2025
में
रटलेज से जेमी एडवर्ड्स और ब्रायन लाइटर की किताब ‘मार्क्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों
का मकसद इस किताब को परिचयात्मक रखने का है । इसके लिए पठक से दर्शन या मार्क्सवादी
शब्दावली की पूर्वापेक्षा नहीं है । इसे रुचिकर बनाने की कोशिश की गयी है । उनका कहना
है कि मार्क्स सर्वाधिक प्रभावशाली दार्शनिक थे हालांकि अक्सर उन्हें सही नहीं समझा
गया । दार्शनिक के साथ अर्थशास्त्र,
इतिहास
और समाज सिद्धांत में भी उनका दखल था । जीते जी उन्हें थोड़ी बहुत मान्यता मिल सकी क्योंकि
उन्हें राजनीतिक कार्यकर्ता,
अखबार
के संपादक और लेखक का काम करना पड़ा । बहरहाल उनके निधन के दशकों बाद उनके लेखन से प्रेरित
क्रांतिकारी राजनीतिक आंदोलन के उभार के कारण समूचे यूरोप में उनके विचारों की प्रतिष्ठा
बढ़ती गयी । इसमें उनके जीवन के लगभग अंत में छपी ‘पूंजी’ का खास महत्व था जो
पूंजीवाद के राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में उनके लम्बे अध्यवसाय का फल था । 1917 की रूसी क्रांति ने
उनके नाम पर पहले शासन की स्थापना की । बीसवीं सदी में उनके नाम पर कायम शासन के तहत
दुनिया की तिहाई आबादी रहने लगी । इन शासनों के बाहर उनके विचारों पर सबसे गहन आलोचनात्मक
विमर्श हुआ और सबसे लम्बे समय तक असर बना रहा । सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता तो
प्रेरणा हेतु उनकी ओर देखते ही हैं समाज विज्ञान या मानविकी की कोई भी गम्भीर शिक्षा
उनके जिक्र के बिना नहीं होती । या तो उनके विचारों का अनुमोदन होता है या उन पर गम्भीर
विवाद की स्थिति बनती है । इसी कारण लेखकों ने उनके चिंतन के पांच मुख्य क्षेत्रों
का विवेचन विभिन्न अध्यायों में किया है ।
इस
क्रम में सबसे पहले ऐतिहासिक भौतिकवाद की धारणा पर विचार करते हुए लेखक कहते हैं कि
मूल तौर पर यह सिद्धांत सामाजिक बदलाव का है । जीवन भर मार्क्स इस दिशा में सोचते रहे
थे । बदलाव की इस प्रक्रिया में मार्क्स ने मनुष्य की सचेतन गतिविधि और जिन हालात में
ऐसा किया जाता है,
दोनों
को शामिल किया है । साथ ही वे इन हालात के बदलाव पर भी निगाह रखते हैं जिनमें तकनीक
की भूमिका भी होती है । मार्क्स का विश्लेषण उन वास्तविक लोगों से शुरू होता है जो
अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने और इसी प्रक्रिया में नयी जरूरतों को जन्म देने
में मेहनत के साथ लगे रहते हैं । इतिहास के प्रत्येक युग की खास उत्पादन पद्धति होती
है जो उस समय उपलब्ध कच्चे माल,
तकनीक
और श्रम विभाजन के अनुरूप गठित होती है । इससे तय होता है कि कौन और किन हालात में
उत्पादन करेगा । यह उत्पादन पद्धति अपने अनुरूप कानूनी और राजनीतिक ढांचे के साथ समाज
के आर्थिक,
राजनीतिक, नैतिक और धार्मिक चिंतन
को भी आकार देती है जो उस उत्पादन पद्धति को समर्थन देते हैं । इस तरह मार्क्स ने हमारे
विचारों का स्रोत हमारी व्यावहारिक गतिविधि में खोज निकाला । इस तथ्य को चिंतन अक्सर
भुला देता है और खुद को इन दुनियाबी गतिविधियों से बहुधा स्वतंत्र समझने लगता है ।
समाज में बदलाव आता है और अक्सर क्रांतिकारी तरीकों से आता है । मार्क्स के
मुताबिक इस बदलाव को गति तब मिलती है जब निरंतर विकासमान उत्पादक शक्तियों के लिए
आर्थिक ढांचा और तदनुरूप गठित कानूनी तथा राजनीतिक संस्थान सहायक की जगह बोझ बन
जाता है । ऐसे मौके पर उत्पादक ताकतों की समर्थक प्रवृत्तियों का सत्ता पर कब्जा
हो जाता है, वे आर्थिक ढांचे को बदल देती हैं जिनके साथ जुड़े कानूनी और राजनीतिक
संस्थान भी बदलते हैं और इसी तरह समाज की आम सोच भी बदलने लगती है ।
इसके
बाद लेखकों ने वर्ग संघर्ष की मार्क्सी धारणा पर प्रकाश डाला है । वर्ग और वर्ग
संघर्ष की मार्क्स की धारणा को लेखकों ने उनके ऐतिहासिक भौतिकवाद से जोड़ा है ।
आर्थिक व्यवस्था व्यक्तियों को विभिन्न समूहों में बांटती है । इनके सदस्य अपने
भौतिक हितों को पूरा करने के लिहाज से अवस्थित होते हैं । मार्क्स के समय के यूरोप
में केंद्रीय खिलाड़ी वे थे जो कारखानों के मालिक थे, जमीन के खासे हिस्से पर जिनका
कब्जा था, जिनके छोटे खेत थे और दूसरी ओर जो कारखानों में या जमीन पर काम करते थे
। यह ऐसा समाज नहीं था जिसमें बराबर लोगों के बीच साझे हित के लिए सामाजिक सहकार
था । अपने अपने हितों को पूरा करने के चक्कर में इनमें आपसी टकराव होता था । जो
उत्पादक शक्तियों का शोषण करने की सर्वोत्तम स्थिति में थे उनकी हैसियत शासक वर्ग
की थी । वे ही सारी राजनीतिक सत्ता पर एकाधिकार कायम किये हुए थे । फिर उस सत्ता
का इस्तेमाल वे अपनी आर्थिक स्थिति को आगे बढ़ाने के लिए करते थे । अन्य लोग मेहनत
करते थे और या तो जिंदगी को आकार देने वाले वर्गीय हालात से बेखबर थे या वर्ग
संघर्ष में अपनी भूमिका के प्रति सचेत थे । वे कुछ लाभों के लिए लड़ते थे और शासक
वर्ग के नियंत्रण को चुनौती पेश करते थे ।
इसके
बाद पूंजीवाद की धारणा पर विचार किया गया है । इसी के विश्लेषण और आलोचना के
प्रसंग में मार्क्स का नाम सबसे अधिक लिया जाता है । उनको आशा थी कि इस व्यवस्था
में वर्गों के बीच का टकराव सबसे अधिक तीखा होगा और आखिरकार कम्युनिज्म का समय
आयेगा । मार्क्स की निगाह में पूंजीवाद में पूंजीपति अपने कारखानों में पगारजीवी
श्रमिकों से ऐसे मालों का उत्पादन कराएंगे जिन्हें मुनाफ़े के लिए बाजार में बेचा
जाएगा । मुनाफ़े का स्रोत यह होगा कि श्रमिक तितना मूल्य पैदा करेगा उससे कम पगार
उसे मिलेगी । इसको ही मार्क्स शोषण कहते हैं । मार्क्स ने मनुष्य की उत्पादकता
बढ़ाने की पूंजीवाद की अपार क्षमता को पहचाना था । उन्होंने यह भी माना कि इस
व्यवस्था में स्थिरता नहीं होती । मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए पूंजीपति काम के घंटे बढ़ाता
है या स्वचालन की तकनीक के सहारे श्रमिक की उत्पादकता बढ़ाता है । इसके कारण मजदूर गरीब, काम का मारा या बेरोजगार
बना रहता है । यही समस्या पूंजीवाद के खात्मे का भी कारण बनती है । उस समय अर्थशास्त्रियों
में मूल्य का श्रम सिद्धांत बहुमान्य था । उसे अपनाते और सुधारते हुए मार्क्स ने कहा
कि चूंकि मूल्य उत्पादक श्रम की जगह तकनीक का अधिकाधिक प्रवेश होता है इसलिए समूची
व्यवस्था में मुनाफ़े की दर में गिरावट आती है । हालांकि मूल्य के श्रम सिद्धांत को
खारिज किया जा चुका है और इसलिए उससे निकली मार्क्स की मान्यताओं पर भी सवाल उठे हैं
लेकिन उनकी एक बात को अब भी सही माना जाता है । पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थन करने
के लिए वस्तुओं के उत्पादकों को उन्हें खरीदना पड़ता है लेकिन बढ़ती हुई दरिद्रता की
वजह से वे ऐसा करने में अक्षम होते जाते हैं । व्यवस्था की उत्पादक क्षमता में बढ़ोत्तरी
के साथ ही व्यापक आबादी का दरिद्रीकरण भी बढ़ता जाता है । ऐसे में मार्क्स को उम्मीद
थी कि वर्ग सचेत औद्योगिक मजदूर इसे समझकर कम्युनिस्ट क्रांति करेंगे तथा उत्पादन के
साधनों का निजी मालिकाना और उससे उत्पन्न शोषण का खात्मा कर देंगे ।
इसके
बाद लेखकों ने विचारधारा संबंधी मार्क्स के विवेचन का परिचय दिया है और बताया है कि
इसका भी जन्म उनकी ऐतिहासिक भौतिकवाद की धारणा से हुआ है । अपने लेखन की शुरुआत में
वे इस शब्द का इस्तेमाल अपने ऐसे ही विरोधियों के लिए करते थे जो इतिहास की चालक शक्ति
भौतिक परिस्थितियों की जगह विचारों को मानते थे । बाद के दिनों में अर्थ की इस नकारात्मकता
को छोड़े बिना मार्क्स ने इसका अर्थ विस्तार किया । इसमें नैतिक, राजनीतिक, आर्थिक
और धार्मिक सोच शामिल हुए जिनकी आलोचना की । विचारधारा की मार्क्स ने कोई स्टीक
परिभाषा नहीं प्रस्तुत की लेकिन उनके लेखन से प्रकट होता है कि विश्वास को वे इसका
अंग मानते थे । विचारधारा से जुड़े विश्वास को मार्क्स छद्म भी मानते थे । साथ ही
विचारधारा को वे सिद्धांतकारों द्वारा उत्पादित समझते थे जो बहुधा यथार्थ के
विपरीत इन पर जोर देते रहते हैं । उनका यह भी मानना था कि विचारधारा शासक वर्ग के
हितों की सेवा करती है और सामान्य जनता को उनके हालात के मामले में भ्रामक
व्याख्या देकर उनके हितों को नुकसान पहुंचाती है । सिद्ध है कि विचारधारा की
आलोचना के केंद्र में हितों की धारणा है । विचारात्मक आलोचना का मकसद उन सभी
भ्रामक विश्वासों पर से परदा उठाना है जो विश्वासी के हितों को नुकसान पहुंचाते
हैं । साथ ही इन विश्वासियों की हालत के छिपे हुए कारणों को उजागर करना भी इस
आलोचना का दायित्व बनता है ।
इसके
बाद लेखकों ने मानव प्रकृति संबंधी मार्क्स के विवेचन का सार प्रस्तुत किया है ।
मार्क्स ने बहुत शुरू में जो भी लेखन किया और जिसे कभी छपाया नहीं उसमें बेहतर
मानव जीवन का सिद्धांत तैयार करने की कोशिश नजर आती है । साथ ही यह चिंता भी मिलती
है कि आधुनिक पूंजीवाद में वह जीवन सुलभ क्यों नहीं है । उनका मानना है कि मनुष्य
की एक सारभूत प्रकृति होती है जिससे यह तय होता है किन हालात में वह फलेगा फूलेगा
। इसका मतलब कि मनुष्य की बेहतरी उसकी इच्छाओं पर निर्भर नहीं होती । मनुष्य ऐसा
जीव है जो मुक्त उत्पादक गतिविधि में लगा होता है । उसे जीवित रहने और अपने
उत्पादक अस्तित्व को व्यक्त करने के लिए उत्पादक श्रम की जरूरत पड़ती है । एक बात
यह भी है कि मनुष्य ऐसा प्राणी है जिसे आसपास की दुनिया के साथ सामंजस्य की जरूरत
पड़ती है । इनमें वे मनुष्य भी शरीक हैं जिनके उत्पादक श्रम पर वह निर्भर होता है ।
मनुष्य अलगाव की स्थिति में तभी पड़ता है जब उसकी सारभूत प्रकृति को व्यक्त या
साकार होने में बाधा आये । पूंजीवाद ऐसे हालात पैदा करता है जिसमें श्रमिक मशीन की
तरह हो जाता है और उसका अलगाव चरम पर पहुंच जाता है । बाद के लेखन में मानव कल्याण
और उसकी उन्नति की चिंता जाहिर होती है जब वे आवश्यकता से मुक्ति का आदर्श खड़ा
करते हैं । उनकी राय में मनुष्य को जिंदा रहने के लिए काम की अनिवार्यता से मुक्त
करना होगा ताकि श्रम उसके स्वभाव की अभिव्यक्ति बन जाय । बहरहाल पूंजीवाद की सफल
आलोचना को वे नैतिक सिद्धांतों पर निर्भर नहीं बनाना चाहते । प्राचुर्य की
सम्भावना के समय जिन लोगों को दरिद्रता की ओर धकेला जा रहा है उनको अपनी बदहाली की
व्याख्या के लिए किसी नैतिक सिद्धांत की जरूरत नहीं । उसे तो हालात की साफ समझ और
उसे बदलने के तरीकों की जरूरत होती है । ऐसी स्थिति में नैतिक सिद्धांत
निष्प्रभावी तो होंगे ही, शासक वर्गों द्वारा किसी भी सार्थक बदलाव के विरोध या
उसकी दिशा भटकाने के लिए उनका उपयोग भी किया जा सकता है ।
किताब में लेखकों ने इन विचारों को उनकी खूबियों और खामियों
के साथ विस्तार से प्रस्तुत करने का संकल्प किया है ताकि पाठक मार्क्स के विचारों को
बेहतर तरीके से देखने की दिशा प्राप्त कर सके । मार्क्स के विचारों को समझना थोड़ा मुश्किल
है । इसका पहला कारण उनके प्रभूत लेखन से पैदा होता है । उनकी समस्त रचनाओं का प्रकाशन
एक सौ मोटी जिल्दों में होने की आशा है । दूसरी बात कि उनके लेखन का कुछ ही हिस्सा
उनके जीवित रहते छपा था । उनका अधिकांश लेखन अप्रकाशित ही रहा । इसमें जल्दी में दर्ज
की गयी टिप्पणियों से लेकर पूरे किये गये ऐसे ग्रंथ भी हैं जिन्हें मार्क्स ने किसी
न किसी वजह से किनारे रख दिया था । तीसरा कारण यह है कि मार्क्स का लेखन एक ही तरह
का नहीं है । दार्शनिक लेखों से लेकर अर्थशास्त्र के इतिहास और विचारों की गवेषणा
करने वाली पुस्तकों तथा अखबारी लेखों से लेकर भाषणों और दोस्तों को लिखी चिट्ठियों
तक प्रत्येक माध्यम का उन्होंने लेखन के लिए इस्तेमाल किया । आखिरी बात कि उनका
लेखन उनके समय से जुड़ा हुआ है । इसमें भव्य राजनीतिक विश्लेषण के साथ ही गैरजरूरी
विवाद भी हैं । मार्क्स मानकर चलते थे कि उनकी आलोचना के निशाने पर जो लोग हैं
उन्हें उनके पाठक जानते हैं । उस समय के पाठक जानते रहे भी होंगे तो आज के पाठक
उनमें से अधिकांश के बारे में कुछ खास नहीं जानते ।
इन कारणों के चलते लेखकों ने मार्क्स के विचारों और लेखन
के उनके जीवन और समय में अवस्थित करना सही समझा है । मार्क्स का जन्म 1818 में
राइनलैंड के त्रिएर नगर में हुआ था । हाल के समय तक यह इलाका नेपोलियन के उदार
शासन के तहत संतुष्ट रहा था । अब उस पर प्रशिया की सत्ता कायम थी जिसे दमनकारी
हमलावर ताकत के बतौर देखा जाता था । उनके पिता का जन्म यहूदी पुजारियों के परिवार
में हुआ था । उन्हें धर्मनिरपेक्ष शिक्षा मिली थी फिर भी प्रशिया के यहूदी विरोधी
कानून की वजह से उन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार किया ताकि अपने कानूनी पेशे को जारी
रख सकें । वे प्रबोधन से प्रेरित थे और राजनीतिक सुधार हेतु स्थानीय गोलबंदी का
थोड़ा संभालकर ही सही, साथ देते थे । पिता पुत्र में आपसी अनुराग था जो मार्क्स के
बीस साल की उम्र में पिता के निधन तक बना रहा । माता के साथ सम्भवत: ऐसा रिश्ता
नहीं था । वे भी यहूदी पुजारियों के खानदान की ही थीं जो नीदरलैंड का आप्रवासी परिवार
था । मार्क्स को हमेशा धन की किल्लत रही और वे माता को हासिल होने वाली विरासत के
बदले उनसे पेशगी मांगते जिसे माता नामंजूर कर देती थीं । मार्क्स के लिए अधिक
महत्व का रिश्ता त्रिएर के वेस्टफ़ालेन परिवार से जुड़ा । उनके भावी ससुर ने उनकी
रुचि ग्रीक, फ़्रांसिसी और अंग्रेजी साहित्य तथा चिंतन में जगा दी । पुत्री जेनी ने
छह साल की सगाई के बाद मार्क्स के साथ विवाह किया और दोनों का साथ चालीस साल तक
चला । इस दौरान वे चार देशों में निर्वासितों का कठिन जीवन जिये लेकिन एक दूसरे के
प्रति पूरी तरह समर्पित रहे ।
मार्क्स को शिक्षा बहुत ही उच्च कोटि की मिली लेकिन उनका
अधिकांश अध्ययन औपचारिक कक्षा से बाहर निजी रुचि के अनुरूप हुई । शुरू में पढ़ाई की
देखरेख पिता ने की और फिर स्थानीय जिम्नेजियम में दाखिला लिया । उनके शिक्षक उदार
मानवतावादी थे जिनके रुख की मार्क्स ने तारीफ़ की है लेकिन स्थानीय प्रशियाई सरकार
उनसे चिढ़ती थी । पुलिस से स्कूल पर छापा मारने के लिए भी कहा गया ताकि
विद्यार्थियों द्वारा वितरित होने वाले साजिशी उदार लेखन की जब्ती की जा सके ।
मार्क्स ने गणित, इतिहास, साहित्य और भाषा का अध्ययन किया । स्कूल के बाद मार्क्स
बान विश्वविद्यालय में साहित्य और दर्शन की पढ़ाई हेतु गये हालांकि पिता ने कानून
की शिक्षा पर बल दिया । जल्दी ही मार्क्स ने कविता लिखने, वाद विवाद और
क्रांतिकारी दोस्तों के साथ मस्ती करने में मशगूल हुए । पिता को खतरे की गंध मिली
तो उन्होंने बर्लिन विश्वविद्यालय में दाखिल करा दिया । इसका लाभ तो मिला लेकिन
मार्क्स ने कानून के मुकाबले दर्शन में अधिक रुचि लेनी शुरू की । उनकी इस आदत ने
उनके जीवन को ऐसी दिशा दी जिसकी कल्पना उनके पिता या उन्होंने भी नहीं की थी ।
मार्क्स के बर्लिन विश्वविद्यालय पहुंचने के पांच साल
पहले ही मशहूर दार्शनिक हेगेल का निधन हो चुका था लेकिन उनके विचारों की धाक कायम
थी । 1818 से अपने निधन तक वे बर्लिन विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के अध्यक्ष रहे
थे । उन्हें दार्शनिक ढांचे का एक महान निर्माता माना जाता है । उन्होंने
प्रत्ययवाद का ऐतिहासिक संस्करण तैयार किया था । इस ढांचे में परम विचार को
दार्शनिक केंद्रीयता प्रदान की गयी थी । वह स्वयं कर्ता बन गया था जिसकी परियोजना
आत्म वास्तवीकरण की थी । इसे हासिल करने के लिए वह समूची दुनिया को संचालित करता
था । अपनी इसी गतिविधि की व्याख्या के जरिए वह अपने आपका बोध करता था । उसकी यह
प्रक्रिया धीमी ही सही, ऐतिहासिक प्रगति के रास्ते पूरी होती थी । यह विचार और
उसकी गतिविधि के जरिये व्यक्त होने वाला संसार दर्शन के सहारे सुबोध होता था ।
बहरहाल उनके इस ढांचे पर उनके जीवनकाल में ही विवाद शुरू हो गये थे और आज तक भी
जारी हैं । उनका लेखन बहुत सारे कारणों से अबूझ किस्म का होता था । सबसे बड़ी वजह
विषयवस्तु की जटिलता थी । दूसरी वजह उस समय के दार्शनिक लेखन की शैली थी । तीसरी
वजह थी सरकारी सेंसरशिप जिसका अनुपालन वे भी अपने पद की मर्यादा हेतु करना चाहते
थे । हेगेल तो इस ढांचे के तहत ईसाई ईश्वर की दार्शनिक तौर पर रक्षणीय प्रतिमा
स्थापित करने का दावा करते थे । इसके उलट कुछ लोगों को शक था कि वे गोपनीय रूप से
बहुदेववादी या नास्तिक थे जो मनुष्य की तार्किकता के विकास का विवरण मात्र
प्रस्तुत कर रहे थे । मार्क्स ने हेगेल के इस ढांचे के प्रत्ययवाद और उसकी धार्मिक
शब्दावली को तो खारिज किया लेकिन उनके चिंतन पर हेगेल का कुछ न कुछ असर ताउम्र बना
रहा ।
हेगेल की किताबों की विशेषता है कि उनकी शुरुआत बेहद
सामान्य चीजों से होती है जो अंत तक जाते जाते किसी व्यापक परिक्षेत्र के अंग की
तरह प्रकट होती हैं । उदाहरण के लिए अधिकार दर्शन में उनका विवेचन अधिकार संपन्न
एक व्यक्ति से शुरू होता है जिसकी भावना व्यक्ति के बतौर दूसरे व्यक्ति के सम्मान
की है । इस व्यक्ति को अपना जीवन चलाने के लिए विभिन्न वस्तुओं पर कब्जा करना और
उन्हें बदलना होता है । इस गतिविधि में दूसरों के साथ पारस्परिकता का रिश्ता
पूर्वापेक्षित है । वस्तुओं पर किसी व्यक्ति के कब्जे के लिए अन्य व्यक्तियों की
सहमति जरूरी होती है । इससे ही अधिकारों के उल्लंघन की धारणा का जन्म होता है ।
फिर नैतिकता की बुनियाद तैयार होती है । तब हम नैतिक जीवन के हेगेलीय विवरण पर
पहुंचते हैं । अंत में हम इस धारणा पर चले आते हैं कि समग्र सामाजिक जीवन से बाहर
किसी व्यक्ति की कल्पना निरर्थक है । यही शैली हमें मार्क्स के लेखन में भी नजर
आती है । वे भी मानते हैं कि विशेष वस्तु ऊपर से सरल नजर आती है लेकिन व्यापक
परिक्षेत्र का अंग होती है । इसलिए उस विशेष वस्तु को समझने के लिए समग्र संरचना
में उसकी स्थिति की समझ आवश्यक है । मार्क्स ने इसी शैली में पूंजीवाद का अपना
विश्लेषण एक माल के वर्णन से शुरू किया था ।
हेगेल के लेखन की दूसरी विशेषता किसी भी वस्तु को उसके
अंतर्विरोधों के साथ देखने की है । वे इसका इस तरह से वर्णन करते हैं जिसके आधार
पर मूल तस्वीर के कुछ पहलुओं को कायम रखते हुए अंतर्विरोध पर विजय पायी जा सके ।
हेगेल के अधिकांश वर्णनों में किसी लक्ष्य की ओर प्रगति का तत्व मौजूद होता है और
यह लक्ष्य पाने की राह में अनिवार्यत: आने वाले अंतर्विरोधों का सामना करते हुए
उनमें सामंजस्य पैदा करना होता है । विश्व इतिहास का हेगेलीय विवरण स्वतंत्रता और
तार्किकता की ओर लक्षित एक के बाद आने वाले दूसरे समाज की विकासयात्रा है । इस
यात्रा में आगे आने वाला सामाजिक रूप पिछले समाज के अंतर्विरोधों में बेहतर
सामंजस्य बिठाने में सक्षम होता है । यही प्रवृत्ति कला, धर्म और दर्शन के इतिहास
में भी पायी जाती है । इनमें भी आपसी और कालिक रूप से प्रगतिमान अंतर्विरोध होते
हैं । किसी लक्ष्य की ओर धावित यह अंतर्विरोधी प्रगति एक के बाद एक बेहतरी का
विवरण बन जाता है । यह चेतना द्वारा स्वयं की और अपनी अभिव्यक्ति की समझ का बढ़ना
है । यह बढ़ाव तब तक जारी रहता है जब तक हम विश्व के इतिहास को स्वतंत्रता की चेतना
की प्रगति के बतौर पहचान नहीं लेते । इस लक्ष्य को इतिहास के विभिन्न कर्ता सहज ही
नहीं पहचान पाते क्योंकि वे निजी किस्म की प्रेरणाओं से चालित होते हैं । असल में
तर्क इतना चतुर होता है कि अपने लक्ष्य की ओर इतिहास को ले जाने में उनका उपयोग कर
लेता है । दार्शनिक तो अपने समय के विशेष नियमों को पकड़ने में सबसे माहिर होते हैं
लेकिन वे भी तभी ऐसा कर पाते हैं जब उनका युग खत्म होकर दूसरा युग शुरू होने को
होता है । इस प्रक्रिया की समाप्ति हेगेल में आकर हुई क्योंकि उन्होंने दर्शन का
यह लक्ष्य प्रकट कर दिया ।
दर्शन को पूर्णता प्रदान करने का उनका यह दावा बहुत
विवादित रहा । उसी तरह प्रशियाई राज्य के तार्किक होने का उनका दावा भी विवादों के
घेरे में रहा । उनका मानना था कि राज्य इस धरती पर मौजूद दैवी विचार है और संसार
में ईश्वर की यात्रा को अभिव्यक्त करता है । उनके समकालीनों को लगता था कि हेगेल
अपने जमाने की प्रशियाई संवैधानिक तानाशाही में ईश्वर की यात्रा को लक्ष्य पर
पहुंचा हुआ बता रहे हैं । वे हेगेल के इस कथन को इसका प्रमाण मानते थे कि जो
तार्किक है वह वास्तविक है और जो वास्तविक है वही तार्किक है । 1831 में हेगेल के
निधन के बाद उनके अन्यायी अनेक धड़ों में विभाजित होकर उनकी विरासत की परस्पर
विरोधी व्याख्या करने लगे । उनके दक्षिणपंथी वारिस प्रशियाई राज्य को साकार
तार्किकता और इतिहास की पूर्णता के बतौर प्रस्तुत करने लगे । मध्यमार्गी वारिस
उनके वर्णित विषयों पर टीका करते रहे और हेगेलीय नजरिए से धार्मिक रूढ़ियों की
व्याख्या पेश करने में व्यस्त हुए । तीसरी ओर उनके वामपंथी वारिसों ने विवेक और
स्वतंत्रता की प्रगति के रूप में इतिहास की हेगेलीय धारणा का विकास किया हालांकि
उन्होंने इस बात को खारिज कर दिया कि वर्तमान प्रशियाई राज्य में इस प्रगति का
आखिरी मुकाम आ गया है । साथ ही वे धर्म को समायोजित या तार्किक बनाने की जगह
स्वतंत्रता की राह में बाधा मानकर इसकी आलोचना के पक्षधर थे ।
हेगेल की इस वामपंथी गति को डेविड स्ट्रास की ‘द लाइफ़ आफ़
जीसस’ के 1835 में प्रकाशित होने से त्वरण मिला । उनका कहना था कि न्यू टेस्टामेंट
में बहुतेरे अंतर्विरोध हैं इसलिए उसे ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं माना जा सकता । असल
में उसका लेखन ऐसे समय हुआ जब मौखिक परम्परा में बहुत समय से ईसा मसीह के जीवन के
बारे में मिथकीकरण हो रहा था । शुरुआत में चर्च ने उसको ही लिखित रूप दे दिया ।
उनके कहने का आशय बाइबल को मिथक बताता था । इस किताब के छपने से रूढ़िवादी बौद्धिक
दुनिया में सनसनी फैल गयी लेकिन इसने धर्म की वामपंथी हेगेलीय आलोचना की दागबेल
डाल दी । इसी क्रम में फ़ायरबाख और ब्रूनो बावेर आये जिनका मार्क्स पर गहरा असर रहा
।
हेगेल के वामपंथी वारिसों में सबसे प्रभावशाली लुडविग
फ़ायरबाख थे । उन्होंने हेगेल को भौतिकवादी दिशा में विकसित किया । बर्लिन में
उन्होंने दर्शन की पढ़ाई की थी और 1825 से 1827 तक हेगेल की कक्षाओं में भी शामिल
हुए थे । रूढ़िवादी धार्मिकता से ओतप्रोत बौद्धिक समुदाय पर तीखे हमलों के कारण
उनके अध्यापक बनने का रास्ता जल्दी ही बंद हो गया । उन्होंने लेखन पर ध्यान
केंद्रित किया और 1841 में उनका मशहूर ग्रंथ ‘द एसेन्स आफ़ क्रिश्चियनिटी’ प्रकाशित
हुआ । उनका कहना था कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है और इस तथ्य को स्वीकार करने में
ही मनुष्य की मुक्ति है । उन्होंने 6ठीं सदी के ग्रीक दार्शनिक जेनोफेन को प्रतिध्वनित
करते हुए कहा कि जिसे हम ईश्वर कहते हैं वह और कुछ नहीं, मानवीय
गुणों का एक कल्पित अतिप्राकृतिक अस्तित्व पर आरोपण है । ईसाई धर्म में इस आरोपण का
खास स्वरूप यह है कि परिमित मनुष्य अपने महानतम गुणों को उस कल्पित अस्तित्व में अपरिमित
तौर पर आरोपित कर देता है । मनुष्य में ज्ञान, शक्ति और उदारता
की क्षमता है जिससे वह ईश्वर को सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और परम
उदार भी बना देता है । अपने सर्वोत्तम गुणों के इस आरोपण के कारण मनुष्य इन गुणों से
अलग हुआ भी महसूस करता है और उसके ही समक्ष पूर्णता की ऐसी तस्वीर पैदा होती है जिसके
आगे उसे सिर झुकाना पड़ता है । इसलिए फ़ायरबाख का कहना था कि इस जादू को तोड़ा जाना चाहिए,
धर्म को भ्रामक आरोपण की तरह त्याग देना होगा और जानना होगा कि जिन शक्तियों
की हम पूजा कर रहे हैं वे असल में हमारी ही हैं । उन ताकतों को ही इस तरह विकसित करना
होगा कि हम इस दुनिया में अलगावरहित जीवन बिता सकें ।
इन्हीं वामपंथियों में ब्रूनो बावेर भी थे जिन्होंने
तत्कालीन रूढ़िवादी राजनीतिक और धार्मिक संस्थान के विरुद्ध हेगेल के विचारों का
इस्तेमाल किया । वे बर्लिन में पढ़ने जब आये तो फ़ायरबाख बर्लिन छोड़ रहे थे । हेगेल
से इन्होंने भी पढ़ाई की । सौंदर्यशास्त्र पर उनके निबंध को हेगेल की अनुशंसा पर
प्रशियाई राजकीय पुरस्कार भी मिला । अध्ययन के उपरांत उन्हें 1830 दशक में बर्लिन
में अध्यापन का भी मौका मिला । उन्होंने हेगेलीय विचारों के आधार पर पुराने और नये
टेस्टामेंट की व्याख्या की । धर्म के नकारात्मक परिणामों का उन्होंने जमकर विरोध किया
। उन्हें धर्म में इहलौकिक मानव समुदाय की जगह पारलौकिक अमूर्तन पर अधिक बल नजर
आया । ईसाई धर्मग्रंथों के गहन पाठालोचन के आधार पर उन्होंने इन्हें ऐतिहासिक
दस्तावेज मानने से इनकार किया । उन्होंने ईसा मसीह के अस्तित्व को ही मानने से
इनकार किया । उन्होंने धर्मग्रंथों और धार्मिक आचरण को रूढ़िग्रस्त भ्रम मानकर
इन्हें खारिज ही किया ।
इसी बौद्धिक गहमागहमी में मार्क्स बर्लिन आये और जल्दी
ही हेगेल के इन वामपंथी वारिसों के समूह में दाखिल हो गये । दर्शन और राजनीति पर
चर्चा के लिए यह समूह नियमित रूप से बावेर की अगुआई में जुटता था । उन्होंने
मार्क्स को आगे की राह दिखाने का जिम्मा ले लिया । मार्क्स ने शोध के लिए
डेमोक्रिटस और एपिक्यूरस के बीच दार्शनिक अंतर का विषय चुना । उन्हें एपिक्यूरस का
भौतिकवाद पसंद आया जो धर्म की आलोचना यह कहकर करते थे कि यह पादरियों का आविष्कार है
। असल में तो पादरी समुदाय मौत का डर दिखाकर अपनी सत्ता को बरकरार रखने में धर्म
का उपयोग करता है । यथार्थ को वे परमाणु और आकाश का मेल मानते थे इसलिए उत्तर जीवन
की धारणा को धोखा मानते थे । इस तरह मौत का भय कम करके वे भौतिक अस्तित्व के साथ
सामंजस्य के पक्ष में खड़े थे । मार्क्स ने शोध प्रबंध 1841 में जेना विश्वविद्यालय
में जमा किया और बावेर के पास चले आये । बावेर को उनकी मुखरता की सजा के बतौर दो
साल पहले ही बान भेज दिया गया था । प्रशिया के नये बादशाह ने उन्हें वहां से भी
बर्खास्त करने का हुक्म दिया । तय हो गया कि मार्क्स को अध्यापन का अवसर नहीं
मिलेगा ।
इसके बाद चौबीस साल की उम्र में मार्क्स ने मजबूरन
पत्रकारिता का पेशा अपनाया । कोलोन से मोजेस हेस नामक समाजवादी झुकाव वाले
दार्शनिक के संपादन में राइनिशे जाइटुंग नामक अखबार निकलता था । मार्क्स की
पत्रकारिता इससे ही शुरू हुई । इस अखबार में उन्होंने स्थानीय संसद की आलोचना करते
हुए ढेर सारे लेख लिखे । संसद के कामकाज में पारदर्शिता के अभाव और प्रेस की आजादी
पर प्रतिबंध का इनमें विरोध किया गया था । बाद में गरीबों के प्रति संसद के रुख की
आलोचना करते हुए भी लिखा । उनके लेख पाठकों को पसंद आते थे । नतीजतन उनकी
प्रोन्नति होती गयी और बाद में वे अखबार के संपादक भी बने । इसी समय हेगेल के
वामपंथी वारिसों से उनके मतभेद उभरने लगे । असल में अखबार में लिखने के क्रम में
वास्तविक दुनिया की राजनीति से उनका साबका पड़ा जिससे हेगेलपंथी बहुत दूर थे । इसी
दौर में मार्क्स की क्रांतिकारिता अधिकाधिक मूलगामी होती गयी । शुरू में उनकी
पत्रकारिता सुधारवादी, उदारपंथी और आशावादी थी । उसमें यह उम्मीद बनी हुई थी कि
हिंसा के बिना ही बादशाहत की जगह संवैधानिक शासन आ जाएगा । इस अखबार की
प्रसारसंख्या धीरे धीरे बढ़कर जर्मनी में सबसे अधिक हो गयी । शुरू में प्रशिया के
प्रोटेस्टैन्ट शासकों ने इस आशा में इसका समर्थन किया था कि उस समय के आलोचक
स्थानीय कैथोलिक अखबार की जगह यह तो उनका समर्थन करेगा लेकिन उनकी आशा शीघ्र ही
धूमिल पड़ गयी । इसके बाद अखबार का दमन शुरू हुआ और मार्क्स के तेवर भी क्रांतिकारी
होते गये । 1843 में तो उन्हें विरोधस्वरूप अखबार छोड़ना ही पड़ गया ।
इधर जेनी के साथ विवाह हो चुका था । दोनों पेरिस चले आये
। फ़्रांस में शासन तो मध्यमार्गी दक्षिणपंथियों का था लेकिन पेरिस नगर यूरोप के
सांस्कृतिक और बौद्धिक सक्रियता का केंद्र बना हुआ था । समाजवादी विचार पनप और फैल
रहे थे । सेंट साइमन के अनुयायी विज्ञान और प्रेम पर आधारित समाज का प्रचार कर रहे
थे तो चार्ल्स फ़ूरिए के अनुयायी उनके विचारों के अनुरूप कम्यून केंद्रित समाज को
साकार करने की कोशिश कर रहे थे । तीसरी ओर दार्शनिक प्रूदों ने खुद को अराजकतावादी
घोषित किया हुआ था और उनका यह कथन मशहूर हुआ कि समस्त संपत्ति चोरी है । पेरिस में
हेनरिख हाइने समेत अनेक निर्वासित जर्मन क्रांतिकारी भी थे । यहीं उनकी मुलाकात एंगेल्स
से हुई जो थे तो धनी मानी जर्मन उद्योगपति के पुत्र लेकिन मार्क्स के आजीवन सहयोगी, सुविधादाता, लेखकीय सहभागी और बौद्धिक सहधर्मा बने ।
मार्क्स ने एक अन्य प्रवासी आर्नोल्ड रूगे के साथ मिलकर जर्मन-फ़्रांसिसी स्मारिका निकालने की योजना बनायी ताकि इन दोनों भाषाओं के क्रांतिकारी
बौद्धिकों के बीच संवाद का मंच तैयार हो सके ।
इसके एकमात्र प्रकाशित अंक में मार्क्स के दो लेख थे । पहला
लेख फ़ायरबाख पर था । इसमें उन्होंने यह तो माना कि मनुष्य ने ईश्वर को अपनी छवि से
ही निर्मित किया और अब उसके सामने समर्पित होता है और यह नहीं समझ पाता कि उसकी शक्तियों
का ही निवेश ईश्वर में हुआ है । इसे मानने के बावजूद उन्होंने फ़ायरबाख की आलोचना की
कि वे इस धार्मिक प्रेरणा की भौतिक स्थितियों को समझने में असमर्थ रह जाते हैं । मार्क्स
के मुताबिक इसी वजह से फ़ायरबाख अलगाव का सही समाधान भी नहीं सुझा पाते । फ़ायरबाख को
लगता है कि लोग जब धर्म को मिथक के रूप में पहचान लेंगे तो इस अलगाव पर भी वियय प्राप्त
कर लेंगे । इसके विपरीत मार्क्स कहते हैं कि धर्म द्वारा लोगों के दिमाग में भ्रम पैदा
करने की बात सही है लेकिन उनको उपदेश देने से उनकी तकलीफ कम नहीं होगी । अलगाव पर विजय
प्राप्त करने के लिए उन भौतिक स्थितियों को बदलना होगा जिनके कारण उसका जन्म होता है
। इसी लेख में पहली बार मार्क्स ने इस जिम्मेदारी को पूरा करने वाली ताकत के बतौर सर्वहारा
वर्ग का जिक्र किया । औद्योगिक मजदूरों का यह वर्ग तब नया नया ही उदित हुआ था लेकिन
फिर जीवन भर मार्क्स उसकी ऐतिहासिक कर्ता की भूमिका ही स्पष्ट करते रहे ।
मार्क्स का दूसरा लेख यहूदी प्रश्न पर था । असल में
ब्रूनो बावेर ने इस सवाल पर जो लेख लिखा था उसके उत्तर में मार्क्स ने यह लेख लिखा
। इसमें 18वीं और 19वीं सदी में यूरोप, खासकर जर्मन भाषी इलाकों में यहूदियों की
स्थिति और उनके साथ व्यवहार के बारे में राजनीतिक और सामाजिक बहसों का जिक्र था ।
फ़ायरबाख की तर्ज पर बावेर भी धर्म को अलगाव की चेतना का एक रूप मानते थे इसलिए
उनका कहना था कि ईसाई और यहूदी अपनी मुक्ति तभी हासिल कर सकते हैं जब वे अपनी
धार्मिक पहचान त्याग दें और उनकी राजनीतिक मुक्ति राज्य में धर्म की किसी भी
सार्वजनिक भूमिका से छुटकारे में निहित है । मार्क्स का कहना था कि राजनीतिक
क्षेत्र से धार्मिक सीमाओं को हटा देने के बावजूद व्यापक समाज में व्यक्तियों का
आर्थिक और सामाजिक अलगाव जारी रहेगा । धर्म निरपेक्ष राज्य भी मुक्ति की गारंटी
नहीं कर पाता । राजनीतिक रूप से मुक्त राज्य के उदार अधिकार भी आपस में प्रतियोगी
व्यक्ति ही तैयार करते हैं । ये व्यक्ति एक दूसरे से खतरा महसूस करते हैं जबकि
वास्तविक मानव मुक्ति के लिए सबके साझा लाभ हेतु आपसी सहकार की जरूरत होती है ।
इस स्मारिका को जल्दी ही कठिनाई का सामना करना पड़ा । जिन
क्रांतिकारी फ़्रांसीसियों से सहयोग की अपेक्षा थी वे प्रकट नहीं हुए और जर्मनी में
इसका गला घोंट दिया गया । रूगे और मार्क्स में मतभेद भी उभर आये । इस विफलता के बावजूद
पेरिस में रहते हुए मार्क्स लगातार लिखते पढ़ते रहे । फ़ारवर्ड नामक एक क्रांतिकारी
जर्मन अखबार में उन्होंने लिखना शुरू किया और ब्रिटिश अर्थशास्त्र के पुरोधा
लेखकों की कृतियों को छानना भी आरम्भ किया । इस अध्ययन का सबूत आर्थिक और दार्शनिक
पांडुलिपियों में मिलता है जिनमें पूंजीवादी उत्पादन के प्रसार को समझने के लिए
हेगेल की मान्यताओं के साथ एडम स्मिथ के सिद्धांत भी मिलाये गये हैं । यहीं
मार्क्स ने अलगाव के चार प्रकारों का उल्लेख किया है ।
इसी बीच प्रशियाई सरकार के अनुरोध पर मार्क्स को फ़्रांस
से निर्वासित कर दिया गया । जर्मनी तो लौटने का कोई सवाल ही नहीं था, अगले तीन
सालों तक बेल्जियम में ब्रसेल्स उनका अड्डा जमा रहा । शहर छोटा था, पेरिस जैसी
गहमागहमी भी नहीं थी और उन्हें वहां की भाषा भी नहीं आती थी । रहने की इजाजत
उन्हें राजनीतिक प्रकाशन न करने की शर्त पर मिली थी । उस समय ब्रसेल्स में उनकी
तरह के ही बहुतेरे क्रांतिकारी रह रहे थे । वहीं कुछ समय के लिए एंगेल्स भी आ गये
। मार्क्स ने ब्रसेल्स में ही वामपंथी हेगेल समर्थकों और फ़्रांसिसी समाजवादियों के
असर से आजाद होकर ऐतिहासिक भौतिकवाद का स्वतंत्र सैद्धांतिक विकास शुरू कर दिया ।
फ़ायरबाख पर अपनी संक्षिप्त थीसिस में उन्होंने तत्कालीन भौतिकवाद की आलोचना की
क्योंकि दुनिया बनाने में मनुष्य की सक्रिय भूमिका की वह उपेक्षा करता है । साथ ही
हेगेल के प्रत्ययवाद में मानव गतिविधि को उन्होंने चिंतन में ही सीमित पाया । दोनों
में निहित सकारात्मक बातों को उन्होंने माना । एक में दुनिया के भौतिक अस्तित्व पर
जोर है तो दूसरे में मनुष्य की सक्रियता को उभारा गया है । मार्क्स ने अपनी बात कही
कि मनुष्य इस संसार को शारीरिक श्रम और भौतिक गतिविधि के जरिये बदलते हैं । इसी थीसिस
का अंतिम मशहूर वाक्य उनकी कब्र पर उकेरा हुआ है । इसी नयी समझ के साथ अगले साल
मार्क्स और एंगेल्स ने जर्मन विचारधारा का लेखन संपन्न किया । उनके जीवित रहते इसका
प्रकाशन तो नहीं हुआ लेकिन ऐतिहासिक भौतिकवाद का एकमात्र विवरण उनकी इसी किताब में
मिलता है । इसमें सूत्रबद्ध भौतिकवादी पद्धति की धारणा का ही बयान बाद में ‘अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान’ की भूमिका में हुआ
है ।
1848 की फ़रवरी में मार्क्स ने राजनीतिक प्रकाशन
पर प्रतिबंध को एंगेल्स के साथ लिखे कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशन से तोड़ दिया ।
ब्रसेल्स में रहते हुए ही राजनीतिक कार्यकर्ताओं का एक जाल मार्क्स ने खड़ा किया था
। निर्वासितों के एक समूह को ‘कम्युनिस्ट पत्राचार समिति’
के नाम से गठित किया गया था । इसकी शाखा लंदन और पेरिस में थी । उनका
सम्पर्क ‘लीग आफ़ द जस्ट’ नामक गुप्त क्रांतिकारी
समूह से भी था । इन दोनों ने आपस में विलय करके खुला राजनीतिक संगठन ‘कम्युनिस्ट लीग’ के नाम से बनाने का फैसला किया । नये
संगठन का कार्यक्रम तैयार करने का जिम्मा मार्क्स और एंगेल्स को मिला । इसका ही नतीजा
घोषणापत्र था । इसमें ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में वर्ग संघर्ष की निर्णायक भूमिका
को जोरदार तरीके से उठाया गया । इसमें क्रांति के मुहाने पर होने की घोषणा की गयी ।
पूंजीवाद ने बहुत कम समय में मनुष्य की उत्पादक क्षमता को अकल्पनीय हद तक बढ़ा तो दिया
लेकिन ऐसा बहुसंख्यक सर्वहारा की कीमत पर हुआ है । अब सर्वहारा वर्ग समाज को इस तरह
बदलने की स्थिति में आ गया है कि वर्गों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा । संयोग से
1848 में समूचा यूरोप ही क्रांति की चपेट में आ गया । ज्यादातर देशों
में सत्ता पलट गयी ।
मार्क्स को बेल्जियम से निर्वासित कर दिया गया । राजनीति
अफरातफरी के माहौल में वे पहले पेरिस फिर कोलोन चले आये । जून में उन्होंने न्यू राइनिशे
जाइटुंग का संपादन शुरू किया । इस दैनिक अखबार में उन्होंने क्रांति की वकालत शुरू
की । इसके लिए उन्होंने दो चरणों की प्रक्रिया प्रस्तावित की । पहले चरण में क्रांतिकारियों
को जर्मनी की राजनीति पर काबिज सामंती अवशेषों को उखाड़ फेंकने के लिए बुर्जुआ वर्ग
का साथ देना था । इसके बाद उन्हें बुर्जुआ शासन को भी उखाड़ देना था । इन दोनों में
से कोई भी काम नहीं हो सका । ज्यादातर जगहों पर रूढ़िवादी ताकतों ने खुद को संगठित करके
वापस सत्ता हासिल कर ली । मार्क्स को अक्सर परेशानी का सामना करना पड़ा और उन पर मुकदमा
भी चला । आखिरकार 1949 की मई में उन्हें जर्मनी से देशनिकाला
दिया गया । कुछ समय वे पेरिस में रहे लेकिन फ़्रांस की भी प्रतिक्रियावादी सत्ता ने
उन्हें निर्वासित कर दिया तो वे इंग्लैंड चले गये ।
लंदन पहुंचने के समय मार्क्स की उम्र इकतीस साल की थी । उनका
शेष सारा जीवन प्रवासी के बतौर वहीं बीता । इस दौरान लेखन और राजनीतिक संगठन का ही
काम उन्होंने ज्यादातर किया । आर्थिक स्थिति बेहद बुरी रही और सेहत भी लगातार
परेशान करती रही । 1848 के निर्वासितों की विशाल आबादी में वे भी थे । यह समुदाय
बड़ा तो था लेकिन समर्थन करने की हालत में नहीं था । एक विफल क्रांति का तीखापन
उनमें भरा था, अपने देश से पूरी तरह कटे हुए थे और आपसी झगड़ों तथा शक का माहौल
व्याप्त रहता था । लंदन आने से पहले तीन संतानें थीं, लंदन में चार और संतानों का
जन्म हुआ लेकिन गरीबी के कारण इन सात में केवल तीन बच्चे ही जीवित रहे । लंदन के
शुरुआती दिनों में उन्हें एंगेल्स की आर्थिक सहायता पर निर्भर रहना पड़ा । बीच के
कुछ दिनों में न्यू यार्क डेली ट्रिब्यून के यूरोपीय संवाददाता के बतौर उनके लेखों
से थोड़ी आमदनी होती रही । इसके बाद फिर उन्हें एंगेल्स पर आश्रित होना पड़ा । जीवन
के आखिरी दिनों में विरासत से कुछ धन मिल जाने से आर्थिक स्थिरता आयी लेकिन तब तक
बीमारियों ने धावा बोला और जीवन को असहनीय बना दिया । इन तमाम परेशानियों और
मुश्किलों के बीच भी मार्क्स ने राजनीतिक संगठक, टिप्पणीकार और अर्थशास्त्र के सिद्धांतकार
की भूमिका बखूबी निभायी ।
लंदन के शुरुआती दिनों में वे कम्युनिस्ट लीग में सक्रिय
रहे । इसी समय लीग की ओर मजदूरों को आकर्षित करने के लिए गठित शिक्षा समाज में भी
योगदान करते रहे । दोनों ही संगठनों से मार्क्स ने 1851 में त्यागपत्र दे दिया
क्योंकि क्रांति के लिए उतावले लोगों के समूह से उनके मतभेद उठ खड़े हुए थे । इसके
बाद 1864 में प्रथम इंटरनेशनल के गठन तक मार्क्स राजनीतिक सक्रियता से दूर रहे थे
। इंटरनेशनल का गठन यूरोप भर के वामपंथियों को मजदूरों के पक्ष में गोलबंद करने के
लिए हुआ था । उन्होंने इसका संविधान लिखा और उद्घाटन वक्तव्य दिया । 1872 तक वे
इसमें केंद्रीय भूमिका निभाते रहे । उसके बाद अराजकतावादियों से दीर्घकालीन मतभेद
के कारण संगठन में फूट पड़ गयी । इसके बाद मार्क्स ने राजनीति में कोई सक्रिय
भूमिका नहीं निभाई हालांकि विभिन्न देशों में कार्यरत समाजवादी संगठकों का दिशा निर्देश वे करते रहे
।
अपने इतिहास सिद्धांत की विवेचना के बतौर मार्क्स ने
बहुतेरी राजनीतिक घटनाओं के बारे में ढेर सारे लेख लिखे । इनमें वर्ग संघर्ष और
राज्य की प्रकृति संबंधी उनकी मान्यताओं की भी सफाई हुई । लंदन आने के बाद फ़्रांस
में वर्ग संघर्ष का प्रकाशन हुआ जिसमें उस समय के राजनीतिक घटनाक्रम का विश्लेषण
किया गया था । 1848 के विद्रोह के बाद कुछ प्रगतिशील अस्थायी सरकार की स्थापना हुई
थी । लेकिन मजदूरों के विद्रोह का दमन करते हुए सरकार ने रूढ़िवाद की ओर कदम बढ़ा
दिये थे । मार्क्स का कहना था कि इससे क्रांतिकारी वाम की विफलता नहीं साबित होती
क्योंकि यह उनका आंदोलन था ही नहीं । असली लड़ाई तो निम्न पूंजीपतियों की बड़े
पूंजीपतियों से थी । इसमें निम्न पूंजीपतियों ने भाईचारे की भावुक बातें करके
क्रांतिकारियों को अपने साथ कर लिया था । इस बात को मार्क्स ने लुई बोनापार्त की
अठारहवीं ब्रूमेर में अच्छी तरह व्यक्त किया और इस सवाल का उत्तर दिया कि फ़्रांस
के वर्ग संघर्ष ने ऐसी स्थितियों को कैसे जन्म दिया जिसमें एक बेवकूफ को नायकत्व
का मौका मिल गया । मार्क्स ने बताया कि फ़्रांस के वर्ग विभाजन ने ऐसे गतिरोध की
हालत बना दी जिसमें पूंजीपतियों में एकता नहीं रही । उद्योग का विकास कम होने से
मजदूर अल्पसंख्या में थे और किसान अपने आपको वर्ग के रूप में पहचानते नहीं थे । लुई
का खालीपन उसे सबके मुताबिक बता सकता था और उसने इस विभाजन का लाभ उठाकर सत्ता पर कब्जा
कर लिया । लंदन में रहते हुए पेरिस कम्यून के बारे में फ़्रांस में गृहयुद्ध लिखी जिसमें
दो माह की उस साहसिक महान पहल को श्रद्धांजलि दी गयी थी । उनकी आखिरी किताब गोथा कार्यक्रम
की आलोचना थी जिसमें उन्होंने कुछ सरकारी छूटों के लिए क्रांतिकारी सिद्धांतों को तिलांजलि
देने से समाजवादियों को सावधान किया था और कम्युनिज्म की ओर संक्रमण का कार्यक्रम सुझाया
था ।
उनका सबसे महत्वपूर्ण काम तो पूंजीवाद की गहन आलोचना है जिसमें
उन्होंने इसकी अंतर्निहित विनाशकता और अस्थिरता को खासे विस्तार से उजागर किया । लंदन
पहुंचते ही उन्होंने ब्रिटिश संग्रहालय के अध्ययन कक्ष का टिकट खरीदा और आगामी बीस
साल तक वहीं बैठकर हजारों पृष्ठों में पूंजीवाद का विवरण तैयार किया । 1857-58 में
ग्रुंड्रिस का लेखन हुआ जिसमें पूर्ववर्ती मसले तो थे ही उनके आगे जाकर पूंजीवादी विनिमय
और उसके आत्मघाती तत्वों का परिपक्व विश्लेषण भी था । राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना
में योगदान का प्रकाशन अगले साल हुआ जिसे उसकी भूमिका के लिए अधिक जाना जाता है । इसके
बाद उन्होंने जो लिखा उसे मरणोपरांत अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत के बतौर छापा गया ।
आखिरकार 1867 में पूंजी के पहले खंड का प्रकाशन हुआ । इसमें उन्होंने बताया कि पूंजीवाद
का सार मुनाफ़े के लिए विनिमय किये जाने वाले मालों का उत्पादन है । यह मुनाफ़ा मजदूरों
के शोषण से पैदा होता है जो अपनी मेहनत की क्षमता के अलावे किसी चीज के मालिक नहीं
होते । भुखमरी से बचने के लिए पगार के बदले वे इस क्षमता का विनिमय करते हैं । किसी
भी व्यवसाय की सफलता मुनाफ़े पर टिकी होती है जिसे हासिल करने के लिए पूंजीपति वर्ग
मजदूरों का खून चूस लेता है या उन्हें हटाकर मशीन से उनका काम कराता है । इसके चलते
व्यापक आबादी में दरिद्रता फैलती है और पूरी व्यवस्था ही अस्थिर बनी रहती है । किताब
को थोड़ी बहुत सफलता मिली और मार्क्स ने खुद इसके दूसरे जर्मन संस्करण तथा फ़्रांसिसी
संस्करण में सुधार किये । उनकी विशाल योजना में पूंजी एक हिस्सा थी । इस परियोजना को
वे कभी पूरा नहीं कर सके । उनके निधन के बाद एंगेल्स ने लगभग दस साल का समय लगाकर इसके
दूसरे और तीसरे खंड छपाये ।
पत्नी के गुजरने के पंद्रह महीने बाद मार्क्स 1883 के मार्च
महीने में गुजर गये । लंदन की हाइगेट कब्रगाह में उन्हें नास्तिकों के लिए आरक्षित
जगह पर दफ़नाया गया । एकाध दर्जन लोग ही उस समय मौजूद थे । एंगेल्स ने उनके योगदान को
रेखांकित करते हुए शोक संदेश पढ़ा । उनके निधन के बीस साल के भीतर समाजवादी पार्टियों
की यूरोप भर में लोकप्रियता हो गयी । इसके भी बीस साल के भीतर उनके नाम पर क्रांतियों
की लहर पैदा हुई । आगामी सदी में उनके विचारों के प्रशंसकों ने आपस में जबर्दस्त बौद्धिक
और राजनीतिक लड़ाइयां लड़ीं । साथ ही उनके विचारों के समर्थकों और विरोधियों के बीच भी
कठिन युद्ध देखने में आये ।
No comments:
Post a Comment