इसके लेखकद्वय घोषणापत्र के लेखन से पहले ही क्रांतिकारियों के बीच चर्चित
हो चुके थे । इसके कारण ही लीग ने उन्हें यह दायित्व सौंपा था । दोनों का जन्म
जर्मनी के राइनलैंड में हुआ था । उस स्मय जर्मनी नाम की कोई राजनीतिक इकाई नहीं थी
। 1815 की वियेना कांग्रेस से 41 हिस्सों वाले जर्मन महासंघ का गठन हुआ जिनमें
राजनीति, अर्थतंत्र और संस्कृति के मामले में पर्याप्त भिन्नता थी । इनमें
राइनलैंड पर चरम प्रतिक्रियावादी प्रशिया का अधिकार था । दिक्कत यह थी कि राइनलैंड
पर 1813 तक फ़्रांस का कब्जा रहा था इसलिए शेष प्रशिया के मुकाबले यहां फ़्रांसिसी
क्रांतिकारी विचारों के प्रभाव के कारण उदार माहौल था । मार्क्स के पिता यहूदी मूल
के धनी उदार परिवार से जुड़े थे । जब राइनलैंड दुबारा प्रशिया के अधिकार में आया तो
उन्होंने प्रोटेस्टैन्ट धर्म अपना लिया था । विद्यार्थी जीवन में मार्क्स क्रांतिकारी
विचारों की ओर आकर्षित थे । उन्हें कविता पसंद थी जबकि पिता उन्हें कानून की
शिक्षा देना चाहते थे । 1836 में मार्क्स बर्लिन आ गये और हेगेल के विचारों की
जटिल दुनिया उन्हें भा गयी ।
हेगेल के चिंतन की सबसे खास बात द्वंद्ववाद थी । सरल भाषा में कहें तो यह
समाज समेत सभी चीजों को गतिशील मानता है । इसके मुताबिक दुनिया स्थिर नहीं है
बल्कि इसमें बुनियादी बदलाव और विकास युगों के जरिये होता है । यह बदलाव किसी भी
परिघटना की आंतरिक गतिकी और तनावों के जरिये आता है । यह विकास किसी बाहरी प्रेरक
का नतीजा नहीं होता है । किसी भी सामाजिक परिघटना में विकास और उसके ध्वंस के बीज
उसके भीतर छिपे रहते हैं । हेगेल के अनुसार किसी भी युग की विश्व चेतना इतिहास के
जरिये और अधिक स्वतंत्रता की ओर गतिमान होती है । इसका नमूना उनके लिए फ़्रांसिसी
क्रांति के उपरांत नेपोलियन द्वारा प्रशिया में किये उदारवादी सुधार थे । इस पर
सवाल खड़ा होता है कि जब प्रशिया ने उन सुधारों को उलट दिया तो क्या इसे इतिहास की
पश्चगति कहेंगे । हेगेल का देहांत 1832 में हुआ था और अपने अंतिम वर्षों में वे
प्रतिक्रिया के पक्ष में चले आये थे तथा प्रशियाई शासन को साक्षात तार्किकता कहा
था । इसके कारण ही उनके चिंतन की कुल जटिलता के बावजूद देहांत के बाद उन्हें
आधिकारिक प्रशियाई दार्शनिक बना दिया गया ।
ऐसे में हेगेल के समर्थकों के ही एक समूह ने परवर्ती हेगेल के मुकाबले युवा
हेगेल के क्रांतिकारी विचारों को परवर्ती हेगेल के विरोध में व्याख्यायित करने लगा
। इस समूह को युवा हेगेलपंथी कहा गया । उन्होंने हेगेल के संपूर्ण को मानवता के
रूप में समझा और प्रशियाई शासन को इसका विरोधी साबित किया । प्रशियाई शासन के
विरोधी ये हेगेलपंथी दार्शनिक रूप से भाववादी थे अर्थात उनकी नजर में दुनिया को
चलाने वाली ताकत विचार हुआ करते हैं । इसलिए बदलाव भी वहीं पर होंगे । शुरू में
मार्क्स का आकर्षण इन लोगों की ओर हुआ लेकिन वे प्रतिक्रियावाद पर न केवल सबसे
अधिक तीखा हमला करते बल्कि तत्कालीन उदारवाद की सीमाओं से असंतुष्ट भी थे । अपनी
इसी क्रांतिकारिता के चलते वे जल्दी ही इस भाववाद से मुक्त हुए और दार्शनिक रूप से
भौतिकवाद के साथ खड़े हो गये । आज भी भौतिकवाद को इस तरह देखा जाता है मानो विचारों
की दुनिया से उसका कोई रिश्ता ही नहीं होता हो । सवाल यह नहीं कि विचारों और
संस्कृति की दुनिया अप्रासंगिक होती हो या उन्हें आर्थिक अथवा भौतिक हितों की
प्रतिध्वनि मात्र माना जाता हो । मार्क्स और एंगेल्स के रुख में भौतिक और वैचारिक
का जटिल अंतर्ग्रंथन मिलता है । उनके वैचारिक विकास को जर्मन विचारधारा और
कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र में देखा जा सकता है । 1841 में मार्क्स को शोधोपाधि
मिल गयी लेकिन उनके विचारों के कारण शिक्षण संस्थानों में उनका प्रवेश असम्भव हो
गया । उन्होंने पत्रकारिता को अपनाया लेकिन जब इस क्षेत्र में भी उनके विचारों पर
प्रतिबंध लगाया गया तो वे पेरिस चले आये । वहीं उनकी मुलाकात भांति भांति की वाम
धाराओं के साथ लीग आफ़ जस्ट के प्रवासी जर्मन क्रांतिकारियों से हुई । उन्हें
संगठित मजदूर वर्गीय आंदोलन की सुगबुगाहट भी सुनायी पड़ी ।
मार्क्स को लगा कि मानव मुक्ति का व्यावहारिक तत्व इतिहास ने समाज के
इन्हीं तबकों में पिरो दिया है । ऐसे माहौल में एडम स्मिथ जैसे अर्थशास्त्री की
पढ़ाई और 1844 की जर्मन बुनकरों की हड़ताल ने उन्हें पक्का वामपंथी बना दिया । जिस
साल उनकी पहली पुत्री का जन्म हुआ उसी साल वे कम्युनिस्ट बने । उस जमाने में
कम्युनिस्ट होने का मतलब निजी संपत्ति के विरोध में मूलगामी समता और बहुतेरे भले
मनुष्यों की सामुदायिकता का पक्षधर होना था । इस दौरान मार्क्स ने अपने सिद्धांत
का विकास किया । यह काम उन्होंने एकाधिक लेखों के जरिये किया । सबसे पहले उन्होंने
कहा कि फ़्रांसिसी शैली की क्रांति अगर प्रशिया में हो और केवल सरकार का रूप बदल
जाये तथा बुनियादी अर्थतंत्र को बरकरार रखा जाये तो इससे मानव मुक्ति नहीं होनी है
। दूसरी बात कि जर्मन पूंजीवाद इतना भी नहीं कर सकता । यह काम भी मजदूरों की अगुआई
में ही संपन्न होगा । तीसरी बात कि पूंजीवाद का मुख्य उत्पादक समूह होने के नाते
सर्वहारा ही अपने आपको मुक्त करने के क्रम में मानवता को भी मुक्त करेगा । मजदूर
वर्गीय क्रांति ही सार्वभौमिक मुक्ति की राह प्रशस्त करेगी यह धारणा इन लेखों में
बीज रूप में व्यक्त हुई है । चूंकि मजदूरों के पास कोई निजी संपत्ति नहीं होती
इसलिए ही निजी संपत्ति से समाज को मुक्त करने में वे सक्षम हैं ।
एंगेल्स तो समृद्ध व्यापारी के पुत्र होने के नाते मार्क्स से भी अधिक धनी
परिवार से आये थे । वे भी युवा हेगेलपंथियों और उनमें भी फ़ायरबाख के लेखन की ओर
खिंचे थे । मार्क्स से दो साल पहले ही वे कम्युनिस्ट हो गये थे और अपने पिता के कारखाने
में काम करने मानचेस्टर आये थे । अंग्रेज मजदूरों की दुरवस्था देखकर उन्होंने इंग्लैंड
के मजदूर वर्ग की दशा पर मशहूर किताब लिखी । 1842 में दोनों की पहली मुलाकात हुई थी लेकिन कुछ खास रुचि नहीं
उपजी लेकिन 1844 में पेरिस में हुई मुलाकात ने ऐसी गांठ बांधी
कि दोस्ती मार्क्स के देहांत तक चलती रही । पेरिस में दोनों ने संयुक्त रूप से जो शुरुआती
लेखन किया उसका घोषणापत्र पर असर है । होली फ़ेमिली में उन्होंने इतिहास की
भौतिकवादी धारणा का विकास किया । जर्मन विचारधारा में उन्होंने अलगाव को ऐसी
भौतिक, सामाजिक और मानसिक प्रक्रिया के रूप में समझा जिसमें मजदूर अपनी उत्पादक
गतिविधि को बेचने के लिए मजबूर हो जाता है । उसके जरिये ऐसा काम साधा जाता है जिस
पर उसका, अन्य मनुष्यों का या प्रकृति का अधिकार नहीं रह जाता । इस विचित्र स्थिति
पर काबू पाने के लिए निजी संपत्ति, खासकर उत्पादन के साधनों का स्वामित्व समाप्त
कर देना होगा । जर्मन विचारधारा में उन्होंने शासक वर्ग के विचारों को शासक विचार
कहा । इसमें शासक वर्ग के हित साधने के लिए ऐसे विचार पेश किये जाते हैं कि ये
विचार सहज बोध या शाश्वत सत्य की तरह महसूस होने लगते हैं । उनका प्रभुत्व तोड़ने
के लिए उनको टक्कर देनी पड़ती है । ऐसे विचारों की ताकत की बदौलत विषमता और उत्पीड़न
की व्यवस्था कायम रहती है । इस व्यवस्था के शिकार लोग भी इनके व्यामोह में रहते
हैं ।
जर्मन विचारधारा में निजी संपत्ति की इस व्यवस्था में श्रमिक के अलगाव की
धारणा से उन्होंने चार निष्कर्ष निकाले जो घोषणापत्र में मौजूद हैं । पहला कि किसी भी समाज का आर्थिक
विकास ऐसी जगह पहुंच जाता है कि सामाजिक संगठन में तनाव पैदा होने लगता है । तब
उसकी ताकत उत्पादक की जगह विध्वंसक हो जाती है । तब मजदूर वर्ग सामने आता है जो
समाज का सारा बोझ उठाता है लेकिन उसके लाभ में कोई हिस्सा नहीं बंटाता । उसमें
बुनियादी क्रांति की जरूरत की चेतना पैदा होती है । इसे कम्युनिस्ट चेतना कह सकते
हैं । मजदूरों की हालत पर सोचने से अन्य वर्गों में भी इस चेतना का उदय होता है ।
दूसरा कि इस उत्पादक वर्ग के विरुद्ध एक शासक वर्ग होता है जिसके हित उत्पादक वर्ग
के विपरीत होते हैं । उसकी सामाजिक शक्ति का स्रोत उसकी संपत्ति होती है और इसकी
व्यावहारिक अभिव्यक्ति राज्य के रूप में होती है । राज्य अपनी समस्त नौकरशाही और
सत्ता के साथ, वर्गों के टकराव के बीच निष्पक्ष बिचौलिये की भूमिका निभाने की जगह
शासक वर्ग की सत्ता को व्यक्त करता है । इसी शासक वर्ग की सत्ता के विरोध में
क्रांतिकारी संघर्ष छेड़ना होता है । तीसरा कि अब तक की क्रांतिकारी हलचलों का
स्वभाव राजनीतिक रहा है । वे सभी मौजूदा आर्थिक उत्पादन संबंधों को उखाड़ फेंकने की
जगह उसका पुनर्गठन मात्र करते रहे हैं । कम्युनिस्ट क्रांति इनसे अलग प्रकार की
होगी । उसका मकसद मौजूदा समाजार्थिक व्यवस्था को बुनियादी रूप से बदलना होगा । वह
सभी वर्गों के शासन को समाप्त करने के साथ ही वर्गों का भी उन्मूलन कर देगी ।
व्यवस्थाजन्य विषमता की समाप्ति का संघर्ष समूचे समाज के स्तर पर चलेगा जिसमें
पूंजीवाद, उसकी गतिकी और उसके ढांचों को बुनियादी रूप से बदल दिया जायेगा । समाज
में विषमता के ढांचागत स्रोत के रूप में मौजूद वर्ग का अंत हो जायेगा । चौथी कि
ऐसी क्रांति अनिवार्य है न केवल इसलिए कि अन्य किसी तरह शासक वर्ग को उखाड़ना सम्भव
नहीं है बल्कि इसलिए भी कि इस तरह की क्रांति में ही मजदूर वर्ग युगों की दासता से
अपने आपको आजाद कर सकेगा और नया समाज स्थापित करने लायक बन सकेगा । पूंजीवाद
मनुष्यों के रहने लायक व्यवस्था नहीं है । उसे बदलना ही होगा । इस प्रक्रिया में
ही लोग भी खुद को बदल सकेंगे और बेहतर दुनिया में जीवन बिताने लायक होंगे । सभी
जानते हैं कि मार्क्स और एंगेल्स समाज को बदलना चाहते थे लेकिन उनका विश्वास था कि
बड़े पैमाने पर ऐसी क्रांतिकारी गतिविधि के जरिये सामान्य लोग खुद को ही सबल बनाते
हैं और पूरी तरह से भिन्न किस्म के मनुष्य में बदल जाते हैं । भविष्य के ये
मुक्तिकारी अपना निर्माण भी करेंगे । वर्तमान मनुष्यता का अभिलक्षण बंधन है जबकि
उसका भविष्य इन बंधनों से मुक्ति है ।
उस जमाने में समाजवाद को मध्य वर्ग का आंदोलन माना जाता था जबकि कम्युनिज्म
को मजदूर वर्ग का आंदोलन माना जाता था । समाजवाद को सम्मानित निगाह से देखा जाता
था जबकि कम्युनिज्म अपने समर्थकों की तरह ही प्रतिबंधित था । समाजवादी लोग
पूंजीवादी व्यवस्था की समस्याओं में सुधार चाहते थे जबकि कम्युनिस्ट संपूर्ण
सामाजिक बदलाव के हामी हुआ करते थे । कम्युनिज्म की भावना के मूल सोलहवीं सदी के
उन धार्मिक संप्रदायों में थे जो स्थापित चर्चों की ताकत और संपत्ति के विरोध में
साझा संपत्ति के पक्षधर थे । इन विचारों का आधुनिकीकरण अठारहवीं सदी में हुआ जब
विद्रोही विचारकों ने निजी संपत्ति के उन्मूलन की वकालत की । उसी समय बाबुएफ़ जैसे
अति वामपंथी फ़्रांसिसी क्रांतिकारियों की ओर से कम्युनिस्ट शब्द सुनायी देने लगा
था । 1830 में फिर से फ़्रांस में इस शब्द का इस्तेमाल
हुआ क्योंकि उस समय के क्रांतिकारी निजी संपत्ति को सामाजिक शक्ति और विषमता का स्रोत
मानते थे तथा इसके विरोध में संपत्ति की साझेदारी चाहते थे । यह प्रवृत्ति समूची दुनिया
में अलग अलग रूपों में फैली और सर्वत्र शासक वर्ग के लिए भय का कारण साबित हुई । इस
इतिहास से परिचित होने के बावजूद मार्क्स-एंगेल्स की निगाह में
कम्युनिज्म का उभार तो पूंजीपति और सर्वहारा के बीच संघर्ष के दौरान हुआ । उन्नीसवीं
सदी के पूर्वार्ध में पूंजीवाद के विरोध में तमाम तरह के समाजवादी, कम्युनिस्ट और अराजक व्यक्ति तथा समूह कार्यरत थे । कुछ धार्मिक किस्म की समता
के पुराने विचारों से प्रभावित थे तो कुछ ऐसे भी थे जो काल्पनिक समाजवाद के मुताबिक
सपनों के समाज की स्थापना के लिए कार्यरत थे । कुछ आदर्शवादी थे जो शांतिपूर्ण बदलाव
के पक्षधर थे तो कुछ लोग सरकारों को मुट्ठी भर बुद्धिमान क्रांतिकारियों की हिंसक कार्यवाही
से उलट देने का षड़यंत्र करते रहते थे । 1846 में मार्क्स और एंगेल्स
ने ऐसे क्रांतिकारियों के बीच संपर्क संवाद बनाने के लिए कम्युनिस्ट करेस्पांडेन्स
कमेटी बनायी । इसमें लीग आफ़ जस्ट के सदस्यों के साथ ही चार्टिस्ट आंदोलन के वामपंथी
भी शामिल थे ।
1847 तक इस आंदोलन का केंद्र मार्क्स और एंगेल्स हो चुके थे ।
एंगेल्स इसकी कांग्रेस में भाग लेने लंदन आये जहां इसका नाम कम्युनिस्ट लीग हो गया
और इसकी गतिविधियों में षड़यंत्र के मुकाबले खुली लोकतांत्रिक कार्यवाही का तत्व बढ़ने
लगा । इसके सुर में भी बदलाव आया । इसके नारों में पहले आदर्शवादी नैतिक रंग अधिक हुआ
करता था तथा प्रेम और समानता की अमूर्त भावनाओं पर जोर दिया जाता था । अब उसका नारा
हुआ ‘सभी देशों के मजदूर एक हो!’ । यह मार्क्स
और एंगेल्स के विचारों और रुख के असर का सीधा सबूत था । इनके लिए एंगेल्स ने
प्रश्नोत्तरी की शैली में एक दस्तावेज तैयार किया । इसमें कुल बाइस सवालों के जवाब
थे । इसी को विस्तारित करके उन्होंने कम्युनिज्म के सिद्धांत नामक दस्तावेज तैयार
किया । बहरहाल इस शैली की समस्या और सीमा को भी एंगेल्स ने देख लिया इसलिए मार्क्स
को इसकी जगह घोषणापत्र लिखने की सलाह दी । राजनीतिक हस्तक्षेप के लिए उन्हें यही
रूप उपयुक्त लगा । लीग की दूसरी कांग्रेस दस दिनों तक लंदन में चली । इसमें
एंगेल्स के साथ मार्क्स भी शरीक हुए । उनके कम्युनिज्म के भौतिकवादी और वर्ग
संघर्ष आधारित स्वरूप और पुराने आदर्शवादी भाइचारे पर आधारित कम्युनिज्म के बीच
गरमागरम बहस भी चली । मार्क्स के भाषण के बाद कांग्रेस के प्रतिनिधियों ने
वाइटलिंग की सोच और इस नयी समझदारी के अंतर को अच्छी तरह पकड़ लिया । यह विकास
मजदूर आंदोलन की वैचारिक परिपक्वता का पुष्ट प्रमाण था । कांग्रेस ने मार्क्स को
प्रस्तावित कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिखने का जिम्मा दिया ।
कांग्रेस से लौटकर मार्क्स इस काम में जुट गये । उन्होंने एंगेल्स की
प्रश्नोत्तरी से काफी मदद ली । लीग के साथी इंतजार कर रहे थे लेकिन मार्क्स के लिए
काम पूरा करना मुश्किल हो रहा था । वे उसकी नोंक पलक दुरुस्त करते रहे । बाद में
यह उनकी आदत में ही शुमार हो गया । यूरोप में उथल पुथल बढ़ती जा रही थी । घोषणापत्र
को इस पर असर डालने वाला होना था । 1847 का साल ही भुखमरी के साल जैसा था ।
आयरलैंड में आलू की फसल बर्बाद हो गयी थी और जबर्दस्त आर्थिक संकट पैदा हुआ ।
प्रतिक्रियावादी सामंती शासन और आर्थिक तौर पर शक्तिशाली मध्य वर्ग के बीच सत्ता
पर कब्जे की लड़ाई राजनीतिक रंग लेती जा रही थी जबकि मताधिकार से वंचित कामगारों की
हालत खस्ता थी । क्रांति की भविष्यवाणी वामपंथियों के साथ दक्षिणपंथी भी कर रहे थे
। 1847 के अंत में स्विट्ज़रलैंड में कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट इलाकों में टकराव हुआ
। इसे धार्मिक टकराव की जगह कट्टर पोंगापंथी ताकतों और उदार लोकतांत्रिक बुर्जुआ
ताकतों के बीच राजनीतिक टकराव के रूप में देखा गया । पूरे यूरोप में पोंगापंथी
बादशाहत की प्रतिक्रिया में जबर्दस्त जन विक्षोभ फूट पड़ा । आखिरकार 12 जनवरी 1848
को इस क्रांतिकारी वर्ष का बाकायदे आगाज हुआ जब सिसिली में विद्रोह शुरू हुआ और
पूरे इटली में आग की तरह फैल गया । मार्क्स का लेखन जारी रहा । क्रांति फूट पड़ी थी
और कम्युनिस्टों के पास घोषणापत्र नहीं था! आखिरकार लीग ने मार्क्स को एक हफ़्ते के
भीतर काम खत्म करके भेजने की चेतावनी जारी की । मार्क्स ने काम समेटा और फ़रवरी
मध्य में घोषणापत्र छप गया ।
ध्यान देने की बात है कि यह घोषणापत्र कम्युनिस्ट लीग का नहीं, कम्युनिस्ट
पार्टी का था । लेखकों का मकसद लीग के बाहर भी अपने विचारों को ले जाने का था ।
आधुनिक पार्टी व्यवस्था के आगमन से पहले इसका अर्थ कोई संगठित समूह होने के बदले प्रवृत्ति या
अभिमत हुआ करता था । इस तरह इस शीर्षक का अर्थ कम्युनिस्ट दृष्टिकोण हुआ । यूरोप की
उथल पुथल भरी दुनिया में यह विद्रोही घोषणापत्र जारी हुआ था । विद्रोह की सम्भावना
के चलते एंगेल्स को जनवरी अंत में फ़्रांस से सरकारी आदेश निकालकर बहिष्कृत कर दिया
गया । घोषणापत्र के प्रकाशित होते ही पेरिस में विद्रोह शुरू हो गया । सरकार ने
राजनीतिक सहभोज पर प्रतिबंध लगा दिया क्योंकि सत्ता विरोधियों के मिलन का यह सबसे
पसंदीदा रूप था । मजबूरन पेरिस के कामगारों और उदारपंथी मध्य वर्ग को बैरीकेड खड़े
करने पड़े । मार्क्स ने इसे क्रांति की खूबसूरती कहा । शासक को जान बचाकर भागना पड़ा
और बादशाहत अंतिम रूप से ढह गयी । क्रांति फैलती गयी और सच्चे अर्थों में
यूरोपव्यापी हो गयी । मार्च में मार्क्स को बेल्जियम से देशनिकाला मिला । एंगेल्स
और वे क्रांति में भाग लेने जर्मनी पहुंचे । वहां भी बर्लिन और वियेना में हलचल
शुरू हुई । क्रांति की लहर यूरोप से बाहर निकलकर श्री लंका, कैरीबियन और
आस्ट्रेलिया तक जा पहुंची । नागरिक अधिकारों की मांग होने लगी, साम्राज्यवादी
ताकतों के कब्जे से यूरोपीय राष्ट्र-राज्य की मुक्ति की बात शुरू हुई और
चर्टिस्टों ने विशाल प्रदर्शन आयोजित किये । मार्क्स और एंगेल्स को उम्मीद थी कि
जर्मनी का मध्यवर्ग इस बार अपने ऐतिहासिक दायित्व को पूरा करते हुए सामंती कचरे को
झाड़ बुहारकर साफ कर देगा । इससे उदारपंथी आधुनिकता का प्रवेश होगा, मजदूरों और
पूंजीपतियों की राजनीतिक स्थिति में बेहतरी आयेगी । अनुकूल माहौल मिलने से
पूंजीवादी विकास होगा और राजनीतिक सत्ता पर मजदूरों का कब्जा हो जायेगा ।
घोषणापत्र में लिखा कि पूंजीवादी जर्मनी परवर्ती सर्वहारा क्रांति की पूर्वपीठिका
साबित होगा ।
तत्कालीन परिस्थिति में मजदूर वर्ग का कर्तव्य बताते हुए घोषणापत्र कहता है
कि पूंजीपति वर्ग के साथ स्पष्ट शत्रुता को मानते हुए भी उसे फिलहाल पूंजीपति वर्ग
का साथ देना चाहिए जहां कहीं भी वह सामंती तत्वों के विरोध में क्रांतिकारी तरीके
से काम करे । मजदूर वर्ग इस लोकतांत्रिक क्रांति की चरम वाम शक्ति का प्रतिनिधित्व
करता है । उसके लक्ष्य के प्रति निष्ठावान रहते हुए भी उन्होंने पुराने शासकों के
विरोध में पूंजीपति वर्ग के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की सलाह उसे दी । कार्यनीति
यह थी कि वामपंथ का स्वतंत्र आधार बनाकर पूंजीपति वर्ग के साथ मिलकर पुराने शासकों
पर हमला बोला जाये तथा सर्वहारा, निम्न पूंजीपति और किसानों के इस खेमे को तत्काल
अगुआ की भूमिका में उतारा जाये अगर पूंजीपति वर्ग इस लड़ाई से अपने कदम वापस खींचने
की कोशिश करे तो । उन्होंने तत्कालीन माहौल में मजदूर वर्ग की राजनीति और उसके साथ
ही समर्थक पूंजीपति वर्ग को वामपंथ की ओर से आगे बढ़ने के लिए धक्का देना चाहा ।
इसके लिए उन्होंने न्यू राइनिशे जाइटुंग नामक अखबार का संपादन संभाला । स्थानीय
पूंजीपतियों के धन से जर्मन प्रतिक्रियावाद के विरोध में यह राजनीतिक अखबार निकलता
था । इसके लक्ष्य पाठक मजदूर, किसान और छोटे व्यापारी थे ।
उनकी उम्मीद के विपरीत यूरोप के पूंजीपति सामंती शासन के मुकाबले आसन्न
वामपंथी क्रांति से अधिक भयभीत निकले । जनता के दबाव के चलते कुछ उपलब्धियां तो
हासिल हुईं लेकिन छह महीने बीतते न बीतते साफ हो गया कि समूचे यूरोप में
प्रतिक्रिया की एक लहर व्याप रही है । जून में फ़्रांस की नयी सरकार ने पेरिस में
मजदूरों का दमन करने के लिए तीन हजार से अधिक लोगों को क्रूरता से मार डाला ।
सितम्बर में फ़्रैंकफ़र्त में एक जन विद्रोह का दमन करने के लिए अधिकारियों ने सेना
बुलायी । नवम्बर में बर्लिन में मार्शल ला लगा दिया गया । पूंजीपति वर्ग ने सामंती
शासन का खात्मा करने की जगह कुछ वैधानिक टुकड़ों के लिए उसकी सत्ता से समझौता कर
लिया । आखिरकार यूरोपीय क्रांति पराजित हो गयी । मार्क्स ने इस पूरे दौर से
मूल्यवान सीख हासिल की । पूंजीपति वर्ग के बारे में उन्हें नयी समझ मिली जिसका
उपयोग घोषणापत्र में हुआ । यूरोपव्यापी प्रतिक्रांतिकारी माहौल के चलते मार्क्स और
एंगेल्स ने अब इंग्लैंड को नया बसेरा बनाया ।
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