Thursday, September 15, 2022

भागीदार पर्यवेक्षण का ताप

इस पुस्तक के लेखक जयप्रकाश नारायण खुद किसान आंदोलन में शामिल रहे हैं इसलिए उनकी यह किताब किसी विद्वान का निरपेक्ष विश्लेषण नहीं है । इसे पत्रकारी लेखन कहना भी इसके साथ अन्याय होगा । इसे लेखन की एक अलग कोटि ही मानना उचित होगा । इसे आंदोलन के सामान्य भागीदार के अनुभवों का भी संकलन नहीं कहा जा सकता । वर्तमान शासन और समाज को हिलाकर रख देने वाले अद्भुत किसानी धीरज और प्रतिरोध से उपजे किसान आंदोलन के सचेत बौद्धिक नेता के इन लेखों को देखना आंदोलन की आंच में लाल होते विचारों की तीक्ष्णता को महसूस करना है ।

इस किताब के लेखक से व्यक्तिगत परिचय मेरा सौभाग्य है । वे विज्ञान के विद्यार्थी रहे, फिर किसान समुदाय को क्रांतिकारी बदलाव की नेतृत्वकारी भूमिका में ले आने की कोशिशों में गुमनाम तरीके से मुब्तिला रहे, समूचे सामाजिक वातावरण को इस दिशा में मोड़ देने की संगठित ताकत का संयोजन करते रहे, मनुष्य को मानसिक तौर पर तोड़ देने वाली विपरीत परिस्थितियों में पड़ जाने के बावजूद मोर्चे पर डटे रहे और छिटके हुए बीज की तरह जहां गिरे वहीं जड़ पकड़ ली । इस बहुमुखी जटिल यात्रा में उन्होंने बौद्धिक सजगता और सीखने की ललक को कभी मंद नहीं पड़ने दिया तथा सब समय ही जोरदार और अचूक अभिव्यक्ति के पक्षधर रहे इतने लम्बे राजनीतिक अनुभव के बावजूद उनमें अहंकार लेशमात्र भी नहीं है कभी किसी पद का लोभ उनमें नहीं नजर आया सत्ता संस्थान के किसी भी दमन के भय से सच बोलने से कभी उन्होंने परहेज नहीं किया भयंकर दमन के समय भी दत्तचित्त रहकर काम करना उनसे सीखने लायक गुण है आज भी वे तमाम शारीरिक सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए न केवल भरपूर सक्रिय हैं बल्कि समस्त शारीरिक-मानसिक ऊर्जा का संचय कर समसामयिक माहौल का विश्लेषण जारी रखे हुए हैं ।

हमारे देश की जलवायु ने इसे खेती पर आधारित अपार समृद्धि सौंपी है इसके कारण देश की ग्रामीण आबादी के एक हिस्से में गतिशीलता का थोड़ा अभाव रहा तो खेती की उपज से जुड़े आंतरिक और समुद्र पार व्यापार के मामले में दूसरे हिस्से में पर्याप्त गतिशीलता भी बनी रही इस व्यवस्था में सबसे बड़ा विघ्न औपनिवेशिक विश्व अर्थतंत्र के हस्तक्षेप के चलते पड़ा वह ऐसा पहला आर्थिक वैश्वीकरण था जिसने कुछेक साम्राज्यवादी देशों की सुविधा के लिए पूरी दुनिया के मानव और प्राकृतिक संसाधनों का निर्लज्ज दोहन शुरू किया चीनी और कपास की पैदावार के लिए अफ़्रीकी देशों से गुलामों का व्यापार इसी अर्थतंत्र की देन है । इस क्रम में हमारे देश की कृषि में भी बुनियादी बदलाव लाने के मकसद से हस्तक्षेप किया गया अन्न उपजाने वाले इलाकों में भी अफीम और नील जैसी विदेशों के लिए उपयोगी चीजों को पैदा करने हेतु जबरिया नकदी फसलों की खेती शुरू करायी गयी इससे व्यापक ग्रामीण वातावरण में जो भयानक बदलाव आये उन्हें कोई भी प्रेमचंद या उस दौर की सभी भारतीय भाषाओं की रचनाओं के सहारे देख-समझ सकता है । सबने दर्ज किया है कि अंग्रेजी शासन के समय की सबसे बड़ी सौगात अकाल और भुखमरी थे । इसका एक कारण यह भी था कि ब्रिटेन में भी किसानी को बरबाद करके ही उद्योगों के लिए कामगार जुटाये गये थे ।    

उस समय की उत्पीड़क सामाजिक स्थितियों से पैदा विक्षोभ को नियंत्रित करने के लिए जमींदारी जैसी दलाल संस्था के सृजन के साथ ही पुलिस जैसी दमनकारी संस्था का भी निर्माण किया गया उसी मकसद से आर्म्स ऐक्ट से लेकर भारतीय दंड संहिता तक का कानूनी ढांचा खड़ा करके सामान्य जनता के जीवन से स्वतंत्र पहल का आत्मविश्वास छीन लिया गया इस दमनकारी औपनिवेशिक तंत्र का जोरदार प्रतिरोध अत्यंत स्वाभाविक था इस प्रतिरोध ने देश की आजादी के समग्र आंदोलन को उसका किसानी चेहरा प्रदान किया । इसके साथ ही किसानों के स्वतंत्र संगठनों के निर्माण ने न केवल किसान समुदाय को उसकी आवाज सौंपी बल्कि उसके वैचारिक अगुआ के बतौर कम्युनिस्ट आंदोलन को भी देश में चारों ओर  फैलने का अवसर मुहैया कराया । अकारण नहीं है कि देश की आजादी के आंदोलन के लगभग सभी नेता किसान समस्या से जुड़े हुए थे । आजादी के आंदोलन की इसी वैचारिकता  ने खेती को साम्राज्यवादी हितों के मुताबिक पूरी तरह ढालने की योजना पर कुछ समय के लिए पाबंदी लगायी थी ।

देश की विशाल आबादी के लिए भोजन की व्यवस्था नवोदित शासन की सबसे बड़ी और गम्भीर जिम्मेदारी थी । थोड़े समय बाद ही परिस्थिति की गम्भीरता ने शासकों को हरित क्रांति और किसानों को नक्सलबाड़ी की दिशा में डाल दिया । हरित क्रांति ने कुछ समय की राहत जरूर दी लेकिन संकट ने इस बार उसी इलाके को चपेट में लिया जहां हरित क्रांति से समृद्धि लाने का दावा किया गया था । इधर नवउदारीकरण ने साम्राज्यवाद को फिर से नये नये रूपों में आमंत्रित करना शुरू किया और संसाधनों की छीनाझपटी ने फिर से वैश्विक आयाम ग्रहण किये । नतीजतन हमारे देश की खेती के भीतर साम्राज्यवादी हितों के अनुरूप बदलाव हेतु आक्रामक नीति निर्माण तेज हुआ । नदियों, जंगलों और जमीन पर कब्जे तथा उनके प्रतिकार की खबरें देश भर से आने लगीं ।

देश भर में बिखरे इन आंदोलनों की केंद्रित सांद्र अभिव्यक्ति तीन कृषि कानूनों के विरोध में संचालित आंदोलन में हुई । इस आंदोलन ने वर्तमान सत्ता की हनक को राजधानी की सीमा के भीतर कैद कर दिया था और सभी दिशाओं में दिल्ली की सरहद के पार आंदोलनकारियों का राज स्थापित कर दिया था । सत्ता की कोई भी साजिश इनके निश्चय को डिगाने में रत्ती भर कामयाब न हो सकी थी । शासकों के रावण जैसे अहंकार को इस आंदोलन ने पूरी तरह धूल में मिला दिया था । दुनिया के इतिहास में जनता को खामोश करने की योजना के ऐसे प्रतिकार के बहुत कम उदाहरण मिलते हैं ।

इस आंदोलन के दस्तावेजीकरण के प्रयास जितने जरूरी हैं उसके मुकाबले बहुत कम हुए हैं । लोकतंत्र की मौजूदगी और उसके फलने फूलने के लिए इसका महत्व अपार है । इसने साबित किया कि जिस समुदाय के बारे में फैसला किया जाना है उसे फैसला लेने की प्रक्रिया में भी शामिल करना होगा और यह शिरकत महज औपचारिक नहीं होगी । सड़क पर बैठ जाने का सलीका इस आंदोलन ने अगर शाहीन बाग से सीखा तो न्यायालय की बनायी समिति को सवालों के घेरे में लाने का साहस भी वहां से लिया । इस आंदोलन को अद्भुत कारनामे में बदल देने के मुकाबले जन प्रतिरोध की दीर्घजीवी परम्परा की निरंतरता के साथ ही भविष्य के समाज का निर्माता होने की क्षमता को समझने के लिए इसे पढ़ना अवश्यक है ।

अर्थतंत्र में खेती के गिरते अनुपात का बहाना बनाकर उस पर सोचने की जरूरत से इनकार किया जा रहा है लेकिन मानव समाज के अस्तित्व के लिए आवश्यक भोजन हेतु कोई वैकल्पिक स्रोत आज भी खोजा नहीं जा सका है इसलिए विशाल आबादी और बड़े रकबे के लिहाज से खेती को दरकिनार नहीं किया जा सकता । इस क्षेत्र पर सुव्यवस्थित नीति न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य की भी मांग है । यह किताब इस दिशा में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव साबित होगी । अभी यह समर समाप्त नहीं हुआ है, सत्ता के जिस अहंकार ने मंत्री के बेटे को जीप से किसानों को कुचल देने की हिम्मत दी उसका प्रतिकार शेष है इसलिए भी आंदोलन की इस किताब की जरूरत है ।                      

                            

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