Tuesday, May 28, 2024

प्रतिभा का विस्फोट

 

         

                            

अनुपम ओझा उन विरल रचनाकारों में हैं जिन्होंने एकाधिक क्षेत्रों में हाथ आजमाया और सबमें ही पारम्परिक अर्थों में सफल भी रहे । सबसे पहले स्नातकोत्तर  स्तर पर अध्ययन करते हुए उनका काव्य संग्रह छपा । फिर उनकी रुचि सिनेमा में जागी तो उससे जुड़ी किताब भी राजकमल से छपी । और अब धोती और ध्रुपदशीर्षक से यह कहानी संग्रह । इसकी अधिकतर कहानियों का बनारस से रिश्ता है बनारस से जुड़े किसी भी व्यक्ति के लेखन पर अगर वर्तमान समय की छाप नहीं है तो उसकी संवेदनशीलता पर शंका की जा सकती है । हजारों साल पुराना यह नगर फिलहाल पूंजी के आक्टोपसी चंगुल में इस कदर फंस गया है कि उसका भाग्य निर्जीव होकर किसी तरह बचे रहना ही महसूस होता है । मार्क्स ने पूंजीवाद के हाहाकारी स्वरूप का जो वर्णन किया है उसकी विध्वंसकता को बनारस जाकर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है ।

संग्रह का शीर्षक ही हमें लेखक की रचनात्मकता से परिचित करा देता है देश के सर्वशक्तिमान शासक की आलोचना करते हुए उसके कुलनाम को ले लेने से कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी की संसद सदस्यता रद्द हो गयी थी इस कुलनाम का भय इतना अधिक है कि बहुतेरे लोग उसकी लय का इस्तेमाल करते हुए कोई भी अन्य नाम खोज निकालते हैं गोदी मीडिया इसका सबसे उपयुक्त उदाहरण है कुछ लोग तो उसे भदोही भी बना लेते हैं फिलहाल उन्हें मोती कहा जा रहा है इसकी ध्वनियों के बारे में कुछ कहना ही उत्तम होगा अनुपम ने इसे धोती कहा है । अगर यह बात अतिपाठ लगे तो हर हर धोती, घर घर धोती का नारा पहली ही कहानी में सबूत के बतौर उपस्थित है ।   

वस्त्र के इस विशेष रूप से एकाधिक छवियां पैदा होती हैं स्त्री के प्रकरण में इससे कुलीनता नहीं पैदा होती लेकिन पुरुष के लिए यह वस्त्र केवल कुलीनता बल्कि बहुधा महत्वपूर्ण उत्सवों आदि से जुड़ जाता है विवाह और पूजा के समय धोती स्वतंत्र आभा ग्रहण कर लेती है उसके साथ मुहावरे भी जुड़े हैं जिसमें धोती खोल देना बहुत लोकप्रिय है स्वयं उस शासक ने अपने गृहप्रांत में किसी बुजुर्ग नेता के साथ इस तरह के आचरण की व्याप्ति की कथा सुनायी थी लेखकों द्वारा इस किस्म के उपाय अपनाना बहुत पुरानी परम्परा है सभी कथा लेखक जानते हैं कि असली नाम लेने के खतरे से बचने के लिए उन्हें तमाम पात्र अलग नामों से गढ़ने पड़ते हैं जबसे कहानी है तबसे ही शक्तिशाली की खिल्ली उड़ाने की प्रथा भी है और इसका सफल तथा सुरक्षित निर्वाह करने के लिए यह युक्ति भी सभी लेखक अपनाते रहे हैं

बनारस में होने वाले बदलावों को काशीनाथ सिंह ने भी अपनी कहानियों में बेहद संवेदनशीलता के साथ दर्ज किया था अनुपम की कहानियों का संसार उनके बाद का है इनमें नगर की आत्मा ही मर गयी है इस विध्वंस के निशान बनारस तक ही महदूद नहीं बल्कि राष्ट्रव्यापी हो गये हैं इनके भौगोलिक प्रसार के साथ ही मानसिक विस्तार को भी इन कहानियों में दर्ज किया गया है इन कहानियों में युवा प्रेम भी उसी विध्वंस का शिकार हुआ है इसलिए कहानियों में प्रेम करती लड़कियों की मौजूदगी भी पर्याप्त है प्रेम सबसे कोमल क्षेत्र है जिसे इस बदलाव वा विध्वंस ने अपना शिकार बनाया है प्रेम की रोमांटिकता को ध्वस्त करता हुआ देह व्यापार का बहुत पुराना व्यवसाय है जिसने स्त्री के शरीर का इस कदर वस्तूकरण किया है कि उसकी मनुष्यता का अंदाजा ही बहुधा नहीं होता । इन कहानियों में स्त्री की ढेर सारी छवियों के दर्शन होते हैं । सबसे अधिक करुणा उपजाने वाली हालत यह है कि पुत्र प्राप्ति की आशा में लड़कियों का जन्म होता जाता है और वे अनचाहे अस्तित्व की तरह पारिवारिक दायित्व निभाये जाती हैं । रोज के इस अनचाहे बोझ की बहुरंगी छवि भी इस संग्रह की बड़ी विशेषता है । बहुतेरी दीगर चीजें भी अमानुषीकरण की इस प्रक्रिया का शिकार हुई हैं बदलाव की प्रेरणा बनकर हमारे देश में टेलीविजन आया था जिसने प्रत्येक घर में बाजार का प्रवेश कराया और सामर्थ्य से अधिक की आकांक्षा पैदा कर दी इसने जीवन गुजारने के पारम्परिक रवैये को पिछड़ापन साबित किया और अनाप शनाप खर्च को ही आधुनिक होने की कसौटी बना दिया नष्ट होती इस समृद्ध सभ्यता में सबसे हृदयविदारक प्रसंग पर्यावरण का मनुष्य द्वारा आत्मघाती नाश है

यह विनाश शहरों से फैलता हुआ देहात तक भी जाता है । भारत के देहात का विनाश समूचे संसार की सबसे बड़ी दुर्घटना है । अंग्रेजी शासन प्रणाली ने शपथ का व्यवसायीकरण किया तो झूठ बोलने की शर्म समाप्त हो गयी थी । अबकी बार जो हो रहा है उसने भ्रष्टाचार को सहज जीवन पद्धति में बदल दिया है । देश की लगभग प्रत्येक संस्था इसके लपेटे में आ चुकी है । अबाध भोग की आकांक्षा ने युवकों को देहात से उखाड़ दिया है और उन्हें मोल तोल की क्रूर दुनिया में किसी तरह जीने लायक सुविधा जुटाने की गलाकाट होड़ में उतार दिया है ।  माहौल की मारकता को जीवंत करने के लिए अनुपम ने व्यंग्य का बहुत बेहतरीन इस्तेमाल किया है । व्यंग्य के अलावे भी इन कहानियों की भाषा में संस्कृतनिष्ठ शब्दों के साथ ही शुद्ध भोजपुरी और अंग्रेजी शब्द भी धड़ल्ले से आते रहते हैं । 

कहानीकार ने लोभ लाभ के इस सर्वग्रासी बाजारी उपभोक्ता वातावरण का प्रतिलोम भी तैयार करने का प्रयास किया है और पाठकों को कला की साधना की ऐसी दुनिया की भी सैर करायी है जिसमें सीखने और सिखाने वाले का अंतर समाप्त हो जाता है और इस भौतिक शरीर के भीतर से ही इसकी सीमा का अतिक्रमण करती हुई सुर और लय की वैकल्पिक दुनिया खुल जाती है । उसका सपना इतना कोमल और भंगुर होता है कि पढ़ते हुए उसमें कहानीकार के यकीन से भय होता है ।      

अनुपम ने एक गांव के जीवन के सजीव वर्णन से देश के माहौल में आयी गिरावट को साकार कर दिया है । इस गिरावट में व्यापारीकरण के साथ ही धार्मिकता का नशा भी शामिल हो गया है । इन दोनों की नशीली मिलावट ने देश की बुनियाद को जिस तरह भीतर से खोखला करना शुरू किया है उसका जोरदार प्रतिकार इस औपन्यासिक वितान की कहानी में दर्ज हुआ है । दुखद रूप से यह धार्मिकता भी नहीं है, इसमें भ्रष्ट सांप्रदायिक राजनीति का जहर भी घुला हुआ है । ध्यान देने की बात है कि इस राजनीति ने अनैतिकता को बहुत बड़ा दर्जा दिया है । दूसरे धर्म के विरोध में अभियान शुरू करने वाले उसे हिंदू धर्म की निचली जातियों के विरोध में मोड़ देते हैं । इन निम्न जातियों को हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था खास किस्म के ही काम करने लायक मानती है इस प्रसंग में मानसिक श्रम की श्रेष्ठता के कारण इस क्षेत्र में उनका आगमन निषिद्ध जैसा ही रहता है संयोग से यदि प्रवेश हो गया तो भी जीवन भर विषैली टिप्पणियों को झेलना पड़ता है कहानी ने यह भी दर्ज किया है कि इस भेदभाव की सफलता के लिए शिक्षा और विवेक का नाश जरूरी है । शिक्षा के विनाश की वर्तमान परियोजना हमारे देश का स्थायी नुकसान करने जा रही है । विवेकहीनता का जब डंका बजे तो समझना होगा कि अब तक के हासिल की भारी क्षति होने जा रही है और उसकी पूर्ति के साधन भी हमेशा के लिए नष्ट किये जा रहे हैं ।        

खटकने वाली एक बात है कि लगभग प्रत्येक कहानी में वाचक पूरी तरह से संदेह से परे है और सबके बारे में फैसला सुनाता रहता है । बेहतर होता कि वह भी सहज मानवीय दुर्बलताओं से संशयग्रस्त नजर आता । इससे पाठक की उसके साथ होने की गुंजाइश बढ़ जाती है । वाचक को अगर पाठक महामानव समझेगा तो उसके साथ खड़ा होने में उसे व्यर्थता का अनुभव होगा । लेखक को सिनेमा का गहरा ज्ञान है इसलिए उसकी छाप भी समय समय पर उभरती रहती है ।                        

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