उपलब्धता भी प्रांतों की सरकारों के राजनीतिक रंग के हिसाब से थी । जब टीका मुफ़्त लगने लगा तो देश भर में उसे प्रधानमंत्री की कृपा के रूप में प्रचारित किया गया । दुनिया में सबसे अधिक टीका लगाने का कीर्तिमान बनाने का दावा उसी तरह था जैसे सबसे ऊंची मूर्ति लगाने का तमगा हासिल करने की होड़ थी । फिलहाल उस टीके के दुष्प्रभावों पर भी बात शुरू हो गयी है । देश के आत्ममुग्ध शासक का झंडा सबसे ऊपर फहराने के चक्कर में मृतकों को भी टीके के प्रमाणपत्र जारी किये गये । उस समय जो हुआ उसका सबसे भयावह रूप लाशों का अपमान था । गंगा का शववाहिनी रूप तो गुजराती कवयित्री पारुल खक्कर ने भी पहचाना और दर्ज किया था । लाभ लोभ के पुजारियों ने लाशों को ढोने का किराया तो मनमाना वसूल किया ही, उनके कपड़ों को ठीक करके बाजार में दुबारा बेचने का किस्सा भी सामने आया । जन प्रतिनिधियों तक ने इस अमानवीय भ्रष्टाचार की बहती गंगा में हाथ धोये । जो निजी अस्पताल उनके काले धन को सफेद करने के तहत खोले गये हैं उन्होंने महामारी में अकूत कमाई की । अचरज नहीं कि पूंजीवाद के नरभक्षी स्वरूप का हवाला देते हुए राधिका देसाई ने 2023 में प्रकाशित अपनी किताब ‘कैपिटलिज्म, कोरोनावायरस ऐंड वार: ए जियोपोलिटिकल इकोनामी’ में हालिया यूक्रेन युद्ध के साथ कोरोना को भी सबूत के बतौर गिनाया है । इसके प्रकट होते ही युवल नोआ हरारी ने निजता के हनन की आशंका जतायी थी । ध्यान रखना चाहिए कि कोरोना के दौरान सरकारों ने जो कुछ भी किया उसकी पृष्ठभूमि पहले ही तैयार हो चुकी थी । शिक्षा के क्षेत्र में डिजिटल मंचों का इस्तेमाल शुरू हो चुका था । सामाजिक दूरी तो बहरहाल हमारे समाज का बहुत ही पुराना और क्रूर सच रहा है ।

कोरोना के समय जो भी उपाय सरकारों ने आजमाये उनमें पारम्परिक सामाजिक पदानुक्रम घटने की जगह और मजबूत हुआ । इस पहलू को उजागर करते हुए 2022 में एडिनबरा यूनिवर्सिटी प्रेस से जान माइकेल राबर्ट्स की किताब ‘डिजिटल, क्लास, वर्क: बिफ़ोर ऐंड ड्यूरिंग कोविड-19’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि 2019 के अंत में चीन में एक रहस्यमय विषाणु के फैलने की खबर मिलने लगी थी । अगले माह विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे दुनिया के लिए खतरनाक घोषित कर दिया । कुछ ही महीनों में यह दुनिया भर में फैल गया और असंख्य लोगों की मौत की वजह बना । इसे जल्दी ही वैश्विक महामारी घोषित कर दिया गया । सार्स और मेर्स जैसे पूर्वजों के मुकाबले इसमें कुछ नयी बातें थीं । इसका संक्रमण बिना किसी लक्षण के भी हो सकता था । दिल को प्रभावित और नुकसान पहुंचाने की क्षमता इसमें थी । इस पर कड़ी खोल होने के कारण यह शरीर में लम्बे दिनों तक सुरक्षित रह सकता था । अलावे इसने सामाजिक आचरण को भी बुनियादी रूप से बदला है । तकनीक, श्रमिक और काम में ये बदलाव सबसे अधिक प्रत्यक्ष हैं । बड़ी आबादी ने घर से काम करना शुरू किया । इससे कामगार के साथ ही नियोक्ता को भी लाभ हुआ । कामगारों का श्रम संबंधी तनाव बहुत अधिक हो गया । घर से काम के चलते काम के घंटे बेतरह बढ़ गये । कार्यालय से जुड़ी बैठकें लगभग आम बात हो गयीं और ईमेलों की आवाजाही में खासी बढ़त दर्ज की गयी । इसके भी समाजार्थिक पहलू नजर आये । घर से काम करनेवालों में मध्यवर्गीय कर्मचारी अधिक थे । कोरोना के खात्मे के बाद भी घर से काम करने की परिघटना कुछ हद तक जारी है । यह भी मजदूरों के मुकाबले कर्मचारियों के साथ अधिक हो रहा है । घर से काम करनेवालों की बहुतायत भी अमीर इलाकों में ही थी । गरीब बस्तियों के मजदूरों को खुद को खतरे में डालकर भी मेहनत के काम करने पड़े । आखिर हाथ से बोझ उठाने वाले मजदूर तो वर्क फ़्राम होम की अय्याशी नहीं पा सकते! इसी पहलू का अध्ययन इस किताब में किया गया है । डिजिटल श्रम के इस सामाजिक आयाम का विश्लेषण करना इसका घोषित मकसद है ।    

कोरोना को टीके के सहारे समाप्त करने की आशा पर हालिया अफवाह ने पानी फेर दिया है । जिन लोगों को उसका संक्रमण हुआ था उनमें सेहत की समस्याओं के बने रहने को देखते हुए नये तरीके से सोचने की जरूरत पड़ रही है । अभी 2023 में विली ब्लैकवेल से डान गोल्डेनबेर्ग और मार्क डिक्टर की किताब ‘अनरावेलिंग लांग कोविड’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना हालिया कोरोना महामारी के प्रसंग में दिखायी पड़ा कि शुरुआती संक्रमण की समाप्ति के बाद भी बहुतेरे मरीजों में इसके लक्षण लम्बे समय तक बने रहे । जो मरीज अस्पताल में भर्ती हुए उनमें से अधिकतर को ये लक्षण महीनों बने रहे । ये लक्षण उनमें भी बने रहे जो हल्के बुखार तक ही या बिना किसी लक्षण के संक्रमित हुए थे । अनुमान लगाया जा रहा है कि इन लक्षणों से निपटना भविष्य के सेहत संबंधी उपायों के लिए बड़ी चुनौती होगी । फिलहाल तो इस परेशानी को ठीक से समझा भी नहीं जा सका है ।

कोरोना के समय हमारे देश की सरकार ने जो निर्देश जारी किये उसे आम तौर पर लोगों ने लाख दिक्कतों के बावजूद मान लिया था लेकिन एकाधिक देशों में नागरिकों ने इतने बड़े पैमाने पर सरकारी हस्तक्षेप की कानूनी वैधता पर सवाल उठाये थे । इस सिलसिले में 2022 में रटलेज से जोएल ग्रोगन और एलिस डोनाल्ड के संपादन में ‘रटलेज हैंडबुक आफ़ ला ऐंड द कोविड-19 पैंडेमिक’ का प्रकाशन हुआ । माइकेल ओ’फ़्लाहेर्ती ने इस किताब की प्रस्तावना लिखी है । संपादकों की भूमिका और अंतिम लेख के अतिरिक्त इस किताब में सैंतीस लेख संकलित हैं । इन्हें कुल पांच हिस्सों में संयोजित किया गया है । पहले में शासन और लोकतंत्र, दूसरे में मानवाधिकार, तीसरे में कानून का राज, चौथे में विज्ञान, भरोसा और निर्णय प्रक्रिया तथा आखिरी पांचवें हिस्से में आपात स्थिति से जुड़े लेखों के साथ आखिरी लेख में कोरोना के बाद की सम्भावना पर विचार किया गया है । कानून पर केंद्रित होने के बावजूद संपादकों ने कोरोना के दौरान उद्घाटित समाजार्थिक विषमताओं के जिक्र से बात शुरू की है । ये विषमताएं गहरे जड़ जमाये हुई थीं । नजर आया कि महामारी का लाभ उठाकर बहुतेरी सरकारों ने नागरिकों के अधिकारों और आजादी पर हमला किया । आर्थिक बोझ पड़ते ही कल्याणकारी मदों में सबसे पहले कटौती की गयी । कहने की जरूरत नहीं कि इसका नुकसान सबसे अधिक समाज के कमजोर तबकों पर पड़ा ।             

यह महामारी जिन व्यापक परिघटनाओं से जुड़ी है उनकी विवेचना हेतु 2022 में स्प्रिंगेर से मोहम्मद असलम खान की किताब ‘सिटीज ऐंड मेगा रिस्क्स: कोविड-19 ऐंड क्लाइमेट चेंज’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि कोरोना जैसी महामारी और जलवायु परिववर्तन महानगरों की समस्याओं के बतौर सामने आये हैं । कोरोना ने खासकर काम को कार्यस्थल तक सीमित रखने की जगह उसे घरों तक पहुंचा दिया, समाजीकरण की प्रक्रिया को बहुत दिनों के लिए बाधित कर दिया, शिक्षा प्रदान और ग्रहण करने की पद्धति में बुनियादी बदलाव लाया तथा मनोरंजन, व्यवसाय और व्यायाम की सार्वजनिक व्यवस्था तहस नहस हो गयी । इस अनुभव से लाभ उठाकर नये तरीके से सोचने की जरूरत पैदा हो गयी है क्योंकि न तो महानगर कम होने जा रहे हैं और न ही कोरोना जैसी महामारियों का खात्मा होने जा रहा है । असल में कोरोना का गहरा रिश्ता वर्तमान जलवायु परिवर्तन से है जिसके पारिस्थिकीय और समाजार्थिक पहलू प्रकट हो रहे हैं । समझ में आता जा रहा है कि मनुष्य, मानवेतर प्राणी जगत और इस धरती की सेहत एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं । एक को नुकसान होने से शेष भी स्वस्थ नहीं रह सकते ।      

इस दौरान आपदा में जिस तरह मुट्ठी भर लोगों ने अवसर की तलाश की उसे खोलते हुए 2022 में वन सिगनल पब्लिशर्स से जे डेविड मैकस्वेन की किताब ‘पैंडेमिक, इंक: चेजिंग द कैपिटलिस्ट्स ऐंड थीव्स हू गाट रिच ह्वाइल वी गाट सिक’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि किताब में वर्णित कहानियों को जानकर पाठक को यकीन नहीं होगा लेकिन सच यही है कि जब लोग कीड़ों-मकोड़ों की तरह मौत के मुंह में समा रहे थे तो चंद थैलीशाहों को अपने मुनाफ़े की चिंता लगी हुई थी । यह सब पूरी तरह से अस्वीकार्य था लेकिन इसे जानना जरूरी है ताकि हमारे सिर पर सवार उस मशीन की कार्यपद्धति का परिचय मिले जो देश की बुरी हालत के लिए जिम्मेदार है । उस मशीन को लेखक ने पूंजीवाद का नाम दिया है और प्रचंड लोभ को उसका सह उत्पाद बताया है । हालत यह थी कि लोग मर रहे थे और लुटेरे खुलेआम डाका डाल रहे थे । विडम्बना थी कि आम लोग इस हालत पर क्षुब्ध होने के अलावे कुछ कर नहीं पा रहे थे । इन कहानियों को बयान करने का मकसद यह है कि भविष्य में ऐसी आपदा के आने पर कुछ बेहतर प्रबंध की प्ररणा मिल सके ।           

बताने की जरूरत नहीं कि जिन देशों में धुर दक्षिणपंथी तानाशाहों का शासन था वहीं जनता को इस महामारी की सबसे बुरी मार झेलनी पड़ी । इसकी बड़ी वजह उन शासकों का महत्वोन्माद भी था । उन्होंने प्रकृति की ताकत को अपनी ताकत से अधिक मानने से इनकार किया और सेहत तथा सुरक्षा के इंतजामात करने में घातक लापरवाही की । इनमें से एक उन्मादी ट्रम्प को इस उपेक्षा की कीमत चुनावी पराजय के रूप में अदा करनी पड़ी । कोरोना के दौरान अमेरिका के हालात के बारे में 2022 में हेमार्केट बुक्स से रे लिन बार्न्स, केरी लेइ मेरिट और योहुरू विलियम्स के संपादन में ‘आफ़्टर लाइफ़: ए कलेक्टिव हिस्ट्री आफ़ लास ऐंड रिडेम्पशन इन पैंडेमिक अमेरिका’ का प्रकाशन हुआ है । ट्रम्प के साथ के एक अन्य शासक, बोलसोनारो को भी ब्राजील में पराजय का मुख देखना पड़ा । इन दोनों के आचरण की समानता न केवल कोरोना के समय की लापरवाही और उसके चलते चुनावी हार में दिखायी दी बल्कि ब्राजील के हालिया घटनाक्रम में उनकी प्रतिक्रिया की समानता भी ट्रम्प के आचरण के साथ देखी जा रही है । इन दोनों के तीसरे दोस्त अभी काबिज तो हैं लेकिन उनके बारे में भी कयास है कि चुनावी पराजय अगर हुई तो अपने दोस्तों की तरह ही आचरण कर सकते हैं । इन तीनों के बीच एक और समानता देखी जा रही है कि इन सबके साथ फ़ासीवाद की वापसी की सम्भावना जुड़ी हुई है । लोकतंत्र की स्थापित संस्थाओं और परम्पराओं को इन सबने तार तार कर दिया है । ऐसा करते हुए भी उन्होंने इसका मुखौटा बरकरार रखा है । उनके इस आचरण से साबित हुआ कि व्यापक जनता में लोकतंत्र की चाहत बहुत ही अधिक है । इसके कारण ये शासक उसको नोच फेंकने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं । इस लोकतंत्र की हिफ़ाजत करने और उसे समृद्ध करने की जरूरत इस समय बेतरह बढ़ गयी है । इस जरूरी काम को फिलहाल वामपंथी ताकतें ही अंजाम दे सकती हैं ।  

इन सभी कहानियों को याद रखना जरूरी है ताकि पता रहे कि आपदा जनित यह सब असामान्यता हमारे जीवन में स्वाभाविक नहीं थी बल्कि आपदा का लाभ उठाते हुए इसका प्रवेश कराया गया है । सर्वसुलभ जनस्वास्थ्य की प्रभावी व्यवस्था को पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष का एक जरूरी पहलू बनाने के लिए भी इसे याद रखना बेहद आवश्यक है । इसे भी याद रखना होगा कि स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण ने इस महामारी को और भी घातक बनाने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी । अंग्रेजी राज के दौरान देश की आजादी के लिए संघर्षरत नेताओं और बौद्धिकों ने जिस तरह अकाल को प्राकृतिक आपदा मानने के विरोध में तर्क देते हुए साबित किया था कि इसे तत्कालीन शासन के कारनामों ने भयावह बनाया । उसी तरह कोरोना की आपदा में भी शासकीय कुप्रबंध ने भारी भूमिका निभायी । जिस तरह दीर्घकालीन कुपोषण से मामूली बुखार भी जानलेवा हो जाता है उसी तरह जनता की सेहत संबंधी देखरेख की व्यवस्था को मुनाफ़े के पूंजीवादी तर्क के हवाले कर देने से कोरोना संक्रमण दुनिया भर में ऐसी तबाही मचाने में सक्षम हुआ । कोरोना के जमाने में जिन ताकतों ने लाशों पर लाभ कमाया वे उसकी समाप्ति के बाद भी पूर्ववत अपने काम में लिप्त हैं । सरकार भी सार्वजनिक और निजी भागीदारी का नमूना पेश करते हुए अपनी नीतियों से उनकी मदद लगातार कर रही है । कोरोना के दौरान उच्च शिक्षा संस्थानों के बंद रहने से सरकार को पर्याप्त चैन मिला था क्योंकि विद्यार्थियों के आंदोलन न के बराबर हो रहे थे । इस तात्कालिक चैन को स्थायी करने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में कमाई के केंद्रीय संस्थान खोल दिये गये हैं और नयी शिक्षा नीति के नाम पर तमाम बुनियादी बदलाव किये जा रहे हैं । इन सभी बदलावों से उन समुदायों को शिक्षा से बाहर धकेला जा रहा है जिन वंचित समुदायों ने शिक्षा को सामाजिक उन्नयन का रास्ता मानकर बड़े पैमाने पर दाखिला लिया था ।

हमारे समय में तकनीक बड़ी ताकत बनकर उभरी है । जिस तकनीक को सबके लिए समावेशी होना चाहिए था वही सामाजिक बहिष्करण का माध्यम बन गयी है । कोरोना के दौरान जिनके घरों में इंटरनेट की सुविधा या आधुनिक महंगे फोन नहीं थे वे प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक से वंचित ही रहे । यहां तक कि कोरोना काल में विकसित निजी जीवन में शासकीय हस्तक्षेप की आपातकालीन संस्कृति को बहुत कुछ स्थायी बनाने का भी व्यवस्थित प्रयास जारी है । जनता का सामान्य जीवन जितना ही अधिक तकनीक के सम्पर्क में आता जायेगा उतना ही अधिक उसे नियंत्रित करने के सरकारी प्रयास भी तेज होंगे । इसके लाभ सीधे सीधे शासन में मौजूद ताकतों को मिल रहे हैं । निजता की रक्षा भी आगामी समय में लोकतांत्रिक जीवन का एक जरूरी मुद्दा बनेगा । कोरोना ने सचमुच ऐसे समय की शुरुआत कर दी है जब न केवल फ़ासीवाद के पुनरागमन के बतौर तानाशाही के नये रूप प्रकट हो रहे हैं बल्कि उससे जूझते हुए सामाजिक आंदोलनों को भी लोकतंत्र के नये आयाम गढ़ने के अवसर मिल रहे हैं ।                           

                       

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