2021 में
पालग्रेव मैकमिलन से वी गीता की किताब ‘भीमराव रामजी अंबेडकर ऐंड द क्वेश्चन आफ़
सोशलिज्म इन इंडिया’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका अंबेडकर के अध्ययन से लम्बे
समय से जुड़ी हुई हैं । किताब की शुरुआत वे देहाती और शहरी दलित बस्तियों में
अंबेडकर की मूर्तियों से करती हैं जिनमें वे चश्मा
और सूट पहने, हाथ में किताब लिए दाहिनी उंगली से
दूर इशारा करते खड़े बनाये जाते हैं । वे ऊंच-नीच की भावना पर आधारित विषमतापूर्ण
जाति व्यवस्था तथा छुआछूत के बहादुराना प्रतिरोध के जीवंत इतिहास के प्रतीक बन
चुके हैं । हमारे हिंसक और विषमतापूर्ण समाज में सम्मान और समता के लिए लड़ने वालों
के दिलों में उनका स्थान बहुत ऊंचा है । सामान्य लोग उन्हें भारत के संविधान का
निर्माता और दलितों का नेता मानकर ही संतुष्ट रहते हैं लेकिन उनसे प्रेरित
राजनीतिक- सामाजिक आंदोलनों से जुड़े
कार्यकर्ताओं के लिए वे क्रांतिकारी चिंतक, रैडिकल जनवादी और कुछ हद तक समाजवादी भी हैं । इन सबकी कोशिशों से तमाम विद्वानों को उनके लेखन से संवाद स्थापित करना पड़ रहा है । इसी क्रम में यह किताब तैयार हुई है । किताब में भारत में समाजवादी
निर्माण के सवाल से अंबेडकर के जुड़ाव पर जोर दिया गया है । अंबेडकर खुद को
समाजवादी नहीं मानते थे लेकिन उनके चिंतन जगत में समाजवाद हमेशा मौजूद रहा । उनके
इसी चिंतन जगत को देखने का संकल्प लेखिका का है । उनका कहना है कि हिंदू समाज
व्यवस्था की आलोचना के क्रम में अंबेडकर को इस सवाल से हमेशा टकराना पड़ा ।
जाति
प्रथा के उन्मूलन की उनकी ऐतिहासिक परियोजना से समाजवाद संबंधी उनकी जागरूकता का
जुड़ाव रहा है । चिंतन के क्रम में अंबेडकर ने ढेर सारी धारणाओं और तर्कों का
इस्तेमाल किया लेकिन उनकी सीमाओं में बंधने को तैयार नहीं हुए । इस क्रम में
उन्होंने इतिहास और धर्म के प्रसंग में भक्ति की विक्षोभी परम्पराओं, महाराष्ट्र
की तार्किकता की परम्परा, फ़्रांसिसी और अमेरिकी तथा ब्रिटिश संवैधानिकता, ब्रिटिश
समाजवादी साहित्य, अमेरिकी प्रगतिशील विचारों, अश्वेत समुदाय के अध्ययन, ब्रिटिश
प्रशासकों और उनके भारतीय सहयोगियों की मानवशास्त्रीय रपटों, मार्क्स और लेनिन की
रचनाओं, भारत के तार्किक और भौतिकवादी दर्शन, बौद्ध ग्रंथों, आर्थिक न्याय के
सिद्धांतों और दुनिया भर के मजदूर वर्ग के इतिहासों की छानबीन की । इन सबसे विचार
ग्रहण करके उन्होंने अपने मकसद के लिए तर्क विकसित किये । उन्होंने राजनीतिक
धारणाओं और विश्लेषणात्मक कोटियों को अनुभवों की आंच पर पकाकर अपना बना लिया ।
लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व, अल्पसंख्यक अधिकार, नस्ल, वर्ग चेतना, सर्वहारा एकता,
गणतांत्रिक और समाजवादी राज्य तथा सामाजिक वेदना और आध्यात्मिक मुक्ति आदि के बारे
में प्रचलित चिंतन पद्धति को उन्होंने एक दूसरे के साथ गूंथा और इन सबको दलित
समुदाय की निगाह से परखा । इस तरह उन्होंने अकल्पनीय की कल्पना की और उसे साकार
करने की उम्मीद को जन्म दिया । प्रचलित धारणाओं के साथ उनके इस प्रयोग की परीक्षा
भी इस किताब में की गयी है ।
किताब
कुल सात अध्यायों में है । सबसे पहले उनकी संक्षिप्त जीवनी प्रस्तुत की गयी है
जिसमें उनके जीवन और लेखन को तमाम किस्म के इतिहासों, जातिवाद विरोधी आंदोलनों और
तत्कालीन मराठी विचारों, भारतीय राष्ट्रवाद और कम्युनिज्म, औपनिवेशिक सत्ता, जाति
की दुनिया और वैश्विक बौद्धिक परम्पराओं में अवस्थित किया गया है । अंबेडकर और
उनके साथियों के साथ छुआछूत का व्यवहार ही राष्ट्रवाद और कम्युनिज्म के प्रति उनके
रुख को तय करता है । दुर्भाग्य से इस आलोचना के नैतिक महत्व को दोनों ने नहीं
ग्रहण किया । इस प्रसंग में लेखिका ने अमेरिकी समाजवादियों के प्रति ड्यु बोइस की
ऐसी ही प्रतिक्रिया का जिक्र किया है । अंबेडकर ने औपनिवेशिक शासन को पैक्स
ब्रिटानिका माना । अंग्रेजों की कानून व्यवस्था और संवैधानिक सुधारों के साथ
उन्होंने संवाद बनाया । इसी आधार पर भारतीय संविधान और हिंदू कोड बिल संबंधी उनके
प्रयासों को देखा जाना चाहिए । लेखिका का कहना है कि उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद
और कम्युनिज्म के साथ ही अछूत और निम्न जातियों की ओर से पेश समानता और न्याय की
मांग को भी शरीक किया जाना चाहिए । अफ़्रीकी क्रांतिकारी फ़्रांज़ फ़ैनन ने इसी वजह से
राष्ट्रीय चेतना को राजनीतिक और सामाजिक चेतना में बदलने की वकालत की थी । उनके
मुताबिक अगर ऐसा नहीं किया गया तो आजादी की औपचारिक घोषणा के साथ ही आंदोलन समाप्त
हो जायेगा । अंबेडकर ने भी चाहा कि राष्ट्रवादी जिस तरह विदेशी शासन का विरोध करते
हैं उसी तरह जातिभेद की व्यवस्था और छुआछूत का भी विरोध करें । ऐसा न होने पर
उन्हें राजनीतिक कार्यभार को दुबारा परिभाषित करना पड़ा ताकि अछूतों का भी प्रवेश
इसमें कराया जा सके । इसी नुक्ते पर उन्हें तत्कालीन सरकार के साथ आलोचनात्मक
संवाद बनाना पड़ा । इसके कारण उनके काम की सीमाओं का निर्धारण हुआ तो अंबेडकर ने उन
सीमाओं का रचनात्मक अतिक्रमण भी किया । इसके बाद का अध्याय इतिहास तथा ऐतिहासिक
बदलाव की उनकी धारणा पर विचार करता है । इस विशेष प्रसंग में अंबेडकर औपनिवेशिक
शासन के अन्याय को अपवाद नहीं मानते । इसे वे विषमता के दीर्घकालीन इतिहास में
अवस्थित करते हैं ।
अगले
अध्याय में जाति की संरचना संबंधी अंबेडकर की सोच का विकास दिखाते हुए लेखिका ने
उनके समकालीन अन्य विद्वानों के तत्संबंधी विचारों की भी छानबीन की है । इस मुद्दे
पर उनका मानना है कि जातिभेद के विनाश को समर्पित अंबेडकर की राजनीति ने उनकी समझदारी
को अलग आभा प्रदान की है । जातिभेद की समाप्ति के लिए वे पवित्र मानी गयी चीजों के
विरोध में धारणा के स्तर पर बदलाव के साथ सामाजिक क्रांति भी जरूरी मानते थे । इस
सवाल पर अंबेडकर के अथक बौद्धिक और राजनीतिक प्रयास को वे राजनीतिक अर्थशास्त्र के
प्रसंग में मार्क्स के प्रयास से तुलनीय मानती हैं । जिस तरह मार्क्स ने पूंजीवाद
को ऐतिहासिक गवेषणा और आलोचना का विषय बनाकर उसकी स्वाभाविकता के दावे पर सवाल
उठाया था उसी तरह अंबेडकर ने जाति आधारित विषमता के उत्पादन को इतिहास का विषय
बनाकर उसकी पवित्रता को संदिग्ध बना दिया । इसकी समाप्ति को उन्होंने भारत में
कम्युनिज्म की स्थापना की पूर्वशर्त बना दिया ।
इसके
बाद मजदूरों और किसानों के सवाल पर अंबेडकर की सोच का विवेचन करते हुए उसके कारण
कम्युनिस्टों के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों पर विचार किया गया है । लेखिका का मानना
है कि श्रम, श्रमिक और श्रम प्रक्रिया से जुड़े अंबेडकर के सरोकारों को अगर
कम्युनिस्टों ने गम्भीरता से लिया होता तो उनके सिद्धांत और व्यवहार में काफी अंतर
आया होता । इस प्रसंग में लेखिका ने मजदूर आंदोलन के विचारकों के साथ रखकर अंबेडकर
को देखा है ।
श्रम और श्रमिक संबंधी अंबेडकर के चिंतन के साथ ढेरों जाति विरोधी आंदोलनों से हासिल अंतर्दृष्टि का रिश्ता भी खंगालने की कोशिश लेखिका ने की है । लेखिका का कहना है कि जाति आधारित श्रम की अंबेडकरी आलोचना के चलते भारतीय संदर्भ में मूल्य के श्रम सिद्धांत को भी फिर से देखना होगा । शारीरिक श्रम के कलंकीकरण और
अछूतों के श्रम का मूल्य मानने से इनकार के कारण न केवल मूल्य बल्कि काम की धारणा
ही जटिल रूप ले लेती है । भारत में श्रमिक अपने श्रम काल के मूल्य या कौशल को
उन्नत करने की जगह अपनी जातिगत हैसियत को बढ़ाने में जुटा रहता है । इसके कारण उसका
सामाजिक अलगाव बना रहता है ।
इसके
बाद लेखिका ने सामाजिक पुनरुत्पादन के बारे में अंबेडकर के विचारों की जांच परख की
है । उनका मानना था कि जाति के भीतर ही विवाह करने से जातिभेद बना रहता है । इस
भेद को कायम रखने के लिए सेक्स संबंधों की पूरी व्यवस्था का निर्माण किया गया है ।
इस प्रकरण में लेखिका ने अंबेडकर के विचारों को इस जाति व्यवस्था के पुनरुत्पादन
में सहयोग न करने वाले विद्रोहियों के साथ रखकर देखा है । ऐसे विद्रोहियों में
अनेक स्त्री सुधारक, धर्म परिवर्तन करने वाले तथा जातिवाद विरोधी आंदोलनों के
कल्पनालोक निर्माता शामिल हैं । अंबेडकर ने भी धर्म परिवर्तन के जरिये उन
विद्रोहियों की परम्परा का ही पालन किया था । इस मामले में अंबेडकर के लेखन को
लेखिका ने ऐसे नारीवादी लेखन के साथ देखने की अपील की है जिसमें पुनरुत्पादन के
सवाल पर समाजवादी रुख को विकसित किया गया है । अंबेडकर ने जाति आधारित पारिवारिक
संरचना को लैंगिक भेदभाव और ऊंच नीच को कायम रखने का उपकरण माना है जिससे न केवल
उत्पादन के सामाजिक संबंधों का बल्कि उनको समर्थन देने वाले सांस्कृतिक हालात का भी पुनरुत्पादन होता है । आखिरी अध्याय में
अंबेडकर के धर्मांतरण पर विचार किया गया है । बुद्ध के बारे में उनके लेखन के आधार
पर देखने का प्रयास लेखिका ने किया है कि धर्मांतरण के जरिये अंबेडकर हासिल क्या
करना चाहते थे । लेखिका का मानना है कि बौद्ध धर्म में शामिल होने के बावजूद वे
अपनी इहलौकिक और राजनीतिक दुनिया से पलायित नहीं होने जा रहे थे । इस जगह भी वे
बौद्ध धर्म और समाजवाद को आपस में मिलाना ही चाहते थे ।
उनके
समाजवाद का केंद्र कल्याणकारी राज्य है लेकिन न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के लिए
जाति व्यवस्था के विरोध में अछूतों और निम्न जातियों का संयुक्त आंदोलन और गोलबंदी
की जरूरत थी । मौजूदा राज्य और काम्य समाज के बीच ही राजनीतिक कार्यभार का इलाका
था जिसे अंबेडकर अपने आदर्श को साकार करने की कोशिश के जरिये नयी शक्ल देना चाहते
थे । इस संदर्भ में लेखिका अंबेडकर को स्थायी प्रयास की राजनीति का हामी मानती हैं
। भारतीय संदर्भ में इसे ही मोर्चेबंदी का युद्ध कहा जा सकता है । इससे ही गारंटी
होगी कि आगामी सर्वहारा राज्य समानता हासिल करने के चक्कर में स्वतंत्रता के
अधिकार या भाईचारे की जरूरत की उपेक्षा न कर बैठे ।
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