वह
सहज विलंबित मंथर गति जिसको निहार
गजराज
लाज से राह छोड़ दे एक बार
काले
लहराते बाल देव सा तन विशाल
आर्यों
सा गर्वोन्नत प्रशस्त अविनीत भाल
झंकृत
करती थी जिसकी वाणी में अमोल
शारदा
सरस वीणा के सार्थक सधे बोल
कुछ
काम न आया वह कवित्व आर्यत्व आज
संध्या
की बेला शिथिल हो गए सभी साज
पथ
में अब वन्य जंतुओं का रोदन कराल
एकाकीपन
के साथी हैं केवल श्रृगाल
नि:शब्द!
ReplyDeleteकोई अल्फ़ाज़ नहीं!💐💐
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