2015 में
पालग्रेव मैकमिलन से ब्रिजिट स्टूडेर की जर्मन किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘द
ट्रांसनेशनल वर्ल्ड आफ़ द कोमेंटेरियन्स’ प्रकाशित
हुआ । अनुवाद डेफ़िडरीज राबर्ट्स ने किया है । किताब में कहानी 1933 में पेरिस से
शुरू होती है जहां तीन जर्मन प्रवासी हिटलरी प्रचार का मुकाबला करने की रणनीति बना
रहे थे । जर्मनी की संसद में आग लगाने का आरोप कम्युनिस्टों पर प्रचारित किया जा
रहा था और उसका राजनीतिक मुकाबला करना बहुत ही जरूरी हो गया था । इसके लिए एक
पुस्तिका छापनी थी जिसमें नाजी गिरोहों के कारनामों का भंडाफोड़ होना था । इसके लिए
पुराने अखबारों से सामग्री छांटनी थी । काम मेहनत का था लेकिन पार्टी के हित में
करना ही था । बाद में तीनों लोग अलग अलग राह चले । इनमें जो पत्रकार थे उन्होंने
1938 में पार्टी छोड़ दी । इससे पहले उन्हें जेल में रहना पड़ा था और किसी तरह जान
बची थी । वे मशहूर लेखक हुए और सर्वसत्तावाद की घनघोर आलोचना की । एक अन्य प्रचारक
1936 में जर्मनी की पार्टी की संकीर्ण नीतियों से असहमत हुए और स्तालिन के शासन की
भी आलोचना की । 1939 में उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया और एक साल बाद
रहस्यमय स्थितियों में उनका देहांत हो गया । बचे तीसरे साथी ही कोमिंटर्न का काम
करते रहे और दुनिया के विभिन्न देशों में अलग अलग नामों से क्रांतिकारी काम चलाते
रहे । इस क्रम में वे अमेरिका, फ़्रांस,
स्पेन
और मेक्सिको में रहे । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद चेकोस्लोवाकिया आ गये और 1952
में
उनको फांसी दे दी गयी । दोनों विश्वयुद्धों के बीच के कम्युनिस्ट आंदोलन में
दुनिया भर घूमकर क्रांतिकारी काम करने वाले ऐसे कार्यकर्ताओं की भरमार रही । 1919
में
स्थापना से लेकर 1943 में
भंग होने तक कोमिंटर्न में इस तरह के दसियों हजार कार्यकर्ता थे । कोमिंटर्न के
रूसी संग्रहालय के खुल जाने के बाद भी उनकी सही संख्या का अनुमान ही लगाया जा सकता
है । पेशेवर क्रांतिकारी के बतौर इन लोगों ने समूचा जीवन या उसका बड़ा हिस्सा अपनी
प्रतिबद्धता के लिए समर्पित कर दिया । इनमें से कुछ लोग थोड़े समय तक सक्रिय रहे
लेकिन बहुतेरे लोग तो जीवन भर यही काम करते रहे । उन्हें एक देश से दूसरे देश
निर्वासित होते हुए घुमंतू समुदाय जैसा जीवन बिताना पड़ा । कुछ लोगों ने यह जीवन
खुद चुना लेकिन बहुतेरों को तत्कालीन यूरोप के हिंसक वैचारिक और राजनीतिक टकरावों
के चलते मजबूरी में ऐसा करना पड़ा । जो लोग शांतिपूर्ण देशों में थे उन्हें भी
गुप्त रूप से एकाधिक देशों में प्रवासी जीवन बिताना पड़ा । इन्हें अपने मूल देश को
छोड़कर काम के देश के साथ लगातार सोवियत संघ भी आना जाना पड़ता था ।
ये सभी लोग कोमिंटर्न के कार्यकर्ता
थे इसके बावजूद उन सबका जीवन बहुत अलग अलग था । उनमें कम ही सही लेकिन कुछ
स्त्रियां भी थीं और कभी कभी वे महत्वपूर्ण पदों पर भी रहीं । उन्हें गैर कानूनी
और गुप्त कार्यभार भी पूरे करने पड़ते थे । उनके लिए अक्सर ये काम सहज हुआ करते थे
क्योंकि उन पर शत्रु को संदेह कम होता था । इन स्त्रियों ने न केवल राष्ट्रीय
भौगोलिक सीमाओं को पार किया बल्कि पूर्व निर्धारित सांस्कृतिक और सामाजिक भूमिकाओं
को तोड़ने के साथ जेंडर की सीमाओं का भी अतिक्रमण किया । इसी तरह के तमाम
कार्यकर्ताओं के अनुभव इस किताब के केंद्र में हैं । खास किस्म की उनकी राजनीतिक
प्रतिबद्धता ने समूची बीसवीं सदी की शक्ल को निर्धारित किया था । उनका असर
राजनीतिक इतिहास तक ही सीमित नहीं रहा । उनकी कम्युनिज्म से प्रतिबद्धता ऐसा
सामूहिक अनुभव था जिसके निशान आधुनिक यूरोपीय समाजों में मौजूद हैं । विशाल मजदूर
वर्ग के आंदोलन को कायम रखते हुए इसने राजनीतिक ताकतों के वैश्विक रिश्तों को
प्रभावित तो किया ही औद्योगिक पूंजीवादी देशों की शक्ल को भी इसने आकार दिया ।
अनेक बौद्धिकों और कलाकारों की रचनाओं पर इसका गहरा असर रहा जिसके कारण कोमिंटर्न
के अवसान के बहुत बाद तक उसका संदर्भ दिया जाता रहा । 1968 के चरम वामपंथी संगठनों
और नव सामाजिक आंदोलनों को इससे प्रेरणा मिली । उनके व्यवहार पर आलोचनात्मक ही सही
इसकी छाप रही है । आज भी बहुतेरे समूह और आंदोलन उस परम्परा से अपने आपको को जोड़कर
देखते हैं । इस मामले में विश्वयुद्धों के बीच का कम्युनिस्ट आंदोलन समकालिक अतीत
है । इस किताब में हमारा जोर इन योद्धाओं के निजी और सामूहिक आनुभवों पर है । उनके
ये अनुभव उनकी प्रतिबद्धता की अपेक्षा से आप्लावित थे । यह अपेक्षा निजी होने के
साथ सामूहिक भी थी । उनका भविष्य का सपना उनके वर्तमान की कार्यवाहियों को
निर्देशित करता था । उनकी यह अपेक्षा ही उनकी प्रतिबद्धता के मूल में थी । इससे ही
उनके भावनात्मक और बौद्धिक निवेश का प्रतिबिम्बन होता था । कम्युनिस्ट योद्धाओं के
लिए प्रतिबद्धता ही इस दुनिया को समझने और इतिहास के निर्माण की कुंजी थी । इससे
उन्हें एक समूह की सदस्यता हासिल होती थी और उनकी सामाजिक पहचान बनती थी । उनकी यह
नयी पहचान उन्हें अपनी मूल पहचान और तदनुरूप सामाजिक हैसियत से छुटकारा भी दिलाती
थी । असल में कम्युनिस्ट होना ऐसी भरी पूरी सामाजिक पहचान थी जो किसी मनुष्य को
वर्ग, लिंग
और राष्ट्रीयता की सीमाओं से सहसा बहुत ऊपर उठा देती थी । हालिया इतिहास लेखन में
राजनीति के मामले में भावना को गिना जाना शुरू हुआ है । 1920 और 1930 दशक के
कम्युनिस्ट पार्टियों के मामले में राजनीतिक संलग्नता को इस नजरिये से भी देखा
जाना चाहिए । उस समय के कार्यकर्ताओं में जिस तरह का समर्पण नजर आता है वह केवल
तर्क आधारित चुनाव से सम्भव नहीं था । इसके लिए माहौल से सहानुभूति,
कर्तव्य
का बोध, निजी
रिश्ते या आकर्षण, पारिवारिक
वातावरण, अन्याय
के प्रतिकार की जरूरत या संस्कृति के खास रूपों के प्रति उत्साह आदि भी जिम्मेदार
रहे होंगे । फ़ासीवाद और हिटलर के उदय से अपनी क्रांतिकारी परियोजना की विफलता के
साथ ही आंतरिक लोकतंत्र के अभाव ने इन कार्यकर्ताओं को बेहद निराश किया होगा । जिन
ताकतों से उन्हें जूझना था उन्होंने कम्युनिस्टों का हिंसक दमन किया था । उन
ताकतों के प्रतिकार का मार्ग, भले
अनचाही,
हिंसा से होकर गुजरता था इसलिए हिंसा भी इस अनुभव का अभिन्न अंग रहा है ।
सर्वहारा की इस विश्व पार्टी को
वर्ग संघर्ष के वैश्वीकरण का साधन भी होना था । जब उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों और
संघर्षों में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद स्वतंत्रता की उम्मीद पर पानी फिर गया तो
कोमिंटर्न ने इस विचार को सांस्थानिक स्वरूप प्रदान किया । यह ऐसा अंतर्राष्ट्रीय
संगठन था जिसे पूंजीवादी देशों के संगठन लीग आफ़ नेशंस के समानांतर देखा समझा जाता था
। इस मोर्चे पर सच में इसने प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी । इसका
अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय था, विश्व
सर्वहारा क्रांति का कार्यक्रम था,
विश्वव्यापी गतिविधियों का व्यवस्थित संजाल था,
व्यक्तियों
और सूचनाओं का देशों के आर पार गहन आदान प्रदान था तथा राष्ट्रीय स्तर पर ठोस
राजनीतिक संघर्ष का संचालन होता था । अक्टूबर क्रांति के बाद का सोवियत संघ इस
अंतर्राष्ट्रीय सोच का साक्षात उदाहरण बन गया था । इसके बावजूद दुर्भाग्य से
कोमिंटर्न के इतिहास लेखन में राष्ट्रवादी प्रतिमान बहुत मुखर रहा है । किसी भी देश
के भीतर चल रहे आंदोलन में कोमिंटर्न को बाहरी पूरक या समर्थक के रूप में देखा
जाता है । इसे कम्युनिस्ट विरोधी नकारात्मक भी मानते रहे हैं । मान लिया जाता है
कि राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों के साथ ही कुछ और संस्थाओं की मदद भी मिल रही थी ।
बाद में कुछ ऐसे भी शोध सामने आये जिनमें राष्ट्रीय आंदोलनों और कोमिंटर्न के बीच
केंद्र और हाशिया जैसा रिश्ता बताया गया । यह सही बात है कि अधिकतर नेतृत्व और
उससे जुड़े लोग मास्को में थे लेकिन बहुतेरे क्रांतिकारी अन्य देशों में मोर्चे पर
भी तैनात थे । यहां पर भी इतिहासलेखन के जोर में कुछ सुधार की जरूरत है । मुख्यालय
और मोर्चे के बीच रिश्ता बराबरी का तो नहीं था लेकिन कोई एकतरफा केंद्रीकरण भी
नहीं था । असल में कोमिंटर्न का विस्तृत जाल तमाम उपकेंद्रों और सोवियत संघ के
बाहर के राजनीतिक कार्यकलाप पर निर्भर था । भविष्य में शोध हेतु इसके भौगोलिक
प्रसार और इसके पारदेशीय क्रियाकलाप पर भी सतर्क निगाह रखनी होगी ।
सवाल है कि जो संगठन अपने आपको
अंतर्राष्ट्रीय कहता रहा हो उसको समझने में यह राष्ट्रोपरिता कितना उपयोगी है । इस
मामले में लेखक को शब्दावली की स्पष्टता बहुत जरूरी महसूस होती है । सर्वहारा की
विश्व पार्टी के बतौर कोमिंटर्न का गठन विभिन्न देशों की राष्ट्रीय पार्टियों को
एक केंद्रित ढांचे में एकताबद्ध करके हुआ था । यह न तो नागरिक समाज के गैर सरकारी
संगठनों का कोई राष्ट्रोपरि समूह था और न ही विभिन्न राष्ट्रों का अंतर्राष्ट्रीय
संगठन था । इसने विभिन्न राष्ट्रीय संगठनों को एक साथ लाया । सही है कि इनमें एक
संगठन सोवियत संघ नामक एक राष्ट्र का वास्तविक प्रतिनिधि भी था । इसके अतिरिक्त
कोमिंटर्न का एक पहलू ऐसा था जो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय के परे था । वह इस
अर्थ में राष्ट्रोपरि था कि उसका सामाजिक वातावरण अपनी घटक राष्ट्रीय संस्कृतियों
से परे था । वह तो ऐसे आंदोलनों और ताकतों का जमावड़ा था जो राष्ट्रीय सीमाओं के आर
पार मौजूद होते हैं । इसी प्रकरण में लेखक ने एक और धारणा का उल्लेख किया है जिसके
मुताबिक अंतर्राष्ट्रीय संबंध और परिघटनाएं तब राष्ट्रोपरि हो जाती हैं जब वे न
केवल किसी राष्ट्रीय आयाम का ही बल्कि राष्ट्रीय पहचानों का भी अतिक्रमण करके
दूसरों के साथ अंतरण और साझेपन के आधार पर समेकन अर्जित कर लेती हैं । बहरहाल
कोमिंटर्न के बारे में राष्ट्रोपरि रुख अपनाते हुए मानदंडों की भिन्नता की उपेक्षा
नहीं करनी चाहिए । इस संगठन में नानाविध यथार्थ शामिल थे जिनका प्रसार स्थानीय से
लेकर वैश्विक स्तर का था । एक बात और है कि कोमिंटर्न के साथ जुड़ी पार्टियों के
सभी सदस्य इसमें सीधे शामिल नहीं होते थे । वे स्थानीय,
क्षेत्रीय
और राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रहते थे और उनमें से बहुत थोड़े ही लोग अंतर्राष्ट्रीय
कार्यवाहियों में भाग लेते थे । इसलिए कम्युनिस्ट गतिविधियों के देशगत विभाजन को
भी ध्यान में रखना चाहिए ।
कोमिंटर्न ने शुरू से ही समूची
दुनिया को अपनी सक्रियता के लिए चुना । हालांकि इस संगठन की शुरुआती गतिविधियों का
क्षेत्र यूरोप, एशिया,
अमेरिका
और लैटिन अमेरिका के कुछ हिस्से ही थे लेकिन इसका लक्ष्य वैश्विक था । कोमिंटर्न
की स्थापना को यदि पूंजीवादी विश्व व्यवस्था बनाने की कोशिशों के विरुद्ध वैकल्पिक
वैश्वीकरण की तरह समझा जाय तो यह मजदूर आंदोलन के इतिहास का उत्पाद भी था ।
उन्नीसवीं सदी के अंत में मजदूर आंदोलन को राष्ट्रवाद के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रवाद
की यह खास दिशा और राजनीति मिली थी । इसी पुरानी परम्परा को जीवित करते हुए
कोमिंटर्न ने राष्ट्रीय सीमाओं के आर पार मजदूर वर्ग की राष्ट्रोपरि क्षैतिज एकता
कायम करने का प्रयास किया । इस दायित्व को पूरा करने में दूसरा इंटरनेशनल विफल रहा
था । सर्वहारा अंतर्राष्ट्रवाद से दगा न कर सके इसके लिए कोमिंटर्न ने कड़े नियम
बनाये और मजबूत सांगठनिक ढांचों का विकास किया । अनुशासन,
केंद्रीकरण और पेशेवर रुख इन सबका ही नतीजा था । इसके बावजूद इसने अपनी गतिविधियों
के लिए राष्ट्रीय गोलबंदी की उपेक्षा नहीं की । इसकी अधिकांश कार्यवाहियों का
आयोजन राष्ट्रीय स्तर पर ही हुआ । वैसे स्थानीय स्तर पर कार्यक्षेत्र और रिहायशी
इलाकों में भी तमाम कार्यक्रमों को इसने संगठित किया । आदर्श तो यह था कि ऐसी तमाम
गतिविधियों का संयोजन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो लेकिन इसको लागू कराना आसान नहीं
था । इसकी मुश्किलात की गवाही कोमिंटर्न के दूतों के तमाम हस्तक्षेप देते हैं ।
केंद्रीकरण के प्रयास अधिकतर विफल ही रहे हालांकि
1921 से 1934 के
बीच विचलन या देश विशेष के हालात के मुताबिक नीतियों को समायोजित करने या विशेष
किस्म के अभियानों के प्रति असहिष्णुता बढ़ती नजर आती है । कुल मिलाकर कोमिंटर्न बहुस्तरीय
ढांचा या अभियान था जिसके सभी घटक हमेशा तालमेल नहीं बनाये रख पाते थे ।
अभिलेखागार के खुलने के बाद होने
वाले शोधों में यह नजरिया दिखाई देता है । मसलन जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी और
मास्को के बीच संबंधों के इतिहास में संस्कृतियों के टकराव को लक्षित किया गया है
। कहने का मतलब यह नहीं कि कोमिंटर्न पर सोवियत संघ के प्रभुत्व की अनदेखी की जाय
या सोवियत पार्टी तथा अन्य पार्टियों के रिश्तों में सम्पूर्ण समानता समझी जाय ।
इस तथ्य से भी आंख चुराने की जरूरत नहीं है कि स्तालिन तथा पश्चिमी विचारकों की
समझ दुनिया के बारे में अधिकाधिक अलग होती गयी थी । लेकिन इस इतिहास बोध के समक्ष
विपरीत तथ्य भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं जिसमें पश्चिम और सोवियत संघ के बीच लेन
देन, अंतरण और दोतरफा आवाजाही के
ठोस सबूत मिलते हैं । राष्ट्रोपरि निगाह से देखने पर सोवियत संघ और पूंजीवादी
समाजों के बीच काफी जटिल अंतर्निर्भरता का पता चलता है । इन दोनों व्यवस्थाओं के
बीच ढेर सारे मामलों में समानता भी थी । मसलन दोनों ही तकनीकी प्रगति में प्रचंड
भरोसा रखते थे और इस मामले में एक दूसरे से सीखते भी थे । सोवियत संघ भी आधुनिकता
और आधुनिकीकरण के विचारों से बहुत प्रभावित था । इसी वजह से समूची यूरोपीय परम्परा
की तरह सोवियत संघ में भी नये मनुष्य को गढ़ने का संकल्प व्याप्त था । यह संकल्प
प्रकृति और राष्ट्रों को फिर से सजाने में भी व्यक्त होता था । तार्किकता में
मजबूत यकीन भी दोनों को आपस में जोड़ता है । इस नजर से देखने पर कहा जा सकता है कि
सोवियत संघ आधुनिकता की वैकल्पिक राह पर तो था लेकिन उसके पूंजीवादी स्वरूप से
रिश्ता भी बनाये हुए था । उनकी आपसी लेन देन में होड़ का तत्व भी शामिल था ।
कोमिंटर्न के जरिये यह दोतरफा लेन
देन होती थी । सरहदों के आर पार दोनों प्रणालियों के बीच आवाजाही मुख्य तौर पर
इसके ही माध्यम से होती थी । विदेशों में रहने वाले कम्युनिस्ट पश्चिमी समाज में
समर्थन पाने के लिए सोवियत संघ के नेताओं के प्रयासों पर निर्भर थे । उनके सहारे
ही दुनिया के अनेक हिस्सों में फैला हुआ यह अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक संगठन अपनी
बहुतेरी गतिविधियां चला पाता था । उनमें अनेक लोग ऐसे थे जो कोमिंटर्न के दूत और
पेशेवर क्रांतिकारी के बतौर सचमुच का राष्ट्रोपरि जीवन बिताते रहे थे । विचारों और
प्रतिनिधियों की आवाजाही का प्रभावी माध्यम यही संगठन था । अनेक कम्युनिस्ट
पार्टियों ने स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप अंतर्राष्ट्रीयता को ढाला । इसी तरह
कम्युनिस्ट योद्धा की छवि को दुनिया भर में नायकत्व मिला । स्पेन के गृहयुद्ध में
इसी के अनुरूप तमाम स्तरों पर हस्तक्षेप हुआ । वहां लड़ने वाले योद्धाओं के विवरण
सोवियत प्रेस में छापे जाते और मास्को में स्पेनी नाटकों के मंचन होते थे । साझी
पहचान का बोध और एकजुटता को मजबूत करने के लिए स्थानीय रीति रिवाजों का वैश्वीकरण
किया गया और प्रमुख घटनाओं का साझा उत्सव मनाया गया । अक्टूबर क्रांति की सालगिरह
लगभग सभी देशों में मनायी जाती और लेनिन के निधन पर दुनिया भर के करोड़ो मजदूरों के
शोक की खबर सोवियत संघ में छापी गयी । सिद्ध है कि न केवल राजनीतिक दिशा बल्कि
व्यावहारिक गतिविधियों और राजनीतिक हस्तक्षेपों के मामले में भी तमाम देशों की
सरहदों के आर पार का नजरिया अपनाया गया ।
मजबूत अंतर्राष्ट्रीय अभियानों को
चलाने की भी अत्यंत प्रभावी क्षमता कोमिंटर्न ने प्रदर्शित की । इस मामले में उसने
किसी भी दूसरी राजनीतिक ताकत के मुकाबले आगे बढ़कर बार बार विभिन्न मुद्दों पर
एकजुटता अभियान संचालित किये । खास तौर पर इटली या जर्मनी में फ़ासीवादी उत्पीड़न के
शिकार साथियों के सवाल पर उसने उनकी रिहाई हेतु अंतर्राष्ट्रीय वकीलों की फौज भी
उतार दी । इन अभियानों के बारे में कोई भी केंद्रीय निर्देश सब कुछ को कतई नहीं
निर्धारित करता था । 1921 में लेनिन के अनुरोध पर मजदूरों के लिए अंतर्राष्ट्रीय
राहत कोष की स्थापना मजदूरों के बीच राष्ट्रोपरि एकजुटता की नयी अभिव्यक्ति थी ।
ऊपर जिन तीन प्रवासियों का जिक्र आया है उनमें से एक,
विली
मुंत्सेरबेर्ग ने इस तरह के अनेक अभियानों का सूत्रपात किया । अमेरिका में
उन्होंने ट्रेड यूनियनों, स्त्रियों,
बच्चों, संगीतकारों,
खिलाड़ियों
और अन्य लोगों की समितियों का गठन किया ताकि सोवियत संघ हेतु राजनीतिक समर्थन की
गोलबंदी हो सके । उन्होंने विश्व प्रसिद्ध बौद्धिकों,
कलाकारों और वैज्ञानिकों को साझा मकसद के लिए एकजुट किया । इस प्रतीकात्मक समर्थन
से मजदूरों की राष्ट्रोपरि एकजुटता के साथ कष्ट उठा रहे लोगों की सहायता तक तमाम
अभियान मजबूत हुए । इस तरह के बहुतेरे अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता के अभियान न केवल
कम्युनिस्टों के कर्तव्य थे बल्कि ये उनकी पार्टी संस्कृति के अभिन्न अंग थे ।
सोवियत संघ की विशेष प्रकृति के कारण कम्युनिस्टों की राजनीति में पारदेशीय तत्व
बना रहा । विश्वयुद्धों के बीच के कम्युनिस्ट आचरण की यह बुनियादी पहचान थी जो कुछ
हद तक बाद में भी कायम रही ।
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