काशी
हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी में स्नातकोत्तर की पढ़ाई करते हुए सबसे पहले रामविलास शर्मा के बारे में जानना शुरू किया । तब वे बनारस में विश्वविद्यालय परिसर में ही रह रहे थे । उनके यहां अक्सर जाने वालों में आनंद नारायण पांडे से मुलाकात होती रहती थी । एक बार उनके साथ ही गया भी । दिल्ली आने के बाद एम फिल में शोध प्रबंध के लिए विषय चुनने की प्रक्रिया में उनसे फोन पर बात हुई थी । आनंद नारायण पांडे के साथ विकासपुरी गया भी । एक बार अवधेश प्रधान के साथ भी मिलने जाना हुआ । इन सब मुलाकातों से जो छाप मन पर पड़ी वह छल छंद से भरी हिंदी की दुनिया में एक नायाब संत की थी । बाद के दिनों में कुछ और दोस्तों से उनके संस्मरण सुनकर इस छाप की पुष्टि हुई । दिल्ली विश्विद्यालय
के हिंदी विभाग के अध्यापक संजय कुमार का कहना था कि जब वे पहली बार मिले और उनकी एक
किताब लेकर दस्तखत लेने के लिए बढ़ाया तो उन्होंने ‘पढ़ो, पढ़ो भारत संतान’ लिखकर दस्तखत किए । उनकी यही चिंता सभी
पुरस्कारों को रख लेने और राशि को हिंदी के प्रचार प्रसार हेतु लौटा देने में व्यक्त
होती है । पैसे के पीछे पागल हमारी दुनिया में उनका यह नैतिक बड़प्पन बहुत बल प्रदान
करता था । असम विश्वविद्यालय में हिंदी अध्यापक कृष्णमोहन झा ने जब उन्हें अपनी कविता
सुनाई तो उन्होंने कविता में चित्रण का महत्व समझाया । हाल के दिनों में उनके लेखन पर कुछ काम करने के लिए उनके पुत्र विजय जी से मिलना हुआ । इस क्रम में भी उनके साथ बीते समय की यादें ताजा करने का मौका मिला ।
वर्तमान माहौल को देखते हुए अचरज की बात है कि रामविलास शर्मा
हिंदी साहित्य के अध्यापक नहीं थे या किसी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर नहीं थे फिर
भी हिंदी जगत से उन्हें बहिष्कृत करना संभव नहीं हुआ । हालांकि इसके कारण ही जीवन भर
कुपढ़ लोग भी उनकी आलोचना निर्भय होकर करते रहे । उनकी इस स्थिति के कारण उनके जीवित
रहते उनसे प्रतिस्पर्धा करने वाले लोगों के कुछ उत्साही शिष्यों ने पदोन्नति हेतु गुरु
कृपा पाने के मकसद से रामविलास शर्मा को गाली देना अपना पेशा बना लिया था । अलग बात
है कि उनके देहांत के बाद उन्हीं की धारणाओं को उधार लेकर बिना आत्मालोचना किए यही
लोग किताब पर किताब लिखे छपाए जा रहे हैं । अब तो दो कौड़ी की किताब लिखकर प्रकाशकों
की थोक खरीद के आश्वासन पर छपवाने और इसके सहारे अकादमिक योग्यता का दिखावा करने का
उद्योग ही खुल गया है । रामविलास जी के जीवित रहते ऐसा करने वाले छाती फुलाकर नहीं
चलते थे । हालांकि वे किसी सभा संगोष्ठी में नहीं जाते थे लेकिन उनकी मौजूदगी मात्र
से हिंदी के वातावरण में गरिमा बनी हुई थी ।
शताब्दी
वर्ष के दौरान उनके लिखे को विभिन्न प्रसंगों में उलटते पलटते उनके महत्व की पहचान गहरी होती गई । वे भारत के स्वाधीनता आंदोलन के सभी महान साकारात्मक मूल्यों की साकार प्रतिमा थे । अंग्रेजी के अध्यापक होने के बावजूद उन्होंने प्रतिरोध के हथियार की तरह हिंदी में लिखना चुना और स्वाधीनता के इस खास पहलू को पैना किया । तीसरी दुनिया के बुद्धिजीवी के लिए प्रतिरोध के इस रास्ते की उनकी मान्यता को न्गुगी वा थ्योंगो के लेखों के संग्रह पर लिखी उनकी प्रतिक्रिया से समझा जा सकता है । थ्योंगो के लेखन की यात्रा
अंग्रेजी से उनकी अपनी भाषा गिकियू की ओर हुई थी और वे इसे उपनिवेशित देशों के बौद्धिकों
के लिए सही मानते थे । हिंदी में लेखन को रामविलास शर्मा ने उपनिवेशवाद विरोध की तरह
अपनाया और जीवन भर निभाया । हिंदी में लेखन का निर्णय लेते हुए भी वे उग्र हिंदी भक्तों
से हमेशा दूर रहे और हिंदी को संस्कृत की पुत्री बनाकर उसका लाभ लेने वालों का मुकाबला
करते हुए हिंदी को जनजीवन से जोड़े रखा । उनके भाषा चिंतन में निहित साम्राज्यवाद विरोध
भारत की भाषा समस्या की उनकी समझ की कुंजी है । भारत के बारे में औपनिवेशिक भाषा चिंतन
की प्रमुख विशेषता भाषा परिवारों की नस्ली धारणा है । रामविलास जी ने समूचे भारत की
भाषाई एकता को पहचानने के सूत्र उपलब्ध कराए । भारत देश को एक भाषाई परिक्षेत्र मानकर
ही भारतीय भाषाओं की वाक्य संरचना की समानता को समझा जा सकता है । ‘पानी वानी’
जैसे शब्द युग्म भी भारतीय भाषाओं की साझी विशेषता है । हिंदी में साहित्य
के विवेचन से शुरू करके वे उसे ज्ञान की अभिव्यक्ति में सक्षम बनाने की हद तक ले गए
। इस भाषा में उन्होंने भाषा विज्ञान, इतिहास और दर्शन की गूढ़
बातों का लेखन और प्रचार किया । इस लेखन के पीछे हिंदी जाति की सांस्कृतिक उन्नति की
उनकी चिंता थी । सामंतवाद-साम्राज्यवाद विरोध को उन्होंने हिंदी
की मूल संवेदना साबित करके इस भाषा और इसके साहित्य पर सांप्रदायिक तत्वों का कब्जा
कभी नहीं होने दिया और इसकी समूची ऐतिहासिक परंपरा पर सामंतवाद का विरोध करने वाली
प्रगतिशील चिंताधारा का दावा ठोंका । न केवल स्वाधीनता आंदोलन के समय के साहित्य को
बल्कि हिंदी जाति के समूचे साहित्य को उन्होंने अबाध रूप से प्रवहमान जन पक्षधर विशाल
परंपरा का अंग बनाया । साहित्य को उन्होंने लड़ाई का बड़ा मोर्चा माना और तमाम विचारकों
के चिंतन के भीतर साहित्य की उपस्थिति को रेखांकित किया । खुद मार्क्स पर विचार करते
हुए उन्होंने साहित्य को उनके समग्र चिंतन का महत्वपूर्ण घटक माना ।
भारत के स्वाधीनता आंदोलन के साथ मार्क्सवाद के सजीव संबंध का
वे साकार रूप थे । इसके लिए भारत के प्रसंग में मार्क्स का पुनराविष्कार जीवन भर चलने
वाली उनकी परियोजना बना रहा । उनके इस अवदान को समझने के लिए मार्क्स के लेखन पर विचार
करने वाले गंभीर लोगों की सूची में उन्हें शामिल किया जाना चाहिए । रूसी मार्क्सवादियों
ने मार्क्स-एंगेल्स के जीवन के परवर्ती दिनों के लेखन और सरोकारों के भीतर
रूस की बढ़ती हिस्सेदारी को देखा था और इससे अपने देश में क्रांतिकारी आंदोलन के लिए
कुछ गंभीर सबक भी उन्होंने हासिल किए । मार्क्स के भारत और उपनिवेशवाद संबंधी लेखन
के साथ रामविलास शर्मा के संवाद पर हम थोड़ी देर बाद बात करेंगे । फिलहाल रूसी क्रांति
के नेता लेनिन के बारे में बात करना जरूरी है । मार्क्सवादी परंपरा में लेनिन का मौलिक
योगदान बहुत हद तक उनके उपनिवेशवाद संबंधी चिंतन के कारण माना गया है । ज्ञातव्य है
कि मार्क्स ने ‘दुनिया के मजदूरों, एक हो!’
का मशहूर नारा दिया था । लेनिन ने उसे ‘दुनिया
के मजदूरों और उत्पीड़ित राष्ट्रों के जनगण, एक हो!’ कर दिया था । साम्राज्यवाद के खात्मे के लिए उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों का
महत्व पहचानने के चलते ही भारत के स्वाधीनता आंदोलन के भीतर वाम पक्ष निर्मित हुआ और
उसको व्यापक सामाजिक स्वीकृति मिली । कहने की जरूरत नहीं कि ‘आज की दुनिया और लेनिन’ नामक किताब रामविलास जी ने यूं
ही नहीं संपादित की थी ।
यह बात तो रामचंद्र शुक्ल ने छायावाद की पृष्ठभूमि में ही लिख
दी कि भारत का स्वाधीनता आंदोलन पूरी दुनिया में चलने वाले उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों
की व्यापक धारा का अंग था । मार्क्स इंग्लैंड की राजधानी लंदन में बैठकर भारत के स्वाधीनता
आंदोलन को देख रहे थे । 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बारे में
लिखे उनके लेखों का महत्व बताने की जरूरत नहीं । लेकिन स्वाभाविक रूप से उन तक पहुंचने
वाली सूचनाओं की सीमा थी, फिर भी पूंजीवाद के जन्म और प्रसार
के सिलसिले में उन्होंने जो कुछ लिखा उस पर छानबीन के हालिया प्रयासों में यह तथ्य
उभरकर सामने आता जा रहा है कि उपनिवेशित देश और गैर यूरोपीय दुनिया उनके विवेचन में
आद्यंत मौजूद रही है । इस प्रसंग में एक पुस्तक का उल्लेख आवश्यक है । 2010
में द यूनिवर्सिटी आफ़ शिकागो प्रेस से प्रकाशित केविन बी एंडरसन की किताब
‘मार्क्स ऐट द मार्जिन्स’ की विशेषता यह है कि
इसमें गैर यूरोपीय समाजों के बारे में मार्क्स के नजरिए के विश्लेषण को प्रमुखता दी
गई है । इसमें लेखक ने बताया है कि यूरोप में 1848 के क्रांतिकारी दौर की विफलता
के बाद मार्क्स के दीर्घकालीन लंदन प्रवास में एक तो इस नगर के विश्व के औद्योगिक
केंद्र होने से पूंजीवाद संबंधी उनके अध्ययन को गति मिली, दूसरी ओर इंग्लैंड
दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य का अधिपति था और उसकी राजधानी में रहते हुए उन्हें
पश्चिमेतर समाजों और उपनिवेशवाद का अध्ययन करने की भी प्रेरणा मिली । मार्क्स संबंधी
नए अध्ययनों से यह बात सामने आ रही है कि पश्चिमेतर समाजों के बारे में जानकारी बढ़ने
के बाद उन्होंने अपनी अनेक मान्यताओं में बदलाव किए थे । इस दृष्टि से मार्क्स संबंधी
रामविलास जी के लेखन को देखने से निश्चय ही कुछ नए रास्ते खुल सकते हैं ।
सामाजिक विकास की एकरेखीय धारणा पर सवाल उठाने के चलते रामविलास
जी को भारत में आधुनिकता की शुरुआत वहां महसूस हुई जिसे आम तौर पर मध्य युग कहा जाता
है । इसे व्यापक सामाजिक प्रक्रिया से जोड़ने के लिए उन्होंने सामंती समाज के भीतर ही
व्यापारिक पूंजीवाद के उद्भव की बात बताई और जाति निर्माण की प्रक्रिया में इसका उत्स
देखा । अंग्रेजी के शब्द नेशन का हिंदी प्रतिशब्द उन्होंने ‘जाति’
कहा और हिंदी जाति की धारणा प्रस्तुत की । ध्यातव्य है कि बांग्ला में
राष्ट्र को जाति ही कहते हैं । भारत के प्रसंग में मध्य युग की धारणा के अनौचित्य को
इतिहासकारों ने भी महसूस किया है । कहने की जरूरत नहीं कि इतिहास के अनुशासन में भी
आजकल ‘अर्ली-माडर्न’ नामक अवधारणा का इस्तेमाल उस युग के लिए किया जाने लगा है । हिंदी साहित्य
के भक्तिकाल के भीतर मौजूद विद्रोह के सामाजिक आधार की पहचान रामविलास जी की इस धारणा
के बिना नहीं हो सकती थी । भक्ति साहित्य को भक्ति आंदोलन की उपज मानना और भक्ति आंदोलन
को सामंतवाद विरोधी सामाजिक आलोड़न मानना उस साहित्य की ऐसी व्याख्या पेश करता है जो
सचमुच विद्रोही साहित्य लेखन की थाती प्रतीत होने लगता है । साथ ही साहित्य के साथ
वृहत्तर सामाजिक आंदोलन का संबंध स्थापित करके उन्होंने साहित्य के भीतर सामाजिक मूल्य
तलाश करने की क्रांतिकारी दृष्टि प्रस्तुत की । भक्ति काल की भक्ति को प्रेममूला कहकर
उन्होंने उसे पूरी तरह प्रेम की आधुनिक संवेदना के साथ जोड़ दिया और इसी धारणा के सहारे
भक्तों और संतों के कृत्रिम विभाजन पर विराम लगा दिया । भक्ति आंदोलन के साथ उन्होंने
हिंदी जाति के जनजागरण की धारणा प्रस्तुत की, इसे लोकजागरण का
नाम दिया और आधुनिक हिंदी साहित्य को उसी लोकजागरण का नवजागरण बताया ।
समूचे आधुनिक हिंदी साहित्य की जनपक्षधर साम्राज्यवाद विरोधी
धारणा के निर्माण का श्रेय बिना किसी हिचक के रामविलास जी को दिया जा सकता है । भारतेंदु
को उन्होंने हिंदी नवजागरण के उन्नायक के रूप में प्रस्तुत किया । महावीर प्रसाद द्विवेदी
उनके कारण ही केवल साहित्यकार की जगह व्यापक सामाजिक सरोकार वाले चिंतक की तरह स्थापित
हुए । छायावाद को उन्होंने न केवल इस विकास की अगली कड़ी साबित किया बल्कि छायावादियों
के भीतर निराला साहित्य का उनका विवेचन इस बात के लिए भी याद रखा जाना चाहिए कि उन्होंने
निराला की भाषा को गांधीवादी विचारधारा के अतिक्रमण का परिणाम बताया । निराला के ही
प्रसंग में उन्होंने साहित्य के लिहाज से यथार्थवाद की धारणा को विस्तार दिया और बताया
कि सिर्फ बाहरी यानी सामाजिक स्तर पर ही यथार्थ नहीं होता बल्कि मन के भीतर की दुनिया
का चित्रण भी यथार्थवाद है । हिंदी के मशहूर व्यंग्यकार बालमुकुंद गुप्त के बारे में
लिखते हुए उन्होंने यह तथ्य उजागर करना जरूरी समझा कि उनके लेखों के चलते लोगों में
अंग्रेजी राज के विरुद्ध बोलने का साहस पैदा हुआ । साहित्य के महत्व के इसी बोध का
परिणाम था कि उन्होंने लगातार इस मोर्चे पर काम करना जरूरी समझा । प्रेमचंद और रामचंद्र
शुक्ल की प्रासंगिकता स्थापित करने में रामविलास जी के विवेचन का भी योगदान है । याद
दिलाने की जरूरत नहीं कि निराला को मृत घोषित करने के अतिरिक्त भी इन साहित्यकारों
को आधुनिकता के नाम पर अप्रासंगिक बताने वालों की धारा कुछ कमजोर नहीं थी । आधुनिक
हिंदी साहित्य के उनके विवेचन का ही नतीजा है कि प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन हिंदी
नवजागरण का स्वाभाविक विकास और समस्त हिंदी साहित्य का वारिस प्रतीत होता है । प्रगतिशील
साहित्यकारों में उन्होंने विशेष रूप से केदारनाथ अग्रवाल पर तो लिखा ही, नागार्जुन,
त्रिलोचन, मुक्तिबोध, शमशेर
के साथ पढ़ीस पर भी लिखा । साहित्य पर विचार करने के मामले में उनकी नजर रचना की सामाजिकता
के साथ उसकी कलात्मक गुणवत्ता पर भी रहती थी । यह मानक उन्होंने प्रगतिशील साहित्यकारों
पर भी विचार करते हुए बरकरार रखा है । कविता के अतिरिक्त गद्य के सौंदर्य की परख कराने
के मामले में वे हिंदी आलोचकों में अकेले हैं ।
यकीन नहीं होता कि बिना विदेश गए रामविलास जी की हैसियत गंभीर
अध्येता की थी । इस मामले में उनके समकक्ष रणधीर सिंह ही नजर आते हैं । ये दोनों ही
शोध छात्र पालने, संगोष्ठी कराने, अवकाश प्राप्ति के बाद समितियों
की सदस्यता हासिल करने, नियुक्ति करने और जुगाड़ बिठाने के धंधे
से पूरी तरह बाहर रहकर भी महत्वपूर्ण माने जाते थे । वह वैचारिक माहौल आत्ममुग्धता
से रहित था और साहित्यकार की मान्यता के लिए पुरस्कार मिलना महत्वपूर्ण नहीं समझा जाता
था । अंग्रेजी का अध्यापक होने के बावजूद या शायद उसी वजह से उनके लेखन में विदेशी
विद्वानों के उद्धरणों का अजीर्ण नहीं मिलता । रामविलास जी को याद करना हिंदी की लोकधर्मी,
प्रगतिशील और मार्क्सवादी साहित्यिक परंपरा को याद करना है ।
हम रामविलासजी को अपने आप में एक स्वायत्त भारतीय समाजवादी विचारधारा के मौलिक प्रतिपादक के रूप में देखते हैं जिनकी अपनी माटी के अनुकूल एक मूल प्रगतिशील अवधारणा थी। उन्हें हम किसी भी कोण से मार्क्सवादी परंपरा का न मानकर एक स्वतंत्र 'रामविलास-परम्परा' का मौलिक अध्येता मानते हैं और ऊपर के लेख में भी प्रकारांतर से मेरी इसी मान्यता को बल मिलता है। इस सारगर्भित लेख का आभार।
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