Thursday, December 2, 2010

पस्त रहो मस्त रहो


सन 1920 के बाद के दंगों में घायल देश में भारत जागरण के उत्साह में डूबे लोगों पर टिप्पणी करते हुए सरदार पूर्ण सिंह ने लिखा- लोग कहते हैं भारत जाग गया है । कब जागा , मुझे तो पता ही नहीं चला । किसानों की आत्महत्याओं , बेरोजगारों की कुंठा , उद्योगों में छँटनी के बीच भारत उदय का उत्सव मनाती सरकार को देखकर यही कहने की इच्छा होती है ।
दरअसल गरीब मुल्कों में लोगों की नजर सच्चाई से हटाकर झूठे गौरवबोध की दिलासा का यह तरीका बेहद पुराना है । जनसंख्या में औरतों का अनुपात घटता जा रहा है , उन पर अत्याचार, उनकी हत्या बढ़ रही है, कोई बात नहीं । सबसे अधिक विश्व सुंदरियाँ भारत में ही पैदा हो रही हैं । दुनिया में भारतीय स्त्री सौंदर्य का डंका बज रहा है । जो लोग उत्पीड़न वगैरह की बात कर रहे हैं वे भारत उदय का अपमान कर रहे हैं ।
खिलाड़ियों को बुनियादी सुविधायें तक नहीं मिल पातीं । कौन कहता है ? क्रिकेट में छक्के पर छक्के उड़ाती भारतीय टीम को देखिए । विश्व स्तर पर भारत की खेल क्षमता का लोहा माना जा रहा है और आप धावकों, तीरंदाजों और हाकी खिलाड़ियों की बात कर रहे हैं !
क्रिकेट तो न सिर्फ़ अन्य सभी खेलों को पीछे धकेलकर खेल का बादशाह बन बैठा है बल्कि फ़िक्सिंग स्कैंडल के बाद भी पैसों का सबसे मुनाफ़ेवाला निवेश बना हुआ है । बाजार के दुलारे हमारी टीम के ग्यारह खिलाड़ियों पर देश के सम्मान को बढ़ाने और पाकिस्तान के साथ खेलते हुए युद्ध में पराजित करने का सुख प्रदान करने की भी जिम्मेदारी आ गई है ।
क्रिकेट की कमेंटरी और रिपोर्ट में जो भाषिक हिंसा शुरू हुई थी उसे अब सिद्धू वाणी ने नई ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया । फ़िल्मों की दुनिया में भी सबसे अधिक फ़िल्में बनाने का गौरव देश को हासिल है । इसलिए हिंदी फ़िल्मों की अंदरूनी कमजोरियों की आलोचना मत करिए । अभी तो बालीवुड हालीवुड से टक्कर लेने में व्यस्त है ।
यह सिलसिला परमाणु विस्फोट के साथ शुरू हुआ था । तब मरे एक मित्र ने टिप्पणी की थी कि यदि भिखारी परमाणु बम लेकर भी भीख माँगे तो उसकी बुनियादी हैसियत में फ़र्क नहीं आयेगा । तब सैन्य औद्योगिक परिक्षेत्र को बेरोजगारी का इलाज बताया गया था । अब सारी आशा आउटसोर्सिंग पर आकर टिक गई है । मानो रात रात भर जागकर अमेरिकी और अंग्रेज उपभोक्ताओं की दिक्कत का समाधान प्रस्तुत करना और बदले में बीस पचीस हजार रुपया महीना कोई स्थायी और सम्मानजनक रोजगार हो ! इसमें भी कुछ लोग यह कहकर मानसिक क्षतिपूर्ति तलाश रहे हैं कि पहले उन्होंने हमारे उद्योगों को तबाह कर हमारे देश को लूटा था । अब उनके रोजगार छीनकर हम उनसे कीमत वसूल कर रहे हैं । इसे सैद्धांतिक तौर पर अनौपनिवेशीकरण कहा जा रहा है और उत्तर औपनिवेशिकता का वाग्जाल बुना जा रहा है । कथित रूप से यह प्रक्रिया अंग्रेजी लेखन से शुरू हुई और अब अंग्रेजी बोलने से एक कदम और आगे बढ़ी है । इसीलिये भूख, गरीबी, मेहनत और रतजगे से थकी आबादी के लिए सरकार का नारा है - पस्त रहो मस्त रहो !

1 comment:

  1. गुरुजी बहुत अच्छा हो रहा है आपका ब्लॉग।

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