Wednesday, September 12, 2012

अनजानी जगह की यात्रा या पूर्वोत्तर का रहस्यीकरण


     
 (अनिल यादव की किताब की शेष के लिए लिखी समीक्षा)                                                   
अंतिका से प्रकाशित अनिल यादव का यात्रावृत्तवह भी कोई देस है महराजपूर्वोत्तर के सभी प्रांतों की आतंकवादी गतिविधियों के उभार के समय की गई यात्रा का कुशल कहानीकार के हाथों लिखा वर्णन है इस यात्रा के पहले लेखक अवसाद के लंबे दौर से गुजर चुका था और यह यात्रा उस अवसाद से बाहर निकलने की जद्दोजहद का अंग थी । यात्रा में एक साथी शाश्वत भी था जो निरंतर वर्णन में मौजूद रहता है । लेखक कहानीकार तो है ही, पेशेवर पत्रकार भी है इसलिए अतीत और प्रकृति की फाँस अथवा स्त्रियों की मौजूदगी के मोहक जाल में उलझने की बनिस्बत वर्तमान में अधिक ठोस तरीके से धँसा रहता है । अलग बात है कि पत्रकारीय उदासीनता हावी नहीं होती और कथाकार की भाषा रस बनाए रहती है । अनिल के पर्यवेक्षण इतने जबर्दस्त हैं कि डीटेल्स अनायास ही चले आते हैं ।
किताब का शीर्षक काबिले गौर है । कल्पना करिए कि वहकी जगह यहहोता यानीयह भी कोई देस है महराजतो फ़र्क पड़ता या नहीं । स्वाभाविक रूप से वहलिखकर लेखक ने पूर्वोत्तर को भिन्न कर दिया है और इस तरह पूर्वोत्तर में जो भी हो रहा है उसकी जिम्मेदारी से पीछा छुड़ा लिया है जबकि सच्चाई यह है कि वहाँ के हालात की जिम्मेदारी से केंद्र के प्रतिनिधि राज्यपाल, स्थानीय सरकारें या समूचा देश मुँह नहीं मोड़ सकता । इस बात को पूर्वोत्तर के अनेक बुद्धिजीवियों ने उठाया है कि आखिर किन वजहों से पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यपाल सेना से रिटायर्ड अफ़सर ही होते हैं ।
यह भाव पूरी पुस्तक में गहराई से मौजूद है जिसकी वजह से इसकी रुचिकर पठनीयता के बावजूद समस्याओं के संदर्भ साफ होने की जगह आप अपने आपको ऐसी जगह की यात्रा करते पाते हैं जो विचित्र है और जिसके निर्माण में बाहर की एजेंसियों की भूमिका उतनी नहीं है जितना वहाँ के लोगों का तथाकथित स्वभाव । यात्रा की शुरुआत ही एक ऐसी ट्रेन से होती है जोदेश के सबसे रहस्यमय और उपेक्षित हिस्से की ओर जा रही थी इसलिए अंधेरे में उदास खड़ी थी ।       
उसके बाद यात्रा के दौरान क्रमशः पूर्वोत्तर के बारे में हिंदी भाषी इलाकों में प्रचलित विश्वासों को लेखक पाठकों के सामने खोलता चलता है और एक तरह का टकराव भी इसी क्रम में खुलता जाता है आम हिंदी भाषी की पढ़ाई लिखाई या निजी अनुभवों के आधार पर पूर्वोत्तर की जो छवि बनती है उसे बेहद खूबसूरती से लेखक इस तरह समेटता हैबचपन में पढ़ी समाजिक विज्ञान या भूगोल की किताब में छपे चित्रों से जानता था, वहाँ चाय के बागान हैं जिनमें औरतें पत्तियाँ तोड़ती हैं पहले वहाँ की औरतें जादू से बाहरी लोगों को भेड़ा बनाकर अपने घरों में पल लेती थीं चेरापूँजी नाम की कोई जगह है जहाँ दुनिया में सबसे अधिक बारिश होती है बहरहाल पाठक को इससे उम्मीद पैदा होती है कि इन अंधविश्वासों से भिन्न पूर्वोत्तर की वैकल्पिक तस्वीर उसे देखने को मिलेगी
यात्रा के आगे बढ़ने के साथ पूर्वोत्तर भारत के साथ शेष भारत के संबंध परत दर परत खुलना शुरू होते हैं जो बहुत सहज नहीं प्रतीत होते मसलन एक युवा सरदार जी ने अपनी सीट बदल ली थी क्योंकि सामने एक नागा की सीट थी लेखक की टिप्पणी गौर तलब हैशायद उसकी आधी ढकी, भीतर तक भेदती आँखों ने उनके मन के परदे पर हेड हंटिंग, कुकुर भात, और आतंकवाद की कोई हारर फ़िल्म चला दी होगी-----’ उम्मीद पैदा होती है कि इससे अलग तस्वीर लेखक के संस्मरणों से उभरेगी
लेकिन दुर्भाग्य से जब लेखक नागालैंड से पाठकों का परिचय कराता है तो उसी फ़िल्म की पुष्टि करता है वह बताता हैयह खुला तथ्य है कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी वेतन का दस प्रतिशत, ग्रेड-2 कर्मचारी 20 प्रतिशत और ग्रेड-1 सेवाओं के अफ़सर न्यूनतम 30 प्रतिशत टैक्स देते हैं साथ ही अंडरग्राउंड के प्रतिनिधि होने का स्वांग करने वाले लफंगों की वसूली अलग चलती है फिर ‘1880 की गर्मियों में फ़ौज के लौटने के बाद खोनोमा के 50 लड़ाकुओं ने सात बंदूकें लेकर चार दिन में अस्सी मील मणिपुर के जंगलों में चलकर कछार के बालाधन चाय बागान पर धावा मारा उन्होंने बगान जला दिया और बगान के मैनेजर मिस्टर ब्लिथ और सोलह मजदूरों के सिर काट ले गए लेखक के इस वर्णन के बाद आखिर किस वजह से शेष भारत को यह यकीन नहीं होगा कि पूर्वोत्तर में आतंकवाद और हत्या कोई ऐसी समस्या नहीं जिसका समाधान खोजना जरूरी हो वह तो वहाँ के लोगों की आदत में शरीक है इस तरह के अपुष्ट विवरण पूरी किताब में अनेक जगहों और प्रसंगों में पाए जाते हैं । मसलन मेघालय के आतंकवाद के बारे में लेखक का कहना हैदरअसल मेघालय का आतंकवाद आयातित है जिसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है ।--खुफ़िया रपटों के मुताबिक एचएनएलसी (मेघालय का उग्रवादी संगठन) की वसूली का पचहत्तर प्रतिशत हथियारों की कीमत, प्रशिक्षण की फ़ीस और ऐक्शन में विशेषज्ञों के निर्देशन के मूल्य के रूप में एनएससीएन (नागालैंड का संगठन) के पास चला जाता है ।इस प्रवृत्ति को महज कुछेक संगठनों तक सीमित मानने की बजाए लेखक एक तरह से समूचे समाज में व्याप्त मानता है जब वह मावलाई में संयोग से पहुँच जाता है और देखता है किएक बड़ी पुलिया के नीचे नाला बह रहा था । बर्फीले पानी में एक झबरा पिल्ला जान बचाने के लिए जूझ रहा था । किनारे पर कुछ खासी बच्चे थे जो घात लगाकर हर बार उसके किनारे तक आने का इंतजार करते, जैसे ही वह कगार पर चढ़ने को होता एक लकड़ी से पानी में वापस गिरा देते थे । कीचड़ में लथपथ पिल्ला किकियाता तो बच्चे उत्तेजना से चीखते थे ।संभव है यह दृश्य लेखक को दिखाई पड़ा हो लेकिन ऐसा वाकया शेष भारत में नहीं घटता इसका दावा कोई नहीं कर सकता । फिर भी लेखक इसे पूर्वोत्तर की मानसिकता के एक नमूने के बतौर पेश करते हैं ।    
इस प्रवृत्ति का विरोध इसलिए जरूरी है क्योंकि ऐसे मिथक मुल्क को पूर्वोत्तर के बारे में गंभीरतापूर्वक सोचने से रोकते हैं जरूरी है कि पूर्वोत्तर के बारे में इस तरह से सोचने की बजाय यह ध्यान दिया जाय कि सारी दुनिया में चल रही हवा से पूर्वोत्तर भी प्रभावित होता है l अलगाववाद हो अथवा आतंकवाद दुनिया के अनेक मुल्क इसकी जद में हैं और इनके पैदा होने का दारोमदार कुछ कुछ हमारी केंद्रीय सरकार पर भी आता है
लेखक की भाषा इतनी आकर्षक है कि ये अपुष्ट मिथक खूब आसानी से संप्रेषित हो जाते हैं और सहज चेतना का अंग होकर पूर्वोत्तर के किसी भी मनुष्य को देखते ही वही हारर फ़िल्म चला देने में मदद करते हैं । लेखक अपनी इस काव्यात्मक भाषा का ब्यौरा खुद देता है अपनी डायरी का एक अंश उद्धृत करकेब्रह्मपुत्र में इस सूने, जर्जर, स्टीमर की डेक पर पड़े-पड़े दूर से आते रेडियो के धुंधले, चटख गाने सुनने में अजीब सा सुख है । अचानक सुरों का फौव्वारा फूट पड़ता है, किनारे मंडराते कौवों के शोर में न जाने कहाँ खो जाता है फिर कहीं और उभरता है । यह सुख किसी संगीत समारोह में नहीं मिल सकता । वहाँ प्रतीक्षा, व्याकरण और ढेर सारी ऊब होती है । यहाँ संगीत लहरों में घुल गया है जिसकी लय पर स्टीमर हिल रहा है । दूर एक मोटर बोट का इंजन घरघरा रहा है । एक पतली सी नाव सनसनाती, सूरज में सुराख बनाती घुसी जा रही है ।यही रेशमी भाषा दुर्भाग्य से हिंदी के नए कथाकारों में प्रचलित है । यह भाषा भीषण का वर्णन बर्दाश्त नहीं कर पाती और ऐसे प्रसंग आने पर उपमा, रूपक आदि अलंकारों का वितान रचने लगती है । अनिल यादव की इस किताब की शक्ति होने के साथ साथ समस्याओं का बड़ा स्रोत यह भाषा है ।
पत्रकार होने के चलते मीडिया की उपस्थिति से पैदा होने वाले असरात को लेखक ने बखूबी देखा और दर्ज़ किया है । उदाहरण के लिए मेघालय के बारे में हमें पूरी कहानी शुरू होने से पहले ही यह सूचना मिलती है ‘---दरबार तो तीन दिन पहले मोटफ़्रान चौक पर लगा था । आज टी वी चैनल के लिए उसका पुनर्मंचन किया जा रहा था ।उस समय मेघालय में जो गोलबंदी चल रही थी उसके बारे में सूचना देते हुए लेखक बताता है पुराने राजा माँग कर रहे हैंभारत सरकार संविधान में संशोधन कर यहाँ की पुरानी राज-व्यवस्था बहाल कर दे क्योंकि वह हर लिहाज से वर्तमान भ्रष्ट और अन्यायी लोकतंत्र से बेहतर पाई गई है ।आगे इन राजाओं के तर्क भी लेखक ने प्रस्तुत किए हैंलघु राज्यों के राजा अपने लोगों को समझा रहे थे कि 15 जनवरी 1947 को असम के राज्यपाल अकबर हैदरी और खासी राज्यों के बीच जो समझौता हुआ था उसके मुताबिक रक्षा, मुद्रा और विदेश मसलों को छोड़कर बाकी सारे मामले उनके अधीन होने चाहिए थे ।राजाओं के मुताबिक बाद में इस समझौते का उल्लंघन हुआ और लेखक के अनुसारइस झगड़े का नतीजा यह है कि आज के मेघालय में पारंपरिक, भारत सरकार का और जिला परिषद का- तीन कानून एक साथ चलते हैं, जिनके मकड़जाल में लोग झूलते रहते हैं ।इसी तरक एक प्रसंग तब उभरता है जब लेखक बताता है कि उस समय अमिताभ बच्चन केकौन बनेगा करोड़पतिमें भाग लेने के लिए टेलीफ़ोन से लोग जवाब देते और इसी वजह से नए लड़के टेलीफ़ोन बूथ के बाहर लाइन लगाकर अपनी बारी का इंतजार करते रहते थे । बीमारी की तरह फैले इस नशे में डूबे एक बच्चे को खोजते हुए उसका बाप आया और बच्चे को लाइन में पाकर पीटता हुआ जो बोला वह लोगों की चिढ़ और हास्य से उपजा कमाल का वक्तव्य हैजो अपने घर में लगी आग बुझाने की बजाए उस घोड़मुँहे अजनबी के साथ जुआ खेलने जा रहा हो उसके बाल बच्चों के मुँह में तो भगवान भी दाना नहीं डालेगा ।इसी तरह जंगल देखने के लिए जब लेखक अरुणाचल जाता है तो गाइड द्वारा रास्ते से बाघ के गुजरने की आशंका जताने पर उसे लगता है कि यात्रा को रोमांचक बनाने की यह तकनीक गाइड ने खोज रखी है ।            
ऐसा नही कि सर्वत्र लेखक ने पूर्वोत्तर का मिथकीकरण ही किया हो अनेक जगहों पर तो ऐसे प्रसंग हैं जिन पर भरोसा ही नहीं होगा अगर आप पूर्वोत्तर में रहे हों लेकिन व्यक्तिगत अनुभव से कह सकता हूँ कि ऐसी घटनाएँ संभव हैं और वे इन समाजों की विशेषता हैं । उदाहरण के लिए अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश के लिए इनर लाइन परमिट बनवाना पड़ता है जिसके लिए लगी लाइन में लेखक अपनी जगह एक परेशान आदमी को दे देता है तो वह न सिर्फ़ लेखक को अपने घर ले जाता है बल्कि पूरे गाँव में उसे घुमाता है । इसके बाद लेखक को विदा करने सुबह समूचा गाँव सड़क पर आता है । इसी तरह का वर्णन माजुली द्वीप की यात्रा के दौरान श्रद्धालुओं का है । इनमें से एक साधु की तस्वीर को पेश करते हुए लेखक को उत्तरी भारत के बाबा याद आते हैं ‘(महंत नारायण चंद्र देव गोस्वामी) की हँसी में असामान्य वैराग्य था और बोलने में स्तब्ध कर देने वाली सादगी इस जमाने में भी बची हुई थी । सहज ही मुझे राइफ़लों से घिरे, लंबी गाड़ियों में घूमने वाले, सोने से लदे तुंदियल प्रवचनकारी बाबाओं की याद आई जो यदि वहाँ खड़े होते तो स्वर्ग का टिकट ब्लैक करने वाले लफंगों की तरह नजर आते ।लेखक को ये साधु इस हद तक प्रभावित करते हैं किमैंने खुद को सोचते हुए पाया कि अगर कभी मेरा कोई धर्म हुआ तो वह ऐसा ही सादा, इकहरा और पवित्र होगा ।लेकिन इस मामले में भी वह इसे चिन्हित करने से नहीं चूकता कि स्तरों में ऊँची जाती के हिंदुओं के ही प्रवेश ने जनजातियों को इसाइयत की ओर धकेला है । यही निस्संग आलोचनात्मकता कहीं कहीं पुस्तक को सामान्य यात्रा वृत्तों से अलगाती है ।
किन्हीं किन्हीं प्रसंगों में निश्चय ही लेखक को सामान्य लोगों के जरिए राजनीतिक समस्या को बेहतर तरीके से समझने में सहायता मिली है । मसलन जब लेखक आसाम पहुँचा था तो उस समय उल्फ़ा द्वारा बिहारी लोगों की हत्या का दौर चल रहा था । इस मुहिम का कारण समझने के लिए लेखक विद्वानों के बजाए कुछ सामान्य लोगों की राय उद्धृत करता है । दुलू दा नाम के एक सज्जन ने उन्हें बतायाअहा बसर एलेक्शन होबो । हत्या खेल में पालिटिक्स है । सब निर्वाचन का खेल है रे भाई टी ।--जो पाल्टी बिहारी भगाने का सपोर्ट करेगा उसको देसी, विदेसी सब मुसलमान सपोर्ट करेगा ।इसी तरह का दूसरा आदमी लेखक को बताता हैबिहारियों ने यहाँ आकर अपनी मेहनत से खेत, मकान, दुकान बना लिया है । असमिया को लगने लगा है कि ये भुच्चड़ असम को हड़प कर बिहार बना डालेंगे ।
इसी तरह कहीं कहीं लेखक सतह के नीचे की ताकतों को भी पहचाना है । मसलन चाय बागान के अर्थतंत्र की ताकत का सबूत देते हुए वह कहता है ‘वसूली हद से ज्यादा बढ़ने पर यह चाय लाबी ही थी जिसने प्रफुल्ल महंत की सरकार गिरा दी थी और “आपरेशन बजरंग” का तानाबाना तैयार किया था ।’ लेखक ने मणिपुर के नौजवानों की बेरोजगारी का मार्मिक दृश्य प्रस्तुत किया है ‘मुँह बाँध कर रिक्शा चलाना इम्फाल के पुराने फैशनों में से एक था जिसकी शुरुआत उच्चशिक्षा प्राप्त लड़कों ने शर्म ढकने के लिए दो दशक पहले की थी ।’ लेखक को मणिपुर में एक लड़की मिलती है जो ‘मानने को राजी नहीं थी कि पूर्वोत्तर में एड्स साझे की सूइयों से फैला है । उसने कहा, नशे के व्यापारी पहले लड़कियों को लत लगाते हैं फिर एक पुड़िया फ़ीस वाली वेश्या बना देते हैं । बीमारी वहाँ से फैलती है ।’ शिलांग में लेखक को एक ड्राइवर बताता है कि ‘शिलांग के अंडर ग्राउंड मार्केट में येलो केक (यूरेनियम) बिकने आया’ है ।  कुल मिलाकर लेखक को अपनी अराजक जीवन शैली के गौरवान्वयन और पूर्वोत्तर के मिथकीकरण के बावजूद कहीं कहीं समस्या की गंभीरता को समझने में एक हद तक सफलता मिली है । किन्हीं जगहों पर वे पूर्वोत्तर की अंदरूनी समस्याओं को भी बेहतर तरीके से उभारते हैं । लेकिन वे इस क्षेत्र में केंद्र सरकार के अपराधों पर परदा भी डालते दिखाई पड़ते हैं ।      

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