Sunday, May 5, 2024

जन उभार का दशक

 

2023 में वाइल्डफ़ायर से विंसेन्ट बेविन्स की किताब ‘इफ़ वी बर्न: द मास प्रोटेस्ट डीकेड ऐंड द मिसिंग रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि 2010 से 2020 के बीच जितने लोगों ने विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया उतने लोग इतिहास में कभी इस तरह सक्रिय नहीं हुए थे । वर्तमान सदी का दूसरा दशक विस्फोटक और व्यापक जनउभार का दशक रहा । इसके बावजूद लोगों ने जिसकी मांग की उसे हासिल न कर सके । कई बार तो जो चाहत थी उसके विपरीत मिला । इसी बुनियादी विरोधाभास का विश्व इतिहास इस किताब में प्रस्तुत किया गया है । इसके लिए लेखक ने दुनिया भर में सैकड़ों लोगों का साक्षात्कार लिया । उनके लेखन के सहारे हम भी देखते हैं कि ब्राजील में वामपंथ और अराजक लोगों के आंदोलन की बदौलत चरम दक्षिणपंथी सरकार सत्ता में आ गयी और अमेजन के जंगल धू धू कर जलने लगे । इन विरोध प्रदर्शनों में बदलाव की आकांक्षा व्यक्त हुई और बहादुर लोगों ने अपूर्ण काम को पूरा करने का संकल्प लिया । उनकी इन गतिविधियों से आज के हालात को समझने और बेहतर भविष्य बनाने के आकांक्षी लोगों को सीख मिल सकती है ।

किताब की शुरुआत 2013 में ब्राजील से होती है जब 13 जून को प्रदर्शनकारियों पर सैन्य पुलिस ने हमला किया । सहसा बिना किसी चेतावनी के लोगों पर सीधी गोलीबारी होने लगी । आंसू गैस, धुँआ बम और रबर की गोलियों से माहौल भर गया । हमले का मकसद लोगों को आत्मरक्षा के लिए सोचे बगैर भागने हेतु मजबूर करना था । अचानक भीड़ व्यक्तियों के बिखरे झुंड में बदल गयी । हमले से बचाव के लिए लेखक को भागना पड़ा । आखिर एक बहुमंजिला इमारत के नीचे छिपने की जगह मिल सकी । दुनिया भर में तमाम प्रदर्शनों में उन्हें भागीदारी का मौका मिला था लेकिन इस तरह का त्रासद अनुभव उनके लिए नितांत भिन्न और नया था । आम तौर पर प्रदर्शनों पर हमले का मौका अचानक नहीं आता । उसके पहले पुलिस और प्रदर्शनकारियों में कुछ समय तक थोड़ी जोर आजमाइश होती है । इस बीच भागीदारों के पास हमले से निकल जाने का अवसर मिलता है । इस प्रदर्शन में तो बिना किसी उकसावे के राज्य की ओर से सोच समझकर सीधे धावा बोल दिया गया था ।

लेखक उस मौके पर प्रदर्शनकारी के रूप में नहीं अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार के बतौर मौजूद थे । हमला पत्रकारों पर तो नहीं हुआ था लेकिन हमले के शिकार पत्रकार भी हुए थे । इससे इतिहास का निर्माण करने वाली इस घटना को समझने में मदद मिलती है । उस रात तक जिन परिस्थितियों से होकर हालात पहुंचे थे उन पर ध्यान देने से हमले का औचित्य स्पष्ट होता है लेकिन इस हमले के बाद जो हुआ वह बहुत उलझाने वाला है । समझ नहीं आता कि 2013 के इन प्रदर्शनों का जो नतीजा निकला उसकी मौजूदगी एक दशक तक क्यों बनी रही । ब्राजील के लोगों से यह सवाल पूछने पर अक्सर अंतर्विरोधी जवाब मिलता है । इसके बाद लेखक ने प्रदर्शन के बाद की घटनाओं का संक्षिप्त विवरण पेश किया है । हमले के बाद प्रदर्शनकारियों के प्रति जबर्दस्त सहानुभूति उमड़ी । वामपंथी और अराजकों के एक छोटे समूह द्वारा इसका आयोजन सस्ते परिवहन के लिए किया गया था । हमले के विरोध में लाखों लोग सड़क पर उतर आये और ब्राजील की राजनीति में भूचाल आ गया । अब सस्ती और बेहतर शिक्षा और सेहत जैसी नयी मांगें भी जुड़ने लगीं । इसके साथ ही भ्रष्टाचार और पुलिस हिंसा के विरोध का सवाल भी शामिल हो गया । वर्कर्स पार्टी के नेताओं ने इस विरोध प्रदर्शन के प्रगतिशील पहलू का स्वागत किया ।

ब्राजील की वर्कर्स पार्टी ने दक्षिणी गोलार्ध के इतिहास के सर्वाधिक जन पक्षधर सामाजिक जनवादी परियोजना का संचालन किया था । धनी देशों की परिधि से बाहर के इस देश में वामपंथी रुझान की लुला सरकार ने पूंजीवादी विश्व व्यवस्था की सीमाओं के भीतर ही आर्थिक वृद्धि के साथ ऐसी सामाजिक नीतियों को जोड़ा जिससे गरीबी खत्म करने में काफी मदद मिली । उन्हें और दिल्मा को लगा कि इससे अधिक सहूलियत की मांग के लिए लोग सड़क पर उतरे हैं । लेकिन कुछ ही साल बाद ऐसे दक्षिणपंथी तानाशाह का शासन स्थापित हुआ जो खुलेआम तानाशाही और हिंसा की वापसी की वकालत करता था । सरकारी सेवाओं की हालत खराब होती गयी, गरीबी तेजी से बढ़ी और अधिकारी नागरिकों के सरकारी कत्ल का जश्न मनाने लगे । इस तरह ब्राजील के लोगों ने जिसकी मांग की थी उसके एकदम विपरीत नतीजे मिले ।

2010 से 2020 के दशक में ऐसी कहानी केवल ब्राजील की नहीं रही । दुनिया भर में भारी विरोध प्रदर्शन हुए जिनसे गहरे बदलाव भी आये । इनसे भागीदारों को जीत का अहसास हुआ और अखबारों की ओर से उम्मीद भरी प्रशंसा भी प्राप्त हुई । लेकिन अब नजर आ रहा है कि नतीजा बहुधा आंदोलनकारियों के लक्ष्य के विपरीत निकला । कहीं भी योजना के मुताबिक बदलाव नहीं हुआ और हालात बदतर ही हुए । इस किताब में विरोध प्रदर्शनों के इन अप्रत्याशित परिणामों की कहानी बयान की गयी है । दस सालों के इस विश्व इतिहास की यह सबसे जटिल गुत्थी है ।

लेखक का कहना है कि सभी प्रदर्शन एक ही तरह के नहीं थे । पूरी दुनिया में उनके प्रसार के बावजूद उनके स्थानीय संदर्भ काफी अलग अलग थे । उस दौर से सही शिक्षा लेने के लिए इनके बीच की समानता के साथ इनकी भिन्नता को भी ध्यान में रखना होगा । हम चाहें या न चाहें दुनिया वैश्विक हो चुकी है । 1789 में भी फ़्रांस के भीतर के तीव्र बदलावों के बारे में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की थी । अब तो हमारी अंतर्निर्भरता बहुत बढ़ गयी है । जिस किताब को आप पढ़ रहे हैं उसकी तैयारी में दुनिया भर से तमाम संसाधन जुटाये गये हैं । इसी तरह हमारे आसपास की प्रत्येक वस्तु से सारी दुनिया जुड़ी है । ऐसी स्थिति में किसी भी राजनीतिक आंदोलन के बारे में बात करते हुए पूरी तरह स्थानीय नहीं हुआ जा सकता । इन आंदोलनों की साझा विशेषताओं के बारे में कुछ बातें बारम्बार कही गयी हैं । इन्हें नेताविहीन, क्षैतिज या प्रकंदीय, स्वत:स्फूर्त, इंटरनेट आधारित और आगामी समाज का पूर्वाभासी कहा गया । इन धारणाओं को स्पष्ट करना लेखक को जरूरी लगता है ताकि इन आंदोलनों की परिणति को समझा जा सके । असल में कोई भी राजनीतिक संघर्ष अपने आप नहीं होता । अन्याय की अनुभूति होने पर भी कुछ करने या कार्यवाही में उतर पड़ने के लिए इच्छा और ऊर्जा के आवेग की जरूरत पड़ती है । इसकी प्रेरणा में दूसरी जगह की कार्यवाहियों की सूचना की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है । इसके बाद अन्याय के खात्मे या समाज सुधार का कठिन काम प्रारम्भ होता है । इसी मोर्चे पर 2010 के बाद के आंदोलनों की कहानी विशेष है । इस कहानी को समझने के लिए लेखक इन आंदोलनों का जायजा लेना सही समझते हैं ।

उनका कहना है कि इतिहासकार या क्रांतिकारी नेता होने की जगह वे पत्रकार हैं इसलिए उन्होंने अपने पेशे के अनुरूप ही इस काम को संपन्न किया । उन्होंने बारह देशों के दो सौ ऐसे लोगों के साथ साक्षात्कार किया जो इन प्रदर्शनों के संगठक, नेता और इनसे कुछ प्रभावित रहे थे । उन्होंने प्रदर्शनों की वजह, लक्ष्य, प्राप्ति और समस्याओं के बारे में इन सबसे ही सवाल पूछे । इनकी शुरुआत 2010 में ट्यूनीशिया से हुई । इसके बाद ये प्रदर्शन भागीदारों  या सरकारों की उम्मीद से बहुत बड़े और पूरी तरह भिन्न हो गये । एक सरकार के गिरते ही अन्य देशों में भी इनके कारण या तो सरकारें गिरीं या बुनियादी बदलाव आया । विदेशी पत्रकारों ने इसे ‘अरब वसंत’ भी कहा । इसीलिए जब ब्राजील के लोगों ने प्रदर्शन किया तो जनता और मीडिया के पास एक नमूना था जिससे उधार लेकर उन्होंने इस प्रदर्शन को देखा । अखबारों ने इसे ‘ब्राजीली वसंत’ कहना शुरू किया । जिस रात गोलीबारी हुई उस रात प्रदर्शनकारियों ने गाया कि प्रेम का अंत हुआ और तुर्की के हाल शुरू । ऐसा कहकर वे इस्ताम्बूल के प्रदर्शन और उस पर भीषण दमन का उल्लेख कर रहे थे । इसे लेखक ने सोशल मीडिया पर डाला और तुरंत ही यह फैल गया । तुर्की के गेज़ी पार्क के प्रदर्शनकारी लिखने लगे कि तुर्की और ब्राजील एक हो गये हैं । फिर तो चिली से लेकर हांग कांग तक इतने प्रदर्शन हुए कि भागीदारी और प्रसार के मामले में 1960 का दशक भी पीछे छूटता सा लगा ।

इस दशक को देखा जाय तो हमारी विश्व व्यवस्था के ढांचे को बदलने की जोरदार इच्छा की अभिव्यक्ति इन प्रदर्शनों में हुई और यह इच्छा जल्दी ही दुबारा फूट सकती है । इन प्रदर्शनों को अगर साठ के दशक से जोड़ा जा सकता है तो भविष्य के साथ भी इन्हें जोड़ा जाना चाहिए । इतिहास को लम्बी निगाह से देखने वाले लोग बदलाव को किसी एक घटना से जोड़ने की जगह सतह के नीचे की प्रक्रिया को समझने का प्रयास करते हैं । इसके बावजूद क्रांतिकारी हालात समय को संक्षिप्त कर देते हैं और इतिहास की गति तेज हो जाती है । इसी बात को लेनिन ने कहा था कि कभी कभी दशकों तक कोई हलचल नहीं होती और कभी कभी हफ़्ते भर में दशकों का काम पूरा हो जाता है । वर्तमान सदी के नगरों में तो समय इससे भी तेज भागता है । जिस समय घटना घट रही होती है तब आगामी कार्यवाही के बारे में सोचने का समय नहीं रहता । पहले के किसी उदाहरण के आधार पर तत्काल फैसला लेना होता है और इन सभी फैसलों का असर पड़ता है । ऐसे समय तत्काल ही दूरगामी की भूमिका भी निभाता है ।

लेखक ने अंग्रेजी, स्पेनी, पुर्तगाली और इंडोनेशियाई में खुद ही साक्षात्कार लिये और अन्य साथियों की मदद से अरबी, रूसी, यूक्रेनी, तुर्की और चीनी भाषा में साक्षात्कार लिये गये । चार साल में इन साक्षात्कारों को लेते हुए ही लेखक ने इन प्रदर्शनों के बारे में उपलब्ध लेखन को भी छाना । इन सबके आधार पर उन्होंने 2010 की पहली जनवरी से 2020 की पहली जनवरी तक का वृत्तांत लिखने की कोशिश की है । सही बात है कि दशक तो निर्मित धारणा है जिसे मनुष्यों द्वारा जटिल यथार्थ पर थोप दिया जाता है । वैसे यह बात तो भाषा के साथ भी है फिर भी लेखक को छानबीन की अवधि तय करने में इससे आसानी हुई । ट्यूनीशिया से इसकी शुरुआत हुई और कोरोना के आगमन से इतिहास की अलग किस्म की चाल शुरू होने से इसका अंत हुआ । इसके भीतर भी उन्होंने केवल इसी परिघटना पर ध्यान केंद्रित किया कि विरोध प्रदर्शन इतने विराट हुए कि उन्होंने अपने देशों की राजनीति की बुनियाद ही हिला दी । कहीं कहीं निजाम बदला और कहीं बदलावों की गति तीव्र हुई । सभी विफल नहीं हुए और जो विफल हुए भी उनमें छोटी छोटी जीतें हासिल हुईं ।

जिन भी मामलों का गम्भीर विश्लेषण किया गया है वे सभी पश्चिमी दुनिया के अमीर देशों से बाहर के हैं । 1789 की फ़्रांसिसी क्रांति और 1917 की रूसी क्रांति का जिक्र क्रांतिकारी व्यवहार के संदर्भ विंदु की तरह हुआ है क्योंकि वर्तमान विक्षोभ प्रदर्शनों के पीछे वामपंथी बौद्धिक इतिहास की विरासत की उपेक्षा नहीं की जा सकती भले ही हालिया आंदोलन में व्यक्त आकांक्षा से बहुतेरी राजनीतिक धाराओं को मदद मिली हो । लेखक ने, जिन घटनाओं के वे प्रत्यक्षदर्शी रहे उन पर विशेष ध्यान देने के अतिरिक्त, अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की भूमिका का भी सावधानी से अध्ययन किया है । ब्राजील की घटनाओं ने उन्हें भी बहुत बदला इसलिए इन घटनाओं का बयान करते हुए उनकी मौजूदगी भी लक्षित की जा सकती है । जो कुछ 2013 में हुआ और उसके बाद जो कुछ सर्वत्र घटित हुआ उस पर सोचते हुए लेखक का बहुत समय बीता है । इतने बड़े पैमाने के प्रदर्शनों का नतीजा उनकी आकांक्षा के ठीक विपरीत क्यों निकला इस गुत्थी को सुलझाने के क्रम में ही यह किताब लिखी गयी है i                                                                  

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