नवारुण प्रकाशन ने ज्ञानरंजन को मिले पत्रों के तीन खंडों में प्रकाश्य संग्रह का पहला खंड‘ख़तों के आइने में (कुछ चेहरे, कुछ अक्स, कुछ हक़ीक़तें, कुछ अफ़साने )’छापा है । प्रसिद्ध कथाकार प्रियंवद ने चयन, टिप्पणी, प्रसंग और भूमिका लिखने का काम किया है । उनकी पत्रिका‘अकार’में इनमें से कुछ पत्र पहले ही छपे थे जिनसे हिंदी के पाठक समुदाय को इनकी तासीर का पता थोड़ा पहले से भी था लेकिन किताब के समूचे ढांचे से जुड़कर उनकी दीप्ति निखर आयी है । मेरे जानते हिंदी
में इस तरह की कोई दूसरी किताब नहीं है । जब इनमें से कुछ
पत्र प्रकाश में आये थे तभी लगा कि चस्काप्रेमी हिंदी की दुनिया में चटखारे लिये
जायेंगे । इसके बावजूद ज्ञानरंजन ने किसी पत्र को संपादित करने की कोई सलाह नहीं
दी । इस अर्थ में इन पत्रों के जरिए सचमुच ज्ञानरंजन एकदम निष्कवच खुलते हैं ।
जिनके पत्र इस संग्रह में शामिल हैं उनकी सूची पर निगाह डालना उचित होगा । रामनाथ
सुमन, भवदेव पाण्डेय, शील, अशोक सेकसरिया, सईद, काशीनाथ सिंह, कमलेश्वर, विजयदान
देथा, नेत्रसिंह रावत व मणि कौल, कुमार विकल, वीरेन डंगवाल, हृदयेश, सुमति अय्यर,
भीष्म साहनी और राजेंद्र यादव । इस सूची से ज्ञानरंजन को हासिल संबंधों की समृद्ध
विविधता का पता चलता है । इनमें से सभी एक दूसरे से पूरी तरह अलग हैं । इनके भिन्न
होने का भाव उनके पत्रों से बहुत अच्छी तरह खुला है । इसके बावजूद स्वाधीनता
आंदोलन के ताप से लेकर अधुनातन समय तक की वैचारिक गहमागहमी इनके जरिये खुलती है ।
संपादक प्रियंवद खुद कथाकार हैं और इस संग्रह में
उनका कथाकार अद्भुत तरीके से आद्यंत मौजूद है । सभी पत्र लेखक बहुत सारे पात्रों
वाले किसी विराट नाटक के पात्र प्रतीत होते हैं । प्रियंवद ने इन पात्रों के
बहिरंग के साथ उनके अंतरंग को भी उकेरने में अपार परिश्रम किया है । जब पहल निकली
तो सहसा हिंदी की दुनिया की सबसे मान्य पत्रिका बन गयी । इस हैसियत से उसे बहुत
समय तक हटाया नहीं जा सका । इस स्थिति की वजह से ज्ञानरंजन को बहुत सारे पत्र
मिलते थे और उनका जवाब भी उन्हें लिखना पड़ता था । हालांकि इस संग्रह में केवल
ज्ञानरंजन को मिले पत्र शामिल हैं लेकिन उनसे दोनों ओर की खबर मिलती है । पहल की
केंद्रीय स्थिति के कारण ये पत्र एक लम्बे दौर के साहित्यिक इतिहास की कच्ची
सामग्री बन गये हैं । इन पत्रों में जो अनकहा है उसे प्रियंवद ने कह दिया है । इस
कहने में उनकी कोशिश रही है कि भरसक दूसरों को ही बोलने दिया जाये । इसके लिए
उन्होंने अपनी तरफ से कोई टिप्पणी करने की जगह किसी अन्य तत्कालीन लेखक के संस्मरण
या पत्र को उद्धृत कर दिया है । इस विवरण से यह भ्रम नहीं पैदा होना चाहिए कि
प्रियंवद ने किसी नाटककार की तरह केवल पात्रों को ही मंच पर भेजा है । वे कथाकार
हैं इसलिए गाहे बगाहे खुद भी उपस्थित हुए हैं । उनकी यह उपस्थिति अहस्तक्षेपकारी
नहीं है बल्कि इन पत्रों से पैदा होने वाली बहसों और विवादों में उनका अपना पक्ष
भी खुलकर व्यक्त हुआ है । इस पक्ष को कुछ लोग मार्क्सवाद का विरोधी भी कह सकते हैं
। प्रियंवद ने इसकी गुंजाइश भी बने रहने दी है । उदाहरण के लिए अशोक सेकसरिया के
मामले में उनका समाजवादी विचारों की ओर झुकाव भी संपादक की सहानुभूति का कारण बनता प्रतीत होता है । हिंदी की वैचारिक बहसों से
अनभिज्ञ लोगों के लिए इससे थोड़ा भ्रम पैदा हो सकता है । इस पर स्पष्टीकरण की एक और
वजह उन बहसों का समय बीत जाना भी है । असल में मार्क्स को समाजवाद का सबसे मुखर
प्रवक्ता समझा जाता है लेकिन हिंदी के संदर्भ में समाजवादी वे
थे जो लोहिया के विचारों के अनुयायी थे और मार्क्स के विचारों को मानने वालों से
उनकी तनातनी चलती थी । यह तनातनी प्रलेस और परिमल के रूप में सांगठनिक भी हो गयी
थी । समय बीत गया लेकिन उसकी छाया अब भी बनी हुई है । वैसे प्रियंवद का पूरा
प्रयास बहुत ही निष्पक्ष होकर तथ्यों को प्रस्तुत भर कर देना है लेकिन एकाधिक
मौकों पर उनका पक्ष भी व्यक्त हुआ है और कभी कभी तो बहुत खुलकर । उदाहरण के लिए
शील के प्रसंग में इस बात पर बल दिया गया है कि उनके बीमार होने पर चिकित्सा हेतु
दिल्ली ले जाने में उनकी पार्टी ने अपेक्षित तत्परता नहीं दिखाई । इसका दूसरा पक्ष
जानने का कोई प्रयास किताब में नजर नहीं आता । उसी तरह काशीनाथ सिंह के संदर्भ में
लगभग दावे की तरह एक वाक्य है कि गिरिराज किशोर की पहला गिरमिटिया के सामने
काशीनाथ सिंह का समस्त लेखन नहीं ठहरता । साहित्य और संस्कृति की दुनिया से जुड़े
होने के कारण वे भी जानते हैं कि लेखन में इस तरह की तुलना का कोई आधार नहीं होता
। इस तरह की तुलना को आचार्य शुक्ल ने भद्दी बात कहा
। आजकल इसे फतवेबाजी भी कहा जाता है । इससे बचा जा सकता था क्योंकि पत्र खुद भी
बहुत स्पष्ट होकर बोलते हैं ।
किताब की शुरुआत में रामनाथ सुमन, शील और अशोक
सेकसरिया तक तो खास तरह की ऊंचाई बनी रहती है और हमारे सामने घरफूंक फक्कड़ों की
विरल मित्रता के दुर्लभ चित्र आते रहते हैं लेकिन दुर्भाग्य से काशीनाथ सिंह के
पत्रों के आगमन के साथ ही उनके संस्मरण किस्सा साढ़े चार यार के विपरीत वितृष्णाजनक
माहौल खुलना शुरू हो जाता है । इसमें संपादक ने चाहा होता तो व्यक्तियों और उनके
संगठनों को अलगा सकता था । कहा जा सकता है कि पत्र तो सबूत हैं जिनके साथ छेड़खानी
नहीं की जा सकती लेकिन उनके संयोजन और प्रस्तुति में व्यक्तियों की करतूत कभी कभी
संबद्ध संगठन से जुड़ गयी है । इन व्यक्तियों के आपसी रिश्तों का जिक्र जिस तरह
उभरकर आया है उससे शर्मिंदगी की अनुभूति होती है । इसके साथ ही इस बात पर भी ध्यान देना जरूरी है कि लेखक संगठन व्यक्तियों के झुंड नहीं होते अन्यथा उनके साथ बहुतेरे लोग क्यों जुड़ते । इन्हीं पत्रों में कमलेश्वर ने इप्टा की लम्बी यात्रा को झलकाने वाले जिस संगीत कोलाज की योजना लिखी है उसे केवल कुछ व्यक्तियों तक सीमित नहीं किया जा सकता । कमलेश्वर के पत्र अलग से ध्यान देने की मांग करते हैं । किताब में संकलित
जितेंद्र भाटिया के संस्मरण अथवा गाहे ब गाहे उनके सांस्थानिक जुड़ावों का जिक्र
बहुधा आया है । इस मामले में वे संस्थानबद्ध और विद्रोही लोगों के बीच की कड़ी
प्रतीत होते हैं । वे सरकारी सुविधा के घेरे में शर्मिंदा महसूस करते देखे जा सकते
हैं खासकर वल्लभ सिद्धार्थ के संस्मरण में । प्रलेस के सम्मेलन के लिए तो उनके
सुझावों और प्रयासों को देखकर यही लगता है कि इसे अपना मानकर वे इसकी सफलता में
योगदान ही करना चाहते हैं । इससे यही साबित होता है कि संगठनों का दर्जा उनके सर्वोच्च पदाधिकारियों से भी ऊंचा होता है ।
बहरहाल इन पत्रों से प्रलेस के साथ जुड़े कुछ लोगों का ओछापन जाहिर होता है । इसके ठीक विपरीत घरफूंक फक्कड़ों की ऐसी जमात के भी दर्शन इस पत्र संग्रह में होते हैं जिनकी मौजूदगी ने न केवल साहित्य के विद्रोही तेवर को सुरक्षित रखा बल्कि आपातकाल के समर्थन जैसे विश्वासघाती फैसले के साथ जुड़े होने के बावजूद प्रलेस और पहल को प्रासंगिक बनाये रखा । इसी वजह से इस पत्र संग्रह से हिंदी साहित्य के समय विशेष के दोनों पक्षों को देखा जा सकता है । इसमें एक पक्ष संस्थानों के साथ जुड़कर प्रगतिशील मूल्यों को आगे ले जाने की रणनीति के कारण सत्ता प्रतिष्ठान का अंग हो जाता है । इसकी एक झलक प्रलेस के सम्मेलनों में कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की आमद
से मिलती है । कहने की जरूरत नहीं कि उस समय भी इससे असहज महसूस करने वाले लोग थे
। उन्हीं के भीतर से एक
समानांतर धारा का उदय होता है और मूलगामी विद्रोही तेवर वाले लेखकों की विशाल जमात व्यवस्था परिवर्तन के नारे के साथ उभरे नक्सल विद्रोह के पक्ष में खड़ी हो जाती है ।
इस विद्रोही जमात के प्रतिनिधि के बतौर कुमार विकल
और वीरेन डंगवाल मौजूद हैं । कुमार विकल तो फिर भी आकाशवाणी इत्यादि के कुछ
सांस्थानिक प्रसंगों के साथ नजर आते हैं लेकिन वीरेन के पत्र तो इतने नायाब हैं कि
केवल उन्हें देखने की गुजारिश की जा सकती है । उन्होंने ज्ञानरंजन के साथ दर्द का
बेमिसाल रिश्ता बना रखा है । पत्रों में तारीख की तरह ही उनके स्थायी रोजगार की
जगह बरेली कालेज भी लगभग अनुपस्थित है । उनके साथ अमर उजाला नामक दूसरा संस्थान
जुड़ा तो है लेकिन व्यक्ति की ऐसी सर्वव्यापी उपस्थिति है कि संस्थान महज सूचना बनकर
रह जाते हैं । जिक्र है भी तो जमाने के हालात की खबर देने के लिए । सही में पत्र
तो इन्हें ही कहा जा सकता है । घरेलू होने की हद तक अनौपचारिकता से भरे इन पत्रों
में उनका और ज्ञान जी का परिवार लगभग प्रत्येक पत्र में है । अन्य पत्रों से तुलना
करने पर साफ नजर आता है कि वीरेन के पत्रों में तारीख न होने के बावजूद सुनयना
भाभी प्रत्येक पत्र में हैं । जिनका दावा ज्ञानरंजन से बहुत निकटता का है उनमें से
कुछ पत्रों में उनका उल्लेख नहीं मिलता । इस अंतर से पता चलता है कि जहां वीरेन की
नजर में उनकी पत्नी लगातार हैं वहीं नजदीकी लोगों की निगाह में वे कभी कभी
अनुपस्थित भी हैं । इससे स्त्री के प्रति वीरेन के रुख के अलावे यह भी साबित होता
है कि वे किसी भी व्यक्ति को उसकी ऐकांतिकता में नहीं देखते, अन्य प्राणियों के
साथ संयुक्त समझते हैं । वीरेन का यह पहलू सुधीर विद्यार्थी के संस्मरण में भी
जाहिर होता है । ज्ञानरंजन के साथ उनके पत्रों से लगता है कि दो विकल प्राणियों की
ऐसी अंतरंग संवादात्मकता शायद ही कहीं और मिले ।
प्रियंवद ने पत्रों में जिन लोगों या घटनाओं का
जिक्र आया है उनका विस्तार से तो उल्लेख कर ही दिया है, इसके अलावे भी कुछ सामग्री
को एकाधिक परिशिष्टों में रखा गया है । इन परिशिष्टों में रामनाथ सुमन की विरासत, ज्ञानरंजन का उन पर लिखे
संस्मरण के अलावे अशोक सेकसरिया की एक कहानी, सुधीर विद्यार्थी का वीरेन पर लिखा
संस्मरण और कमलेश्वर के बारे में जितेंद्र भाटिया के संस्मरण हैं । इन सबके बहाने
कुछ प्रसंगों पर फिर से बात की जा सकती है ।
इन पत्रों और उनके साथ जुड़े प्रसंगों से हिंदी
साहित्य के एक खास समय का इतिहास भी खुलता है । उस इतिहास में लेखक समुदाय व्यापक
सामाजिक प्रश्नों पर काफी सचेत नजर आता है । इस थोड़े कठिन समय में साम्प्रदायिकता
रेंगती हुई निकट आती जा रही है और लेखक समुदाय उससे जूझने की समस्याओं को हल करना
चाहता है । कोई भी समय अपने संवेदनशील लोगों के लिए आसानी लेकर नहीं आता । सवालों
के बने बनाये उत्तर किसी के पास नहीं होते । उस समय के बुद्धिजीवी तो वैसे भी अपनी
बुद्धि का इस्तेमाल करते थे । सामाजिक आंदोलन, लेखक संगठन और सचेत व्यक्तियों के
बीच संवाद का ऐसा दस्तावेजी संग्रह दुर्लभ है । सभी समयों की तरह उस समय की भी पहाड़
जैसी ऊंचाइयों के साथ ही खाई खड्डे भी थे । संग्रह से दोनों के ही दर्शन होते हैं
। इससे तटस्थता और पक्षधरता के सकारात्मक के साथ नकारात्मक पहलू भी उजागर होते हैं
।
पत्रों के प्राप्तकर्ता ज्ञानरंजन भी इन पत्रों के आधार पर कुछ अधिक खुलते हैं । उनकी पत्रिका भी स्वयं एक संस्थान थी । उसके निकलते रहने के लिए जिन संसाधनों की जरूरत
होती थी उनकी चिंता भी इन पत्रों से जाहिर होती है । स्वाभाविक है कि उन्हें हासिल
करने के क्रम में प्रतिबद्धता पर कुछ खरोंचें भी पड़ती रही हों । इन पत्रों में भीष्म
साहनी के पत्रों से पहल की महादेशीयता का पहलू भी खुलता है जिसमें वे फिलिस्तीनी और
पाकिस्तानी साहित्य के प्रकाशित करने की व्यवस्था कर रहे हैं । फिलिस्तीन का प्रसंग
पढ़कर आज के हालात की याद आना स्वाभाविक है । इसके साथ ही वीरेन द्वारा नाजिम हिकमत
की कविताओं के भी अनुवाद का प्रसंग शामिल करिए तो हिंदी पाठक के मानसिक क्षितिज को
विस्तारित करने में इस पत्रिका के योगदान की याद आती है ।
पहल
और ज्ञानरंजन के प्रसंग में अवांतर होने का खतरा उठाकर भी एक जिक्र जरूरी है । जितेंद्र
भाटिया ने अपने संस्मरण में कमलेश्वर की ओर नये लेखकों के आकर्षित होने का जिस तरह
जिक्र किया है लगभग उसी तरह दूधनाथ सिंह ने लौट आ ओ धार में ज्ञानरंजन को सांवला ग्रह
कहा है । दूधनाथ जी ने इसे ज्ञान जी के नकारात्मक पहलू की तरह कहा था लेकिन अगर पहल
ने नये साहित्यकारों और लेखकों का किंचित विद्रोही संस्कार न किया होता तो उस समय का
साहित्य बहुत हद तक एकरंगा ही नजर आता । इस पत्र संग्रह ने उस समय के विविधतापरक साहित्य
की अंतर्कथाओं को बेहतरीन तरीके से उभारा है ।
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