Tuesday, May 13, 2025

मेरे लिखे को आलोचना कहेंगे?

 

                    

                                       

इस पुस्तक के प्रकाशन के अवसर पर मेरे सामने यह सबसे बड़ा सवाल है अगर आलोचकों की मेधा देखी होती तो आलोचक होने और आलोचना लिखने का दावा करना आसान था । बहुत करके इसे साहित्य के साथ संवाद की आत्मकथा कहा जा सकता है । इस आत्मकथा की शुरुआत में एक दृश्य की याद सबसे चटक है । बंगाल से उखड़कर बिहार से सटे पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक जिले गाजीपुर में हजार की आबादी के छोटे से गांव के बड़े आंगन वाले घर के एक कमरे की खिड़की में बैठे बालक के हाथ मेंनिर्मलाउपन्यास है । यह खिड़की गली में खुलती थी । उस छोटे से गांव के घरों के भीतर की ऊमस भरी दुनिया से बाहर की दुनिया इस गली के जरिए ही खुलती थी । इस गली से साड़ी, चूड़ी और बर्फ के फ़ेरीवालों की आवाजें आतीं तो रात में कभी गाली बकने वाले एक सज्जन की रंगीन भदेस भाषा भी कानों में पड़ती । अक्षर ज्ञान उस बालक को बंगाल में हो चुका था । सात साल की उम्र में जब वह घर आया तो इसी अक्षर ज्ञान के बूते उसका नाम कुछ ऊपर के दर्जे में लिखा गया । बंगाल में रहते हुए बाहर की दुनिया में बोलने की भाषा तो स्थानीय थी लेकिन माता-पिता के भोजपुरिहा होने से घर में बातचीत की भाषा भोजपुरी और पढ़ने की भाषा हिंदी रही । लौटकर आने के बाद भाषा तो अपनी जैसी मिल गई लेकिन संस्कृति की भिन्नता ने अकेले रहने की आदत डाल दी । अकेलेपन का साथ किताब से भरने लगा । बड़े भाई काशी हिंदू विश्वविद्यालय में विद्यार्थी थे । उनके पास जाने कहां से पत्रिकाओं का जखीरा एकत्र हो गया था । उनमें विमल मित्र के किसी उपन्यास का धारावाहिक प्रकाशन हुआ था । उनमें छपी देश विदेश की रोचक जानकारियों को सुनता गुनता रहता । साथ के बच्चे इसके लिए मजाक भी उड़ाते लेकिन अपनी तो वही दुनिया थी । उनसे कुछ ऊपर की चीज इस उपन्यास की शक्ल में हाथ लगी थी । यह जो उपन्यास था उसे बड़े भाई ने बहन को उपहार में दिया था क्योंकि उसका नाम ही उपन्यास का शीर्षक था । न केवल पूरे पूरे वाक्य पढ़ लेता बल्कि उनका अर्थ भी समझ आता था । अब याद आता है उसका कुल अर्थ आंसू थे । निगाह धुंधली पड़ती तो हथेलियों से पोंछता और डूबकर पढ़ता जाता । शायद तबसे ही देख, सुन या पढ़कर आंसू आते हैं, अन्यथा नहीं । बहन उम्र में सात साल बड़ी रही होगी । थोड़ा पढ़ी लिखी भाभियों और सहेलियों की उसकी दुनिया में गुलशन नंदा, रानू और प्रेम वाजपेयी के सामाजिक उपन्यास बेहद लोकप्रिय थे । सब कुछ भकोस जाने की आदत के चलते उन्हें भी चाट जाता । अड़ोस पड़ोस के कालेज जाने वालों के हाथ में जासूसी उपन्यास भी होते । उनका भी पारायण करता । उम्र बढ़ी और मेरी दुनिया में चचेरे भाई दाखिल हुए । उनके साथ कार्टून की किताबें, रूसी कथाकार और समाचार विचार की पत्रिकाओं का आगमन हुआ ।

अब तक के बयान से आपको भ्रम हो सकता है कि यह बालक बेहद सभ्य और शालीन था । असलियत इससे पूरी तरह उलटी है । शरीर से कमजोर और कम उम्र में बड़े लोगों की संगत की चाहत से काफी कड़वे अनुभव भी हुए जिनके चलते स्वभाव में विद्रोह घनीभूत होकर बैठ गया । बहुत बाद में जाना कि नागार्जुन जब मैथिली शरण गुप्त से मिलने गए तो छोटे भाई सियाराम शरण ने सूचना देते हुए बोलाजहर को पोटलो आयो हैतो संगत की गुणवत्ता से आत्मा तृप्त हो गई । शुक्र है कि विद्रोह ने नशे की राह नहीं पकड़ी । इस इलाके में सिगरेट, पान और खैनी तक ही कदम पहुंचे । उम्र बढ़ने पर थोड़ा आगे गए लेकिन थोड़ा ही । स्कूली जीवन में गांव के उन्हीं सहपाठियों का साथ रहा जिनसे कभी बनी नहीं । उन लोगों की दुनिया दलितों और कमजोरों पर आक्रामक दबंगई से बनी दुनिया थी । विद्रोह ने बाद में गांव में दलितों और पिछड़ों के साथ मिलकर नुक्कड़ नाटक की टीम गठित करने की राह अपनाई । उसने भी साहित्य में प्रवेश करने का झरोखा मुहैया कराया । स्कूल पूरा करने के बाद कालेज गया तो दुनिया बड़ी हुई । छात्र संघ की मांग के लिए हुई हड़ताल में शामिल रहा और बाद में उसमें सांस्कृतिक सचिव चुना गया । हड़ताल के दौरान गांव के एक विद्रोही साथी के लिखे पर्चे की हस्तलिखित प्रतियों का कालेज में वितरण हुआ । अब वे इस दुनिया में नहीं हैं । वे भी बंगाल से गांव आए थे और शायद इसके चलते ही मन मिजाज मिलता रहा होगा । उनके साथ गांव में लाइब्रेरी खोलने के लिए चंदा एकत्र किया था । लाइब्रेरी के लिए दिल्ली के प्रकाशकों से किताबें मंगाई गई थीं । हो सकता है उनमें से कुछ को पढ़ा भी हो । क्रांतिकारी साहित्य तो पढ़ने ही लगा था । शायद उसी समय राहुल सांकृत्यायन की लिखी मार्क्स की जीवनी पढ़ी । देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय संपादित ‘जानने योग्य बातें’ के सारे खंड भी पढ़ गया । उसी समय थोड़ा बहुत आचार्य रजनीश को भी देखा । इन सबका बहुत गहरा असर पड़ा ।                  

ग्यारहवीं से पहले बस इतना ही रहा होगा । ग्यारहवीं में बनारस गया तो नुक्कड़ नाटक की ‘अभियान’ नामक टीम में शामिल हुआ और श्रेष्ठ रूसी साहित्य के साथ घनिष्ठ परिचय हुआ । नाटक से पहले गाने के लिए गोरख पांडे, शैलेंद्र, मकदूम और अन्य तमाम गीतकारों के लेखन को याद किया । अपनी उम्र के सब युवाओं की तरह कविता लिखने से शुरुआत की लेकिन कविता कभी काबू में नहीं आई । एक समय छपने के लिए पहल में भेजी थी लेकिन लौट आई तो किसी से जिक्र किए बिना इस मामले में खुद को असमर्थ मान लिया । हाल तक भी इस विधा की पेचीदगी खुलती नहीं, इसलिए जिनको उसका सौंदर्य खुल जाता है उनसे प्रचंड ईर्ष्या होती है । विचारों की दुनिया सबसे अधिक आकर्षित करती रही है । साहित्य के भीतर विचारों के सबसे बड़े प्रयोक्ता रामचंद्र शुक्ल थे इसलिए वे चुनौती की तरह अपनी ओर खींचते रहते थे बनारस बहुत समृद्ध जगह है वहां रहते हुए त्रिलोचन, नामवर सिंह, गोरख पांडे, शम्सुल इस्लाम और रामविलास शर्मा से भेंट मुलाकात हुई अंग्रेजी सीखने के लिए इंडियन एक्सप्रेस में भागलपुर आंखफोड़वा कांड की रिपोर्टों का हिंदी अनुवाद करता था कुल मिलाकर यह कि सीमांत पर रहते हुए दोनों ओर का नजारा लेना प्रिय काम रहा है । सीमा की कैद कभी मंजूर नहीं रही । क्लास में कम, उसके बाहर अधिक सीखा समझा प्रेमचंद की जन्म शताब्दी के मौके पर तेलुगु कवि ज्वालामुखी और स्वामी अग्निवेश को पहली बार देखा बनारस का वह जीवन अनुभवों की विविधता के लिहाज से बेहद प्रेरणास्पद रहा गोरख पांडे ने जब दिल्ली में आत्मघात किया था तो जो लिखा वही पहला प्रकाशित लेख था जिसे आलोचना कहेंगे उसकी यही शुरुआत थी

थोड़े विचलन भी आए जिनका कोई अफसोस कभी नहीं रहा । उनके चलते जीवन को कुछ अधिक ही विस्तार से देख सका । बहरहाल सफर का अगला पड़ाव दिल्ली था । वहां जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रवेश हुआ । ताल्सताय कायुद्ध और शांतिकक्षाओं की शुरुआत से पहले पढ़ गया । किसी समय मार्खेज को पढ़ना शुरू किया तो उपन्यास लेखन की एक नई दुनिया ही खुल गई । साहित्य को उसके व्यापक संदर्भों में देखने समझने के प्रति विश्वास पैदा हुआ । इस व्यापकता से साहित्य की समाज में जगह का पता चलता है । सामाजिक हलचलों से उसके रिश्ते भी स्पष्ट होते हैं । अध्ययन की औपचारिक समाप्ति के बाद अध्यापन का समय आया तो ये सारे अनुभव काम आए । उसके लिए जो लिखा उसे भी अपने काम का हिस्सा मानना उचित लगता है । शुद्ध आलोचना जैसी कोई चीज नहीं होती । उसके साथ समीक्षा आदि का साझा हमेशा रहता है । जिनके बारे में लिखा उनको भी किसी सीमा में बांधना मुश्किल है ।

हिंदी आलोचना की लम्बी परम्परा के बावजूद उसे स्थिर नहीं मान सकते । उसकी अस्थिरता ही उसमें नए नए लोगों के दाखिले की जगह बनाती है । जीवन लगातार बदलता रहता है इसलिए उसका चित्रण भी लगातार बदलना निश्चित है । इस चित्रण की समझ भी इसीलिए स्थिर नहीं रह सकती । स्थिरता से कोई भी वस्तु मरने लगती है । उसकी जीवंतता और नवीकरण के लिए अस्थिरता बहुत आवश्यक होती है । साहित्य के भीतर लक्षण निरूपण की चाहत बहुत ही गहरी होती है । बहुधा इसका शिकार आलोचना की धारणा भी हो जाती है । जब भी ऐसा होने लगता है तो प्रचलन से ऊर्जा लेकर उसे विस्तारित करना पड़ता है । सौभाग्य से हिंदी साहित्य अब भी अध्यापन तक ही सीमित नहीं है । समाज में उसकी भूमिका लगातार नए नए रूप पकड़ती है । जड़ रुचि पर लगातार बदलाव हेतु प्रहार होते रहते हैं । हदों के बाहर की इन आवाजों को सुनते रहने से समझ का परिष्कार तो होता ही है, सृजन के नए रूपों की व्याख्या के लिए लगातार नए उपकरणों की तलाश भी बनी रहती है । इन सब कारणों से लिखे को आलोचना कहना या खुद को आलोचक समझना आसान नहीं रहा । बीच बीच में ऐसा करने का लोभ होता है लेकिन तत्काल त्रिलोचन जैसे किसी मनुष्य की याद हो आती है जिन्होंने लिखा बहुत कम लेकिन पूरा विश्वविद्यालय अपने भीतर समाए रहते थे । किसी भी अध्येता के लिए ऐसे पुरखों की दिमागी मौजूदगी जरूरी होती है जो उसे विनम्र होना सिखा सकें । जिस सीमा के भीतर वह बंधा रहता है उसके बाहर की विराट दुनिया सचमुच इतने प्रतिभाशाली और अध्यवसायी लोगों से भरी है कि उनसे अपरिचय ही प्रचंड दरिद्रता लगती है ।

किस मुख से आलोचना लिखने का दावा करें? भाषा में एक शब्द तक नहीं जोड़ सके, अक्षर जोड़ने की तो कल्पना भी नहीं की । पढ़ा वही जो दूसरों ने लिखा । समझ बनने में भी तमाम लोगों से बातचीत का भारी योगदान है । इन लोगों में पत्रकार और राजनेता सबसे अधिक रहे हैं और उन सबकी पढ़ाई से हमेशा चकित हुआ हूं । कुछ मित्र तो साधुओं की संगत को भी काफी लाभकर बताते हैं । बचपन में की थी और लाभ हुआ भी लेकिन बाद में ऐसा मौका नहीं मिला लेकिन उनकी सामाजिक उपयोगिता का कायल हूं । अपनी जिंदगी के तयशुदा ढर्रे पर चलने में मगन हम जानते भी नहीं कि साहित्य और उसकी व्यावहारिक समझ का दायरा कितना दूर तक फैला हुआ है ।

जीवन की आलोचना प्रेमचंद को साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा प्रतीत होती है । आलोचना के लिए एक पूरा माहौल जरूरी होता है । बहुत पहले से शायरों और अदीबों के लिए कुछ अलग कायदों की वकालत होती रही है । आलोचना के जरिए ही सुधार और बदलाव की प्रेरणा प्राप्त होती है । अगर समाज को बेहतरी की ओर जाना है तो उसे आलोचना का स्वागत करना होगा । कभी कभी यथास्थिति या प्रतिक्रिया का दौर आता है तो उस समय आलोचनात्मक विवेक का क्षरण होता है । समूचे माहौल में आलोचना की अनुपस्थिति में साहित्यिक आलोचना का जीवित रहना भी मुश्किल हो जाता है । बिना शक यह समय वैसा ही समय है । इस समय आलोचना को जिंदा रखना किसी भी संवदनशील व्यक्ति का सामाजिक दायित्व है ।

ऊपर जो भी लिखा उससे साफ है कि समूची समझ और लेखन की तैयारी विद्यार्थी जीवन में हुई । असल में नौजवानों की प्रत्येक नई पीढ़ी अपने समय के सारे सवालों से टकराती है । इसी किस्म के टकराव के चलते ही उस पीढ़ी का निर्माण होता है जिसमें एक सामूहिक चेतना और समझ बनते हैं । यह समझ केवल साहित्य की नहीं होती वरन समूचे परिवेश से उपजे सवालों की होती है । साहित्य उसका एक हिस्सा होता है । इसी समझ के अंग के रूप में हम आलोचना की भाषा भी सीखते हैं । हमारी पहले की पीढ़ी में भी यह प्रक्रिया चली, हमारी पीढ़ी में भी चली और वर्तमान पीढ़ी के भीतर भी चल रही है । इसके चलते कभी कभी आज के विद्यार्थियों की बेचैनी से ईर्ष्या होती है । उनके समक्ष जिस भाषा में जीवन की चुनौतियां उभर रही हैं उनका जवाब खोजने में उनकी मदद करने की इच्छा से भी इन लेखों को लिखा गया । इसीलिए ठीक ठीक अकादमिक मानकों पर इनका खरा उतरना मुश्किल है ।

जिस तरह के दबाव अध्यापकीय जीवन में पैदा हुए हैं उनके असर से अछूता रहने का दावा नहीं कर सकता लेकिन कोशिश रहती है कि उससे भाषा या भाव के मामले में कम से कम प्रभावित हों । इनमें से किसी लेख को अंतिम न माना जाय । ये सभी एक असमाप्त यात्रा की निशानियां हैं । इस मामले मेंकविता क्या हैनिबंध आदर्श रहा जिसके दसेक रूप मिलते हैं । जैसे समाज में उसी तरह साहित्य में लगातार सुधार चलते रहना चाहिए । दिमाग में जो बात है उसे पूरी तरह व्यक्त करना बहुत कठिन होता है ।गिरा अनयन, नयन बिनु बानी। यही मानकर इन्हें देखा और परखा जाए ।                  

                       

         

                                       

                       

 

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