नवउदारवाद के आगमन के साथ ही उच्च शिक्षा में बदलाव की बयार बहने लगी । तर्क दिया जाने लगा कि विद्यार्थियों से उनके शिक्षण के खर्च की वसूली होनी चाहिए । फ़ीस में बढ़ोत्तरी के प्रयास भी बेरहम तरीके से आरम्भ हुए । उच्च शिक्षा में सरकारी खर्च में कमी लाकर उसकी भरपाई के लिए उद्योग जगत की सहायता लेने की वकालत भी की जाने लगी । स्वाभाविक था कि उद्योग जगत साहित्य, मानविकी या समाज विज्ञान की शिक्षा हेतु धन का निवेश करने में आनाकानी करता । नतीजा निकला कि इन अनुशासनों का कद छोटा किया जाने लगा । सरकारी मदद से संचालित शिक्षण संस्थानों में बदलाव की इन कोशिशों के साथ उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्र के आगमन को प्रोत्साहित किया जाने लगा । अब वह प्रयास अत्यंत भयावह रूप ग्रहण करने की ओर है । विश्वविद्यालयों को धन के आवंटन की स्थापित प्रणाली की जगह उनको कर्ज लेने की सलाह दी जा रही है । उनके मूल्यांकन हेतु गठित विशेषज्ञों की टीम में निजी क्षेत्र के प्रतिनिधियों को शामिल किया जा रहा है । उच्च शिक्षा के सरकारी सहायता प्राप्त संस्थानों पर यह व्यवस्थित हमला केवल हमारे देश में नहीं हुआ बल्कि समूची दुनिया में ही पूंजी के लिए मुनाफ़े की नयी जगह के बतौर शिक्षा और स्वास्थ्य को देखा जाने लगा । इन संस्थानों का विकास विभिन्न देशों में उनकी सार्वजनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए हुआ था इसीलिए इन्हें दीर्घकालीन निवेश की तरह माना जाता रहा है । उनके जरिये लाभ कमाने का नया नजरिया दुर्भाग्यपूर्ण महसूस हुआ । इस दुर्भाग्य को वर्तमान सदी के आरम्भ से ही लक्षित किया जाने लगा था ।
2004 में कांटीन्यूम से मेरी इवान्स की किताब ‘किलिंग थिंकिंग: द डेथ आफ़ द यूनिवर्सिटीज’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका ने बीसवीं
सदी के उत्तरार्ध और वर्तमान सदी के शुरुआती दिनों में ब्रिटेन के एक
विश्वविद्यालय में काम किया है । किताब इस अनुभव के आधार पर लिखी गयी है । इस
दौरान विश्वविद्यालयों में शिक्षण बदला और धन की चाह में शोध और लेखन की दुनिया
में बुनियादी परिवर्तन हुए । प्रकाशन की गुणवत्ता की जगह उनकी संख्या का महत्व
बढ़ता गया ।
2006 में लारेन्स एर्लबाम असोसिएट्स से रविंदर कौर सिद्धू
की किताब ‘यूनिवर्सिटीज ऐंड ग्लोबलाइजेशन: टु मार्केट, टु मार्केट’ का प्रकाशन हुआ
। लेखक का कहना है कि शिक्षा का बाजार हाल के दिनों में रुचि का क्षेत्र हो चला है
। शिक्षा को व्यापार योग्य वस्तु समझने की शुरुआत वैश्वीकरण से जुड़ी है । शिक्षा
के इस अंतर्राष्ट्रीय बाजार ने कुछ सवाल उठा दिये हैं जिनका संबंध शासन प्रशासन से
है । बाजार संबंधी तमाम अध्ययन उसकी मौजूदगी को स्वयंसिद्ध मानकर चलते हैं । इसके
बावजूद शिक्षा के मामले में भौगोलिक वैविध्य की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है ।
असल में शिक्षा का बाजार बहुत हद तक समाज में दखल देता है क्योंकि शिक्षा का समाज
से अटूट संबंध है ।
2006 में बुकमार्क्स पब्लिकेशन से
अलेक्स कलीनिकोस की किताब ‘यूनिवर्सिटीज इन ए नियोलिबरल वर्ल्ड’ का प्रकाशन हुआ । किताब की भूमिका
अध्यापक आंदोलन और संगठन के एक नेता पाल मैकनी ने लिखी है । उनका कहना है कि यह
किताब विद्यार्थियों और अध्यापकों के अनुभवों के आधार पर लिखी गयी है । शिक्षा
मंत्रालय में ऐसे पूर्व छात्र नेता बैठे हैं जिन्होंने अपनी पढ़ाई के दौरान तमाम
तरह के वजीफ़े पाये और अब वे ही वर्तमान विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा को
असम्भव बना रहे हैं । जिन लोगों ने कभी वजीफ़ों की राशि बढ़ाने के लिए आंदोलन किया
वे ही अब शिक्षा को इतना मंहगा बना रहे हैं कि अगर कोई किताब खरीदना चाहे तो उसे
भोजन में कटौती करनी होगी । आज के विद्यार्थियों को फ़ीस भरने के लिए दुकानों में
काम करना पड़ रहा है जिसके चलते उनको पढ़ाई का समय ही नहीं मिल पाता । सभी जानते हैं
कि शिक्षा के मंहगी होने का मतलब कुछ सामाजिक समूहों का उससे वंचित हो जाना होता
है । विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने वालों में यह प्रकट भी हो रहा है । होना यह
चाहिए कि शिक्षा उन तक पहुंचनी चाहिए जो उसे ग्रहण कर सकें लेकिन हो यह रहा है कि
उसकी पहुंच भुगतान के हिसाब से तय हो रही है ।
2008 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से क्रिस्टोफर न्यूफ़ील्ड की
किताब ‘अनमेकिंग द पब्लिक यूनिवर्सिटी: द फ़ोर्टी-ईयर एसाल्ट आन द मिडिल क्लास’ का प्रकाशन हुआ । किताब का शीर्षक
ही इस तथ्य को रेखांकित करता है कि उच्चशिक्षा पर हमला केवल शिक्षा का सवाल नहीं, बल्कि व्यापक सामाजिक उथल-पुथल का अंग है । लेखक ने बताया है
कि नब्बे के दशक में कैलिफ़ोर्निया की सरकार ने धन जुटाने के लिए उच्च शिक्षा के मद
में कटौती करने का फैसला किया जिसके चलते तीन साल के भीतर प्रति विद्यार्थी सरकारी
अनुदान में बीस फ़ीसदी की गिरावट आ गयी । इसी दौरान सैन्य उद्योग के क्षेत्र में भारी
अनुदान बढ़ाया गया । स्थानीय प्रशासन ने आप्रवासियों और कल्याणकारी कदमों से हाथ
खींचे और मध्यवर्ग की सबसे बड़ी संस्था यानी सार्वजनिक उच्च शिक्षा को अपनी मौत
मरने के लिए खुला छोड़ दिया । उसके आवंटन में महामंदी के बाद की सबसे भारी कटौती की
गयी । संसाधनों की कमी के विरोध में विश्वविद्यालय के विद्यार्थी भूख हड़ताल पर बैठ
गये । मीडिया को उन पर ध्यान देने की फ़ुर्सत नहीं मिली, उसको दूसरी चीजें अधिक
जरूरी लगीं । शासकों की तरह वे भी जानते थे कि आर्थिक तंगी से पैदा असंतोष को वे
नस्ली राजनीति से काबू कर लेंगे । असल म विद्यार्थी अधिकतर आप्रवासी लैटिनो थे
जिनके प्रति नफ़रत का भाव जगाकर स्थानीय गोरों को अपने पक्ष में गोलबंद करने की कला
शासकों ने सीख ली थी ।
2008 में न्यूयार्क यूनिवर्सिटी प्रेस से
मार्क बास्क्वेट की किताब ‘हाउ द यूनिवर्सिटी वर्क्स: हायर एजुकेशन ऐंड द लो-वेज नेशन’ का प्रकाशन हुआ । किताब की भूमिका कार्ल
नेल्सन ने लिखी है । इस किताब पर वर्तमान माहौल की छाया है जिसमें विश्वविद्यालयों
पर हमले तो हो रहे हैं लेकिन उससे महत्वपूर्ण बात है कि इन हमलों का जोरदार
प्रतिरोध भी हो रहा है । उच्च शिक्षा की वर्तमान संरचना की समझ इस प्रतिरोध के लिए
जरूरी है । इसमें पूंजी की ओर से विद्यार्थियों के शोषण का तंत्र बहुत व्यवस्थित
रूप से काम करता हुआ नजर आता है । पूंजी की इस गुलामी के बदले कुछ को वजीफ़ा मिल
जाता है । इन संस्थानों से बहुत कम विद्यार्थी सही सलामत बाहर निकलते हैं, अधिकतर
के साथ कोई न कोई दुर्घटना घटित होती है । विश्वविद्यालय की संचालक पूंजी
विद्यार्थी के साथ उनके अध्यापकों को भी नियंत्रित करती है ।
2009 में द यूनिवर्सिटी आफ़ शिकागो प्रेस
से गाए टचमैन की किताब ‘वान्ना बी यू:
इनसाइड द कारपोरेट यूनिवर्सिटी’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने बताया है
कि वान्नाबी विश्वविद्यालय के अध्यक्ष लगातार कहते रहे कि उनका विश्वविद्यालय
रूपांतरित हो रहा है । इसका मतलब बहुतों को समझ नहीं आता था । वे सात साल अध्यक्ष
रहे । इस रूपांतरण का एक लक्षण यह था कि अध्यापक प्रशासन के लोगों को पहचान नहीं पाते
थे । उन्हें छपने-छपाने और परियोजनाओं के लिए अनुदान के जुगाड़ से फ़ुर्सत ही नहीं
मिलती थी । दूसरा लक्षण था कि शिक्षण संस्थाओं की रैंक घोषित करने वालों ने इसकी
रैंक बढ़ा दी थी जिसके कारण प्रवेश हेतु आवेदन अधिक आने लगे । इसके साथ ही
केंद्रीकरण, नौकरशाही और उपभोक्तावाद में भी बढ़ोत्तरी हुई लेकिन उसकी
चिंता कोई नहीं करता था । स्पष्ट है कि इस एक विश्वविद्यालय में जो कुछ हो रहा था
वह व्यापक प्रक्रिया का नमूना था ।
2011 में प्लूटो प्रेस से माइकेल बेली और
देस फ़्रीडमैन के संपादन में ‘द एसाल्ट आन यूनिवर्सिटीज: ए मेनिफ़ेस्टो फ़ार रेजिस्टेन्स’ का प्रकाशन हुआ । हमारे समय का यह
भी एक सच है कि हमले के चलते ही सही व्यापक समाज में उच्च शिक्षा के इन केंद्रों
के प्रति जागरूकता बढ़ी । सबसे पहले संपादक ने हमले का सुपरिचित तर्क बताते हुए
किताब की शुरुआत की है । निजीकरण के समर्थकों का कहना है कि जिस चीज की कीमत होती
है उसके संरक्षण के बारे में समाज सजग रहता है । इसी तर्क से जब विद्यार्थी अपनी
विश्वविद्यालयी शिक्षा का खर्च वहन करेंगे तो विश्वविद्यालय सक्षम और स्वतंत्र
होंगे तथा आर्थिक न्याय की मांग भी यही है कि लाभार्थी को मिलने वाले लाभ की कीमत
चुकानी चाहिए । इस किस्म के तर्क दुर्भाग्य से रीगन या थैचर जैसे शासक ने नहीं
व्यक्त किये बल्कि सरकारी मदद पर आश्रित न रहने का ढिंढोरा पीटने वाले एक निजी
विश्वविद्यालय के कुलपति ने ऐसा कहा । उनके शब्द उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पूंजी
की ओर से दिये जाने वाले तर्कों को सही तरीके से जाहिर करते हैं । सरकारें भी यही
कह रही हैं कि विश्वविद्यालय को सरकारी या सार्वजनिक धन के आवंटन में कमी लानी
होगी । उनका कहना है कि विद्यार्थियों को उपभोक्ता मानकर उनकी शिक्षा का खर्च उनसे
ही वसूलना होगा । इसके लिए उनकी फ़ीस को बाजार दर तक बढ़ाना होगा और उन्हें कर्ज
लेने के लिए प्रोत्साहित करना होगा जिसे वे बाद में चुकता करेंगे । इस तरह
विश्वविद्यालय सेवा प्रदाता होंगे, विद्यार्थी उनके उपभोक्ता होंगे और उनके बीच क्रय
विक्रय का बाजारी रिश्ता होगा । उच्च शिक्षा को शैक्षिक सुपर मार्केट बना दिया
जायेगा जहां अमीर ग्राहकों के लिए खास तोहफ़े होंगे ! साधारण जनता को खुदरा सामान
बेचने वालों को इस बाजार से बेदखल किया जायेगा । वर्तमान सदी के दूसरे दशक में यही
हालात बनने के आसार हैं ।
2011 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस
से बेन्जामिन गिन्सबर्ग की किताब ‘द फ़ाल आफ़ द फ़ैकल्टी: द राइज आफ़ द आल-ऐडमिनिस्ट्रेटिव यूनिवर्सिटी ऐंड
ह्वाइ इट मैटर्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब में विश्वविद्यालयों के बदलते
चरित्र की छानबीन की गई है जिसमें अध्यापकों के विचारों के मुकाबले प्रशासकों की
गिरफ़्त मजबूत होती जा रही है । साथ ही शिक्षण और अध्यापन लगातार शैक्षिक प्रबंधन
के मातहत लाये जा रहे हैं । विश्वविद्यालय का प्रशासन पहले भी हुआ करता था लेकिन
अधिकतर शिक्षा में रुचि वाले लोग ही इन पदों पर नियुक्त किये जाते थे । उनमें भी
शिक्षक ही कुछ समय के लिए प्रशासकीय दायित्व निभाते और बाद में अध्यापन की दुनिया
में लौट भी आते थे । इन पदों पर उनके होने से शुद्ध प्रशासक भी अध्यापकों की मदद
के बिना कुछ कर नहीं पाते थे । इसके कारण अध्यापकों की राय का वजन होता था और उसकी
उपेक्षा आसान नहीं होती थी । उच्च शिक्षा के अनेक केंद्रों का निर्माण ऐसे ही
अध्यापक प्रशासकों ने किया है । विश्वविद्यालय के प्रमुख लक्ष्य के बतौर शिक्षण और
शोध को न भूलना ही उनकी सफलता का स्रोत था । आज के शुद्ध प्रशासक कुर्सी को ही सब
कुछ समझते हैं । उन्हें अध्यापन या शोध का कोई अनुभव नहीं होता । इन क्षेत्रों में
उनकी रुचि या निष्ठा भी नहीं होती । अध्यापकों के लिए वेतन का बजट न होने के
बावजूद सभी शिक्षण संस्थानों में इन प्रशासकों की तादाद बढ़ती जा रही है ।
2013
में ब्लूम्सबरी प्रेस से क्रेग स्टीवेन वाइल्डर की किताब ‘एबोनी & आइवी: रेस, स्लेवरी, ऐंड द ट्रबल्ड हिस्ट्री आफ़
अमेरिका’ज यूनिवर्सिटीज’
का प्रकाशन हुआ । असल में हमारे
देश में उच्च शिक्षा में आरक्षण जिस तरह का मुद्दा बना रहता है उसी तरह का सवाल
अमेरिकी उच्च शिक्षा में अश्वेत समुदाय की उपस्थिति है । लेखक का कहना है कि
शिक्षा का अमेरिकी इतिहास गुलाम व्यापार के जिक्र के बिना अधूरा है । वजह यह कि
उपनिवेशों में उच्च शिक्षा के विकास की दिशा में प्रत्येक कदम गुलाम व्यापार से
जुड़ी समाजार्थिक ताकतों से सम्बद्ध है । शैक्षिक उपक्रम इस प्रक्रिया से लाभ पाते
रहे इसलिए उनकी रक्षा का भाव शिक्षा जगत में बद्धमूल रहा । इन संस्थानों से पढ़ाई
पूरी करके बाहर निकलने वालों का शुरुआती प्रशिक्षण गुलामों के व्यापारियों की
देखरेख में होता था । रोजगार के लिए भी ये विद्यार्थी अधिकतर अमेरिका के दक्षिणी
प्रांतों या वेस्ट इंडीज में जाते थे जहां इन्हें अध्यापन से लेकर लेखा जोखा तक का
काम मिल जाया करता था । कुछ नहीं तो वकील, डाक्टर, नेता, व्यापारी और बगान मालिक
का काम तो मिल ही जाता था । गुलाम व्यापार की समाप्ति के बाद भी यह रिश्ता कायम रहा
और पढ़े लिखे लोगों को रोजगार के मौके गुलाम मालिकों के इस इलाके में आसानी से मिल
जाते थे । शिक्षा की संरचना के विस्तार में भी इन मालिकों का धन प्रचुरता से
इस्तेमाल होता रहा । आश्चर्य नहीं कि शिक्षा के साथ जुड़े इस वातावरण के चलते भी
शिक्षा बहुधा मौजूदा भेदभाव का पुनरुत्पादन करने लगती है ।
2016 में पालग्रेव मैकमिलन से रोमियो वी
टर्कन, जान ई रिली और लारिसा बुगाइयां के संपादन में ‘(री)डिस्कवरिंग यूनिवर्सिटी आटोनामी: द ग्लोबल मार्केट पैराडाक्स आफ़ स्टेक
होल्डर ऐंड एजुकेशनल वैल्यूज इन हायर एजुकेशन’ का प्रकाशन हुआ । खास बात कि इसमें
वर्तमान हालात की अनदेखी किये बिना स्वायत्तता के सवाल को ढेर सारे तत्वों के साथ
रखकर उस पर विचार किया गया है । किताब में संपादकों का कहना है कि विश्वविद्यालयों
की स्वायत्तता को टुकड़ों में नहीं देखा जाना चाहिए । इसके चार स्तम्भ हैं जिन्हें
अलगाना अनुचित है । सांगठनिक स्वायत्तता, वित्तीय स्वायत्तता, मानव संसाधन की
स्वायत्तता और शैक्षिक स्वायत्तता आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं । हाल के
दिनों में इनको अलग अलग नापने की प्रवृत्ति नजर आ रही है । इससे स्वायत्तता की जटिलता
पर परदा तो पड़ता ही है, उसके लिए जिम्मेदार ताकतों की समझ भी धुंधला जाती है ।
सरकार के नीति निर्माताओं और उच्च शिक्षा के संस्थानों ने इस सवाल पर मुकम्मल रुख
नहीं अपनाया इसलिए खंडित नजरिये के बुरे नताइज की आशंका पैदा हो रही है ।
विश्वविद्यालयों के संचालन में ढेर सारे जरूरी तत्वों की भागीदारी होती है । इसमें
सरकार और विश्वविद्यालय, विश्वविद्यालय और उसके तमाम कर्मचारी, शिक्षक और
शिक्षार्थी, विश्वविद्यालय और व्यवसाय तथा विश्वविद्यालय और अंतर्राष्ट्रीयता जैसे
बहुतेरे पहलू शामिल रहते हैं । आज किसी भी विश्वविद्यालय में इन सबके बीच संवाद
रहता है । इसी संवाद के आधार पर स्वायत्तता के चारों स्तम्भ साकार होते हैं ।
2016 में प्लूटो प्रेस से हेनरी हेलेर की
किताब ‘द कैपिटलिस्ट यूनिवर्सिटी: द ट्रांसफ़ार्मेशन आफ़ हायर एजुकेशन इन
द यूनाइटेड स्टेट्स सिन्स 1945’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि दूसरे विश्वयुद्ध के
बाद अमेरिका में विश्वविद्यालय की साख निजी कारपोरेट घरानों और सेना जितनी हो गई ।
असल में निजी कारपोरेट घरानों के अनुदान प्रायोजित शोध परियोजनाओं के जरिए शुद्ध
व्यावसायिक गतिविधियों से वे जुड़ भी गए । इसके साथ ही सेना और सी आई ए से उनके
जुड़ाव ने उन्हें अमेरिकी सरकार के उपकरण में बदल दिया । ग्राम्शी की भाषा में, वे सहमति बनाने वाले सरकारी
संस्थानों में बदल गए । किताब में 1945 के बाद से अमेरिकी पूंजीवादी राजनीतिक
अर्थतंत्र के साथ उनके रिश्तों का आलोचनात्मक परीक्षण किया गया है । इस किताब का
एक अन्य मकसद उच्च शिक्षा में, खासकर मानविकी और समाज विज्ञानों में अमेरिकी विद्वानों की
उपलब्धियों का यथोचित लेखा जोखा प्रस्तुत करना भी है । अमेरिकी पूंजीवाद द्वारा
उत्पादित संपदा ने इस दौरान उच्च शिक्षा में हासिल उपलब्धियों के लिए भौतिक आधार
मुहैया कराया लेकिन उसी के चलते इसकी सीमाएं भी बनीं । इन सीमाओं ने शोध तथा
शिक्षण में लगातार मार्क्सवाद विरोध तथा संस्कृति और समाज की ऐतिहासिक समझ के
प्रति अरुचि के साथ ही उदारवाद, पूंजीवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद के पोषण का रूप ग्रहण
किया । साठ के दशक के विद्रोहों के चलते उच्च शिक्षा की वैचारिकी को उजागर तो किया
गया लेकिन उसे बुनियादी रूप से बदलने में वे नाकाम रहे ।
2016
में जान्स हापकिन्स यूनिवर्सिटी प्रेस से क्रिस्टोफर न्यूफ़ील्ड की किताब ‘द ग्रेट
मिस्टेक: हाउ वी रेक्ड पब्लिक यूनिवर्सिटीज ऐंड हाउ वी कैन फ़िक्स देम’ का प्रकाशन
हुआ । किताब का मकसद लेखक ने उच्च शिक्षा की व्यापक सामाजिक पहुंच के साथ गुणवत्ता
कायम रखने के रहस्य और इसमें आयी कमी की खोजबीन बताया है । फ़ीस में भारी बढ़ोत्तरी
के बावजूद विद्यार्थी को मिलने वाली शिक्षा में गिरावट सामान्य तौर पर महसूस की जा
रही है । ऐसा तब हो रहा है जब जरूरत बहुनस्ली मध्यवर्ग को क्षमतावान बनाने की है
ताकि स्वचालन के इस दौर में वह टिका रह सके । वातावरण तो ऐसा बना दिया गया है मानो
विश्वविद्यालयों को सरकारी सहायता देने से भारी नुकसान होता है इसलिए उन्हें बोझ की
जगह कमाई के स्रोत में बदल देने की वकालत हो रही है । इस सोच से असहमत लोगों पर भी
इसके मुताबिक ढलने का दबाव है । निजी और सार्वजनिक के सहमेल को लाभकारी बताया जा
रहा है । व्यवसाय और उद्योग से विश्वविद्यालयों की नजदीकी को नये समय के अनुकूल
सिद्ध किया जा रहा है । लेखक इस सोच को पूरी तरह गलत मानते हैं । यह अभियान नया
नहीं है । अस्सी के दशक से ही इसका अनुपालन हो रहा है । इसलिए उच्च शिक्षा की
वर्तमान समस्या की जड़ व्यावसायिकता का अभाव नहीं, उसकी दीर्घकालीन मौजूदगी है ।
जिन दिक्कतों का जिक्र शिक्षा के सिलसिले में अक्सर सुनायी देता है उनके लिए
सरकारी अनुदान को दोष देने की जगह निजी पूंजी की कारस्तानी पर ध्यान देने का सुझाव
लेखक ने दिया है ।
2016
में सेंट्रल यूरोपीयन यूनिवर्सिटी प्रेस से मार्विन लाज़ेरसन के संपादन में येहुदा
एलकाना और हानेस क्लोपेर की किताब ‘द यूनिवर्सिटी इन द ट्वेन्टी-फ़र्स्ट सेन्चुरी: टीचिंग
द न्यू एनलाइटेनमेंट इन द डिजिटल एज’ का प्रकाशन हुआ । संपादक का कहना है कि इस
किताब के लेखकों के अनुसार प्रबोधन काल में जहां ज्ञान को तार्किक और सर्वसमावेशी
माना गया । यह संदर्भ विशेष से स्वतंत्र होने के चलते वैज्ञानिक और समाजार्थिक
समस्याओं का विलक्षण समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम समझा जाता था । उस समय के
मुकाबले वर्तमान समय का यथार्थ जटिलतर, उलझा हुआ और अप्रत्याशित प्रतीत हो रहा है
। इसीलिए ज्ञान की पुरानी धारणा भी अपर्याप्त महसूस हो रही है । उच्च शिक्षा के
लिए यह बोध नितांत क्रांतिकारी साबित हो रहा है । इस नयी दुनिया को बेहतर तरीके से
समझने के लिए थोड़ा अधिक ज्ञानवान और सरोकारी नागरिकों को तैयार करने की जिम्मेदारी
विश्वविद्यालयों को उठानी होगी । इसके लिए उन्हें पाठ्यक्रमों के निर्माण में
अनुशासनों के साथ ही दुनिया की वर्तमान समस्याओं का भी ध्यान रखना होगा ।
2017
में पालग्रेव मैकमिलन से जान स्मिथ की किताब ‘द टाक्सिक यूनिवर्सिटी: ज़ोम्बी
लीडरशिप, एकेडमिक राक स्टार्स ऐंड नियोलिबरल आइडियोलाजी’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का
कहना है कि आजकल बहुतेरे लोग बताते हैं कि जिस तरह की नीतियों और विचारधाराओं को हमारे
सामने प्रस्तुत किया जाता है उनके न मानने पर विनाश की भविष्यवाणी की जाती है । अगर
हमें इस दौर में बचे रहना है तो खुद को खास काट के मुताबिक ढालना होगा । यह भयोत्पादक
उद्योग हमारे जीवन के प्रत्येक पहलू को आकार दे रहा है । इसका खतरा आतंकवाद के खतरे
से भी बड़ा बताया जाता है ।
2017
में बेर्गान बुक्स से सुसान राइट और क्रिस शोर के संपादन में ‘डेथ आफ़ द पब्लिक
यूनिवर्सिटी?: अनसर्टेन फ़्यूचर्स फ़ार हायर एजुकेशन इन द नालेज इकोनामी’ का प्रकाशन
हुआ । यह किताब एक शोध परियोजना से तैयार हुई है । इसके तहत वैश्वीकरण और
क्षेत्रीकरण की प्रक्रिया का विश्वविद्यालयों की प्रकृति और उनके उद्देश्य पर पड़ने
वाले प्रभाव का अध्ययन करना था । यूरोप और न्यू ज़ी लैंड में इनके असर का तुलनात्मक
विवेचन भी इसके तहत होना था । मकसद इसे समझना था कि वैश्वीकरण के दौर में
विश्विद्यालय में किस तरह के सुधार अपेक्षित हैं । इन सुधारों से शिक्षकों को किस
हद तक जोड़ा जाये ? इससे उनके आचरण, काम और विचारों पर क्या असर पड़ेगा ? चार साल तक
यह शोध चला । संपादकों का कहना है कि अस्सी के दशक से ही विश्वविद्यालयों को बाजार
और सरकार के मुताबिक ढालने के लिए अनंत सुधार जारी है । शुरू में इन सुधारों का
मकसद उनके खर्च में कमी लाते हुए उन्हें सक्षम बनाना था । नब्बे का दशक आते आते
वैश्विक ज्ञान अर्थतंत्र के नये नारे के अनुसार उन्हें अपनी भूमिका देखनी पड़ी । तब
उच्च शिक्षा को ज्ञान उत्पादन के उपकरण के रूप में समझा जाने लगा और जोर इस बात पर
रहा कि नयी खोजों के जरिये वे देश को आगे ले जाने में मदद करें । ये सुधार
नवउदारवाद की वैचारिकी से संचालित थे जिसके मुताबिक उन्हें होड़ में उतरना था, निजी
निवेशकों को आकर्षित करना था, अपनी शैक्षिक सेवाओं को आर्थिक मजबूती के लिए
समर्पित करना था और विद्यार्थियों को विश्व श्रम बाजार में टिकने लायक कौशल प्रदान
करना था । इस वातावरण में विश्वविद्यालय बाजार अर्थतंत्र के अधीन हो गये । इन
ताकतों की भूख से विश्वविद्यालय के मूल्य और मकसद का टकराव होने लगा । श्रेष्ठता
सूची में अपना दर्जा बढ़ाने के चक्कर में तमाम विश्वविद्यालय विविधता और समानता के
मानक की कौन कहे, सामाजिक संगति और गतिशीलता बढ़ाने और पारम्परिक चिंतन को चुनौती
देने का कार्यभार भी भुला बैठे ।
2018
में पालग्रेव मैकमिलन से रिचर्ड हाल की किताब ‘द एलियनेटेड एकेडमिक: द स्ट्रगल
फ़ार आटोनामी इनसाइड द यूनिवर्सिटी’
का प्रकाशन हुआ । लिज़ मोरिस ने
इसकी प्रस्तावना लिखी है । यह किताब मार्क्सिज्म ऐंड एजुकेशन नामक पुस्तक श्रृंखला
के तहत छपी है । इसके संपादक का कहना है कि मार्क्स के जन्म की दो सौवीं सालगिरह, उनके ग्रंथ कैपिटल के प्रकाशन के
डेढ़ सौवें साल और 1968 के पचासवें साल इस किताब का प्रकाशन हुआ है । मार्क्स ने
अपने समय के बारे में कहा था कि जो कुछ ठोस है वह हवा में घुल जाता है लेकिन उनकी
यह बात हमारे समय के लिए अधिक सही है जब वैश्विक आभासी वित्तीय पूंजी असंख्य सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संरचनाओं तथा
प्रक्रियाओं को पटरा करते हुए अबाध प्रवाहित हो रही है । इसके साथ ही अर्थतंत्रों में
अनिश्चिति और अस्थिरता भी पैदा हो रही है । चीन जैसे विशाल आबादी वाले देश में गरीबी
से उबरने वालों की संख्या बढ़ रही है तो पश्चिमी देशों में निति नियंताओं की घोषणाओं
के बावजूद कामगारों के वेतन में गिरावट जारी है । संपदा और आय के मामले में विषमता
भयानक रफ़्तार से बढ़ रही है । कल्याणकारी मदों की कटौती में कोई ढील नहीं दी जा रही
है । ऐसे में कारपोरेट घरानों की ओर से खैरात बांटने का उद्योग तेजी से फैल रहा है
जिससे पूंजीपति वर्ग की ताकत मजबूत और विस्तृत हो रही है । चतुर्दिक संकट का माहौल
है । पारिस्थितिकी खतरे की हालत में है । लोकतंत्र की हालत खराब है और दुनिया भर में
फ़ासीवादी आंदोलनों की बाढ़ आई हुई है । संचार की इलेक्ट्रानिक तकनीकों ने सचाई पर भरोसा
खत्म कर दिया है और इनके जरिए झूठ का प्रचार प्रसार हो रहा है । राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और वैश्विक शासक कुलीन
वर्ग के लाभ के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं के इस्तेमाल का खेल छिपा नहीं रह गया है ।
कानून का मुखौटा उतारकर सत्ता के नग्न दमन और धमकी का सहारा लिया जा रहा है । स्वचालन
और चौथी औद्योगिक क्रांति के लाभ स्पष्ट नहीं हो सके हैं । लाभ अगर हो रहा है तो पूंजी
को रहा है और कुशल मजदूरों की समूची फौज बेकार हो गई है । खाता बही और कानून के मामले
में ईमानदारी और निष्ठा का अभाव हो गया है तथा पत्रकारीय प्रतिबद्धता भी लुप्त होती
जा रही है । सोशल मीडिया आलोचनात्मक संजाल बनाने और समेकित राजनीतिक आंदोलन के लिए
बेहद उपयोगी थी लेकिन वहां भी ट्रोलिंग और सामूहिक तथा निजी निगरानी की हवा चल रही
है । इंटरनेट ने राष्ट्रीय सुरक्षा के सांस्थानिक ढांचों को बेमतलब बना दिया है और
उसके जरिए दर्शकों के लिए तमाम नुकसानदेह सामग्री का वितरण हो रहा है ।
2018 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से
गौरव जे पठानिया की किताब ‘द यूनिवर्सिटी ऐज ए साइट आफ़ रेजिस्टेन्स: आइडेन्टिटी
ऐंड स्टूडेन्ट पोलिटिक्स’ का प्रकाशन हुआ ।
2019 में द यूनिवर्सिटी आफ़ जार्जिया प्रेस
से लेस्ली एम हैरिस, जेम्स टी कैम्पबेल और अलफ़्रेड एल ब्राफी के संपादन में ‘स्लेवरी ऐंड द यूनिवर्सिटी: हिस्ट्रीज ऐंड लीगेसीज’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना
और एवेलिन ब्रूक्स हिगिनबाथम के उपसंहार के अतिरिक्त किताब के सोलह अध्याय दो भागों
में संयोजित हैं । पहले भाग में गुलामी के समर्थन और विरोध में चिंतन और कर्म का विश्लेषण
करने वाले दस अध्याय हैं । दूसरे भाग के छह अध्यायों में विश्वविद्यालयों में गुलामी
के स्मरण और विस्मरण पर विचार किया गया है । किताब में शामिल अधिकतर लेख 2011 में
इसी विषय पर आयोजित तीन दिनों की संगोष्ठी में पढ़े गए पर्चों के आधार पर तैयार किए
गए हैं । उन दिनों में अलग अलग संस्थाओं में इस विषय पर काम करने वाले अध्येताओं
ने अपने हर्ष, जीत और निराशा पर विचार किया था । उत्तरी कैरोलाइना
विश्वविद्यालय के मुख्य चौराहे पर अमेरिका के दक्षिणी प्रांतों की मुक्ति के लिए
लड़ने वाले योद्धाओं हेतु समर्पित एक मूर्ति लगी है क्योंकि उनमें चालीस प्रतिशत
योद्धा इसी विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे । बीसवीं सदी के पहले दशक में अनगिनत शिक्षा
संस्थानों में इस तरह के स्मारक बनाए गए । इस तरह अमेरिकी गृहयुद्ध को न केवल लड़ाई
के मैदान में बल्कि शिक्षा जगत में भी यादगार घटना समझा गया । यह गृहयुद्ध तो
गौरवगाथा में शामिल हुआ लेकिन इससे जुड़ी गुलामी को उतनी जगह प्राप्त नहीं हुई ।
हाल के दिनों में एक और स्मारक उसी जगह पर बनाया गया है । यह स्मारक इस प्रांत के
गुमनाम संस्थापकों की याद में निर्मित है । इस स्मारक के निर्माण के साथ ही
पुस्तकालय की ओर से गुलामी और विश्वविद्यालय का निर्माण नामक प्रदर्शनी भी आयोजित
की गई जिसमें विश्वविद्यालय के साथ गुलामी के रिश्तों को उजागर किया गया था ।
दोनों स्मारक एक ही जगह पर होने के बावजूद अलग मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
विश्वविद्यालयों के साथ गुलामी के रिश्तों को लेकर इस समय काफी बहसें हो रही हैं ।
अधिकतर विश्वविद्यालय अपने अतीत के उन पन्नों को खोलकर देख रहे हैं जिनमें या तो
गुलामों के मालिकान उनकी स्थापना से जुड़े थे या इनके प्रमुख लोग गुलामी के समर्थक
रहे थे ।
2019
में ज़ेड बुक्स से राएविन कोनेल की किताब ‘द गुड यूनिवर्सिटी: ह्वाट यूनिवर्सिटीज
ऐक्चुअली डू ऐंड ह्वाइ इट’स टाइम फ़ार रैडिकल चेन्ज’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका का
कहना है कि यह किताब विश्वविद्यालयों के काम, उनके कामगार, उनके चमकीले अतीत और
वर्तमान समस्याओं तथा भविष्य के लिए अच्छे विश्वविद्यालयों के बारे में है । एक
विशेष घटना के चलते इसे लिखने की तात्कालिक प्रेरणा मिली । 2013 में सिडनी मे कुछ
विवाद हुआ । अनुदान में कटौती हुई और सेवा शर्तों में से शैक्षणिक स्वतंत्रता को
हटा लिया गया । यूनियन ने हड़ताल का फैसला किया । काफी दिनों तक समझौता वार्ता में
मोल तोल चला । बीच बीच में धरने भी हुए । तीखा सांस्कृतिक प्रतिवाद चलता रहा जिसके
तहत वीडियो बनाकर प्रसारित किए गए, खुली चिट्ठी लिखी गई, उत्सव के दिन यूनियन के
गुब्बारे उड़ाए गए और लचीलापन का मजाक उड़ाने के लिए छद्म योग का मुजाहिरा किया गया
। इस बार तो यूनियन ने सचमुच डटकर मुकाबला किया लेकिन विगत अनेक वर्षों से कामगार
रक्षात्मक तरीके से लड़ते रहे थे ।
2019
में जान्स हापकिन्स युनिवर्सिटी प्रेस से अद्रियाना केज़र, टाम डिपाओला और डैनिएल
टी स्काट की किताब ‘द गिग एकेडमी: मैपिंग लेबर इन द नियोलिबरल यूनिवर्सिटी’ का
प्रकाशन हुआ । किताब में विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की नियुक्ति और काम के
हालात में आने वाले बदलावों की बात की गई है । कालेजों में अध्यापकों को ठेके पर
लेने का चलन बढ़ने के साथ उन्हें मुहैया कराने वाली संस्थाओं के जरिए नियुक्त किया
जा रहा है । कुछ विश्वविद्यालयों में विदेशी परिसरों में अध्यापन के लिए ऐसे
अध्यापकों को ठेके पर लिया जा रहा है । कई जगहों पर नियुक्ति के लिए उच्चतर शोध
अनिवार्य होने के चलते नौकरी मिलने में और अधिक देरी हो रही है । ठेके पर काम करने
वाले अध्यापक कुल अध्यापकों के सत्तर फ़ीसद अमेरिका की उच्च शिक्षा में हो चले हैं
। लेखक का कहना है कि ये सब बातें अफवाह नहीं सच हैं । ठेके पर काम करने वाले
अध्यापकों पर ध्यान हाल में बीस साल की उपेक्षा के बाद गया है । काम के हालात से
ऊबकर इन अध्यापकों ने संगठित होकर अपनी बात रखनी शुरू की है । सेवा शर्तों के चलते
उनके जीवन में अस्थायित्व तो है लेकिन उनकी शिक्षा का स्तर बहुत ही उन्नत होता है
। साथ ही उनके सामुदायिक जुड़ाव भी अधिक मजबूत होते हैं । पूरे अमेरिका में उनकी
एकजुटता का उभार इस समय उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सबसे नई बात है । उनकी
समस्याओं पर तो बात हो रही है लेकिन अध्यापन में शोधार्थियों का जिस तरह प्रवेश
हुआ है उसके बारे में अभी बात नहीं हो रही है । इनका श्रम दर्ज भी नहीं किया जाता
। किताब में इसी तरह के बदलावों की बात की गई है । सभी तरह की संस्थाओं में तमाम रोजगारों
में आये इन बदलावों का कारण और स्रोत नवउदारवाद है ।
2019
में येल यूनिवर्सिटी प्रेस से जान सेक्सटन की किताब ‘स्टैंडिंग फ़ार रीजन: द यूनिवर्सिटी
इन ए डागमेटिक एज’ का प्रकाशन हुआ । इसकी प्रस्तावना गोर्डन ब्राउन ने लिखी है । उनका
कहना है कि उत्तर सत्य के इस जमाने में तथ्य और दावे को बराबर बना दिया गया है ।
ऐसे में सरकार और समाज की संस्थाओं पर भरोसा सबसे कम रह गया है । चिंतन का ही
महत्व नगण्य हो गया है । लेखक इन सबका विश्लेषण करके ही ठहर नहीं गये हैं । वे
इनका मुकाबला करने में विश्वविद्यालय की महती भूमिका देखते हैं । इसके लिए वे नये
तरह के विश्वविद्यालय का खाका पेश करते हैं । इस तरह वे हमारी दुनिया को उम्मीद का
संदेश प्रदान करते हैं । किसी भी विश्वविद्यालय को वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता और
तार्किकता के पक्ष में खड़े होकर सत्य और ज्ञान का संधान करना चाहिए । स्वतंत्र तथा
लोकतांत्रिक समाज के लिए यह अत्यंत आवश्यक है । अन्यथा गम्भीरता लगातार हाशिये पर
ही रहेगी । किताब के लेखक अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में तीस साल से नेतृत्वकारी
पदों पर रहे हैं इसलिए उनके अनुभव भी इसमें समाये हुए हैं । कानून के वे अध्येता
रहे हैं और विद्यार्थियों की भारी फौज उन्होंने खड़ी की है । इसके बाद न्यू यार्क
विश्वविद्यालय के मुखिया के रूप में उन्होंने दुनिया के तमाम देशों में उसके परिसर
स्थापित किये । विश्व संजाल कायम करने वाला वह पहला ही विश्वविद्यालय था ।
विश्वविद्यालय को उसकी वैश्विक भूमिका में देखने का प्रयास उन्होंने निरंतर किया
है । वे संवाद में यकीन करते हैं और इसके लिए सर्वस्वीकार्य तथ्य की मौजूदगी जरूरी
मानते हैं । उनके अनुसार इस किस्म का सार्थक संवाद विश्वविद्यालय में सम्भव और
काम्य है । उनकी चिंता यह है कि सत्य से दूर रहने वाला समाज सच बोलने वालों से
नफरत करने लगता है । इस तरह के समाज में हमारे पतन से बचाव का रास्ता
विश्वविद्यालय से खुलता है ।
2020
में स्प्रिंगेर से शेरोन राइडर, माइकेल ए पीटर्स, मैट्स हाइवोनेन और टिना बेसली के
संपादन में ‘वर्ल्ड क्लास यूनिवर्सिटीज: ए कनटेस्टेड कानसेप्ट’ का प्रकाशन हुआ । कहने
की जरूरत नहीं कि इस धारणा का अर्थ किसी को भी नहीं मालूम फिर भी सभी इस मंत्र का
जाप करते हैं । संपादकों के मुताबिक विश्वविद्यालयों की श्रेष्ठता सूची के चलन ने
उच्च शिक्षा के माहौल को काफी बदल दिया है । इसका संबंध विश्व स्तरीयता की एक
अमूर्त धारणा से है । इन सभी हालिया बदलावों के सिलसिले में ढेर सारी बातें हो रही
हैं । फिलहाल सूची निर्माण के इस काम पर रोक लगने के कोई संकेत नहीं हैं । कुल
मिलाकर उसके तरीके में सुधार या संशोधन के प्रस्ताव ही सुनायी दे रहे हैं । इस
प्रक्रिया का बेहद बुरा प्रभाव शिक्षकों और शिक्षार्थियों पर पड़ा है । सूची बनाने के क्रम में ज्ञान को गणना
लायक सांचे में ढाला जा रहा है । विद्यार्थी, अध्यापक या सरकारें इस सूची के आधार
पर शिक्षा के बारे में कोई पारदर्शी फैसला लेते हुए भी नहीं दिखायी दे रहे । हो यह
रहा है कि इस प्रक्रिया में मानव हस्तक्षेप समाप्त सा हो गया है और तकनीक की
भूमिका लगातार निर्णायक होती जा रही है ।
2020
में प्लूटो प्रेस से अज़ीज़ चौधरी और सलीम वाली के संपादन में ‘द यूनिवर्सिटी ऐंड
सोशल जस्टिस: स्ट्रगल्स एक्रास द ग्लोब’ का प्रकाशन हुआ । किताब में तेरह लेख
संकलित किये गये हैं । इन लेखों में पहला संपादकों की प्रस्तावना जैसा है । शेष
सभी लेख विभिन्न देशों के विद्यार्थी आंदोलनों का विश्लेषण हैं । इस समय को
व्याख्यायित करते हुए अक्सर हम केवल पूंजी की प्रभविष्णुता को ही देखते हैं और
उसके विरोध में उपजी ऊर्जा की अनदेखी कर जाते हैं । ऐसे में इस किताब का महत्व यह
है कि विश्वविद्यालयों की एक अलक्षित भूमिका को यह प्रकाश में लाती है । इस समय
लगभग सभी विश्वविद्यालय न केवल पूंजी के हमले का सामना कर रहे हैं बल्कि ऐसे
आंदोलनों का केंद्र भी बने हुए हैं जो केवल सुविधाओं की घटोत्तरी का ही विरोध नहीं
करते वरन व्यापक सामाजिक सवालों में हस्तक्षेप के इरादे से पैदा हुए हैं । इन
आंदोलनों की मार्फ़त भी विश्वविद्यालय व्यापक सामाजिक चेतना की अगुवाई करने की
भूमिका निभा रहे हैं । ये व्यापक सवाल सामुदायिक उत्पीड़न के विरोध से लेकर
पर्यावरण, नस्लभेद और फ़ासीवाद तक विस्तृत हैं । शिक्षा के बाजारीकरण और कारपोरेट
विश्वविद्यालय के समय का यह पहलू भी बहुत महत्वपूर्ण है । साठ के दशक के बाद उच्च
शिक्षा के केंद्र पहली बार सामाजिक हलचल के केंद्र के रूप में उभरकर सामने आये हैं
।
2020
में स्टेट यूनिवर्सिटी आफ़ न्यू यार्क प्रेस से जान एस लेविन, मेरी सी मार्टिन और
अद्रियाना आइ लोपेज़-दामियां की किताब ‘यूनिवर्सिटी मैनेजमेन्ट, द एकेडमिक
प्रोफ़ेशन, ऐंड नियोलिबरलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । तीनों ही लेखक अलग अलग इलाकों के
हैं । मेक्सिको, अमेरिका और कनाडा के निवासी इन लेखकों के आपसी सहयोग का मतलब है
कि विश्वविद्यालयों में आने वाले हालिया बदलाव किसी एक देश तक सीमित नहीं रह गये
हैं । इन तीनों लेखकों ने शैक्षणिक जीवन के अलग अलग पहलुओं का अध्ययन किया । एक ने
स्थायी अध्यापकों, दूसरे नें अस्थायी अध्यापकों और तीसरे ने प्रबंधकों के बारे में
छानबीन की । नवउदारवाद के आगमन के बाद इन सभी क्षेत्रों में बदलाव नजर आ रहा है ।
शिक्षा जगत में अध्यापन और शोध से जुड़े लोग लगातार सीखने और सिखाने की प्रेरणा
देते रहते हैं । इस पेशे के साथ जुड़े आदर्शवाद के चलते बहुधा हकीकत को देखने से
इनकार भी कर दिया जाता है । प्रबंधन से जुड़े लोग अपने अनुशासन के अन्य अध्यापकों
के साथ अपने व्यवहार के बारे में बात करना नहीं चाहते । दूसरी ओर अस्थायी अध्यापक
काम के बढ़ते बोझ का जिक्र तो करते हैं लेकिन इसके लिए जिम्मेदार अधिकरियों का नाम
नहीं लेना चाहते । जो अध्यापक प्रबंधन का काम देखते हैं वे या तो विभाजित व्यक्ति
की तरह आचरण करते हैं या अपनी प्रबंधक की छवि से इनकार करते हैं । शिक्षण
संस्थानों के प्रशासन में आये बदलाव का यह खास पहलू है जिससे आपसी सहकार के रिश्ते
की जगह सहकर्मियों के बीच भिन्न किस्म का संबंध विकसित हो चला है ।
2021
में प्लूटो प्रेस से पीटर फ़्लेमिंग की किताब ‘डार्क एकेडमिया: हाउ यूनिवर्सिटीज
डाइ’ का प्रकाशन हुआ । जब इस किताब का पहला मसौदा लेखक पूरा कर रहे थे तभी कोरोना
को वैश्विक माहामारी घोषित किया गया । सारी दुनिया में विश्वविद्यालय बंद हो गये
और कक्षा आनलाइन हो गयी । तकनीक के लती लोग रातोंरात विशेषज्ञ मान लिये गये । दूर
देश के विद्यार्थियों के लिए यात्रा करना कठिन था इसलिए उनकी आमद घटने से आर्थिक
घाटा होने लगा । कोरोना के बाद के हालात के बारे में खौफ़नाक बातें कही जाने लगीं ।
यह कहा गया कि बहुत कम ही संस्थाओं के वर्तमान स्वरूप में बने रहने की उम्मीद है ।
यह भी कि कालेजों के जीवित बचे रहने की आशा बहुत कम है और कुछ विश्वविद्यालय भी
बंद हो सकते हैं । वेतन में कटौती और कर्मचारियों की संख्या में कमी की योजना चालू
हो गयी है । शिक्षा के मामले में प्रगति विरोधी जो कदम उठाने से अब तक बहुत सारे
तकनीक प्रेमी हिचक रहे थे उन्हें आपदा के नाम पर तेजी से उठाया जायेगा । लगता है
आगामी दिनों में भयंकर शैक्षिक खून खच्चर देखना होगा । किताब लिखते समय ये बातें
तो दिमाग में नहीं थीं क्योंकि तब कोरोना की हवा भी नहीं थी । अब पलटकर मसौदे को
देखने पर ये बातें महसूस हो रही हैं । सिद्ध है कि आधुनिक विश्वविद्यालय पहले से
ही बीमार चल रहे थे । नवउदारवाद के बाद के पैंतीस सालों में उच्च शिक्षा के बारे
में व्यवसाय की भाषा में बातें होती रही हैं । विदेशी विद्यार्थियों की बदौलत फूला
हुआ गुब्बारा फूटना ही था । उनके भीतर का वातावरण भी बदल गया था । इसका सबूत
विश्वविद्यालयों के बारे में लिखी शिक्षकों की किताबों के शीर्षक हैं । शैक्षिक निर्णय,
सहभागिता और पेशेवर साझेदारी की जगह प्रबंधकीय पदानुक्रम ने ले ली थी । ढेरों
विश्वविद्यालयों के उच्च पदों पर व्यवसायी या सेना से अवकाशप्राप्त लोग नियुक्त
होने लगे । शिक्षा और शोध की जगह पर बेवकूफाना लक्ष्य तय किये जाने लगे और उन्हें
हासिल करने की होड़ मच गयी । जिन्होंने कभी कोई कक्षा नहीं पढ़ायी या कोई शोधालेख
कभी नहीं लिखा वे मानक तय करने लगे । ये सभी अधिकारी खुद को तानाशाह शासक समझने
लगे ।
2021
में पालिसी से पीटर स्काट की किताब ‘रिट्रीट आर रिजोल्यूशन?: टैकलिंग द क्राइसिस
आफ़ मास हायर एजुकेशन’ का प्रकाशन हुआ । यह किताब हमारी निजी जिंदगी को बदल डालने
वाले कोरोना कहर के दौरान लिखी गयी । इस महामारी ने न केवल समाजार्थिक और
सांस्कृतिक हालात को बदल दिया बल्कि उच्च शिक्षा की प्रणाली को भी जिस तरह
प्रभावित किया है उसके असरात का पता सुदूर भविष्य में चलेगा । इतिहास के खास इलाके
में साल की गिनती की जगह बदलाव के हिसाब से समय को नापने का चलन है । छोटे छोटे
कालखंडों में इतिहास के बदलाव को समझने के चलन के मुताबिक यह कोरोना काल भी एक
स्वतंत्र कालखंड ही माना जायेगा । इतिहास के संचालक के बतौर मनुष्य की भूमिका को
संदेह के घेरे में इस महामारी ने ला दिया । राजनीतिक अर्थशास्त्र की दुनिया में तो
और भी छोटे कालखंड होते हैं । इसका उदाहरण अस्सी या नब्बे के दशक से शुरू
नवउदारवाद का अंत 2008 की मंदी से हो गया । किताब के विचारणीय विषय, उच्च शिक्षा
के मामले में तो कालखंड इससे भी छोटे होते हैं । इस नाते यह समय बड़े पैमाने पर
उच्च शिक्षा के प्रसार का समय है । इसकी शुरुआत चालीस के दशक में हुई और साठ के
दशक में इसकी उठान देखी गयी । फिलहाल इस मामले में सबसे बड़ा बदलाव सरकारी अनुदान
की कटौती नजर आ रही है । इन संस्थाओं की स्वायत्तता और स्वशासन का सुनहरा दौर
विश्वयुद्ध और उसके बाद का समय था । फिर फ़ीस की बढ़ोत्तरी का चलन दिखायी पड़ा । इसके
बाद धीरे धीरे प्रबंधन और उद्यम जैसे अनुशासन इसके केंद्र में आने शुरू हुए और
ज्ञान के उत्पादन को उसके असर(इम्पैक्ट) के आधार पर नापा जाने लगा । इन सभी छोटे
कालखंडों में उच्च शिक्षा के व्यापक प्रसार की प्रेरणा काम करती मिलेगी । लेखक ने
जो बदलाव देखे उनका जिक्र इस किताब में है । विभिन्न पदों पर रहते हुए उन्हें ये
बदलाव देखने में आये । इन पदों पर रहते हुए लेखक ने निरपेक्ष पर्यवेक्षक की जगह
सक्रिय भागीदार की भूमिका निभायी थी । कुछ समय तक उन्होंने शिक्षा के मामले में
पत्रकारिता भी की इसलिए जो देखा उसका विश्लेषण भी किया । इस मामले में लेखक की
सामाजिक जनवादी प्रतिबद्धता कायम रही है । सामाजिक न्याय और समानता जैसे मूल्यों
को उन्होंने उच्च शिक्षा तक पहुंच के आधार पर लागू करने की कोशिश की है । पाठकों
को भी इन मूल्यों का कायल करना उनका मकसद है ।
2021
में ब्लूम्सबरी एकेडमिक से माइक सील के संपादन में ‘होपफ़ुल पेडागाजीज इन हायर
एजुकेशन’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना और उपसंहार के अतिरिक्त किताब में
शामिल बीस लेख दो हिस्सों में हैं । पहले हिस्से में उम्मीद के शिक्षाशास्त्र की
मुख्य धारणाओं और नीतियों का विवेचन करने के उपरांत दूसरे हिस्से में उच्च शिक्षा
के भिन्न भिन्न इलाकों में इसकी सम्भावना को तलाशा गया है । इसके तहत पाठ्यक्रम,
संरचना, शिक्षण, सलाह और संस्था के बाहर इसके अभिनिवेश की प्रेरणा प्रदान की गयी
है ।
2022
में रटलेज से जान प्रेस्टन की किताब ‘आर्टिफ़िशियल इनटेलिजेन्स इन द कैपिटलिस्ट
यूनिवर्सिटी: एकेडमिक लेबर, कमोडिफ़िकेशन, ऐंड वैल्यू’ का प्रकाशन हुआ । हम सब
जानते हैं कि उच्च शिक्षा के साथ कंप्यूटर
और इंटरनेट के जुड़ने के बाद से अधिकाधिक काम उसके सहारे होने लगे हैं । तमाम किस्म
की शैक्षिक गतिविधियों में भी मनुष्य की प्रत्यक्ष उपस्थिति के मुकाबले तकनीकी
समाधान पर जोर दिया जाने लगा है । मानवीय कार्यकलाप में इस तकनीकी दखल को कृत्रिम
बुद्धि का नाम दिया गया है । इसका संबंध पूंजीवाद के इस नये रूप से भी है जिसमें
बहुत ही अल्प निवेश से भारी मुनाफ़ा मिल रहा है । नयी तकनीक को व्याख्यायित करते
हुए लेखक ने सबसे पहले यही बात कही है । इसमें तमाम किस्म की मशीन, स्वचालन,
अनुकरण और अनुमान शामिल हैं । पहले भी मनुष्यों ने चेतनासंपन्न ऐसी चीजों की
कल्पना की थी लेकिन इन पुरानी कल्पनाओं के मुकाबले इस समय के तकनीकी हस्तक्षेप का
सीधा संबंध वर्तमान पूंजीवाद से है ।
2022
में पालग्रेव मैकमिलन से इवा फ़ोर्सबेर्ग, लार्स गेसविन्ड, सारा लेवांडेर और वाइलैंड
वेर्मके के संपादन में ‘पीयर रिव्यू इन ऐन एरा आफ़ इवैलुएशन: अंडरस्टैंडिंग द
प्रैक्टिस आफ़ गेटकीपिंग इन एकेडमिया’ का प्रकाशन हुआ । पहले हिस्से में लेखों में सह मूल्यांकन का परिचय देने के
साथ उसका संदर्भ स्पष्ट किया गया है । दूसरे हिस्से के लेख उच्च शिक्षा में
मूल्यांकन की व्यवस्था के साथ इसकी संगति की समीक्षा पेश करते हैं । अंतिम तीसरे
हिस्से के लेखों में सह मूल्यांकन के विभिन्न तरीकों की विशेषताओं का विवेचन है ।
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