2022 में
हेड आफ़ जीयस से चाइना मेविल की किताब ‘ए स्पेक्टर, हांटिंग: चाइना मेविल आन द
कम्युनिस्ट मेनिफ़ेस्टो’ का प्रकाशन हुआ । उन्नीसवीं सदी के मध्य में जुझारू
वामपंथियों के एक छोटे से समूह ने घोषित किया कि उनके शत्रु यानी यूरोप की बड़ी
ताकतें कम्युनिज्म
के भूत से डरी हुई हैं । घोषणापत्र की शुरुआत इसी तरह होती है । यह आकार में तो
पर्याप्त छोटी है लेकिन इसका असर युगांतरकारी रहा । इसके प्रशंसकों को इस तथ्य पर
गर्व होता है लेकिन आलोचक इसको खारिज करते हैं । पाठक के दिमाग पर इसके प्रभाव तथा
इसकी ऐतिहासिक शक्ति को दोनों ही स्वीकार करते हैं । भूत फिर से जाग गया है । फिर
से इस समय जितने बड़े पैमाने पर कम्युनिस्टों का विरोध हो रहा है उसका कोई कारण नजर
नहीं आता । समूचे समाजवादी खेमे के पतन को तीस साल बीत चुके हैं और दुनिया की
राजनीति में कोई वाम चुनौती भी नहीं है । फिर भी प्रतिक्रियावादियों को कम्युनिस्ट
खतरे का भ्रम होता रहता है ।
घोषणापत्र को प्रत्येक राजनीतिक पीढ़ी ने अपने समय के सवालों से जूझते हुए
पढ़ा है । अनुपनिवेशीकरण और नवउपनिवेशीकरण के वर्तमान संदर्भ में भी इसकी रोचकता
वैसी ही है जैसे कल्याणकारी राज्य के उदय और सोवियत खेमे के पतन के दौरान थी । ये
शब्द जिस समय लिखे जा रहे हैं उस समय दुनिया के मुट्ठी भर खरबपतियों के पास दुनिया
के साठ फ़ीसद गरीब लोगों से अधिक की संपत्ति है । इसके बावजूद संपदा कर इतना कम
पहले कभी नहीं था । दुनिया भर के बीस फ़ीसद बच्चे स्कूल नहीं जा पाते । गरीबी के
चलते रोज बीस हजार लोग मरते हैं । इन हालात के अतिरिक्त कम्युनिज्म के वर्तमान
आकर्षण की वजह हालिया आर्थिक संकट, जलवायु विध्वंस, सामाजिक दुश्चिंता, जहरीली
राजनीति और पर उत्पीड़न सुख है । इसी दौर में नवउदारवादी पूंजीवाद के लिए वाम
चुनौती पैदा हुई और तेजी से उसका अंत भी हो गया । कल्याणकारी मदों में कटौती को
अनिवार्य बताया गया । इंग्लैंड में कोरबीन के नेतृत्व में लेबर पार्टी और सांडर्स
के नेतृत्व में डेमोक्रेटिक पार्टी उठी और बैठ गयी । इसी समय ट्रम्प और जानसन की
चरम दक्षिणपंथी सत्ता भी सामने आयी । दुनिया में भीषण महामारी फैली जिसकी चपेट में
सबसे अधिक गरीब और अल्पसंख्यक आये । लाकडाउन लगे जिसके चलते अर्थव्यवस्था की तबाही
हुई और पूंजीवाद को अपने जीवन की सबसे भीषण मंदी से गुजरना पड़ रहा है । यही ऐसा भी
समय है जब अमेरिका में पचास साल के बाद सबसे जबर्दस्त सामाजिक उथल पुथल हो रही है
। फ़्लायड की पुलिसिया हत्या के बाद फूटे जन विक्षोभ को सशस्त्र पुलिस की सर्वाधिक
क्रूर कार्यवाही झेलनी पड़ी । सारी दुनिया में भारी एकजुटता पैदा हुई और राजनीतिक
बहस के केंद्र में सत्ता से टक्कर की बात सुनायी पड़ी । अराजकता और अस्थिरता के वर्तमान
माहौल में दमन का प्रतिरोध भी जारी रहा ।
बोलीविया में 1919 में थोड़े दिनों के लिए दक्षिणपंथी सरकार सत्ता में काबिज
हुई लेकिन एक ही साल बाद उसे पलट दिया गया । वामपंथ को ऐसी चुनावी जीत मिली कि
विरोधी भी धोखाधड़ी का आरोप नहीं लगा सके । हांग कांग में चीन के हस्तक्षेप के
विरोध में विद्रोह फूट पड़ा । फिलिस्तीन में भी यरूसलम से फिलिस्तीनियों को हटाये
जाने के विरोध में जबर्दस्त गुस्सा फूटा जिसको काबू करने के लिए इजरायल को गाज़ा
पट्टी की बमबारी समेत हिंसा का सहारा लेना पड़ा । इस सूची में राजकीय हिंसा और जन
प्रतिरोध की ढेरों मिसालों का उल्लेख किया जा सकता है । लेखक का सवाल है कि ऐसे
माहौल में कम्युनिस्ट घोषणापत्र का क्या हो । लेखक ने घोषणापत्र का अंतिम
मूल्यांकन पेश करने का दावा नहीं किया है । इसमें केवल उसका परिचय कराने का प्रयास
किया गया है । बस पाठक से दिमाग खुला रखने की अपील लेखक ने की है । इसके लिए पहले
से किसी जानकारी की अपेक्षा भी नहीं है ।
लेखक ने मूल पाठ से ढेर सारे उद्धरण दिये हैं ताकि अगर पहले घोषणापत्र न भी
पढ़े हों तो दिक्कत न हो । पहले के जिन लोगों ने भी घोषणापत्र पर विचार किया है
उनके लेखन से मदद लेने की कोशिश की गयी है । किताब के अंत में उन सभी बहसों के
संदर्भ विस्तार से बताये गये हैं जिनका किताब के भीतर संक्षिप्त उल्लेख है । सही
बात तो यही है कि घोषणापत्र के बारे में कोई भी लेखन मूल पाठ की जगह नहीं ले सकता
। कुल बारह हजार शब्दों के मूल पाठ को परिशिष्ट के बतौर शामिल किया गया है । 1848
में इस पुस्तिका को कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स ने जर्मन भाषा में लिखा था
हालांकि एंगेल्स ने मार्क्स को ही इसका लेखक बताया है । तब से असंख्य भाषाओं में
इसके अनगिनत अनुवाद छप चुके हैं । 1888 में सैमुएल मूर ने एंगेल्स के साथ इसका
अंग्रेजी अनुवाद किया था । उसी को परिशिष्ट में शामिल किया गया है ।
इस किताब में सबसे पहले घोषणापत्र के रूप के बारे में एक छोटी कविता है ।
दूसरे अध्याय में इसके ऐतिहासिक संदर्भ का विवेचन करते हुए मार्क्स-एंगेल्स के
समूचे चिंतन में इसे अवस्थित किया गया है । इसके बाद इसके विभिन्न पश्चलेखों का
जिक्र है । फिर इसे इतिहास, राजनीति, अर्थ और नीतिशास्त्र के अनुशासनों की नजर से
विश्लेषित किया गया है । इसके बाद इसकी कुछ महत्वपूर्ण आलोचनाओं को विविध
परिप्रेक्ष्य में देखा गया है । सबसे अंत में वर्तमान हालात में इसकी प्रासंगिकता
की जांच परख की गयी है । उनकी छानबीन में शुद्ध बौद्धिकता नहीं है । घोषणापत्र की
तर्ज पर ही उनका मानना है कि दुनिया की व्यापक परेशानी, वंचना और कष्ट का रिश्ता
हमारी वर्तमान अर्थव्यवस्था से है । गरीबों की गरीबी का संबंध अमीरों की अमीरी से
है और शक्तिहीन की बेबसी का गहरा संबंध सत्ता पर काबिज लोगों की ताकत से है ।
विषमता का इसी दुनिया में उत्पादन होता है । इस पर कुछ लोगों को गुस्सा आता है तो
कुछ लोगों को उनके गुस्से पर अचरज होता है । लेखक का मानना है कि इस समय के दुखद
यथार्थ की व्याख्या मानव स्वभाव के तथ्य से नहीं होती और यह यथार्थ बदला भी जा
सकता है हालांकि यह बदलाव बहुत आसान नहीं होगा । सवाल तो इस कोशिश के सार्थक होने
का है । जो अनगिनत लोग बहिष्कृत और शक्तिहीन बना दिये गये हैं उनके लिए और उनके
साथ लड़ना लेखक को पर्याप्त जायज लगता है । घोषणापत्र के बारे में लिखते हुए लेखक
ने व्यर्थ की तटस्थता का दिखावा नहीं किया है । उन्होंने माना है कि घोषणापत्र कोई
ऐतिहासिक महत्व का दस्तावेज भर नहीं है वरन बेचैन कर देने की ताकत उसमें अब भी है
। बहरहाल यह बेचैनी प्रदत्त नहीं, इसे हमें खुद अर्जित करना होगा ।
घोषणापत्र के रूप के बारे में उनका कहना है कि उनमें परस्पर विरोधी बातें होती
हैं । यह न तो सिद्धांत होता है, न ही कविता । उनमें भरपूर नाटकीयता होती है । कला की दुनिया में तो आधुनिकतावाद
के बाद से घोषणापत्रों की बाढ़ ही आ गयी थी । उनमें बीसवीं सदी की शुरुआत की इस या उस
परिघटना के बारे में इस या उस तरह का रुख अपनाने की मांग की गयी थी । कला की दुनिया
से बाहर राजनीतिक रूप से क्रांतिकारी घोषणापत्रों की परम्परा इससे पुरानी रही है ।
इन पुराने घोषणापत्रों की परम्परा को कला की दुनिया के घोषणापत्रों में भी निभाया गया
। कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र से ठीक पहले राबर्ट ओवेन का समाजवादी घोषणापत्र आया
था लेकिन मार्क्स लिखित इस घोषणापत्र ने इस परम्परा में कलात्मकता पैदा की । उसके बाद
आये किसी भी घोषणापत्र पर उसकी छाया रही है । इसकी उद्बोधनपरक शैली किसी भी पाठक को
तत्काल स्पष्ट हो जाती है । इसकी शैली से भी इसके राजनीतिक उद्देश्य में मदद मिली ।
विद्वत्तापूर्ण मान्यताओं को भविष्यवाणी की तरह इसमें प्रस्तुत किया गया था । घोषणापत्र
इन पर अमल की मांग करता था । यह ऐसे ही था जैसे कोई सेनापति अपनी सेना से युद्ध की
तैयारी का आवाहन करता है । इसके लिए वह एक नक्शा बनाता है जिस पर विपक्षी सेना की स्थिति
दिखायी जाती है और युद्धभूमि का आकलन करते हुए हमले की योजना पेश की जाती है । सिपाहियों
में जोश भरने के लिए जीत की घोषणा भी की जाती है । मार्क्स ने युद्धभूमि का आकलन सही
सही किया था लेकिन विपक्षी सेना के बारे में सम्भव है उनको सटीक जानकारी न मिली हो
। शक्ति संतुलन के अनुकूल न होने का भी उनको अंदाजा है । कहने का मतलब कि मार्क्स लिखित
यह घोषणापत्र आलोचना से परे नहीं है । इसके लिए सहानुभूति के साथ ही संदेह को भी बनाये
रखना होगा । उदारता के साथ इसे देखते हुए भी कठोर परीक्षण से जी नहीं चुराना होगा ।
किसी भी अच्छे सेनापति की तरह युद्ध में जीत की घोषणा का मकसद पुरानी दुनिया के भीतर
नयी सचाई को साकार करना है । क्रांति की सेवा में हथियार उठाने का आवाहन ही इसकी खासियत
है । जोर इस बात पर है कि अब पूंजीवादी व्यवस्था हमारे समाज के लिए कारगर नहीं रह गयी
है । इस व्यवस्था को हटाने के लिए संचालित अभियान में पाठक को सहभागी बनाना इसका
लक्ष्य है ।
1848 की फ़रवरी में इसका प्रकाशन हुआ और उसके तत्काल बाद यूरोपव्यापी
क्रांतिकारी उथल पुथल शुरू हो गयी । उसके बाद के साठ साल यूरोप और अमेरिका के लिए
दुहरी क्रांति के साल रहे । फ़्रांस की राजनीतिक क्रांतियों और ब्रिटेन की औद्योगिक
क्रांति ने पश्चिमी दुनिया का चेहरा मोहरा बनाया । ये दोनों ही कुछ हद तक सत्रहवीं
सदी के प्रबोधन से उत्पन्न राजनीतिक और वैज्ञानिक विचारों का प्रतिफलन थे । ब्रिटेन
से बाहर फैलकर औद्योगिक क्रांति ने एक ओर नयी तकनीक और शक्ति के नये स्रोतों तथा
उत्पादन और यातायात की नयी प्रौद्योगिकी से आर्थिक माहौल को बदल दिया तो दूसरी ओर
मानव श्रम और मशीन को एक साथ कारखाने में एकत्र कर दिया । हालांकि अधिकतर लोग
यूरोप में अब भी थोड़ा बदले हुए हालात में खेत में ही काम करते थे लेकिन औद्योगिक
मजदूर वर्ग तेजी से अर्थतंत्र में मुख्य भूमिका में उभरना शुरू कर चुका था । उनके
जीने और काम के हालात बेहद खराब थे जिनके कारण मुनाफ़ाखोर मालिकों के साथ टकराव
लाजिम थे । इससे उनके राजनीतिक जुझारूपन में बहुत वृद्धि हुई ।
1789 की महान फ़्रांसिसी क्रांति की याद धूमिल नहीं हुई थी । इसने
बादशाही सत्ता और भूदासता का तख्ता पलट दिया तथा ऊंच नीच, स्थायित्व
और आज्ञाकारिता जैसे पुराने सामंती मूल्यों की जगह समता, स्वतंत्रता
और बंधुत्व पर आधारित नये गणतंत्र की नींव रखी । यूरोप के तमाम बादशाह क्रांति को मसल
देने के लिए तो लामबंद हुए ही, अंदर भी राजनीतिक उठापटक और दबाव
की होड़ का माहौल बना हुआ था । ऐसे में नये शासन ने विचित्र राह पकड़ी । जल्दी ही नेपोलियन
की सत्ता स्थापित हुई जिसने क्रांति के कुछ कानूनी और आर्थिक कदमों को बरकरार रखा लेकिन
राजनीतिक अधिकारों की हद बांध दी और नये फ़्रांस के लाभार्थ दुनिया भर में साम्राज्य
स्थापित करने के लिए सेना भेजी । यूरोप के प्रतिक्रांतिकारियों के गंठजोड़ के सामने
1815 में आखिर उसकी पराजय हो गयी । उसके बाद पूंजीपति वर्ग की या उनके
समर्थन से सत्ता चलती रही । जल्दी ही फ़्रांसिसी क्रांति के मूल्य इस समाज के मूल्यों
से टकराने लगे । यह समाज अधिकतम मुनाफ़े की आकांक्षा के इर्द गिर्द गठित था । यह समाज
ऐसे बदलाव को बर्दाश्त नहीं कर सकता था जो
मुनाफ़ा हासिल करने में बाधा डाले या उस संतुलन को भंग कर दे जिस
पर यह मुनाफ़ा और शासन निर्भर थे । इस संतुलन में दमन और उत्पीड़न को समाहित तो किया
ही गया था, स्वतंत्रता और समानता की घोषणा के बावजूद यह संतुलन
उस दमन उत्पीड़न पर आधारित भी था । मसलन स्त्रियों को मताधिकार नहीं दिया गया था । नेपोलियन
ने फ़्रांसिसी उपनिवेशों में गुलामी समाप्त करने वाले कानून को खत्म कर दिया था । इनसे
गणतंत्र और उदारवाद की असली प्राथमिकता उजागर हुई ।
इसके बावजूद कहा जा सकता है कि उदारवादी आदर्श झूठ पर आधारित नहीं थे ।
उनके अर्थ को लेकर हमेशा खींचतान होती रही है । एक ओर तो महान क्रांतिकारियों ने
उन्हें दमन के विरुद्ध ठोस भौतिक शाक्ति में बदल डाला । मसलन हैती के क्रांतिकारी
ने इनके नाम पर गुलामी के खात्मे की अपील की तो दूसरी ओर सत्ता और संपत्ति के लिए
विद्रोही गुलामों को धोखा देने वालों ने भी इनका निर्लज्ज इस्तेमाल किया ।
उन्होंने स्वतंत्रता के मंदिर में देवी के समक्ष समर्पण की अपील नयी पीढ़ी से की ।
ये आदर्श अंतर्विरोधी और जटिल होने के बावजूद विजयी फ़्रांसिसी सेना के साथ दुनिया
भर में पहुंचे और क्रांति विरोधी गठबंधन ने इनकी मुखालफ़त भी की । अर्थ की
अस्पष्टता के बावजूद इनके चलते अभिव्यक्ति और प्रेस की आजादी, उपनिवेशों की
मुक्ति, उत्तर सामंती राजनीति की मजबूती, मजदूरों के हालात और उनके अधिकार तथा
लोकतंत्र से जुड़े सवाल उठ खड़े हुए । ये सभी अत्यंत विवादास्पद और महत्वपूर्ण
मुद्दे थे । इनके लिए ही जनता के संघर्ष भी होने लगे ।
यूरोप में 1840 के दशक में राजनीतिक और आर्थिक संकट पैदा हुआ । फसलें नष्ट
हुईं और अकाल के कारण भारी दरिद्रता फैल गयी । सरकारों ने भुखमरी की समस्या का
समाधान करने से क्रूरता से इनकार कर दिया जिसके कारण अकेले आयरलैंड में लाखों लोग
मौत के मुंह में समा गये जो ब्रिटेन का उपनिवेश था । नतिजतन इंग्लैंड में ही
चार्टिस्ट आंदोलन के रूप में मजदूरों के विक्षोभ की सर्वाधिक संगठित अभिव्यक्ति
हुई । इसने अन्य चीजों के साथ सार्वभौमिक पुरुष मताधिकार की मांग की । इंग्लैंड के
बाहर भी मजदूरों की इस नयी राजनीतिक चेतना की अभिव्यक्ति हुई । यूरोप के तमाम
शहरों में वहां के उदार माहौल का लाभ उठाकर मुख्य रूप से जर्मन मजदूरों की अवैध
समितियां उग आयीं । इनके नाम विचित्र हुआ करते थे । उनमें से ही एक समिति पेरिस
में विल्हेल्म वाइटलिंग की सदारत में बनी जिसका नाम लीग आफ़ द जस्ट था । इसके लिए
ही कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र लिखा गया था ।
No comments:
Post a Comment