अंबेडकर की
जीवनी लिखने की उलझन का जिक्र करते हुए वी गीता 2021 में पालग्रेव मैकमिलन से
प्रकाशित अपनी किताब ‘भीमराव रामजी अंबेडकर ऐंड द क्वेश्चन आफ़ सोशलिज्म इन इंडिया’
में कहती हैं कि जीवन भर अंबेडकर बोलते और लिखते रहे लेकिन अपने बारे में लगभग कुछ
भी नहीं जिक्र किया । आत्मकथात्मक थोड़े बहुत जो टुकड़े मिलते हैं उनसे औपनिवेशिक
भारत में किसी अछूत बालक की हालत का पता चलता है । भारतीय समाज में उसे हरेक जगह
ऐसी समाजार्थिक विभाजक रेखा का सामना करना पड़ता है जो उसे यानी तथाकथित अछूतों को
शेष लोगों से अलगाती है । अपने समय को उन्होंने अनेक लेखों में दर्ज किया है जब
उन्हें औपनिवेशिक शासन का वर्णन करना होता या उससे पहले के हालात का मूल्यांकन
करना होता ।
वे मानते
थे कि अंग्रेज भारत पर अपने स्वार्थ में ही शासन कर रहे हैं लेकिन उनके शासन के
चलते ढेर सारे ऐसे बदलाव आये हैं जिनका महत्व देश की गरीब और हाशिये की आबादी के
लिए बहुत अधिक है । ये बुनियादी बदलाव इस उपमहाद्वीप में अंग्रेजों के राजनीतिक
प्राधिकार को सुरक्षित रखने के लिए तो नहीं लाये तो जा रहे हैं लेकिन उनके असरात दूरगामी साबित होंगे ।
सार्वजनिक शिक्षा, बेहतर संचार व्यवस्था और आधुनिक कानूनी प्रणाली ने भारत को
आधुनिक जगत में ला खड़ा किया हालांकि भारत के शासक आधुनिकता को साकार करने के लिए
बहुत प्रतिबद्ध नजर नहीं आते । अनगिनत अन्य लोग भी इस विचित्र आधुनिक समय को महसूस
कर रहे थे । भू-राजस्व में नीतिगत बदलाव, कारखानों के आगमन और संचार के विस्तार ने
औपनिवेशिक समय में हजारों स्त्री-पुरुषों का जीवन बदल दिया । उन्हें तकलीफदेह और
कठिन परिस्थिति में डाल दिया गया था लेकिन इसमें नवीनता और अप्रत्याशित का मजा था
। औपनिवेशिक शहर में तो खासकर ऐसा ही था । अंबेडकर ऐसे ही शहर बाम्बे में बड़े हुए
और मजदूरों की बस्तियों में उनका वयस्क जीवन गुजरा । बाम्बे के मजदूर अधिकतर देहात
से आये हुए थे । उनमें जो सवर्ण थे उनकी सामाजिकता उनकी जाति के इर्द गिर्द घूमती
थी । उन्हें अपने ही समुदाय के ठेकेदारों ने सूती मिलों में या दीगर जगहों पर काम
दिलाया था । अछूत कामगार भी इसी तरह शहर आये थे । ज्यादातर खास खास जातियों या
समुदायों ने शहर में भी अपने पेशों के मुताबिक ही काम चुना । इस मामले में शहरी
सर्वहारा पुरानी देहाती सामाजिक दुनिया से जुड़े रहे ।
इन्हीं पारम्परिक
सम्पर्कों के हिसाब से उस समय शहर की भी राजनीति चलती थी । मजदूरों के संगठन भी इस
समस्या का शिकार थे । एक शुरुआती श्रमिक प्रवक्ता नारायण लोखंडे के जीवन से यह तथ्य
स्पष्ट है । वे देहात से आये, एक
सूती मिल में स्टोर सुपरवाइजर और फिर मैनेजर के सहायक बने । वे ज्योतिबा फुले के सत्यशोधक
समाज से भी जुड़े थे । यह संगठन बाम्बे में बहुत सक्रिय नहीं था लेकिन उसका मुखपत्र
‘दीनबंधु’ यहीं से छपता था । लोखंडे 1880 में
उसके संपादक हुए और सत्रह साल तक इस पद पर बने रहे । धीरे धीरे उनका मकसद ही सामाजिक
रूप से दमित समुदाय की बेहतरी हो गया और इसी क्रम में कारखाने के हालात की उनकी जानकारी
के चलते दीनबंधु भी मजदूर वर्ग के हितों से प्रतिबद्ध अखबार बनता गया । काम के बेहतर
हालात और वेतन में बढ़ोत्तरी की मुखर आवाज बनकर लोखंडे उभरे ।
1884 में उन्होंने संगठन बनाकर मजदूरों के काम और आराम
के घंटों का नियम बनाने की मांग की । शहर का यह पहला मजदूर संगठन था और इसके प्रवक्ता
के रूप में लोखंडे ने उन्नीसवीं सदी के अंत में स्थापित फ़ैक्ट्री आयोग के सामने अपना
बयान दिया । इसके बाद जल्दी ही निम्न जातियों के राजनीतिक उत्थान की अभिव्यक्ति के
बतौर अन्य संगठन भी सामने आये । 1909 में
एस के बोले ने कामगार हितवर्धक सभा की स्थापना की । सभा की ओर से खेलकूद, कुश्ती,
सामयिक विषयों पर व्याख्यान आदि आयोजित किये जाते थे । इसने मजदूरों के बच्चों की
पढ़ाई के लिए रात्रिकालीन स्कूल खोले और कभी कभार मालिकों और मजदूरों के बीच संघर्ष
के दौरान मध्यस्थता भी की ।
इसकी
जानकारी नहीं मिलती कि इन गतिविधियों के दायरे में बाम्बे के अछूत कामगार भी आते
थे या नहीं लेकिन शहरी जीवन में देहाती जीवन का भौतिक और सामाजिक पार्थक्य कम हो
गया । इसके बावजूद अछूतों के साथ जुड़ा कलंक समाप्त नहीं हुआ, उनके साथ काम
करनेवाले भी उन्हें नीची निगाह से ही देखते थे । दूसरी ओर अंबेडकर के सबसे कनिष्ठ
सहयोगी आर बी मोरे ने लिखा है कि शहरी जीवन ने अछूतों को क्रांतिकारी बनाया । काम के
खतरनाक हालात के बावजूद काम के बाद आराम और सामाजिक आजादी की अनंत सम्भावना खुली थी,
जातिगत
भेदभाव की मौजूदगी के बावजूद ट्रेड यूनियनों और क्रांतिकारी सांस्कृतिक संगठनों के
रूप में नये सामाजिक जुड़ाव भी नजर आये । इस दुनिया की सीमाओं और सम्भावनाओं के जानकार
अंबेडकर ने इसका प्रचुर लाभ उठाया ।
अछूत जातियों
में से उच्च शिक्षा हासिल करने वाले बहुत कम लोगों में अंबेडकर शामिल थे । उनके समुदाय
के लोग अगर विदेश जाते भी तो आजीविका के लिए जाते थे,
शिक्षा
प्राप्त करने के लिए नहीं । कोलम्बिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल आफ़ इकोनामिक्स की
शिक्षा के साथ ही उनकी विश्वदृष्टि और कल्पना पर बहुत गहरा प्रभाव बीसवीं सदी के पूर्वार्ध
के युगांतकारी घटनाक्रम का भी पड़ा । प्रथम विश्वयुद्ध,
राष्ट्रवाद
का उभार, बोल्शेविक
क्रांति, यूरोप
में पूंजीवाद का व्यापक विरोध और विश्व शक्ति के रूप में अमेरिका का उभार आदि ऐसी ही
घटनाएं थीं । दूसरी ओर उन पर औपनिवेशिक भारत में जाति प्रथा और छुआछूत के विरोध में
लागातार जारी विद्रोह और विक्षोभ की परम्परा ने भी उनकी चेतना को आकार दिया था ।
अंबेडकर का
जन्म और पालन पोषण पश्चिमी भारत के महाराष्ट्र में हुआ था ।
1818 में इस इलाके पर ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्जा हुआ
था । भोंसले ने मुगल शासकों को इलाके की सीमा के बाहर रोके रखने में कामयाबी पायी थी
। इसके चलते अठारहवीं सदी के दूसरे दशक से ही इस इलाके में ब्राह्मणों का शासन बरकरार
रहा था । उन्होंने ऐसा सैन्य-नौकरशाहाना
शासन विकसित किया जिसमें ब्राह्मण जातियों की सत्ता और उनका विशेषाधिकार भूमि और मुद्रा
दान के सहारे कानूनन मजबूत बने । अब्राह्मण सैन्य समूहों को एक ऐसी व्यवस्था को मानना
पड़ता था जिसमें उनकी हैसियत दोयम दर्जे की थी । इससे पहले मराठा गौरव से प्रेरित
छोटे छोटे दबंगों के इस समूह ने ब्राह्मण सत्ता के साथ सहयोग करते हुए भी उसे काबू
में रखा था लेकिन अब उन्हें सामाजिक रूप से एक पायदान नीचे होने का कड़वा घूंट पीना
पड़ रहा था । पेशवा राज ने कानून बनाकर किसानों, कारीगरों और स्थानीय व्यापारियों
की अन्य जातियों को भी निचली श्रेणी में डाल दिया । अछूत जातियों को तो बहिष्करण
और अपमान की भयावह स्थितियों का सामना करना होता ।
1818 में
पेशवाओं पर अंग्रेजों की जीत से इस व्यवस्था का अंत हुआ । धीरे धीरे अंग्रेजों ने शोषक
राजस्व और प्रशासन की नयी व्यवस्था लागू की जिससे आर्थिक और नागरिक जीवन में बदलाव
आया । बहरहाल 1858 में
इस इलाके में शेष भारत की तरह ही विक्टोरिया का प्रत्यक्ष शासन कायम हो गया । इसने
पुरानी व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं किया । राजस्व वसूली की दर ऊंची बनी रही,
किसान
कर्ज में डूबे रहे, दस्तकारी
का उत्पादन घटा और कारीगर लोग पहले से ही बदहाल कृषि अर्थतंत्र में मजदूर की तरह शामिल
हुए । देहाती इलाकों में भूख और अकाल के प्रसार के बावजूद नयी व्यवस्था में जमींदारों
और वसूली करने वालों की चांदी रही । आधे मन से कुछ सुधार किये गये लेकिन राजस्व की
वसूली पूर्ववत रही और कर्ज की समस्या में भी कमी नहीं आयी । दूसरी ओर कुछ इलाकों में
कपास की वाणिज्यिक खेती शुरू हुई जिससे छोटे किसानों और अछूत खेत मजदूरों की हालत में
थोड़ा सुधार भी आया । इसके साथ जब शिक्षा भी मिली तो निम्न और अछूत जातियों में शिक्षितों
की आधुनिक पीढ़ी का जन्म हुआ ।
अंग्रेजों
के व्यापारिक और औद्योगिक हित पूरी तरह सुरक्षित थे । बाम्बे में आधुनिक कताई
मिलों की स्थापना हुई जो निर्यात हेतु कपड़े का उत्पादन करती थीं । बाद में वही
तैयार माल के रूप में अंग्रेज व्यापारी बेचते थे । उन्नीसवीं सदी की आखिरी चौथाई
में पूंजीवादी उत्पादन से जुड़ी हरेक बुराई (काम के लम्बे घंटे, औरतों और बच्चों को
काम पर रखना, खराब सेहत और झोपड़पट्टी) बाम्बे में मौजूद थी । इन हालात के बारे में
एकाधिक प्रतिक्रिया देखने को मिलती है । जो कुलीन ब्राह्मण थे वे अपनी राजनीतिक
हैसियत में कमी से क्षुब्ध थे । इसके कारण अंग्रेजी शासन के विरोध में शुरुआती
आतंकी घटनाएं घटीं । बाद में इसकी जगह नवोदित राष्ट्रवाद ने ले ली । दूसरी ओर
अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त ब्राह्मणों का ऐसा समूह भी था जो अंग्रेजी शासन में
सम्भावना तलाश रहा था लेकिन उसे ईसाई धर्म प्रचारकों द्वारा अपने समाज और धर्म की
खिल्ली उड़ाना पसंद नहीं था हालांकि वे इस आलोचना को गलत भी नहीं मान पाते थे । इस
वजह से उन्होंने अंग्रेजी शासन को उपकारी और खुद को ऐसा आधुनिक राजनेता माना
जिन्हें समाज व्यवस्था की आलोचना, संग्रह-त्याग और सुधार लायक ज्ञान था तो दूसरी
ओर सरकार को अर्थतंत्र, शिक्षा और कानून में सुधार सुझाने की जिम्मेदारी थी ताकि
लोगों की शिकायतें दूर हो सकें । किसान और दस्तकार जातियों के लोग भी अंग्रेजी
शासन को उपकारी मानते लेकिन उनके तईं इसकी वजहें भिन्न थीं । उन्हें लगता था कि
अंग्रेजी शासन की वजह से विचार और आचार की ऐसी नयी दुनिया खुल गयी है जिसे जाति
व्यवस्था को स्थिरता प्रदान करने वाले विश्वासों और मूल्यों के बरक्स पेश किया जा
सकता है । यह नयापन आधुनिक स्कूलों और सार्वजनिक बहसों में प्रकट होता था । कम से
कम धारणा के स्तर पर अंग्रेजों ने सबके लिए शिक्षा को सुलभ कराया । इससे न केवल
निम्न जातियों को भौतिक उन्नति का अवसर मिला बल्कि उनके समुदाय के युवकों के सामने
आलोचनात्मक ज्ञान की दुनिया खुल गयी । इसके कारण उनमें क्रांतिकारी तरीके से
लोकतांत्रिक विचारों का प्रसार हुआ और पुरोहितवाद से उनका विरोध बढ़ा ।
अतीत काल
में ब्राह्मण सत्ता को काबू में रखने के क्रम में स्थानीय स्तर पर लोक
आध्यात्मिकता से लेकर विद्रोही धार्मिक संस्थाओं तथा संप्रदायों का उदय हुआ था ।
विक्षोभ की इस परम्परा से ये युवक सुपरिचित थे शायद इसीलिए वे आधुनिक तार्किकता पर
आधारित धर्मद्रोह की ओर तेजी से आकर्षित हुए । स्वतंत्रता और समानता के नवोदित
विचारों से प्रेरित होकर उन्होंने न केवल सामाजिक प्रचलन और विश्वासों को चुनौती
दी बल्कि एक हद तक पुराने सामाजिक संबंधों तक को मानने से इनकार किया । इस संदर्भ
में ज्योतिराव फुले की कहानी बेहद महत्व की है । उन्होंने किसी भी अन्य व्यक्ति से
आगे बढ़कर इस आधुनिक समय को पहचाना और स्वतंत्रता तथा समानता की सम्भावना को साकार
करना चाहा ताकि सामाजिक दुखों का खात्मा हो सके । नयी पीढ़ी के भारतीयों में वे
पहले व्यक्ति थे जिन्होंने छुआछूत के सवाल को मानवाधिकार के नजरिये से देखा ।
फुले
खेतिहर जाति से जुड़े हुए थे । उनके पिता पेशवाओं के दरबार में फूल पहुंचाने का काम
करते थे । इसके साथ ही पुणे में छोटा मोटा व्यवसाय भी चलाते थे । ईसाई स्कूल में
उनकी शिक्षा दीक्षा हुई थी और उस जमाने में बढ़ रही छापे की संस्कृति के चलते अपने
समय के अन्य लोगों की तरह उन्हें भी थामस पेन जैसे क्रांतिकारियों का लेखन सुलभ
हुआ । इसके साथ ही दुनिया भर में घट रही ऐतिहासिक घटनाओं में निहित शिक्षा को भी
उन्होंने अच्छी तरह आत्मसात किया था । फुले अमेरिकी क्रांति और उससे उपजे गणराज्य
से खासे प्रभावित थे । अमेरिकी दासता से नफरत के कारण वे उसे समाप्त करने वाले
गृहयुद्ध के भी पक्ष में थे । अमेरिका और आस्ट्रेलिया में ब्रिटिश और यूरोपीय
लोगों की मौजूदगी के विध्वंसक प्रभावों की भी उन्हें जानकारी थी और वे मूलवासियों
के अधिकारों के पक्षधर थे । दूसरी ओर भारत के मामले में वे अंग्रेजी शासन के पक्ष
में थे क्योंकि इसने पेशवाशाही को खत्म किया और सबके लिए समान कानूनी और शिक्षा की
व्यवस्था को कायम किया । इसके बावजूद वे उनकी कृषि नीति का विरोध करते थे । उनका
निर्मम राजस्व प्रबंधन तथा ग्रामीण अर्थतंत्र के विकास के प्रति उनकी उदासीनता समझ
में न आने वाली बातें थीं । किसानों की दीनदशा देखकर फुले ने इसकी जिम्मेदारी
शासकीय ढांचे पर डालने का प्रयास किया । अंग्रेज अफ़सरों के बारे में उनके मन में
प्रशंसा का भाव था इसलिए उनका गुस्सा भारतीय राज कर्मचारियों पर जाहिर हुआ । ये
राजकर्मी ब्राह्मण जाति के थे । जमीनी स्तर पर औपनिवेशिक नीतियों को इनके जरिये
लागू किया जाता था । अपनी उच्च स्थिति के चलते ये सभी राजकर्मी किसानों और
दस्तकारों को नीचा समझते थे और उनसे चिढ़ते थे । फुले की निगाह में ये अफ़सर भाई
भतीजावाद और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए थे । इस तंत्र को बनाये रखने में एक ओर
ब्राह्मणी व्यावसायिक और जमींदारी हितों तथा दूसरी ओर न्यायिक सेवा के उनके भाई
बंधुओं का योगदान था ।
उनके सामाजिक
अस्तित्व और उनके रुख की छानबीन के लिए फुले ने नस्लभेद के सिद्धांतों का सहारा लिया
और कहा कि वे बाहर से आये इरानी आर्य नस्ल के हमलावर लोग हैं जो स्थानीय मूलवासियों
पर अपनी राजनीतिक इच्छा और सांस्कृतिक प्राधिकार थोपने के लिए आमादा थे । समय बीतने
के साथ ये मजबूत बौद्धिक वर्ग में बदल गये तथा विचारों और विश्वासों के क्षेत्र में
अपना दबदबा कायम किया । उनका प्रभुत्व कभी पूरी तरह स्थापित न हो सका और लगातार उन्हें
चुनौती मिलती रही है । अतीत में बौद्ध, मध्यकाल
में इस्लाम और वर्तमान में अंग्रेजी शासन इसी तरह की चुनौतियां हैं । ब्राह्मण प्रभुत्व
के प्रतिरोध के इन मौकों पर निम्न जातियों और अछूतों को कुछ आजादी मिली लेकिन जब इसके
विरोध में प्रतिक्रिया का उभार हुआ तो यह सीमित आजादी भी कुचल दी गयी । फुले ने ब्राह्मण
मालिकों को गुलामों के मालिकान जैसा बताया और उनके सताये लोगों को अमेरिकी मूलवासियों
की तरह पेश किया ।
सभी
अंग्रेजों को एक समान मानने से फुले ने इनकार किया । उनको उन्होंने तीन प्रकार का
चिन्हित किया । इनमें सबसे पहले ईसा मसीह से प्रेरित धर्मोपदेशक थे जो शिक्षा के
क्षेत्र में सक्रिय थे । उन्होंने ऐसे भारतीयों को आधुनिक शिक्षा दी जिन्हें
शिक्षा नहीं दी जाती थी । फुले की निगाह में ये लोग प्रेम तथा स्वतंत्रता और
समानता का संदेश भारतीय संदर्भ में फैला रहे थे जहां जन्म आधारित विषमता और
तज्जनित तकलीफें संरचना में समायी हुई थीं
। दूसरी तरह के अंग्रेज वे थे जिनकी हरकतें किसानों और दस्तकारों के लिए
नुकसानदेह थीं । स्थानीय राजकर्मियों के साथ मिलकर इन लोगों ने धरती को चूस लिया
था । उनका सबसे बड़ा अपराध था कि उन्होंने भारत को खाद्यान्न का निर्यातक बना दिया
था जिसकी वजह से किसान कष्ट में कराह रहे थे । जंगलात विभाग की स्थापना के जरिये
साझा जमीन पर खेतिहरों के अधिकार हड़प लिये गये थे और सस्ते आयात के हथियार से
दस्तकारी को तबाह कर दिया गया था । तीसरे समूह को व्यक्तियों का मानने की जगह
उन्होंने राज्य कहा । इसे आदर्श रूप में कार्यरत होना चाहिए लेकिन फुले मानते हैं
कि इसका आचरण वांछित स्वरूप का नहीं है ।
अंग्रेजी
शासन का दावा तो यह था कि वह उपकारी शासन है लेकिन जमीन पर ऐसा कुछ नजर नहीं आता
था । भू राजस्व की वसूली के चलते ग्रामीण लोग घर और खेत छोड़ रहे थे क्योंकि वे न
तो सरकारी राजस्व चुका पा रहे थे न ही सूदखोरों का कर्ज ही खत्म हो रहा था । उनके
भीतर असंतोष और विद्रोह का भाव व्याप्त था । अपनी गलती छिपाने के लिए अंग्रेज अतीत
के शासन के मुकाबले अपने शासन की बेहतरी का दावा करते थे । ऐसे में फुले का आदर्श
राज्य अंग्रेजी शासन नहीं हो सकता था । रास्ता बचा कि समाज का पुनर्निर्माण करना
होगा । इसके लिए तीन मोर्चों पर बदलाव लाना था । पहला कि शूद्रों को आत्मोत्थान
करना होगा । घरेलू और पारिवारिक रिश्तों को बदलना होगा । स्त्रियों को बराबर का
मनुष्य मानना होगा, उनके श्रम का मूल्य और शिक्षा का अधिकार उनको देना होगा ।
दूसरा कि सामाजिक संबंधों को अछूतों या अतिशूद्रों को समानता और स्वतंत्रता के
आधार पर बदलना होगा । देहाती और शहरी समाजार्थिक व्यवस्था में उनका मूल्य समझना
होगा । तीसरा बदलाव शिक्षा के क्षेत्र में होगा । किसानी और दस्तकारी के कौशल को
मजबूत करने तथा सत्य की खोज करने लायक आधुनिक शिक्षा देनी होगी । इसके लिए धार्मिक
आचार व्यवहार त्याग करके तार्किक चिंतन और समता, स्वाभिमान और सामूहिक जिम्मेदारी
पैदा करने वाली नैतिकता को अपनाना होगा । इस स्वप्न को पूरा करने के लिए फुले ने
दो काम किये । एक तो उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की जिसे लड़कियों और अछूतों
समेत निम्न जाति के लड़कों के लिए स्कूल चलाने थे तथा ब्राह्मणों के सामाजिक और
सांस्कृतिक प्रभुत्व के विरोध में प्रचार करना था । इस समाज को फुले की एक और बात
को प्रचारित करना था । फुले का मानना था कि अतीत में राजा बालि के शासन में
किसानों और उत्पादक कामगारों का सम्मान था । आर्य आक्रांताओं ने उनके शासन को उखाड़
फेंका लेकिन उनके समान शासन का सपना जिंदा रहा । सत्यशोधक समाज को राजा बालि के
शासन की स्थापना की राह हमवार करनी होगी ।
फुले और उनके
समर्थकों के लिए सामाजिक विषमता और तज्जनित आर्थिक कष्ट की व्याख्या औपनिवेशिक राजनीतिक
आर्थिक व्यवस्था के जरिये ही नहीं हो सकती थी । औपनिवेशिक शासन के साथ अन्याय की दीर्घकालीन
व्यवस्था ने इसे आकार दिया । अगर इसका विकल्प खोजना है तो कोई कल्पित इतिहास ही इसमें
मदद कर सकता है जिसके सहारे किसान और कामगार की दुनिया बनायी जा सके । यह भी एक कारण
था कि फुले ने शुरुआती राष्ट्रवाद की उपेक्षा की क्योंकि यह राष्ट्रीय एकता का राग
अलापने और औपनिवेशिक सरकार में बढ़ी हुई भागीदारी से आगे की बात ही नहीं करता था । इन
दोनों ही मामलों में फुले को समस्या नजर आयी । निम्न जातियों को ओछी निगाह से देखनेवाले
ब्राह्मणों के आवाहन पर राष्ट्रीय एकता कैसे हो सकती थी
! सरकार में भागीदारी भी अपने सभी देशवासियों के हितों
की सेवा न करने की स्थिति में महत्वहीन बात थी ।
सत्यशोधक समाज
के कामों से महाराष्ट्र के उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के ढेर सारे अछूत चिंतक
गहरे प्रभावित हुए । इनमें से गोपालबाबा वालंगकर ने शास्त्रों की कटु आलोचना के मुकाबले
उनके पाठ पर जोर दिया और पाया कि ॠग्वेद और
गीता जैसे ग्रंथों में जन्म आधारित भेदभाव का समर्थन नहीं किया गया है । उनका मानना
था कि अछूतों की वर्तमान अवस्था ऐसी ऐतिहासिक घटना है जिसका सुधार अभी नहीं हो सका
है । वालंगकर ने सत्यशोधक समाज के साथ मिलकर काम किया लेकिन फुले के देहांत के बाद
कुछ महत्वाकांक्षी पिछड़े नेताओं ने उनके जैसे अछूतों को उससे बाहर कर दिया । इसके बाद
उन्होंने स्वतंत्र संगठन बनाया तथा प्रचार कार्य के साथ ही सरकार को अछूतों की शिकायतों
से अवगत भी कराते रहे । उन्होंने अछूतों का कलंकीकरण समाप्त करने के लिए एक ओर उसके
समर्थकों की सीमाओं और कमियों का जिक्र करते और दूसरी ओर अछूतों के आत्मोत्थान की बात
भी की ।
महाराष्ट्र
के मराठा शासकों में कोल्हापुर के साहू जी महाराज और बड़ौदा के सयाजीराव गायकवाड़ ने
भी अछूतों की शिक्षा के मामले में बहुत प्रयास किये । साहू जी महाराज ब्राह्मण विशेषाधिकार
और जातिगत ऊंच नीच के वैचारिक विरोधी थे । अपने प्रशासन में उन्होंने निम्न जातियों
को नियुक्त किया । उन्होंने जाति और ब्राह्मण श्रेष्ठता से जुड़ी बहसों में सक्रिय हस्तक्षेप
किया और ऐसे मंचों का गठन किया जहां अछूत नेता मिल सकें और अपने सरोकारों को स्वर दे
सकें । उन्होंने ढेर सारे ऐसे कानूनी और सामाजिक कदम उठाये जिनसे अछूतों की आर्थिक
दुर्दशा का अंत हो और वे आधुनिक शिक्षा हासिल करने में समर्थ हों । ऐसे भी सवर्ण सुधारक
सामने आये जो अछूतों की हालत में सुधार चाहते थे । इस प्रसंग में वी आर शिंदे के प्रयास
अधिक टिकाऊ साबित हुए । उन्होंने हिंदू सुधार पर जोर दिया और जाति तथा छुआछूत का विरोध
किया । अछूतों के धर्मांतरण को देखते हुए कुछ कट्टर हिंदू लोगों ने भी छुआछूत पर चिंता
जाहिर की और अछूतों को जाति व्यवस्था के भीतर समाहित करना चाहा ।
जिस तरह पश्चिमी
भारत में फुले और उनके साथियों ने किया उसी तरह समूचे भारत के अछूत और निम्न जाति के
चिंतकों ने अपने समय को समझने का प्रयास किया । ये लोग अंग्रेजी शिक्षा तो हासिल
कर ही चुके थे, दुनिया भर के बदलावों से भी वाकिफ़ थे जिसमें समता का मूल्य प्रधान
था इसलिए जाति व्यवस्था में अपनी स्थिति का उन्होंने विरोध किया और अन्यायपूर्ण
तथा ऊंच नीच आधारित समाज को बनाये रखने में हिंदू धर्म और ब्राह्मण प्राधिकार की
आलोचना की । सबने ही औपनिवेशिक शासन को अवसर की तरह देखा और राष्ट्रवादी आंदोलन से
दूरी कायम की । कुछ जगहों पर अछूतों और निम्न जातियों ने एकता बनायी ताकि अपने साथ
दुर्व्यवहार पर अंग्रेजी शासन का ध्यान आकर्षित कर सकें । यह एकता हमेशा नहीं बनी
क्योंकि अछूतों की समस्या विशेष थी इसलिए उसके बारे में वे ही बोलते थे । अछूतों
के संगठनों ने औपनिवेशिक सरकार से शिक्षा और रोजगार के अपने अधिकार की मांग की और
इसके लिए कानून या अध्यादेश पर जोर दिया । भौतिक दुरवस्था के कारण अलग अलग इलाकों
के लोगों ने अपने क्षेत्र की आर्थिक स्थिति के अनुरूप मांगे प्रस्तुत कीं । कुछ
जगहों पर ट्रेड यूनियन बने, कुछ जगहों पर जमीन की मांग हुई और कुछ जगहों पर ये
समुदाय किसान आंदोलनों में शामिल हुए । इन सबने पहचान और इतिहास के सवाल उठाये ।
अतीत में शासक होने, फिर आर्यों के आगमन से पराजित होने और फिर जाति व्यवस्था का
निर्माण सुपरिचित कहानी होती थी । अन्य कुछ लोग स्थानीय समाज के सबसे आदिम सदस्य
होने का दावा करते थे तथा कुछ ऐसे भी थे जो आस्तिकता की दुनिया में अपनी जगह का
दावा करते थे । ऐसे ही माहौल में अंबेडकर का आगमन हुआ ।
उनके जीवन के
शुरुआती दिनों में बाम्बे में तमाम अछूत नेता सक्रिय थे । वे अखबार निकालते,
सामुदायिक
कामों में भाग लेते और सेना में अछूतों की भरती खोलने के लिए अंग्रेज सरकार को आवेदन
देते थे । सेना में उनकी भरती अंबेडकर के जन्म के साल ही बंद हो गयी थी । सेना के उनकी
भरती से सामाजिक उत्पीड़न से कुछ हद तक आजादी तो मिलती ही थी,
आधुनिक
शिक्षा भी हासिल करने में आसानी होती । वजह कि सैनिकों के बच्चों के लिए स्कूल जाना
अनिवार्य था । अंबेडकर के पिता भी अछूतों की इस मांग के समर्थक थे । उन्होंने अपने
बच्चों को स्कूल भेजा हालांकि खुद आजीविका के चक्कर में भटकते रहे । अंबडकर स्कूल गये
और वहां जारी भेदभाव को प्रत्यक्ष देखा । स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के बाद वे एलफिंस्टन
कालेज गये । कालेज में शिक्षा का उदार माहौल था और तमाम किस्म की समाज सुधार सभाओं
की सक्रियता थी । यहां अंबेडकर को समसामयिक राजनीतिक और सामाजिक सवालों की जानकारी
मिली । सयाजीराव गायकवाड़ की वृत्ति के चलते उन्हें कालेज में कोई असुविधा नहीं हुई
। 1912 में राजनीति और अर्थशास्त्र में उपाधि हासिल करके उन्हें बड़ौदा राज की सेवा
में आना पड़ा । पढ़ाई में आर्थिक मदद के बदले में ऐसा करना जरूरी था । इस सेवा में
बहुत समय तक रहना उनके लिए मुश्किल हो गया । अछूत होने के नाते आवास और भोजन का
प्रबंध करना उनके लिए कठिन साबित हुआ । बहरहाल पिता के निधन के बाद घरेलू
जिम्मेदारियां उठानी पड़ीं । इसी बीच गायकवाड़ ने तीन साल के लिए कोलम्बिया
विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा हेतु वृत्ति प्रदान की और 1913 में पढ़ाई के लिए अंबेडकर
अमेरिका चले गये ।
घर में
आधुनिक माहौल होने के बावजूद अंबेडकर का परिचय भक्ति साहित्य खासकर कबीर से था ।
अछूतों के घरों में कबीर का बहुत सम्मान था क्योंकि उन्होंने जन्म आधारित भेदभाव
का विरोध किया था । बुद्ध की भी पढ़ाई उन्होंने की थी । उन्नीसवीं सदी में यूरोपीय
और भारतीय विद्वानों ने बुद्ध को बहुत कुछ विद्रोही प्रोटेस्टैन्ट धर्म की तरह पेश
किया था । इसके चलते उनकी ओर समाज सुधारक और क्रांतिकारी आकर्षित होते थे खासकर
अछूत और निम्न जातियों के चिंतक । बचपन के प्रभावों को याद करते हुए बाद में
अंबेडकर ने सबको समान महत्व नहीं दिया । भक्तिकालीन परम्परा से आत्मिक बल तो मिलता
था लेकिन मौजूदा सामाजिक संबंधों को चुनौती नहीं मिलती थी । इससे थोड़ी देर के लिए
सामाजिक भेदभाव को अतिक्रांत करने की अनुभूति होती थी लेकिन सोच विचार के तरीकों
में बदलाव नहीं आता था । इसके बावजूद इस परम्परा की उन्होंने उपेक्षा नहीं की ।
अपनी एक किताब उन्होंने चोखामेला को समर्पित की है । बौद्ध धर्म और दर्शन में तो
उनकी रुचि जीवन भर बनी रही ।
जब अंबेडकर
अमेरिका पहुंचे तो अपने साथ ही दुनिया के बारे में भी पर्याप्त उत्सुकता उनके भीतर
थी । यहां उन्हें कोई अछूत नहीं मानता था इसलिए इस समय का सर्वोत्तम उपयोग उन्हें
करना था । कोलम्बिया में उन्हें ऐसे अध्यापक मिले जिनकी सोच को आकार प्रगतिशीलता
ने दिया था । मानवशास्त्र और समाजशास्त्र की पढ़ाई के आधार पर उन्होंने सामाजिक ऊंच
नीच और नियंत्रण, सहकारी जीवन और सामाजिक नातेदारी के महत्व को समझा और इसी तरह
अर्थशास्त्र और इतिहास के आधार पर समानता, न्याय और बंधुत्व की अपनी धारणा को
पुष्ट किया । तीन साल में उन्होंने जो शोध किया उसका प्रकाशन 1925 में हुआ और 1927
में उन्हें डाक्टरेट की उपाधि प्रदान की गयी । जाति व्यवस्था के बारे में अपना
प्रपत्र भी उन्होंने प्रस्तुत किया । वहां से लंदन आये । वहां कानून और
अर्थशास्त्र की पढ़ाई की । शोध कार्य करना चाहते थे लेकिन संसाधनों की कमी के कारण
1917 में भारत लौट आना पड़ा । बाद में छूटी पढ़ाई को पूरा करने 1920 में फिर आये । उस
दौरान इंग्लैंड प्रथम विश्वयुद्ध में मुब्तिला था, बोल्शेविक क्रांति मुहाने पर थी
और एशिया तथा यूरोप के साम्राज्य ढहने की कगार पर थे । लंदन में मजदूरों की सभाओं
में वाम नेताओं के जोशीले व्याख्यान हुआ करते थे । मजदूर प्रश्न पर अंबेडकर की
रुचि इसके बाद आजीवन बनी रही । विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्रवाद का जो उभार हुआ उसके प्रभाव
में अंबेडकर ने आत्मनिर्णय और सम्प्रभुता के सवालों पर गहन विचार किया । सम्प्रभुता
को उन्होंने राष्ट्र-राज्य
के साथ व्यक्तियों में भी निहित माना और आत्मनिर्णय को राष्ट्र के साथ ही सामाजिक तौर
पर उत्पीड़ितों का भी अधिकार माना । इन्हें अंबेडकर ने लोकतंत्र के जरूरी घटक माना ।
लोकतंत्र को भी कानूनी औपचारिकता की जगह अंबेडकर ने सामाजिक रिश्तों में उतारने का
सुझाव दिया ।
अंबेडकर के
भारत आगमन के साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन के जुझारू दौर की शुरुआत होती है । इससे पहले
आवेदन का एक दौर रहा था जिसमें हद से हद अंग्रेजी राज की उदार आलोचना की जाती थी ।
नेता लोग आवेदन के जरिये सरकार का ध्यान अर्थतंत्र या प्रशासन की आम समस्याओं की ओर
आकर्षित करते थे । कभी देसी शिक्षा, उद्योग
आदि की स्थापना का अभियान भी चलाया जाता था । इस दौर का समूचा राष्ट्रीय आलोड़न बहुत
कुछ हिंदू चरित्र का रहा इसलिए उसमें मुस्लिम समुदाय की भागीदारी कम ही रहती थी । बहुत
हद तक इसकी वजह से 1909 में
मुस्लिम लीग की स्थापना हुई । इसी समय अंग्रेज सरकार ने पहली बार राजनीतिक सुधार आरम्भ
किये । इसका मकसद अधिकाधिक भारतीयों का विधायी या शासकीय सहयोग हासिल करना था । उग्र
राष्ट्रीय भावना के उभार के कारण ऐसा करना जरूरी समझा गया । मुस्लिम लीग ने कहा कि
इसमें मुसलमानों के हितों की नुमाइंदगी के लिए उनका अलग निर्वाचक मंडल बनाया जाये ।
कांग्रेस और लीग ने बहुसंख्या और अल्पसंख्या के नाम पर सीटों की संख्या की मांग की
इसलिए संख्या का सवाल उस समय बहुत संवेदनशील सवाल हो गया । आबादी के लिहाज से सीटों
का प्रतिशत तय होना था । इस मामले में अछूतों का टेढ़ा मामला फंस गया । मुस्लिम लोग
अछूतों को हिंदुओं से अलग गिनने की मांग करने लगे और हिंदू लोग अछूतों को हिंदू समुदाय
के भीतर गिनने की वकालत करने लगे । उनका कहना था कि मुस्लिम और ईसाई लोगों ने अछूतों
का धर्मांतरण कराया है ताकि हिंदुओं की तादाद कम की जा सके । कांग्रेस ने लगातार यह
भी प्रयास किया कि मुस्लिम नेताओं को प्रमुखता दे और मुसलमानों के हितों का ध्यान रखने
का आश्वासन दिया ।
इस विवाद के
दौरान ही राष्ट्रीय आंदोलन में कुछेक कारणों से जान आयी । आयरलैंड के होम रूल
आंदोलन के प्रभाव में 1916 में स्वराज की मांग पेश की गयी थी । इसी समय मुस्लिम
लीग और कांग्रेस के बीच समझौता हुआ जिसके चलते कांग्रेस ने कुछ प्रांतों में जायज
मुस्लिम प्रतिनिधित्व का दावा माना और मुस्लिम लीग ने स्वराज की मांग का समर्थन किया
। गांधी 1915 में दक्षिण अफ़्रीका से भारत आ गये थे । सबसे पहले देश भर घूमकर
उन्होंने युद्ध प्रयासों में साथ देने की अपील भारतीयों से की । बाद में उन्होंने
भी आर्थिक सवालों पर कुछ अभियान चलाये जिन्हें उन्होंने सत्याग्रह का नाम दिया ।
युद्ध के दौरान और बाद में गांधी तमाम किस्म के असंतोष के विरोध में होने वाले
आंदोलनों का केंद्र बनते गये । युद्ध के समाप्त होते ही भारत भर में आंदोलनों की
बाढ़ आ गयी और जुझारू चेतना का उभार हुआ । अंग्रेजी शासकों को लग गया कि पुराने
तरीकों से ही शासन सम्भव नहीं है । भारतीयों की भागीदारी में बढ़ोत्तरी जरूरी हो
गयी । मताधिकार तो सीमित ही रहा लेकिन भारतीयों के प्रतिनिधित्व में इजाफ़ा हुआ ।
उनकी शक्ति और जिम्मेदारी को प्रभावी बनाने के लिए संवैधानिक बदलाव भी किये गये ।
प्रस्तावित सुधारों के मुताबिक प्रतिनिधियों में अछूतों को भी होना था ।
अंबेडकर को
कोलम्बिया शिक्षा के लिए मिली वृत्ति के एवज में बड़ौदा में सेवा देनी थी ।
उन्होंने प्रशासन में पद तो ग्रहण किया लेकिन नगर में रहना मुश्किल था । कार्यस्थल
पर भी सहकर्मी उनके साथ भेदभाव करते । लौटकर बाम्बे आये लेकिन उनकी उच्च शिक्षा के
बावजूद कोई सलीके का काम न मिल सका । इसी शिक्षा की बदौलत उन्हें अछूतों और निम्न
जातियों में अपार सम्मान मिला । शाहू जी महाराज ने उनमें नेता बनने की सम्भावना
देखी । अंबेडकर ने मूकनायक का संपादन शुरू किया ताकि विषमता और अन्याय के बारे में
अपनी समझ का प्रचार कर सकें । उन्होंने साउथबरो आयोग के समक्ष अपना बयान दर्ज
कराया और देश में मताधिकार के विस्तार का पक्ष लिया । उन्हें बुलाया नहीं गया था
लेकिन सवर्णों द्वारा अछूतों के प्रतिनिधित्व के प्रस्ताव के विरोध में उन्होंने
लिखित उत्तर दिया । इसे उनका पहला विद्रोह कहा जा सकता है । भारत के असमान समाज
में लोकतंत्र को साकार करने की दिशा में लक्षित उनके हस्तक्षेपों की बस शुरुआत ही
इससे हुई थी ।
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