Wednesday, December 22, 2010

दिल्ली का एक प्रतिष्ठित स्कूल

दिल्ली के एक स्कूल से अभी लौटा मन पर एक अवसाद है इतना अनुशासित कई घंटों तक शायद ही कभी रहना पड़ा हो मजा यह कि मुझ पर कोई अनुशासन नहीं लादा गया था लेकिन कुलीनता की हिंसा ने मन में भय को जन्म दे दिया था लगा जहाँ बच्चों को पेशाब तक करने से उतनी देर के लिये रोक दिया गया है जब तक कार्यक्रम चल रहा है वहाँ अगर मैं बीच में उठा तो क्या पता इस उम्र में किसी नकचढ़ी अध्यापिका से डाँट खा बैठूँ

गया तो यह सोचकर था कि दिल्ली के स्कूलों में से एक प्रतिष्ठित स्कूल का हाल देख आऊँ यात्रा के शुरू में ही जिनकी कार में बैठकर गया सामने के शीशे में उनकी भौहों में बल दिखाई देते रहे कार से मेरा खौफ़ बहुत आधारहीन कभी नहीं लगा इस यात्रा में भी नहीं स्कूल के सामने उतरते ही भव्यता का डंडा सिर पर बजने लगा था कार्यक्रम में समग्र कानवेंटियाई महौल में हिंदी की नुमाइशी उपस्थिति संस्कृतनिष्ठ हिंदी पर जोर देकर ही लागू हो सकती थी सो हुई बच्चे ऐसी हिंदी बोल रहे थे जो उनके माहौल से निकली हुई लगती ही नहीं थी पेशाब कहने में ऐसी कौन सी असभ्यता है कि वाशरूम सुनाई पड़ता रहा कार्यक्रम के दौरान बातचीत सा करने वाले बच्चों के पास कोई कोई अध्यापिका पहुँच जाती फिर तो उंगली होठों पर रखी नहीं गई कि बच्चे की जुबान हलक में अटक जाती सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश के बाद मारपीट पर तो रोक लगी दिखती है लेकिन शिक्षकों की बुनियादी सोच में बदलाव नहीं आया है इस खामोश हिंसा के मुकाबले अपने बचपन में खाई मार आज अच्छी लगी उसमें इतना जोश नहीं था हम हल्ला मचाते उसे अनुशासनहीनता नहीं माना जाता था अध्यापकों में एक सहनशीलता थी वे सामुदायिक जीवन के अंग थे इस समय तो ऐसा लगता है मानो अगर कोई बच्चा बोल पड़ा तो उसकी जुबान काट ली जायेगी

मर गये रवींद्रनाथ यह कहते हुए कि बच्चे को स्वतंत्रता दीजिये लेकिन स्वतंत्रता तो हम शिक्षकों का विशेषाधिकार है उसे हम अपने से छोटे लोगों को कैसे दे सकते हैं क्रोध भी आया अपनी बेबसी पर खैर अपना विरोध दर्ज किया लेकिन इन अर्धशिक्षित मूर्खों की टोली पर इससे असर थोड़े ही पड़ता है

No comments:

Post a Comment