जब भी हम प्राचीन भारत की कोटि का प्रयोग करते हैं तो भारत के इतिहास में जेम्स मिल के काल विभाजन का ही अनुकरण करते हैं। इसी काल विभाजन के कारण इस्लाम के आगमन के बाद मध्य काल आ जाता है। भारत की परंपरा का जिक्र करते हुए अक्सर 1200 ईस्वी के बाद के भारत की बात नहीं होती। यह संकीर्ण नजरिया एक लम्बी अवधि की उपलब्धियों को अनदेखा कर देता है। काल संबंधी इस गड़बड़ी के अतिरिक्त भारत की मनीषा ने जो भी सृजन किया उसके एक महत्वपूर्ण हिस्से को छोड़ दिया जाता है। उदाहरण के लिए कामसूत्र को हमारी परंपरा का अंग सकारात्मक सोच के साथ नहीं माना जाता।उस ग्रंथ का प्रणयन ही हमारे देश की इहलौकिक परंपरा के कारण संभव हुआ। भारत की मनीषा ने अथर्ववेद में ही भाषाओं और मनुष्यों की विविधता को स्वीकार किया था। बाद में भी इस्लाम के साथ की वजह से सूफी दर्शन का विकास हुआ। भारतीय परंपरा की इसी समावेशी प्रकृति का ध्यान रखकर रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय में इस्लाम के योगदान की चर्चा विस्तार से की है। उन्होंने तो वैदिक धारा को भी निवृत्ति मार्गी मानने की जगह प्रवृत्ति मार्गी माना है। राम विलास शर्मा ने भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश शीर्षक पुस्तक में आयुर्वेद के पीछे भौतिकवादी दृष्टिकोण का योगदान माना। इस्लाम के योगदान को रेखांकित करते हुए उन्होंने तानसेन, तुलसी और ताजमहल को देश की महानतम उपलब्धियों में जगह दी। वर्तमान समय के लिए यदि हम भारतीय मनीषा को प्रासंगिक बनाना चाहते हैं तो उसकी भौतिकता और समावेशिता को जागृत करना होगा। हिंदी साहित्य का प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि आचार्य शुक्ल ने हमारे देश को अध्यात्म प्रधान बनाने में पश्चिमी विद्वानों को जिम्मेदार माना है और विद्यापति के प्रसंग में आध्यात्मिक चश्मों के सस्ते होने का जिक्र किया है ।
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