कहानीकार नर्मदेश्वर की कहानी ‘कंघी’ को उसके
पुरानेपन के लिए भी देखा जाना चाहिए । न
केवल इसकी कथावस्तु मनुष्य और चराचर जगत की पारस्परिकता की अनुगूंज लिये हुए है
बल्कि कहानी का रचाव भी बहुत ही सादा और परम्पराबद्ध है । उसकी ये विशेषताएं
कमजोरी नहीं बल्कि उसकी ताकत हैं । असल में बहुधा हम भूल जाते हैं कि कहानी का मूल
कहना है, लिखना नहीं । कहानी एक लड़की और मछली के बारे में है । मछली के जिक्र से
हमारे उपभोक्ता समय को चटपटी भोज्य सामग्री की याद आयेगी लेकिन कहानी उस समय में
पाठक को अनायास ले जाती है जब इनके बीच दोस्ती का रिश्ता सम्भव था । लड़की के साथ
मछली को एक और भी बोध से जोड़कर देखा जाता है । कहने की जरूरत नहीं कि स्त्री शरीर
का जब उपभोक्ताकरण होता है तो उसे भी मछली की संज्ञा दी जाती है । उनके इस तरह के
रिश्तों का प्रतिवाद ही इस कहानी की बुनियाद है ।
कहानी की शुरुआत मछली से होती है और
उस मानवेतर प्राणी का कहानीकार ने मानवीकरण किया है । तत्काल आचार्य शुक्ल की
कविता संबंधी मान्यता का ध्यान आता है जिसमें वे साहित्य का धर्म मनुष्य की संवेदना
का विस्तार मानवेतर प्राणी जगत और प्रकृति तक करना बतलाते हैं । मानवेतर का
मानवीकरण संवेदना के इस विस्तार के लिए आवश्यक होता है । कहानीकार नर्मदेश्वर के
हाथ से मछली सहसा एक अल्हड़ किशोरी में बदल जाती है जो बुजुर्गों की सरपरस्ती में
रहते हुए भी कुलूहल की अपनी दुनिया बसा लेती है । मां मछली की मौजूदगी में थोड़ी
आजादी लेकर उसने कुछ मनाहियों की सीमा भी पार की । मनाहियों के प्रतिबंध तोड़ने का
उत्तेजक आनंद उसके साहस का कुल हासिल था जिसकी वजह से उसे लगातार सीमाओं के
उल्लंघन का मजा आने लगा । एक बार जब उसने
पानी के बाहर न जाने की ऐसी ही मनाही का उल्लंघन किया तो पहली बार खतरे की
अनुभूति हुई । जब बुलबुले का पीछा करने के बहाने वह ऊपर उठ आयी तो रोशनी से उसकी
आंखें चौंधिया गयीं । अनजान को जानने की जिज्ञासा किसी को भी ऐसे खतरनाक अनुभवों
की ओर ले जाती ही है लेकिन ज्ञान की राह भी तो यही है । इस खतरे के जिक्र से लेखक
ने मछली के साथ होने वाली उस दुर्घटना का आभास दे दिया है जिसने आखिरकार उसकी जान
ले ली । यह मछली पूर्वनिर्धारित रास्तों से कुछ अलग हटकर चलती है इसका संकेत देते
हुए लेखक ने लिखा कि ‘जिस काम को मना किया जाता, छोटी मछली उसे जरूर आजमाती’ ।
कहानी में पानी की दुनिया किसी भी लड़की के लिए बंद घरेलू दुनिया का रूपक बनकर आयी
है । इससे बाहर की दुनिया का आकर्षण उसे लुभाने लगा और अक्सर इस दुनिया की सैर
करने लगी । इसी क्रम में उसकी मुलाकात उस लड़की से हुई जिसके प्रेम में वह पड़ी । कारण कि लड़की भी इस मछली के ही स्वभाव की निकली ।
लड़की गड़ही में कमलिनी के उजले खिले फूल देखकर उन पर मुग्ध हो गयी । उन्हें पाने के लिए पानी में उतरी तो फूल हाथ की पकड़ से दूर थे । बालों से कंघी निकालकर उसने फूल को करीब खींचा और तोड़ लिया । कंघी तो पानी में गयी लेकिन फूल में वह मगन हो गयी । लड़की की तरह ही मछली भी‘डीठ’हो गयी थी । इसी दुस्साहस ने उसे एक बार फिर से दुर्घटना का शिकार बनाया । पानी में पड़ती चील की छाया देखने में मगन थी कि बगुले की चोंच में जाना पड़ा । कंघी इस बगुले के भी प्रसंग में है लेकिन महज क्रिया के बतौर । लड़की ने उसे बगुले से बचाया और वापस पानी में डाल दिया । मछली को लड़की का भोला चेहरा और उसके कोमल हाथों
का स्पर्श याद आता रहा लेकिन भयवश बाहर नहीं आयी । उसने घर पर इस दुर्घटना की खबर भी
नहीं दी । यहां आकर हम मछली के भीतर की साहसी लड़की को तो ठीक ढंग से देख समझ लेते हैं
लेकिन कहानीकार लड़की की ओर का हाल नहीं बताता । शायद कहानी की आखिरी परिणति तक के लिए
लेखक ने उसका प्रवेश मछली के भीतर करा दिया है ।
आखिरकार
मछली के भय का परिहार हुआ और वह फिर से बलखाने लगी । उसका मन बाहर आने को मचलने लगा
। इस शब्दावली पर थोड़ा भी ध्यान देने से समझा जा सकता है कि उसके भीतर लड़की का प्रवेश
हो चुका है । उसके भीतर साहस के फिर से संचार होने से आगामी दुर्घटना का माहौल बनने
लगता है । इस दुर्घटना का माहौल फिर से लेखक ने बहुत विस्तार से बनाया है । बहुत
समय के बाद जब मछली फिर से ऊपर आती है तो गरमी का मौसम है । गड़ही में पानी कम रह
गया है । फूल भी सूख चुके हैं । तभी बारिश शुरू हुई और फिर क्या
बारिश! पूरी तरह लोकगीतों की तरह अनवरत आसमान बरसता रहता । गड़ही का विस्तार हुआ जो
उसके अनुभव संसार के विस्तार की तरह था । मछली को उसी गड़ही के रास्ते ताल में निकल जाने पर
एक और विचित्र संसार नजर आने लगा । लेखक ने गड़ही से लगे ताल
के उस संसार को हमारे जाने बूझे समाज की तर्ज पर रचा है ।
इसमें मछली को उल्लू के डर से छिपकर रहने वाले
केंकड़े के परिवार के दर्शन होते हैं । विद्रोही मछली को डरकर छिपने का कारण नहीं
समझ आता तो केंकड़े को उसके मजबूत हाथों की याद दिलाती है और भय पर जीत हासिल करने
की प्रेरणा देती है । बिहार के सामंती सामाजिक संबंधों में अन्याय और भय के प्रतिरोध
का इतना कोमल बिम्ब बहुत कम दिखायी देता है । केंकड़े के हाथों को वह फौलादी पंजे
कहती है और उनसे उल्लू की गर्दन दबा देने की युक्ति सुझाती है । केंकड़े ने इसी
युक्ति का सहारा लिया और उल्लू के भय से हमेशा के लिए छुटकारा पा लिया । इस छोटे से प्रकरण के बाद मछली की स्वतंत्र यात्रा फिर से शुरू हो गयी
। कहने की जरूरत नहीं कि अब तक वह अपना सुरक्षित संसार छोड़कर अकेले ही संसार से जूझने और देखने निकल पड़ी थी । किसी को भी एकबारगी आलोक
धन्वा की ‘भागी हुई लड़कियां’ याद आ सकती है । उसने अपनी इस बेखौफ़ आजादी की कीमत भी
चुकाई ।
खेतों में काम करते हुए गाती स्त्रियों के दल में
उसकी प्यारी दोस्त लड़की भी नजर आयी । प्रेम दोनों ओर से था इसका सबूत यह था कि
लड़की धान और मछली
के लिए पानी की जरूरत का ध्यान रखती । लड़की के प्रेम में पड़ी मछली उसके पास आने की
कोशिश करती रहती । उनके आपसी प्रेम के वर्णन में समलिंगी आकर्षण की भी छाया देखी जा सकती है । समलिंगी आकर्षण की भाषा साधना अब भी बहुत कठिन है
। लेखक ने स्त्री भाषा के सुलभ संकेतों का सहारा लेकर इसे स्पष्ट किया है । कहानी
के एकदम अंत में कहानीकार ने ठहरकर बताने की जगह गतिमान दृश्यों का तांता सा लगा
दिया है जो मछली
की जानलेवा फंसान और बेचैनी को जाहिर करते हैं ।
कहानी
के अंत में मछली का कांटा कंघी बनकर लड़की के उसी जूड़े में समा जाता है जहां से
निकालकर कभी लड़की ने पसंदीदा कमलिनी का फूल तोड़ा था और जिसके पानी में गिर जाने पर
मछली निकालकर वापस देने की हसरत मन में ही रखे रह गयी थी । इस तरह जिस लड़की को
लेखक ने बहुत देर तक कहानी में अनुपस्थित रखा था वही आगे मछली के साहस और मौत की
आशंका के बावजूद खतरे उठाने की आदत का जीवन जियेगी ।
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