Saturday, August 12, 2017

खोजी पत्रकारिता की हार जीत

               
                                       
2005 में विंटेज से जान पिल्जर के संपादन में ‘टेल मी नो लाइज: इनवेस्टिगेटिव जर्नलिज्म ऐंड इट्स ट्राइम्फ्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब में ऐसे पत्रकार की प्रशंसा से बात शुरू की गई है जो द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में जापान के आत्मसमर्पण समारोह के बीच से हिरोशिमा के हालात देखने निकल गए थे । परमाणु बम गिराए जाने के बाद उस नगर में घुसने वाले वे पहले पश्चिमी पत्रकार थे । उन्होंने दुनिया को चेतावनी देते हुए अपनी रिपोर्ट लिखी । उनकी चेतावनी जहरीले विकीरण के बारे में थी जिससे तमाम पश्चिमी देशों के नेता इनकार कर रहे थे । सबने एक सुर से उनकी लानत मलामत की लेकिन इतिहास ने उनकी चेतावनी को सही साबित किया ।
उनके जैसे पत्रकारों के लेखन को ही इस किताब में इकट्ठा किया गया है । संपादक के अनुसार यह लेखन ऐतिहासिक स्मृति पर सत्ता की जकड़बंदी के विरुद्ध गरिमापूर्ण मानव संघर्ष का अंग होता है । अन्याय के सिलसिले में सत्ता की जिम्मेदारी साबित करना पत्रकारिता की सबसे बड़ी भूमिका है । खोजी पत्रकारिता के उसूल के रूप में संपादक का कहना है कि किसी बात पर तब तक यकीन नहीं करना चाहिए जब तक सरकार उस बात से इनकार न कर दे । पत्रकारिता के अध्यापक बताते नहीं लेकिन सच यही है कि सरकारें आम तौर पर झूठ बोलती हैं । ऐसी सत्ता ईमानदारी से काम करने वाले पत्रकारों से नफ़रत करती है । लेखक का कहना है कि मोटा मुनाफा बटोरने के लिए उत्सुक इस कारपोरेट मीडिया युग में ढेर सारे पत्रकार अनजाने ही सत्ता के प्रचार तंत्र का हिस्सा बन जाते हैं । इस प्रक्रिया के अपवादों को ही किताब में जगह दी गई है ।
मुख्य धारा के पत्रकारों के आचरण में सत्ता के साथ पत्रकारिता का महीन गंठजोड़ नजर आता है । उनकी खबरों और विश्लेषण से सत्ता और राजनीति के गोपनीय आयाम आदतन गायब रहते हैं । इस आयाम की मौजूदगी को स्वीकार किए बिना असलियत को समझना अक्सर असंभव हो जाता है । सत्ता के बलशाली ज्ञान के विरुद्ध दमित ज्ञान के विद्रोह का उत्सव ही ईमानदार पत्रकारिता है । संपादक के मुताबिक किताब का प्रत्येक लेख मुख्य धारा से बाहर का है और खेल के नियमों पर पत्रकार की आपत्ति का सबूत है । इस किस्म की पत्रकारिता का महत्व क्या है? संपादक का कहना है कि बिना इसके अन्याय के बोध की हमारी शब्दावली पंगु हो जाएगी और इससे लड़ने के इच्छुक लोगों के पास पर्याप्त सूचना नहीं होगी ।
इसका ठोस उदाहरण देते हुए संपादक ने बताया है कि इराक पर हुए हमले में पश्चिमी देशों के साथ तुर्की के खड़ा होने पर संसद में जो व्यापक विरोध हुआ उसका एक बड़ा कारण तुर्क पत्रकारों द्वारा कुर्द आबादी के साथ तुर्की के रवैये के बारे में और इराक में हमलावर मुल्कों के अत्याचार की खबरों को सामने ले आना भी था । पत्रकारों के इसी प्रभाव से भयभीत होने के चलते दुनिया भर के शासक उन्हें या तो खरीदने की या प्रताड़ित करने की चेष्टा करते रहते हैं । ऐसे पत्रकार ही प्रताड़ित होने के बावजूद स्वतंत्र पत्रकारों के लिए प्रेरणा स्रोत होते हैं ।
पश्चिमी देशों में पत्रकारों को जान तो नहीं गंवानी पड़ती लेकिन वहां के हालात के लिए संपादक ने एक कहानी बताई है । रूस के पत्रकारों के एक दल को अमेरिका में स्वतंत्रता के बावजूद सभी माध्यमों से एक ही तरह के समाचार प्रसारित होते हुए देखकर अचरज हुआ था । जार्ज आर्वेल ने अपनी किताब एनिमल फ़ार्म के लिए एक भूमिका लिखी थी जो प्रकाशित नहीं हुई । उसमें उन्होंने बिना किसी आधिकारिक प्रतिबन्ध के भी स्वतंत्र समाजों में असुविधाजनक तथ्यों को दबा देने और अलोकप्रिय विचारों को खामोश कर देने की क्षमता का जिक्र किया था । इस भूमिका के लिखे जाने के पचास साल बाद भी हालात बदले नहीं हैं । इसके पीछे कोई षड़यंत्र नहीं है क्योंकि उसकी जरूरत नहीं पड़ती । स्थापित सत्ता की प्राथमिकता और चलन को अपना लेने के मामले में पत्रकार भी इतिहासकारों और अध्यापकों से बहुत अलग नहीं होते । सांस्थानिक जिम्मेदारी निभाने वाले अन्य लोगों की तरह ही इन्हें भी संदेह को दूर रखने का प्रशिक्षण मिलता है । कहा जाता है कि संदेह को व्यवस्था की जगह उसके प्रबंधकों की अक्षमता पर केंद्रित रखना होगा ।
आधुनिक मीडिया के तमाम अघोषित नियम लगभग सभी संस्थानों के लिए एक समान होते हैं । समाचार की प्रचलित धारणा के जरिए ही झूठी मान्यताओं को सहज बोध बना दिया जाता है और झूठ भरे सरकारी दावों को भोंपू लगाकर बजाया जाता है । अपने लाभ का ध्यान रखकर विभिन्न समाजों के बारे में खबरें सुनाई जाती हैं । अपने समाज के मूल्यों और नैतिक बोध के लिहाज से किसी भी समाज को अच्छा या बुरा बताया जाता है । मीडिया की तकनीक के अकल्पनीय गति से विकसित होने के साथ ही पत्रकारिता के पारंपरिक साधनों और सम्मान्य परंपराओं को तिलांजलि दी जा रही है ।
संपादक का संबंध आस्ट्रेलिया के पत्रकारिता जगत से है । वहां के एक पत्रकार स्मिथ हाल ने लड़कर प्रेस की स्वाधीनता, प्रतिनिधिमूलक सरकार और न्यायाधीश के सामने मुकदमे के अधिकार हासिल किए थे । कभी एक पाठक ने चिट्ठी लिखकर उन्हें कहा था कि पत्रकार को सरकार से खाद पानी लेने के मुकाबले उसके मजबूत विरोधी की भूमिका निभानी चाहिए । इससे प्रेरित होकर उन्होंने स्वतंत्र अखबार निकालना शुरू किया । उन्होंने अपने साहस की कीमत भी चुकाई । उन पर मुकदमे लादे और चलाए गए । जेल से उन्होंने अपने अखबार का साल भर तक संपादन किया था । उनकी कोशिशों के चलते ही उनके निधन के समय आस्ट्रेलिया के केवल एक प्रांत में पचास स्वतंत्र अखबार निकल रहे थे । बीस साल में इनकी संख्या बढ़कर 143 हो गई । इनमें से अधिकतर के संपादक अपने अखबारों को अधिकारियों के व्यापार की जगह जनता की आवाज समझते थे ।

उस समय से आज की तुलना करते हुए संपादक बताते हैं कि तब अखबारों में विविधतापरक होड़ होती थी । आज तो उनमें एक दूसरे की प्रतिध्वनि सुनाई देती है । पंद्रह प्रमुख अखबारों में से सात पर मर्डोक का कब्जा है, दस रविवासरीय अखबारों में से सात उनके मालिकाने में हैं । आज आस्ट्रेलिया में मीडिया में स्वामित्व के मामले में इजारेदारी सर्वाधिक है । अगर चेते नहीं तो ज्यादातर देशों में मीडिया की यही तस्वीर बनने वाली है । किताब में ज्यादा लेख अखबारों के बारे में हैं क्योंकि जन सूचना के क्षेत्र में साधन के बतौर टेलीविजन का आगमन कुल तीस साल पहले ही हुआ है । इसके आने के साथ प्रतिबंध और भी सूक्ष्म हुआ है । अब यह प्रतिबंध निष्पक्षता, संतुलन और वस्तुनिष्ठता के नाम पर लगता है ।

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