2004 में पालग्रेव मैकमिलन से आर डब्ल्यू डेविस की नई
भूमिका के साथ ई एच कार की किताब ‘द रशियन रेवोल्यूशन: फ़्राम लेनिन टु स्तालिन
(1917-1929)’ को फिर से छापा गया है । इससे पहले 1979 में इसका प्रकाशन हुआ था । वैसे
तो हिंदी पाठकों के लिए ई एच कार का मतलब है उनकी मशहूर किताब ‘इतिहास
क्या है ?’ लेकिन उनकी अकादमिक प्रतिष्ठा सोवियत संघ का इतिहास
लिखने के कारण है । तीस साल लगाकर चौदह खंडों में सोवियत संघ का इतिहास लिखने के
बाद उसी सामग्री के सहारे सामान्य पाठकों और विद्यार्थियों के लिए उन्होंने यह
किताब लिखी थी ।
उनका जन्म 1892 में हुआ था । प्रथम विश्व युद्ध के बाद उसके
पहले के शांति, सुरक्षा और सुख के दिन हमेशा के लिए खत्म हो गए । 1917 में रूसी
क्रांति के बाद पचीस साल की उम्र में वे ‘रूसी समस्या’ के अध्येताओं के एक छोटे से
समूह के सदस्य बने । इस क्रांति के दशाधिक साल बाद आई महामंदी ने यूरोपीय समाज को
हिलाकर रख दिया था । महामंदी के चलते यूरोप और अमेरिका में गरीबी और बेरोजगारी में
बढ़ोत्तरी के साथ ही उपनिवेशों में भी मंहगाई की मार पड़ी थी । लेकिन इसी मंदी के
दौर में सोवियत संघ मजबूती से उद्योगीकरण के रास्ते पर चलता रहा था । उस समय ई एच
कार लीग आफ़ नेशंस में राजनयिक के बतौर कार्यरत थे । उन्हें पूंजीवादी अर्थव्यवस्था
में अंतर्निहित अराजकता का प्रत्युत्तर सोवियत संघ की पंचवर्षीय योजनाओं में नजर
आया हालांकि वे सोवियत अर्थतंत्र के अंध प्रशंसक नहीं थे । सोवियत व्यवस्था की
उनकी आलोचना की पुष्टि 1936 से 1938 के बीच की रूस में घटित घटनाओं से हुई ।
द्वितीय विश्व युद्ध के समय कार महोदय ‘द टाइम्स’ अखबार के
सहायक संपादक के बतौर काम कर रहे थे । फ़ासीवाद के विरुद्ध रूसी सेनाओं के अभियान
से एक बार फिर उनके मन में रूस के प्रति प्रशंसा का भाव पैदा हुआ और स्तालिन को
उन्होंने रूसी क्रांति की निरंतरता में देखना शुरू किया । इसी पृष्ठभूमि में
उन्होंने 1944 में सोवियत संघ का इतिहास लिखना शुरू किया । फ़ासीवाद पर विजय के उस
माहौल में भी वे इस इतिहास में समाजवादी लोकतंत्र पर बल देना नहीं भूले । समाजवादी
लोकतंत्र को वे विशेषाधिकार संपन्न व्यक्तिवादी पूंजीवादी लोकतंत्र का उत्तर समझते
थे । वे समता मूलक जन भागीदारी पर आधारित लोकतंत्र और योजनाबद्ध आर्थिक प्रक्रिया
के पक्षधर थे । इसी को वे नया समाज समझते थे जिसकी ओर उनके मुताबिक समाजवादी और
पूंजीवादी समाजों को आगे जाना था ।
इस इतिहास में उनका मकसद क्रांति की घटनाओं का ब्यौरा पेश
करने की जगह रूसी क्रांति से उत्पन्न समाजार्थिक व्यवस्था का विश्लेषण करना था ।
इसके लिए उन्होंने इंग्लैंड या अमेरिका के पैमानों से रूस को नहीं नापा, बल्कि नए
मानदंड विकसित किए । इन्हें विकसित करने की जद्दो जहद को डेविस ने उपरोक्त पुस्तक की
नई भूमिका में प्रस्तुत किया है । डेविस के अनुसार शुरू में कार की योजना लेनिन की
मृत्यु के बाद तक का ही इतिहास लिखने की थी । इसके आरम्भ में लेनिन के देहान्त के
समय की सामाजिक संरचना पर एक अध्याय होना था । इसमें 1936 के नए संविधान या
द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होने तक के समय का जिक्र होना था । बहरहाल एक बार जब लिखना
शुरू किया तो योजना पूरी तरह से बदल गई । रूस के भविष्य को प्रभावित करने की लेनिन
की क्षमता के कारण तीन खंड ही लेनिन को समर्पित हो गए जिनमें राजनीतिक व्यवस्था,
आर्थिक व्यवस्था और वैदेशिक संबंधों पर विचार किया गया था । रूस का क्रांति के तुरंत
बाद का 1920 दशक उन्हें इस हद तक रुचिकर प्रतीत हुआ कि 1923 से 1929 तक के समय के
विवेचन में ग्यारह खंड लिखे गए । चौदहवें खंड के पूरा होते होते कार की उम्र 86
साल की हो चुकी थी । तीस साल का समय लगा था और पचीस लाख शब्द खर्च हुए थे । 1926
से 1929 तक की आर्थिक व्यवस्था पर केंद्रित नौवें और दसवें खंड डेविस की सहायता से
लिखे गए थे और इसी दौर में विदेश नीति तथा कोमिंटर्न पर केंद्रित बारह से चौदहवें
खंड तक के लेखन में तमारा ड्यूशर ने मदद की थी ।
इस इतिहास में खंडों का विभाजन विषयानुसार किया गया था
लेकिन उससे अलग वर्तमान पुस्तक में कहानी को कालक्रमिक तरीके से प्रस्तुत किया गया
है । जिन्होंने कार के उपर्युक्त चौदह खंड नहीं देखे हैं वे उन्हें कथात्मक
इतिहासकार मानते हैं । लेकिन इस इतिहास के आठ खंडों में घरेलू मोर्चे पर उदीयमान
सोवियत व्यवस्था के विभिन्न कामों का विश्लेषण किया गया है । इनमें परिवार, कानून,
साहित्य और धर्म के बारे में चर्चा करते हुए उनके विवेचन के साथ ही समूचे सामाजिक
रूपांतरण के लिए कटिबद्ध नई सरकार के साथ इनके संबंध को प्राथमिकता दी गई है ।
लेनिन की नई आर्थिक नीति को रूस के अतीत के साथ समायोजन की कोशिश के बतौर प्रस्तुत
किया गया है । कार के मुताबिक इसी पृष्ठभूमि में 1925 के अंत में ‘एक देश में
समाजवाद’ का सिद्धांत विजयी हुआ । लेकिन यह वापसी बहुत सामान्य नहीं थी । जन्म
लेने वाले बच्चे के पालन पोषण की सामाजिक जिम्मेदारी की जगह माता-पिता की प्राथमिक
जिम्मेदारी की बात होने लगी थी लेकिन बेघर बच्चों की देख रेख करने वाली सामुदायिक
संस्थाओं का अस्तित्व बना रहा और उनमें बच्चों का रखरखाव भी होता रहा । सामाजिक
उथल पुथल ने विवाह संबंधों को कानूनी मान्यता देने के मामले में उदार वातावरण
बनाया था लेकिन ग्रामीण समाज में उनकी स्वीकृति व्यापक नहीं थी । सरकार और परिवार
के बीच संबंधों के समानांतर कानून के मामले में भी उठा पटक हुई । पहले कानून को
ऐसा बुर्जुआ अवशेष समझा गया था जो धीरे धीरे समाप्त हो जाएगा । लेकिन फिर 1922 में
सोवियत कानून संस्थान की स्थापना हुई । इसके बाद आपराधिक, नागरिक, कृषि और श्रम
कानून बने । देश भर में सर्वोच्च न्यायालय के मातहत अदालतें स्थापित हुईं । न्याय
प्रणाली में छोटे मोटे अपराधों के मामलों को शिक्षा और सुधार के जरिए मानवीय तरीके
से निपटाने का लक्ष्य रखा गया । लेकिन प्रति-क्रांतिकारी अपराधों के मामले में
कठोर प्रक्रिया अपनाई जाती रही । नई आर्थिक नीति के बाद से खुफ़िया पुलिस की शक्ति
पर कुछ रोक लगाई गई और सारे मुकदमे एक ही अदालत में लाए जाने लगे । लेकिन 1922 में
‘राजकीय अपराध’ की कोटि बनाई गई जिसके तहत आने वाले अपराधों की सजा खुफ़िया पुलिस
की जेल होती थी । यही प्रवृत्ति सरकार और साहित्य के रिश्तों में भी प्रकट हुई । गृहयुद्ध
के दिनों में विशेष सर्वहारा साहित्य विकसित करने की गंभीर निरंकुश कोशिशें हुईं ।
लेनिन ने इस तरह की प्रवृत्तियों की हमेशा निंदा की । 1920 दशक
के पूर्वार्ध में ऐसे लेखकों का समूह प्रकट हुआ जो क्रांति का समर्थन बोल्शेविकों के
रूप में नहीं बल्कि रूसी परंपरा की राष्ट्रीय क्रांति के बतौर करते थे । इन्हें क्रांति
का सहयात्री कहा गया । प्रवासी रूसी लेखकों में भी ऐसी प्रवृत्तियों को सोवियत अधिकारियों
ने प्रोत्साहित किया । लेकिन साहित्य में पूर्ण स्वाधीनता नहीं थी । 1923 में छोटे स्वतंत्र प्रकाशकों पर रोक लगा दी गई । अस्वीकार्य लेखन को पुस्तकालयों
से हटा दिया जाता था । नई सरकार और धार्मिक संगठनों के बीच के रिश्ते जटिल थे । न केवल
बोल्शेविक बल्कि जारशाही के विरोधी सभी समाजवादी रूसी पारंपरिक चर्च को प्रतिक्रिया
का गढ़ मानते थे । चर्च विरोधी अभियान 1922-23 में चरम पर पहुंच
गया था । उनकी ज्यादातर संपत्ति जब्त कर ली गई और चर्च के बड़े अधिकारियों की गिरफ़्तारी
और सजा हुई । इसके साथ धार्मिक आस्था की व्यापकता को देखते हुए सुलह समझौते का रास्ता
भी अपनाया गया । सोवियत समर्थक एक विद्रोही चर्च को प्रोत्साहन दिया गया और मुख्य चर्च
के साथ सुलह की गई । बदले में चर्च के मुखिया ने 1927 में सोवियत
सत्ता के प्रति पूर्ण निष्ठा जाहिर करते हुए परिपत्र जारी किया । इसे कार ने समझदार
नरमी की नीति कहा है ।
स्तालिन को ई एच कार ने अपने देश काल का उत्पाद माना है । बाद
में उन्हें स्तालिन के प्रति अपने रुख में ज्यादती का भी अहसास हुआ था । इसी प्रसंग
में योजनाबद्ध अर्थतंत्र को वे क्रांतिकारी प्रेरणा का पुनर्जीवन मानते हैं । वे सत्ता
के प्रशासनिक दुरुपयोग के विरोध में सोवियत कानून की रक्षा तथा पार्टी निष्ठा की पक्षधरता
के लिए स्वयंसेवी संवाददाताओं की भूमिका को भी रेखांकित करते हैं । इसके साथ ही वे
समाज में पैदा होने वाले विक्षोभ के समक्ष कानून में सुधार के मुकाबले दंडित करने की
सोच की बढ़ोत्तरी पर चिंता भी जाहिर करते हैं । पुराने लोग इन चीजों को कृषक देश के
उद्योगीकरण से जुड़ी समस्याओं को हल करने के तात्कालिक उपायों की तरह ही देख रहे थे
लेकिन कार के अनुसार बाद की कठोरता की बुनियाद भी इसी समय पड़ गई थी । यह प्रक्रिया
कानून के साथ ही अन्य क्षेत्रों में भी चली । उदाहरण के लिए साहित्य में क्रांति के
सहयात्रियों की परिघटना क्षीण पड़ी और लेखक संगठन पर जोर बढ़ गया । 1928 में
स्तालिन ने सांस्कृतिक क्रांति के आवाहन का समर्थन किया ताकि मजदूर वर्ग के सांस्कृतिक
संसाधनों का विकास हो सके । इसके लिए बुर्जुआ और पेट्टी बुर्जुआ विचारधाराओं से संघर्ष
करते हुए पार्टी के लेखक संगठन को मजबूत करना था । कुछ ही समय बाद मायाकोव्सकी ने आखिरी
स्वायत्त साहित्यिक संगठन को भंग कर दिया । धर्म के मामले में भी चर्च के साथ सुलह
का माहौल कुछ ही महीनों तक रह सका । इसके बाद धर्म विरोधी अभियान में तेजी आई । शिक्षा
मंत्री ने घोषित किया कि स्कूलों में आस्तिक अध्यापकों की जगह पर धर्म विरोधी दृष्टिकोण
वाले अध्यापकों को वरीयता दी जाए । प्रावदा में धार्मिक अवकाशों के विरोध में लेख लिखे
गए ।
इन सभी अभियानों ने पुरानी चीजों को पूरी तरह नष्ट नहीं किया
। उदाहरण के लिए साहित्य में सर्वहारा साहित्य के चलते शास्त्रीय साहित्य को मिटाया
नहीं गया । स्तालिन ने खेती के समूहीकरण के दौरान जोश में ग्रामीण चर्चों के
विरुद्ध अभियान चलाने वालों की उन्हें छद्म क्रांतिकारी कहकर आलोचना भी की ।
लेखकों के मामले में भी 1932 में पार्टी से बाहर के दायरे के लेखकों को साथ लिया
गया । लेकिन इन अलग अलग प्रवृत्तियों को भी एक हद तक, सोवियत नीति के प्रत्येक
पहलू के सोत्साह समर्थन के अंदर ही काम करने की अनुमति थी ।
सोवियत सत्ता की कुछ नीतियों के बारे में किताब में यथोचित
चर्चा नहीं की गई है । जन शिक्षा की नीति इनमें सबसे महत्वपूर्ण है । बोल्शेविकों
का मानना था कि समूची आबादी को शिक्षित किया जाना चाहिए और उच्च शिक्षा भी
विस्तारित की जानी चाहिए । बाद के इतिहासकारों को सोवियत सत्ता की यह उपलब्धि
सर्वाधिक टिकाऊ प्रतीत हुई । कार ने इन सबका जिक्र तो नहीं किया लेकिन इसका उल्लेख
जरूर किया है कि नई सरकार ने सर्वहारा विशेषज्ञों को प्रशिक्षित करने पर ध्यान
दिया । गृहयुद्ध के दौरान भी विद्यार्थियों की तादाद में पर्याप्त बढ़ोत्तरी देखी
गई । नई आर्थिक नीति के समय इसमें थोड़ी गिरावट आई लेकिन फिर से उनकी संख्या बढ़ गई
। 1930 के आते आते स्कूलों में विद्यार्थी 1915 के मुकाबले दोगुना हो गए ।
दुर्भाग्य से यही शिक्षित आबादी नौकरशाह समाजवादी व्यवस्था की सेवा में लगी ।
रूस में स्त्रियों की स्थिति के बारे में ई एच कार ने इतिहास
में तो भरपूर चर्चा की थी लेकिन इस किताब में उतनी चर्चा नहीं की है । प्रथम विश्व
युद्ध और गृहयुद्ध में पुरुषों के बड़े पैमाने पर मारे जाने के कारण आबादी में
स्त्रियों की तादाद अधिक थी । अन्य समाजवादी क्रांतिकारियों की तरह बोल्शेविक भी
पुरुष और स्त्री की समानता में यकीन करते थे । क्रांति के बाद जारी सभी आदेशों और
घोषणाओं में बलपूर्वक इस सिद्धांत को दोहराया गया । क्रांति के बाद के दस सालों
में इस सिद्धांत को लागू करने के लिए ढेर सारे व्यावहारिक कदम उठाए गए । सबसे अधिक
जोर स्त्रियों को रोजगार प्रदान करने पर दिया गया । उनके साथ पुरुषों के समान ही व्यवहार
किया जाता था । इससे उनकी हैसियत में बढ़ोत्तरी हुई । समान काम के लिए समान वेतन दिया
गया ।
1920 दशक में चुनावों में स्त्रियों का मतदान बढ़ाने के लिए अभियान चलाया
गया । स्थानीय और राष्ट्रीय शासक संस्थान में उनकी संख्या भी बढ़ाई गई । इन सबके बावजूद
ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष और स्त्री के बीच का पारंपरिक श्रम विभाजन कायम रहा ।
प्रशासन और अर्थतंत्र में ऊंचे पदों तक उनकी पहुंच नहीं हो सकी ।
1990 दशक में क्रांति के बाद के दिनों के दस्तावेजों का संग्रहालय
रूसी और विदेशी इतिहासकारों के लिए खोल दिया गया । जिन वर्षों का जिक्र ई एच कार ने
किया है उस दौरान के राजनीतिक और प्रशासनिक निकायों के सभी ब्यौरे सार्वजनिक हो चुके
हैं । इनसे तत्कालीन रूसी समाज के बारे में हमारी जानकारी बढ़ी है । इससे पहले सोवियत
नीति निर्माण के बारे में बेहद कम सूचना उपलब्ध थी । फिर भी ई एच कार के विश्लेषण की
प्रामाणिकता पर कोई खास असर नहीं पड़ा है । कारण कि रूस में प्रेस की आजादी पर कोई
प्रतिबंध नहीं था और अखबारों में सूचनाएं भी पर्याप्त हुआ करती थीं ।
अक्टूबर क्रांति के सौ साल बाद उस पर विचार करते हुए आज कुछ
बातों पर जोर देना जरूरी है । सबसे पहली बात कि रूसी क्रांति को समाजवादी चिंतन की
एक दीर्घकालीन निरंतरता में देखना उचित होगा । समाज में विषमता के जन्म के साथ ही
उसके विरोध की भी शुरुआत होती है । स्वाभाविक रूप से यह विरोध इतिहास की विभिन्न
अवस्थाओं से निर्धारित होता रहा । जब समाज में धर्म का बोलबाला था तो यह विरोध धर्म
के आवरण में प्रकट हुआ । पूंजीवाद के आगमन के साथ पहले से चली आ रही विषमता का रूप
बदला । अब उसके साथ निर्दय-निर्मम उदासीनता और अकेलेपन का भी वातावरण बना । इसी के
साथ शासन की लोकतांत्रिक पद्धति के आने से विरोध का संगठित और राजनीतिक स्वरूप
सामने आया । इस पूरी प्रक्रिया के वैचारिक विवरण के लिए एक किताब देखी जा सकती है
। इसके लेखक मूल तौर पर कथाकार रहे हैं । मूल तौर पर यह किताब 1940 में
छपी थी, फिर 1968 में इसका दूसरा संस्करण
हुआ था । इसके बाद यह किताब 1972 में मैकमिलन से छपी । अभी
हाल में 2012 में फ़रार, स्त्रास ऐंड जिरो
से एडमंड विलसन की इस बहुत पुरानी किताब ‘टु द फ़िनलैंड स्टेशन:
ए स्टडी इन द राइटिंग ऐंड ऐक्टिंग आफ़ हिस्ट्री’ का पेपरबैक संस्करण प्रकाशित हुआ है । किताब की खूबी है कि इसमें 1789
की फ़्रांसिसी क्रांति के माहौल से शुरू करके लेनिन तक समाजवादी चिंतन
की दीर्घकालीन परंपरा का विवेचन किया गया है । फ़्रांसिसी क्रांति के साथ ही
समाजवादी समाज के स्वप्न का चिंतन शुरू हो गया था । 1871 की पेरिस कम्यून की घटना ने
इस समाजवादी सोच को गहराई प्रदान की । लेखक के कथाकार होने के चलते किताब में इस
समूचे दौर के लेखकों के साथ ही मार्क्स, एंगेल्स, लासाल, बाकुनिन और लेनिन,
त्रात्सकी तथा फ़ूरिए, सेंट साइमन, राबर्ट ओवेन आदि चिंतक किसी
उपन्यास के पात्रों की तरह एक दूसरे के साथ संवाद करते हुए नजर आते हैं । व्यापक
राजनीतिक सामाजिक हलचलों के प्रति इन चिंतकों का बौद्धिक नजरिया और इसके चलते
इतिहास में कर्ता के रूप में इन विचारकों की भूमिका उभरकर सामने आई है । ये विचारक
अपनी ऐतिहासिक सीमाओं के साथ जूझते हुए उनके पार जाने का साहस करते हैं । विस्तार
में गए बिना मुख्य बात यह है कि अक्टूबर क्रांति पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था के
विरुद्ध समानता पर आधारित वैकल्पिक व्यवस्था स्थापित करने की एक ऐतिहासिक
प्रक्रिया का नतीजा थी । मानव जीवन से शोषण का राज खत्म करने की उस कठिन प्रक्रिया
को इसने पूर्णता प्रदान करने की कोशिश की थी ।
दूसरी बात कि रूसी क्रांति कोई ऐसी ऐतिहासिक दुर्घटना नहीं थी
जिसे
1990 में दुरुस्त कर लिया गया । पूंजीवाद के ज्यादातर चिंतक अक्टूबर
क्रांति को इसी तरह पेश करते हैं । वे बुर्जुआ लोकतंत्र से बेहतर किसी राजनीतिक
प्रणाली की कल्पना ही नहीं कर सकते । ‘इतिहास का अंत’ के रूप में फ़ुकुयामा ने इसी
मान्यता को गंभीरता के साथ प्रकट किया था । लेकिन यदि कोई होशमंद व्यक्ति आज
पश्चिमी लोकतंत्र को आदर्श या पहले की समाजवादी व्यवस्थाओं से बेहतर बताने की
कोशिश करे तो यही कहा जा सकता है कि तथ्य जैसी चीज पर उसका यकीन ही नहीं है ।
वर्तमान पूंजीवादी प्रणाली जहां पहुंच गई है उसे समझने के लिए ‘उत्तर-सत्य’ जैसी
धारणा का प्रचलन हुआ है जिसके अनुसार बेहयाई और झूठ बुरी बातें नहीं वरन हमारे
राजनीतिक जीवन के प्रमुख रूप हैं । जनता के दिमाग पर संचार माध्यमों का इस कदर
कब्जा हो चुका है कि पूरी तरह झूठी बात पर भी लोग विश्वास कर ले रहे हैं ।
तीसरी बात कि समाज में बराबरी और लोकतंत्र तथा आजादी की लंबी
लड़ाई में रूसी क्रांति के अनुभवों से सीखना होगा । हमने पहले ही कहा कि प्रयासों
की लंबी कड़ी में यह क्रांति एक कोशिश थी । जिन सवालों को इस क्रांति ने हल करने का
प्रयास किया था वे और भी गंभीर होकर उपस्थित हुए हैं । समाज में विषमता के बढ़ते
स्तर को आज ‘1% बनाम 99%’ के मुहावरे में व्यक्त किया जा रहा है । विकसित पश्चिमी
देशों में सचमुच के मुट्ठी भर ऐसे धन्नासेठों का उदय हुआ है जो समाज की विराट
बहुसंख्या से अधिक संपदा के मालिक बनकर उभरे हैं । चुनाव पूरी तरह से नाटक बनकर रह
गए हैं । इन्हीं धन्नासेठों से चंदा लेकर सत्तारूढ़ और विपक्षी दोनों ही दल चुनावी
अभियान संचालित कर रहे हैं । जिस सार्विक मताधिकार को लोकतंत्र की आत्मा समझा जाता
था उसका कोई वास्तविक मूल्य नहीं रह गया है । अर्थतंत्र पर राजनीतिक सत्ता का कोई
नियंत्रण नहीं रह गया है । सामाजिक जीवन से राजनीतिक तंत्र का और राजनीतिक तंत्र
से अर्थतंत्र का रिश्ता टूट गया है । इसने एक तरह की जाति व्यवस्था को जन्म दिया
है । अमीर की संतान अमीर ही होगी । अमेरिका में अच्छी शिक्षा इतनी मंहगी हो गई है
कि उसे हासिल करना केवल अमीरों के लिए संभव रह गया है । इसने उन देशों में विरासत
में मिली संपत्ति पर सौ फ़ीसद टैक्स लगाने की मांग को जन्म दिया है ।
ई एच कार की उपर्युक्त किताब से भी स्पष्ट है कि खुद रूसी क्रांति
कोई घटना नहीं, एक प्रक्रिया थी जो एक जीवंत समाज में चली । उस समाज में मशीन
मानव नहीं, वास्तविक मनुष्य रहते थे जो शासन की बनाई नीतियों को प्रभावित करते थे ।
इन वास्तविकताओं से जूझते हुए क्रांति से पैदा हुए अनुभवहीन नेताओं को अकल्पनीय
स्थितियों के समक्ष नए तंत्र का रेशा रेशा तैयार करना था । यह काम उन्हें अपने
समाज की वास्तवकिता से टकराते हुए तो करना ही था ऊपर से पश्चिमी देशों ने एक दिन
भी नई सत्ता को उखाड़ फेंकने की कोशिश बंद नहीं की । उन्होंने नई सत्ता के
विरोधियों को लड़ने के लिए धन से लेकर हथियार तक सब कुछ मुहैया कराया । अक्टूबर 1917
से लेकर हिटलर की पराजय तक पश्चिमी ताकतों के साथ तमाम तरह के ठोस वैचारिक
संघर्ष चलाते हुए इस क्रांति को अपने अस्तित्व को कायम रखने की लड़ाई लड़नी पड़ी थी ।
इन विपरीत परिस्थितियों में भी उसने शत प्रतिशत साक्षरता और बेरोजगारी के खात्मे
जैसे वे मुकाम हासिल किए जो पश्चिमी देशों के लिए सपना ही रहे । क्रांति की ऊर्जा
के चलते ही उसने खेलों की दुनिया में अपना दबदबा बनाए रखा । जन स्वास्थ्य और
रचनात्मक साहित्य तथा सांस्कृतिक सृजन की दुनिया में रूसी उपलब्धियों को झुठलाना
असंभव है । जर्मनी की सेनाओं ने द्वितीय विश्व युद्ध में जब स्तालिनग्राद को 199
दिनों तक घेरे रखा था तो घिरी हुई आबादी के लिए आयोजित संगीत समारोह की तरंगों को
रेडियो पर सुनकर जर्मन सैनिकों के छक्के छूट गए थे । उन्हें लगा कि मौत के मुहाने
पर जो लोग संगीत समारोह आयोजित कर सकते हैं उन्हें पराजित करना असंभव है । अक्टूबर
क्रांति की ऊर्जा ने ही अंतरिक्ष विज्ञान में भी रूस को हमेशा अग्रणी बनाए रखा ।
शीतयुद्ध के दौरान थोपी हुई हथियारों की होड़ और प्रभाव
क्षेत्र के विस्तार की आकांक्षा में फंसकर रूस ने वैचारिक मोर्चे पर बरतरी खो दी ।
इस तरह उस महान प्रयोग का दुखद अंत हुआ जो धरती और मनुष्य की बेहतरी के लिए लड़ने
वालों को अपनी गलतियों और उपलब्धियों से शिक्षा लेने के लिए हमेशा आमंत्रित करता
रहेगा । वर्तमान सदी में भी उस क्रांति के मूल्यों और विचारों की धमक विरोधियों के
प्रचार में सुनी जा सकती है । आखिर जो विचार पराजित हो गया होता है उसे नष्ट करने
के लिए इतने परिश्रम और संसाधन की जरूरत नहीं पड़ती । जिस लोकतंत्र के नाम पर रूस
की समाजवादी व्यवस्था के विरोध में व्यवस्थित प्रचार अभियान संचालित किया गया था
उसका हाल खुद पश्चिमी देशों में इतना बुरा हो चुका है कि कोई भी नागरिक उसके लिए
नेताओं की प्रतिबद्धता में यकीन नहीं करता । जिन लोगों ने इन देशों के खुफ़िया
तंत्र की पोल खोली उन्हें पुलिस शिकारी कुत्तों की तरह से खोज रही है और उन्हें
विदेशों में या दूसरे देशों के दूतावासों में शरण लेनी पड़ रही है । दूसरे देशों
में लोकतंत्र का जिस तरह अमेरिका ने निर्यात किया है उसकी सचाई तो इराक की जेलों
में कैदियों के साथ सैनिकों के आचरण की तस्वीरों से जग जाहिर हो चुका है ।
दूसरी ओर लोकतंत्र को लेकर होने वाली दुनिया भर की लड़ाइयों
में वामपंथी लोग अग्रिम कतार में खड़े हैं । इस क्रम में लोकतंत्र भी फिर से
परिभाषित हो रहा है । अधिकार का सवाल सामान्य नागरिक अधिकारों से आगे बढ़कर तरह तरह
की अल्पसंख्या के जीवन के अधिकार तक विस्तारित हो रहा है । इसमें संसाधनों पर
अधिकार का सवाल भी शामिल हो चुका है । साफ है कि समाजवाद के जिस आदर्श को रूस के
पतन में पश्चिमी देशों ने पराजित मान लिया था वही आदर्श इंग्लैंड में लेबर पार्टी
के नेता के रूप में कोर्बीन की जीत और हाल के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में
डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी का चुनाव हार जाने के बावजूद बर्नी सांडर्स की
लोकप्रियता न घटने और नए रूपों में उस अभियान की निरंतरता में प्रतिध्वनित हो रहा
है ।
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