2024
में
प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से पाल नार्थ और पाल राइटेर के संपादन में मार्क्स की ‘कैपिटल: क्रिटीक आफ़ पोलिटिकल
इकोनामी
’ के
पहले खंड का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ । अनुवाद पाल राइटेर ने किया है । इसकी प्रस्तावना
वेन्डी ब्राउन ने और पश्चलेख विलियम क्लेयर राबर्ट्स ने लिखा है । यह अंग्रेजी अनुवाद
उस जर्मन संस्करण से किया गया है जिसे मार्क्स ने खुद तैयार किया था । वेन्डी
ब्राउन का कहना है कि पूंजीवाद का आगमन कुछ सौ साल पहले ही हुआ लेकिन मनुष्य की
जरूरतों को संतुष्ट करने की उसकी उत्पादन पद्धति और संपत्ति पैदा करने की उसकी
क्षमता ने धरती के वर्तमान और भविष्य के अस्तित्व को अधिक व्यापक और गहरे रूप में
प्रभावित किया है । धरती की समूची सतह को प्रभावित करके यह समूचे जीवन हेतु
सम्भावना और चुनौती प्रस्तुत करता है । आठ अरब मनुष्यों के लिए अमीरी और सुख से
लेकर गरीबी और निराशा तक को जन्म देता है । सभी सामाजिक संबंधों और कर्ताओं, काम
और आराम के इंतजामात से लेकर नातेदारी, निकटता और अकेलेपन तक सब कुछ में समाया हुआ
है । वर्ग के अलावे नस्ल और लिंग को यह निरंतर परिवर्तनशील शोषक तरीकों से निर्मित
और गोलबंद करता है । तकनीकी क्रांतियों को इससे ताकत मिलती है और अतीत के समस्त
छिटकाये अपशिष्ट को पूरी धरती पर चक्कर लगाने के लिए बिखेर देती है । इसने
एंथ्रोपोसीन को जन्म दिया है । इसमें मानवीय और प्राकृतिक इतिहास स्थायी तौर पर
आपस में जुड़ गये हैं और इसकी गति इतनी त्वरित है कि पचास साल में जैव ईंधन के
अंधाधुंध इस्तेमाल ने छठवें प्रलय के हालात पैदा कर दिये हैं । वित्त, कृत्रिम
बुद्धि और डिजिटल दुनिया के तमाम अन्य ऐसे आविष्कार हुए हैं कि उनके आविष्कारक ही
तेजी से उनके गुलाम और सेवक बनते चले गये हैं । सामाजिक विज्ञानों में पूंजीवाद को
ऐसी अर्थव्यवस्था माना जाता है जो मुक्त प्रतियोगिता और मुनाफ़े की प्रेरणा के आधार
पर संगठित है लेकिन इस धारणा में दुनिया को बनाने और बरबाद करने की उसकी क्षमता की
जगह नहीं बनती । आखिर किस ताकत की बदौलत वह धरती के समस्त जीवन को ही अपने घेरे
में खींच लाता है, उसमें व्याप्त होकर उसे बदल भी डालता है । मार्क्स के तईं इस
धारणा की क्षीणता और सतहीपन न केवल पूंजीवाद की क्षमता और लूट पर परदा डालता है
बल्कि उसके अस्तित्व की परिस्थितियों की भी उपेक्षा करता है । इससे पूंजीवाद के
घटक और उससे रूपायित सामाजिक संबंधों, सामाजिक कर्ताओं, उसके द्वारा निर्मित,
रूपांतरित, उद्ध्वस्त और परित्यक्त व्यवस्थाओं का भी पता नहीं चलता ।
वेन्डी
का कहना है कि पूंजीवाद के शोषक चरित्र और सब कुछ को उपभोग्य बनाने की प्रवृत्ति
को चुनौती तो मार्क्स ने दी ही, इससे भी आगे जाकर अर्थशास्त्र को बाजार तक सीमित
रखने की भी आलोचना की । अर्थशास्त्र को ऐसा ज्ञान और व्यवहार बना दिया गया था जिसे
सामाजिक संबंधों, इतिहास, कानून, परिवार के रूपों, राजनीति, पुलिस व्यवस्था, धर्म,
भाषा, प्रतिनिधित्व और मानसिकता से स्वतंत्र कल्पित किया जाता था । इसकी जगह पर
मार्क्स ने राजनीतिक अर्थशास्त्र की ऐसी समझ विकसित की जिस पद्धति के सहारे मनुष्य
आपस में मिलकर समूची दुनिया का निर्माण करते हैं । इसके तहत प्रकृति का रूपांतरण
होता है, श्रम विभाजन और स्वामित्व का संगठन होता है, संपत्ति का उत्पादन होता है,
जीवन पद्धति, संस्थान और सामाजिक रूपों आदि का निर्माण होता है । अर्थशास्त्र के
अनुशासन में तब और अब भी बाजार को इस समूची दुनिया से अलगाकर उसका अध्ययन किया
जाता रहा है । मार्क्स की नजर में पूंजीवाद की समझ का मतलब उसकी समग्र स्थितियों,
जरूरतों, अभिप्रेरणा, कार्यपद्धति, गतिकी, अंतर्विरोध, संकट, गतिपथ और सबसे अधिक
दुनिया को बनाने और बरबाद करने की उसकी क्षमताओं की सही पकड़ था । इसका मतलब यह
देखना था कि पूंजी किस तरह न केवल खास किस्म के बाजारों, तकनीकों और उद्योगों को
जन्म देती है बल्कि वर्गों, परिवारों और राजनीतिक संस्थाओं, नस्ली और लैंगिक
व्यवस्थाओं, प्रकृति के साथ संबंधों, देश और काल के नये रूपों तथा कानूनी धाराओं
और टकरावों को भी पैदा करती है । अपने जन्म के साथ ही उसने इस क्षमता का प्रदर्शन
किया जब कारखानों और शहरों को भरने के लिए उसने श्रमिक को जमीन से जुदा किया और अब
संसार भर में बिखरे उत्पादन के दौर में उन्हें फिर खाली किया जा रहा है । जैसे
जैसे पूंजीवाद का विकास हुआ उसने मनुष्य की जरूरत की सारी चीजों को विनिमय मूल्य
के स्रोत में बदल दिया और वित्तीकरण के साथ उनकी सट्टाबाजारी शुरू कर दी ।
प्रत्येक नये दौर में नयी जीवन पद्धति के साथ वह धरती के
समस्त जीवित और जीवाश्मों को खोदकर निकालता है तथा उसे माल और मुद्रा में बदल देता
है । इस क्रम में वह बहुतेरे इलाकों, शासनों, मानवेतर प्राणियों
और भूदृश्यों को कूड़े में डाल देता है ।
मार्क्स जानते थे कि उत्पादन और विध्वंस, खनन दोहन और शोषण की यह प्रक्रिया एक साथ दुनिया को बनाती और बरबाद करती है
। इस जटिल व्यवस्था को देखना या समझना आसान नहीं है । कारण कि इसका संचालन आजादी के
नाम पर होता है । मुक्त बाजार, स्वतंत्र मनुष्य तथा श्रम,
पूंजी और मालों की अबाध आवाजाही इसके नारों की तरह हैं । पूंजी की ताकत
और पहुंच को समझने के लिए राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र को विस्तारित और गहरा करना
होगा । उसे अर्थशास्त्रियों की गणना आधारित समझ के मुकाबले ऐतिहासिक, दार्शनिक, सामाजिक और सैद्धांतिक परिधि के भीतर लाना
होगा । इसके लिए बाजार के शोरगुल से दूर हटकर न केवल संपत्ति के उत्पादन स्थल कारखाने
में जाना होगा बल्कि ऐसा ढांचा भी बनाना होगा जो बाजार निर्मित विकृति और भ्रम की खोज
खबर ले सके । समझना होगा कि पूंजीवाद की जटिल और विभक्त कार्यपद्धति क्यों राजनीतिक
अर्थतंत्र की पूर्व पद्धतियों के मुकाबले कम नजर आती है और कैसे आजादी का इसका नारा
मानव इतिहास के सर्वाधिक दमनकारी तंत्र पर परदा डाल देता है । जो लोग पूंजीवाद को बाजार
तक सीमित रखते हैं वे इसकी जरूरत नहीं महसूस करते । उनके लिए तो क्रेता और विक्रेता,
मांग और पूर्ति, मुद्रा और कीमत ही सारभूत और दृश्य
चीजें हैं ।
इसलिए पूंजी के विस्तार, ताकत, जटिलता और प्रच्छन्नता को
जाहिर करने के लिए इसके विवरण की जगह राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना भी आवश्यक थी
। यही ‘पूंजी’ का उपशीर्षक है । इसीलिए मार्क्स के लिए राजनीतिक अर्थशास्त्र का
अर्थ दोहरा था । वह ठोस और वास्तविक व्यवस्था तो थी ही, उसका ज्ञानात्मक व्यवहार
भी था । ये दोनों एक दूसरे में गुंथे होने के साथ एक दूसरे को जन्म भी देते हैं ।
जो ठोस व्यवस्था थी उसकी आलोचना में पूंजीवाद की कार्यपद्धति के साथ उसकी
अकार्यता, उसके संरचनागत संकटों और बाजार के परे उसके प्रभावों का भी मुजाहिरा
शामिल होना था । राजनीतिक अर्थशास्त्र के ज्ञान की आलोचना में उसके लोकप्रिय और
विद्वत्तापूर्ण रूपों की आलोचना भी होनी थी । पूंजीपतियों की भाषा के साथ ही
विद्वानों की भाषा का भी विश्लेषण करना था । साथ ही पत्रकारों की भाषा का भी
विवेचन करना था । विद्वानों की आलोचना में पद्धति, धारणा और विषयवस्तु की भी
आलोचना होनी थी । सिद्ध है कि मार्क्स के सामने पहाड़ जैसा काम था । मार्क्स तो अपने
अध्ययन के दिनों से ही आलोचना के प्रेमी थे । लेकिन उनके राजनीतिक अर्थशास्त्र के
इस अध्ययन में इस आलोचना का नया रूप सामने आया । मार्क्स संग्रहालयों से जूझना
जानते थे । वे जानते थे कि राजनीतिक अर्थशास्त्रियों की धारणाओं के सहारे उनकी सतह
के नीचे कैसे देखा जाय । उन्हें प्रदत्त सूत्रों को उलटना भी आता था । राजनीतिक
अर्थशास्त्र के सरल या अखंड प्रतीत होने वाले तत्वों की बहुपक्षीयता को भी वे
उजागर कर पाते थे । वे आभासी रूप से सुप्त चीजों में निहित संबंधों और
प्रक्रियाओं, इतिहासों, हिंसा और क्षमताओं को खोज लेते थे । चीजों को वे इस तरह
बोलने को मजबूर कर सकते थे कि वे किसी व्यवस्था के कारक घटकों की तरह प्रकट होने
लगें ।
मार्क्स ने युवावस्था से ही जोर देना शुरू कर दिया था कि
लोकप्रिय या विद्वत्तापूर्ण तमाम बुर्जुआ लेखन जिस दुनिया से उपजता है उसके साथ
अत्यंत निकट का रिश्ता कायम रखता है लेकिन वह रिश्ता सीधा नहीं होता । अगर उसकी
ताकत और उसे कायम रखने वाले भ्रमों को उजागर करना है तो इस रिश्ते की भी छानबीन
करनी होगी । इस तरह आलोचना तिहरा काम करती है । सबसे पहले वह व्यवस्था के चिंतन और
लेखन की आलोचना होती है । फिर ताकत के वास्तविक तंत्र या गतिकी की आलोचना होती है
। साथ ही वह बौद्धिक और व्यावहारिक, या मार्क्स के शब्दों में कहें तो वैचारिक और
भौतिक जीवन के बीच रिश्तों की आलोचना भी होती है । इस किस्म की आलोचना के जरिये ही
बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र और राजनीति सिद्धांत के वे महत्वपूर्ण पहलू नजर आते
हैं जिसमें यह विकृत रूप प्रतिबिंबित होता है । इसीलिए मार्क्स के चिंतन में
शास्त्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्री हमेशा मौजूद रहे हैं । एक ओर तो उन लोगों ने
अपूर्ण ही सही मूल्य का श्रम सिद्धांत विकसित किया जिससे श्रम और पूंजी के संबंध, मुनाफ़े
का स्रोत, समूची व्यवस्था के संचालन, विस्तार या सामयिक संकट के कारण जैसे
बुनियादी सवालों का उत्तर तो नहीं मिला लेकिन उसकी इस अपूर्णता के कारण ही पूंजी
के प्रकट रूप में निहित पर्देदारी का संकेत मिला और यह अंदाजा हुआ कि इसके
वास्तविक चरित्र के उद्घाटन के लिए कैसा आलोचना सिद्धांत चाहिए । इसी कारण ‘पूंजी’
में इन सबका गहन विश्लेषण हुआ ।
इस तरह राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्सी आलोचना
तत्कालीन प्रभावी राजनीतिक अर्थशास्त्रीय चिंतन की आलोचना होने के साथ ही जिसका
विश्लेषण किया उस व्यवस्था की आलोचना भी है । इसके अतिरिक्त यह पूंजी के आत्म
प्रतिनिधित्व की भी आलोचना है । साथ ही वह इस आत्म प्रतिनिधित्व से उपजी और उसे बल
प्रदान करने वाली लोकप्रिय राजनीतिक विचारधाराओं की आलोचना भी है । इनमें बुर्जुआ
विचारों के साथ ही काल्पनिक समाजवाद जैसे वामपंथी विचार भी थे । इस आलोचना की
जरूरत इसलिए थी ताकि पूंजीवाद क्या है के साथ ही वह जीवन, चिंतन, भाव, संस्थान आदि
के साथ क्या करता है को भी खोजा और बताया जा सके । उसके ऐतिहासिक गतिपथ और सीमाओं
को उजागर किया जा सके तथा यह भी पता चले कि धरती की सतह के साथ उसका रिश्ता क्या
है ।
मार्क्स के इस ग्रंथ का सबसे बड़ा योगदान आम तौर पर इस
रहस्य का उद्घाटन माना जाता है कि पूंजी जिस श्रम का शोषण करती है उसका जमा हुआ
रूप होती है तथा पूंजीवाद इस शोषण को देश और काल के स्तर पर लगातार फैलाता है ।
मार्क्स का कथन है कि पूंजी मृत श्रम है और चुड़ैल की तरह काम करती है । जिंदा
श्रमिक का खून पीकर ही वह जीवित होती है और जितना ही अधिक उसे यह खून पीने को
मिलता है उतना ही उसका जीवन भी बढ़ता जाता है । पूंजी की जरूरत श्रमिक का अधिकाधिक
शोषण करना है । उसे यह शोषण अधिकाधिक मजदूरों का अधिकाधिक तीव्रता के साथ करना
होता है । साथ ही उसे अपने माल की बिक्री के लिए बाजार को लगातार विस्तारित करना
होता है । उसकी यह भूख अमिट होती है इसलिए उसे टिकाए रखना मुश्किल होता जाता है ।
इसके कारण आम लोग दरिद्रता के शिकार होते हैं और संपत्ति का संकेंद्रण मुट्ठी भर
लोगों के हाथ में होता जाता है । इसके चलते जो संकट पैदा होते हैं उनका समाधान
उसके खात्मे, उन्मूलन या कल्याणकारी राज्य, कर्जखोरी, नवउदारवाद, वित्तीकरण और
सरकारी हस्तक्षेप से किया जाता है । अतिरिक्त मूल्य को साकार करने या मुनाफ़े के
लिए चूंकि वृद्धि अनिवार्य शर्त है इसलिए पूंजीवादी विकास समस्त जीवन रूपों और
व्यवहारों को टुकड़े टुकड़े कर डालता है । यहां तक कि पूंजीवाद के भी पुराने रूप
इसके शिकार हो जाते हैं । यह सर्वभक्षी दानव पुराने सामाजिक रूपों, भूदासों,
जमींदारों, उद्योगपतियों, कच्चे मालों तथा धरती की समस्त संपदा को समूचे समाजों और
युगों की बौद्धिक उपलब्धियों समेत चूस डालता है । छोटी दूकान, पारिवारिक खेती, शहर
से लेकर विशालकाय उद्योग, दुर्गम वर्षावन और राज्य तक पूंजी ने जिसका भी अपनी
जरूरत के लिए निर्माण किया उसे नष्ट कर डालती है । इसी वजह से मार्क्स का यह कहना
था कि पूंजीवादी उत्पादन संपूर्ण संपदा के स्रोत, धरती और श्रमिक को बरबाद करके ही
प्रगति करता है ।
सवाल उठता है कि अगर पूंजीवाद का जीवन सस्ते श्रमिक और
सामग्री की खोज में पूरी दुनिया का चक्कर लगाना, नियमविहीन और कररहित उत्पादन और
निवेश, तैयार माल के लिए नये बाजार पर ही निर्भर है जो उसके संकट का भी कारण बनते
हैं तो इस कहानी को मार्क्स ने सीधे सरल तरीके से क्यों नहीं सुनाया जब उनके
वांछित पाठक मजदूर वर्ग से होने थे । तब फिर माल की प्रकृति से लेकर मुद्रा और
मूल्य की प्रकृति तक इस ग्रंथ के सैकड़ों पृष्ठ जटिल सूत्रों, कठिन अमूर्तनों और
लम्बी सैद्धांतिक कसरत को किसलिए समर्पित हैं । राजनीति और अर्थशास्त्र के
सिद्धांतकारों से इतनी बहस क्यों की गयी है । पूंजीवाद की उत्पादक और विनाशक
ताकतों का तीखा वर्णन करने की जगह मार्क्स ने इतना सघन विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ क्यों
लिखा । इन तमाम सवालों का जवाब यह हो सकता है कि पूंजी को राजनीतिक अर्थशास्त्र के
साथ ही सामाजिक और बौद्धिक इतिहास, राजनीति सिद्धांत, साहित्यालोचन, व्यंग्य और
नाटक की तरह भी पढ़ा जाता है । यह राजनीतिक अर्थशास्त्र का दर्शन है या सटीक ढंग से
कहें तो पूंजी की समझ के लिए दर्शन की जरूरत का बयान है । इसे यूं भी कहा जा सकता
है कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्सी आलोचना उसके प्रति अदार्शनिक रुख की
दार्शनिक आलोचना है । उनकी आलोचना है जो बाजार से परे कानून, राजनीति, सेना के साथ
भाषा, रहस्य और धर्म तक इसकी व्याप्ति के प्रति अचेत रहते हैं और राजनीतिक अर्थशस्त्र
की बात करते हुए भी श्रम, पूंजी, मूल्य, मुद्रा और राज्य जैसे उसके बुनियादी
तत्वों की ओर ध्यान नहीं देते । बिना इनके उसकी उत्पत्ति, प्रकृति और सहसंबंधों को
खोलना मुश्किल है । यह उनकी भी आलोचना है जो पूंजी की ऊपरी सतह और उसकी गहराई के
बीच रिश्ता देखने में अक्षम हैं ।
पूंजी की दार्शनिक दिशा उसकी पहली पंक्ति में ही दीख
जाती है जिसमें मार्क्स ऊपर से नजर आने वाली ऐसी व्यवस्था का उल्लेख करते हैं
जिसके विश्लेषण के जरिये वे अपनी विषयवस्तु की वास्तविक प्रकृति तक पहुंचने वाले
हैं । वे मालों के विशाल संचय के रूप में प्रकट होने वाली पूंजीवादी उत्पादन
पद्धति वाले समाज का विश्लेषण करना चाहते हैं । इसमें पूंजी अपने प्रकटीकरण के साथ
जुड़ी हुई है । यह महज कोई खोल नहीं है जिसे हटाने से सच स्पष्ट हो जायेगा । यह खोल
न तो अलग है न ही असत्य है । व्यवस्था के साथ ही संयुक्त रहते हुए भी यह उसका
रहस्यीकरण करता है । पूंजी की यह सतह जरूरी, कपटकारी और उसकी संरचना तथा गतिकी तक
ले जाने वाला संकेतक भी है । मार्क्स के हाथों यह प्रकटन और सच के साथ उसका
अविश्वसनीय संबंध ही उसकी प्रक्रियाओं और माध्यमों को समझने का अनुमानी बन जाता है
। उससे ही इशारा मिलता है कि दुनिया पर परदा डालने और उसे समरूप बनाने के बावजूद
पूंजी विभाजन और अलगाव को भी जन्म देती है । यह उत्पादन और विनिमय जैसे आर्थिक
गतिविधि के क्षेत्रों को अलगाती है तथा सत्ता और पहचान के सामाजिक और राजनीतिक
क्षेत्रों के बीच विभाजन पैदा करती है । इसी तरह वह मनुष्यों को उनके श्रम तथा
श्रमफल से जुदा करती है । वित्त को उत्पादन से, प्रबंधन को स्वामित्व से और
स्वामित्व को नियंत्रण से अलगा देती है । सबसे आगे बढ़कर यह उत्पादकों को मालिकों
से अलगा देती है । ये विभाजन और अलगाव पूंजी के अब तक के सर्वाधिक संकेंद्रण की
क्षमता के साथ विरोधाभासी रूप से बने रहते हैं । इन विभाजनों और अलगावों के कारण
पूंजी एक ऐसी छलना बन जाती है जिसके चारों ओर बुर्जुआ राजनीति सिद्धांत और
राजनीतिक अर्थशास्त्र चक्कर काटते रहते हैं ।
मार्क्स इस बात पर जोर देते हैं कि सच तक पहुंचने के लिए
यह छलना जरूरी है । पूंजी के इस आरम्भिक रूप को समझने के लिए इसकी व्याख्या आवश्यक
है । तभी उस श्रम प्रक्रिया को देखा जा सकता है जो माल के बतौर जमा हुआ है लेकिन
सतह पर नजर नहीं आता । यही हाल पूंजीवादी बाजार का होता है जहां क्रेता और विक्रेता
स्वतंत्र नजर आते हैं क्योंकि उन्हें इस रूप में बनाने वाली सारी स्थितियां अदृश्य
होती हैं । मतलब कि पूंजी को समझने के लिए उसके इस रहस्यावरण को समझना जरूरी है जो
उसके उत्पादन की खास जगह पर पैदा होता है । उनकी यह सोच सबसे अच्छी तरह वस्तुओं की
जड़पूजा के मशहूर सूत्रीकरण में प्रकट होती है । इसमें वे बताते हैं कि मनुष्यों के
बीच का खास किस्म का सामाजिक संबंध उन्हीं मनुष्यों के लिए वस्तुओं के बीच संबंध
का रूप ले लेता है । यह जड़पूजा माल उत्पादन की प्रक्रिया से अभिन्न होती है जिसमें
श्रम के उत्पाद एकबारगी माल बनते ही पूज्य वस्तुरूप प्राप्त कर लेते हैं ।
विश्लेषण की यह पद्धति मार्क्स ने पूंजी के साथ ही श्रम, माल, मुद्रा, पगार और उत्पादकता
के मामले में भी अपनायी है । उदाहरण के लिए डेविड रिकार्डो ने उपयोग मूल्य और
विनिमय मूल्य के बीच जो अंतर किया था उसे मार्क्स ने फिर से सूत्रबद्ध किया तो ये
दोनों किन्हीं दो पक्षों के लिए एक ही माल की अलग अलग कीमत मात्र नहीं रह गये
बल्कि पूंजीवादी माल ही इस पहलू के बतौर सामने आया । इसी तरह श्रम और श्रम शक्ति,
सामाजिक रूप से आवश्यक और अतिरिक्त श्रम काल, ठोस और अमूर्त श्रम के धारणात्मक विभाजन
से पूंजी संचय का रहस्य खुलता है । इसके बावजूद ये अमूर्त धारणाएं, पहलू या विभाजन
आंखों के सामने न तो प्रत्यक्ष और न ही पूंजीवादी समाज के विमर्शों में सुनायी
पड़ते हैं । इनमें से प्रत्येक के सहारे पूंजी की वास्तविकता का कोई न कोई पक्ष
खुलता है ।
इस मामले में मार्क्स जब पाठकों से बाजार का शोरगुल
छोड़कर पूंजी के रहस्य को खोलने के लिए उत्पादन स्थल पर आने का आमंत्रण देते हैं तो
अपनी खोज का सरलीकरण ही करते हैं क्योंकि कारखाने में भी मुनाफ़े और पूंजी का उद्गम
तत्काल प्रकट नहीं होता । इसके लिए ऐसे आलोचनात्मक सिद्धांत की जरूरत पड़ती है जो
दार्शनिक प्रकृति की मानव निर्मित बहुमुखी और जटिल व्यवस्था का रहस्य भेदन कर सके
। प्रथम संस्करण की भूमिका में ही मार्क्स इस जरूरत की सूचना देते हैं । वे इसके
पहले अध्याय में माल के विश्लेषण वाले हिस्से को सबसे कठिन करार देते हैं । उनके
मुताबिक मूल्य के मुद्रा में विकास वाला हिस्सा बेहद सरल है फिर भी दो हजार साल से
मानव मस्तिष्क इसे पकड़ने में कामयाब नहीं हो सका । कारण कि अलग अलग कोशिकाओं के
अध्ययन के मुकाबले समूचे शरीर का अध्ययन आसान होता है । फिर आर्थिक रूपों के
विश्लेषण में वे सूक्ष्मदर्शी और रसायनों को बल्कुल कारगर नहीं मानते । इसकी जगह
वे अमूर्तन की ताकत पर भरोसा करते हैं । उनके अनुसार श्रम के उत्पाद के रूप में
माल या मूल्य के बतौर माल ही आर्थिक कोशिका होती है । अनभ्यस्त आंखों के लिए इन
रूपों का विश्लेषण बाल की खाल निकालने जैसा होगा और असल में मार्क्स ने यही किया
है ।
वेन्डी का कहना है कि पूंजीपतियों के ऐश्वर्य के मुकाबले
मेहनतकश लोगों की दरिद्रता को समझने के लिए भी हमें अमूर्तन की इस ताकत का ही
भरपूर इस्तेमाल करना होगा । इस स्थिति की मौजूदगी और उत्पादन तथा संवर्धन को
अन्यथा समझना मुश्किल है । असल में वस्तुओं के रहस्य को खोलने के लिए मार्क्स अमूर्तन
को सूक्ष्मदर्शी या रसायनों की तरह कारगर मानते हैं । यह शुद्ध रूप से दिमागी क्षमता
है और बाहरी उपकरणों पर नर्भर नहीं है, यह वस्तुओं को बड़ा करके या अलगाकर नहीं दिखाता
लेकिन उसके प्रत्यक्ष पहलुओं के साथ परोक्ष पहलुओं को भी स्पष्ट करता है ताकि अंतर्निहित
प्रक्रियाओं को समझा जा सके । इसी अमूर्तन के बल पर मार्क्स ने पूंजी के ठोस
तत्वों और उसकी गतिकी, उनकी ऐतिहासिक और सामाजिक उत्पत्ति तथा उनके घटकों के आपसी
संबंधों को उजागर किया था । मार्क्स की निगाह में आलोचना सिद्धांत का यही काम होता
है । उनके इस ग्रंथ को इसी सिद्धांत के बतौर समझने की जरूरत है । दर्शन को
उन्होंने भौतिक दुनिया की व्याख्या के लिए इस्तेमाल किया । इस तरह उन्होंने
भौतिकवाद की अनगढ़ समझ को चुनौती दी और दर्शन को व्यवहार से जोड़ा ।
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