2023 में लेफ़्टवर्ड से ब्रह्म प्रकाश की किताब ‘बाडी आन
द बैरीकेड्स: लाइफ़, आर्ट ऐंड रेजिस्टेन्स इन कनटेम्पोरेरी इंडिया’ का प्रकाशन हुआ
। एक साल बाद इसका इंटरनेट संस्करण हुआ । कोरोना महामारी की दूसरी लहर के जिक्र से
इस किताब की शुरुआत हुई है । लेखक भी इसकी चपेट में आये थे । तब सबकी तरह उन्हें
भी एक एक सांस लेना भारी हो गया था । इसके बावजूद किताब कोरोना के बारे में नहीं
है । कोरोना का जिक्र इसमें सेहत की खराबी के लक्षण के बतौर हुआ है । जीवंतता की
कमी को देश के हाल की तरह देखा गया है । आजादी पर लगे पहरे जीवन की जरूरत बढ़ा देते
हैं । पहरों के बीच भी इस किताब में उम्मीद की कहानी दर्ज की गयी है । देश के
शहरों में कोरोना के समय जो बाड़ेबंदी हुई थी उसने सामाजिक ऊंच नीच के सारे तरीकों
की याद एकदम ताजा कर दी । इसके साथ ही सरकार की तानाशाही और प्रतिबंधों तथा
मनाहियों के भी नये रूप उभरकर सामने आये । भय, संदेह, अफवाह और अदृश्य शत्रु की
मौजूदगी ने इन्हें आधार प्रदान किया । मौतों की खबरों ने निराशा को भी जन्म दिया ।
इसी दौरान नये तरह की एकजुटता ने भी दर्शन दिये जब जीवन बचाने के लिए लोगों ने सड़क
पर उतरने का खतरा उठाया । सरकारें पूरी तरह गायब थीं तो लोगों ने नयी व्यवस्था का
निर्माण किया । इसी समय समझ आया कि सफाईकर्मियों के लिए तो प्रतिदिन महामारी है ।
सीवरों में दम घुटने से उनकी मौत रोज होती है । उनका तो जीवन ही अवरोधों से भरा
रहता है । जन्म से लेकर मृत्यु तक कभी वे अपनी हदबंदी को पार नहीं कर पाते । उनके
शरीर पर ही उनकी हद दर्ज रहती है । स्त्रियों और अछूतों के लिए हमारे समाज ने ऐसे
प्रतिबंध बनाये हैं कि उनके शरीर इनके मुताबिक खुद को ढाल लेते हैं । रास्ता चलते
हुए उन्हें अपनी सामाजिक हैसियत का भी ध्यान रखना पड़ता है । पहचान, घेरेबंदी, सरहद
और बहिष्करण से ही इतिहास में नस्ल के यथार्थ का उत्पादन हुआ है । उससे अपमान और
असहायता का बोध पैदा होता है जो आपकी मनुष्यता को आधा कर देता है । बाधाओं के भीतर
अंग संचालन ने सौंदर्य के मानकों को भी तय किया ।
इसका उदाहरण नाट्यशास्त्र है । उसमें निम्न जातियों और
स्त्रियों के चलने के तरीकों का वर्णन है । निचली जाति के लोगों को चारों ओर निगाह
डालते हुए चलना चाहिए ताकि अन्य लोगों से उनका स्पर्श न हो । सामाजिक हैसियत से
आपकी गति निश्चित होती है । मंदिरों की दीवारों, स्कूलों और संस्थाओं में इसे
लिपिबद्ध किया जाता है । शिष्टाचार, वस्त्र विन्यास और अभिवादन के तरीके में भी
उसकी अभिव्यक्ति होती है । उनकी निगाह में भी इसे नजर आना चाहिए । दूसरे लोग घूरें
तब भी आपकी नजर झुकी होनी चाहिए । इससे रीढ़ भी सीधी नहीं रह जाती । शरीर की अवस्था
उसी तरह कामुक बन जाती है जिस तरह चीनी स्त्रियों के छोटे पैर कमल की तरह सुंदर
माने जाते थे । इन बंधनों से स्त्रियां चीखती रहती हैं लेकिन रसिकों के लिए वही चीख
सौंदर्य में बदल जाती है । कला और परम्परा के नाम पर स्त्री शरीर का प्रशंसात्मक
वस्तूकरण जारी रहता है ।
कोरोना ने बहुतों का जीवन बदल दिया लेकिन अन्य बहुतेरों
के लिए वही उनका सामान्य जीवन था । अलग बात है कि उसे देखने में लोगों की रुचि
नहीं थी । गांधी जी के बंदरों की तरह आंख, कान और मुंह बंद रखना ही हमारे जीवन का
सच था । इस सिलसिले में लेखक ने एक सफाईकर्मी द्वारा शादी करने के फैसले का जिक्र
किया है । उसके इस फैसले से लेखक को दूसरी दुनिया नजर आयी । इस दुनिया में शाहीन
बाग के प्रदर्शनकारी थे । इसी दौरान सफाईकर्मियों ने जीने के हक के लिए हड़ताल की
और प्रदर्शन भी आयोजित किया । वे कानून प्रतिबंधित मैला ढोने की प्रथा के खात्मे
की मांग कर रहे थे । जंगल में जाने पर रोक के विरुद्ध आदिवासियों ने मध्य भारत में
सबसे बड़ा जुलूस निकाला । कश्मीरी लोग विरोध प्रदर्शनों में वैकल्पिक विधान सभा खड़ी
कर रहे थे । सड़कों और चौराहों तथा घाटियों और जंगलों में वैकल्पिक प्रतिनिधि सभाओं
का निर्माण हो रहा था । प्रतिरोध जारी था । मानवता को नुकसान बहुत हुआ लेकिन वह
जिंदा रही । सब कुछ खत्म नहीं हुआ था ।
पूर्वोक्त सफाईकर्मी ने इसी महामारी के दौरान बैंड, बाजा और बारात के साथ शादी की । युवक उसकी शादी में खूब नाचे । प्रेम और जीवन
के पक्ष में उनका नृत्य कोरोना के दौरान मौत के नाच से टक्कर ले रहा था । इससे उन्हें
रोका भी कैसे जा सकता था । बागों में कोयलें लौट आयी थीं । दोस्तों की बालकनी में फूल
खिल रहे थे । जीवन के उत्सव को कुछ भी कुचल नहीं सकता । जीवन के इसी राग पर लगे वर्तमान
भारतीय प्रतिबंधों के विरोध में लिखे लेखों का संग्रह इस किताब में हुआ है । ये
लेख मुहाने पर खड़े होकर लिखे हैं । इन्हें हाशिये की आवाज समझना होगा । सौंदर्य और
राजनीति की संधिरेखा इनमें झलकती है । इनका लेखन ऐसी वेध्य स्थिति में हुआ है जब
आपके पास पीछे हटने की कोई जगह नहीं रह जाती । यह हमारे लिए आखिरी सीमा होती है
लेकिन उस सीमा पर निश्चल नहीं रहा जा सकता । वहीं से प्रतिरोध दर्ज करना होता है ।
यहीं से नयी राजनीति और संस्कृति का जन्म होता है । सही है कि एक कदम आगे जाते ही
शासन का शिकंजा कस जायेगा लेकिन दो कदम आगे जाने से जीवन और आजादी हासिल होंगे ।
कुछ भी न करने से कुछ नहीं बनेगा । अंत के भय और आजादी के आकर्षण से ही कला और
जीवन के मुहावरे बदलते रहे हैं ।
लेखक के मुताबिक इन लेखों का जन्म दमघोंटू माहौल में
सांस लेने की कोशिश के बतौर हुआ है । कभी कभी ऐसी हालत हो जाती है जब शरीर में
कंटीले तारों की बाड़ को लांघ जाने का संकल्प पैदा हो जाता है । उस हाल में हम सांस
नहीं ले पाते लेकिन लेते हैं । जब तानाशाह का शासन अपनी हद को फैलाता हुआ हमारी जिंदगी
और आजादी को लील लेने बढ़ता है तो कदम उठाना हमारी मजबूरी हो जाता है । नयी
राजनीति, नया प्रतिरोध, नये संकल्प और नयी अनुभूति का जन्म होता है । ऐसे में सांस
लेने जैसी सहज क्रिया भी सचेत राजनीतिक फैसला हो जाती है । सांस लेने का हक नयी
दावेदारी बन जाता है । जीवन जीने की यह न्यूनतम शर्त हमारी मांग बन जाती है । यहीं
पर लेखक ने अमेरिका में अश्वेत आंदोलन के नारे ‘आइ कान’ट ब्रीद’ को याद किया है और
इससे भारत के दलितों की समानता न होते हुए भी लक्षण की समानता पर जोर दिया है ।
इसी वजह से यह हाल अश्वेत के साथ ही दलित, शरणार्थी, गरीब और स्त्री का भी हो जाता
है । लेखक ने फ़्रांको बिफ़ो बेरार्दी की राय का हवाला देते हुए लिखा है कि सांस न
ले पाने का मुहावरा समय की सामान्य भावना है । महानगरों में प्रदूषण के कारण दम
घुट रहा है तो अधिकतर शोषित मजदूरों का सामाजिक जीवन अस्थायित्व का शिकार हो गया
है । समूचे वातावरण में हिंसा, युद्ध और आक्रामकता का भय व्याप्त हो गया है ।
कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि पहले हालात आदर्श स्थिति
में थे । फिर भी दीर्घकालीन संघर्षों के जरिये स्त्री अधिकार, समता और सामाजिक
न्याय के मोर्चे पर जो कुछ भी हासिल किया गया था उन सब पर अनुदार दक्षिणपंथी
राजनीति और नवउदारवादी सत्ता की ओर से जबर्दस्त हमला बोल दिया गया है । समतावादी
राजनीति को कदम वापस लेने पड़े हैं । भूमि पुनर्वितरण की मांग करने वालों को जमीन
बचाने की लड़ाई लड़नी पड़ रही है । यह वापसी खतरनाक है । इस किताब के लेखों में इसकी
हद को समझने का प्रयास किया गया है । अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक से शुरू होकर
मौलिक अधिकारों की कटौती तक भारतीय राज्य ने हल्ला बोल दिया है । शरीर और लोकतंत्र
पर वर्तमान शासन ने पहरा बिठा दिया है । जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र पर भयंकर लाकडाउन
जारी है । विरोध और विक्षोभ की अभिव्यक्ति का गला दबा दिया गया है । नवउदारवाद के
तहत यह सब पूरी दुनिया में हो रहा है लेकिन अपने देश में हालात बदतर हो गये हैं ।
लोगों के धीरज की परीक्षा ली जा रही है । शरीर के साथ शब्द, अधिकार, विक्षोभ, कला
और अभिव्यक्ति, सब पर पहरा है । अवरोध के भी अनेक रूप हैं । दीवार, हदबंदी, मेरिट
और सौंदर्य के रूप धरकर यह प्रकट होता है ।
यहीं पर लेखक ने याद दिलाया है कि हमारे देश में प्रतिगामी
मूल्य कोई नयी बात नहीं हैं । बहुत पहले से निर्धारित है कि किसे ज्ञान मिलेगा और किसे
नहीं मिलेगा । सभी जानते हैं कि कौन किस हद तक चलकर आ सकता है । जाति आधारित समाज में
शरीर की हद पूर्वनिर्धारित है । इसी हिसाब से उनके जीवन का मूल्य भी तय होता है । रोक
और प्रतिबंध की प्रक्रिया भी संस्कृति की तरह आहिस्ता आहिस्ता रिसकर हमारी चेतना में
जगह बना लेती है । इसके साथ सुरक्षा का छलावा भी रहता है । नवउदारवाद की राजनीति
से इसका गहरा नाता है । उसी तरह इसकी शुरुआत कटौती और सुरक्षा के उपायों से होती
है और आजादी तथा लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन तक पहुंचती है । इसके बाद प्रतिरोध
तो जीवन मरण का प्रश्न बन जाता है । यह सोचना उचित नहीं कि हमारे जीवन जगत में ये
अवरोध सहसा पैदा हुए हैं । भाजपा की दक्षिणपंथी राजनीति के उभार के साथ भी इसे
जोड़ना ठीक नहीं है । हिंदू समाज के ताने बाने में मनाहियों का यह जाल समाया हुआ है
। राष्ट्र के साथ मंदिर होते हुए यह ब्राह्मणवाद संसद के भीतर घुस आया है । देश की
राजनीति के हृदय तक यह जहर धीरे धीरे फैलता हुआ पहुंच रहा है । व्यवस्था द्वारा इस
खतरे की अनदेखी और राज्य का इसके साथ सहकार एक दिन में नहीं घटित हुआ है । भीड़
हत्या में बढ़ोत्तरी और लोकतंत्र की समाप्ति कोई अचानक की बात नहीं हैं । यह स्थिति
भारतीय राज्य की बुनियाद में ही छिपी बैठी थी । हवा में जहर घोलने का काम धर्म ने
किया था और फिर नफ़रत की दीवार उठती गयी ।
धार्मिक दंगे, जनसंहार और नफ़रती माहौल का निर्माण एक दिन
में नहीं होता । नफ़रत करना सीखने में समय लगता है । इसे किसी धार्मिक कर्मकांड की तरह
लगातार जारी रखना होता है । किसी का कलंकीकरण और रूढ़ छवि का निर्माण निरंतर चलाना
पड़ता है ताकि वांछित फल मिल सके । आखिरकार विभाजन केवल नक्शे पर खिंची सरहद नहीं
होता उसे तो वास्तविक बनाने के लिए दिलों के बंटवारे तक ले जाना होता है । किताब
में जो लेख हैं उनका रिश्ता केवल कोरोना से नहीं है । मनाहियों और पाबंदियों के
समाज से उनका रिश्ता है जिसमें शरीर और जगह के मामले में ऊंच नीच की व्यवस्था को
बरकरार रखना होता है । भय-आतंक का राज कायम रखने के लिए जीवन और आजादी में कटौती
की जरूरत होती है । यही राजनीति हमें अपनी हद तक ठेलकर ले जाती है । कोरोना ने उस
राजनीति को बेपर्द कर दिया इसलिए उसका जिक्र भी आता रहा है । जिन अवरोधों को हमने
उस दौरान मजबूती से कायम होते देखा वे वर्तमान तानाशाही को समझने का अवसर देते हैं
। अवरोध तो जनता ने सेना के विरुद्ध अपनी रक्षा के लिए सड़कों पर खड़े किये थे लेकिन
आज वे जनता के ही विरुद्ध इस्तेमाल हो रहे हैं । पुलिस और सेना उनके बल पर
आंदोलनों से निपटती है ।
एरिक हज़ान ने अवरोधों के इतिहास पर लिखते हुए उन्हें क्रांतिकारी
संघर्ष के गौरवपूर्ण प्रतीक के रूप में चिन्हित किया है । उन्होंने यह भी बताया कि
बीसवीं सदी में शहरों में आये बदलाव की वजह से इन्हें हाशिये पर डाल दिया गया । शहरों
के साथ ही सेनाओं का भी आधुनिकीकरण हुआ । इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए लेखक ने जन आंदोलनों
को रोकने की रणनीति के रूप में अवरोधों को राज्य द्वारा हड़प लेने की प्रक्रिया को देखा
है । जनता द्वारा अवरोध खड़ा करने को न केवल गैर कानूनी और आपराधिक बना दिया गया बल्कि
कुलीन शासक भी इसे पूंजी के मुक्त प्रवाह में बाधक समझने लगे । अब तो सवाल यह हो गया
कि कौन किसके विरुद्ध और किस मकसद से अवरोध खड़ा करता है । शासकों ने लोगों का गला घोंटने
के लिए इनका उपयोग किया तो लोगों ने आजादी और प्रेम के मुक्त इलाके तैयार करने के लिए
भी इनको पहले इस्तेमाल किया है ।
शरीर और अवरोधकों का संबंध इकहरा नहीं होता । एकाधिक कारणों
से वे आपस में मिलते हैं । सबसे पहला सम्पर्क दिमाग में यही आता है कि सेना और पुलिस
इन्हीं अवरोधकों से प्रदर्शनकारियों के शरीर को पीछे धकेलती है । कभी कभी प्रदर्शनकारी
भी शासन को परे रखने के लिए इन्हें खड़ा करते हैं । शासन से सुरक्षा भी कभी कभी अवरोधकों
से मिलती है । कभी कभी तो शरीर ही संगठित होकर अभेद्य अवरोधक में बदल जाता है । उत्पल
दत्त ने अपने एक नाटक बैरीकेड में इसे मजदूरों का महत्वपूर्ण हथियार बताया है । इसके
इस्तेमाल से न्यू यार्क की अश्वेत बस्ती हार्लेम और कलकत्ता का मजदूर इलाका खिदिरपुर
एक समान हो जाते हैं । शासन और उसके विरोधी इसी अवरोधक पर आकर एक दूसरे से जोर आजमाइश
करते हैं । इनके सामने पारम्परिक सोच हवा हो जाती है और वैकल्पिक चिंतन की जरूरत पैदा
होती है । इस वैकल्पिक चिंतन को सजा भी इसी मुकाम पर दी जाती है ।
यह किताब तानाशाही, मनाहियों की उसकी संस्कृति और उसके प्रतिरोध
के बारे में लिखे निबंधों का संग्रह है । शरीर द्वारा अवरोधों का प्रतिरोध और उनको
उखाड़ फेंकना, अवरोधों को लांघ जाना या सांस लेने की जगह कम पड़ जाने पर शरीर का ही
अवरोधक बनकर जगह बनाना ऐसी क्रियाएं हैं जो संकट के समय द्वार खोलती हैं । जब
सड़कों पर संगठित होकर मनुष्यों के शरीर एकत्र होते हैं तो वे सत्ता द्वारा अनुमन्य
स्थापत्य और स्थानिकता के बाहर जाकर उसके विरोध में देश और काल का सृजन करते हैं ।
अवरोधों के चलते जब हाथ पैर हिलाना भी मुश्किल हो जाय तो नयी राह खोलनी ही पड़ती है
। अवरोधों के विरोध में यह गति और आंदोलन ही आशा का स्वप्न बनाते हैं । इसके साथ
ही पूंजी की बेलगाम गति के विरोध में अवरोध और रुकावट प्रतिरोध का भी काम करते हैं
।
जब तक मनाही और रुकावट का प्रवेश लेखक के घर तक नहीं हुआ
तब तक उन्हें दूसरों का दमघोंटू जीवन नजर नहीं आता था । इन लेखों में उसी अदेखे
जीवन को नयी निगाह से देखने का आमंत्रण है । इसके जरिये एकजुटता की सम्भावना पैदा
होती है । शोक से ही यह पता चला कि प्रत्येक जीवन इतना मूल्यवान है कि उसके न होने
का शोक मनाया जाना चाहिए । दम घुटने की एकजुटता से ही मुक्ति के प्रयास की एकजुटता
का जन्म होता है । इसी परिप्रेक्ष्य के साथ लेखक ने भारत की समकालीन सांस्कृतिक राजनीति
पर भी विचार किया है । शरीर, शब्द और आंदोलनों पर रोक ही इन लेखों को आपस में
जोड़ते हैं । खामोश करने की इस संस्कृति के विरोध में लेखक ने कला, जीवन और आजादी
की अदम्य भावना का इजहार किया है । लेखों के कुछ हिस्से पहले भी छप चुके हैं ।
इन्हें बहस की शैली में गुस्से के साथ लिखा गया है । जब भी चुप रहना लेखक के लिए
मुश्किल हुआ तो इन्हें लिखा गया । लेखक का मानना है कि हिंसा और त्रासदी के
महाकाव्य के समक्ष महज आंकड़ों और सूचनाओं से भरा लेखन नहीं किया जा सकता ।
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