2020
में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से अली रज़ा की किताब ‘रेवोल्यूशनरी पास्ट्स: कम्युनिस्ट
इंटरनेशनलिज्म इन कोलोनियल इंडिया’ का प्रकाशन हुआ । लेखक को एक मुखबिर की ओर से फ़रार
क्रांतिकारी की गतिविधियों की रोज ब रोज की रिपोर्ट किसी पुराने संग्रहालय में देखने
को मिली । रिपोर्ट अविश्वसनीय थी । बरसों से वह आदमी फ़रार था । पुलिस कुत्तों की तरह
सूंघती फिर रही थी, राजनीतिक साथियों ने धोखा दिया था और परिवारी लोग नापसंद करते थे
। इसके बावजूद उसे अपनी जीत का भरोसा था । लेखक को उसके भरोसे के स्रोत पर अचम्भा हुआ
। किताब में सपने की इसी ताकत को पहचाना गया है । लेखक भी पाकिस्तान में परवेज़ मुशर्रफ़
के शासन में विरोध प्रदर्शनों में एकाध दिन की गिरफ़्तारी झेल चुके हैं । इस संक्षिप्त
अनुभव से उन्हें पुराने क्रांतिकारियों पर अचरज हुआ जो जेल को ही अपना घर समझते थे
। वे उम्रदराज लोग थे और पूरा जीवन वाम कार्यकर्ता के रूप में किसी न किसी मोर्चे पर
सक्रिय रहकर बिताया था । पुराने क्रांतिकारियों से लेकर आज तक के विद्रोहियों के संकल्प
का कारण उनके सपने रहे । आज के विद्रोही साठ के दशक में राजनीतिक दुनिया में दाखिल
हुए थे जब बदलाव बस कदम भर दूर नजर आता था । उसी समय उन्हें सरकारी दमन, लम्बे जेल
जीवन और लगातार हार झेलने का धीरज पैदा हुआ था । आखिर उनको सक्रिय रखने वाला वह सपना
कैसा रहा होगा ! उनकी कहानी पाठ्यक्रमों में नहीं देखने को मिलती । पीढ़ी दर पीढ़ी इन
विद्रोहियों की दास्तानें जिंदा रखी गईं । उत्तर-औपनिवेशिक निर्मम सरकारों की व्यवस्थित
हिंसा के दरमियान भी लगातार विद्रोहियों की नई पीढ़ी पुराने विद्रोहियों के किस्से सुनती
सुनाती रही । लेखक को लगता है कि आज के विक्षोभ भरे माहौल में
अतीत के ये किस्से फिर से नए विद्रोहियों के काम आ सकते हैं ।
लेखक को संयोग से एक नक्सल कार्यकर्ता मिले जिनके
पिता गदर पार्टी से जुड़े रहे थे । उनसे बातचीत के क्रम में लेखक को इस इतिहास को
संजोने की जरूरत महसूस हुई । इसके बाद शोध के क्रम में विद्रोह की अटूट श्रृंखला
का पता चला । लेखक लाहौर विश्वविद्यालय से जुड़े हुए हैं । शोध की सारी सामग्री देश
के दोनों विभाजित हिस्सों में मिलनी थी । इतिहास के शोधकर्ताओं के लिए दोनों देशों
की शत्रुता परेशानी पैदा करने वाली है क्योंकि अगर कोई भी विभाजन और उसके पहले के
माहौल पर शोध करना चाहे तो उसे अबाध आवाजाही की सुविधा से ही सामग्री प्राप्त होगी
। दोनों देशों में आपसी संदेह और लम्बे तनाव के चलते इस मामले में सबसे अधिक
नुकसान होता है ।
किताब
की शुरुआत में 1929 में अर्जेन्टीना में मौजूद नैना सिंह धूत की मुलाकात रतन सिंह नामक
एक क्रांतिकारी से होती है । रतन सिंह गदर पार्टी के नेताओं में से थे । अर्जेन्टीना
जाने से पहले वे पार्टी के लिए यूरोप, अमेरिका, कनाडा और पनामा की यात्रा कर चुके थे
। पार्टी की स्थापना 1913 में अमेरिका में भारतीय प्रवासियों ने देश को अंग्रेजों से
आजाद कराने के लिए की थी । 1920 के दशक में पार्टी ने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से भी सम्पर्क
जोड़ा । इसने राजनीतिक और सैनिक प्रशिक्षण के लिए पार्टी के ढेर सारे कार्यकर्ताओं को
मास्को बुलाया । नए कार्यकर्ता दाखिल करने के लिए इसके नेता दुनिया भर के भारतीय प्रवासियों
से मिल रहे थे । इसके चलते ही नैना सिंह की मुलाकात रतन सिंह से हुई । नैना सिंह पंजाब
में पैदा हुए थे लेकिन काम की खोज में सिंगापुर जा पहुंचे थे । वहीं इनका सामना क्रांतिकारी
साहित्य से हुआ था । अमेरिका के पंजाबी मजदूरों के गीत संग्रह को देखने का उन्हें मौका
मिला । इसमें भारत पर जकड़ी साम्राज्यवादी बेड़ियों का जिक्र तो था
ही, क्रांति, आजादी और नई दुनिया की बातें भी की गई थीं । नैना सिंह को बिजली सी
दौड़ती महसूस हुई । रतन सिंह से मिलकर भी ऐसा ही लगा । जल्दी ही अन्य गदरी नेताओं
से उनकी मुलाकात होने लगी । विदेशों में रहने से उन्हें नस्लभेद और शोषण का अनुभव
तो होता ही था इसलिए नैना सिंह भी पार्टी की स्थानीय शाखा में शरीक हुए और पार्टी
के लिए तन, मन, धन अर्पित करने की कसम खाई । इसके बाद नैना सिंह और उनके साथियों
ने सोवियत संघ की राह पकड़ी ।
सोवियत संघ की यात्रा ने उनके जीवन को बदल दिया ।
वे भारतीय क्रांति के नाभिक बने और सोवियत संघ से होकर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन
को बढ़ावा देने का काम करने लगे । उनकी तरह ही उपनिवेशित देशों के ढेर सारे
क्रांतिकारी रूस की यात्रा पर जाते थे क्योंकि वहां नया युग, नया भविष्य और नई
दुनिया की रचना हो रही थी । उपनिवेशित देशों के क्रांतिकारियों को न केवल अपने
देशों को उपनिवेशवाद से मुक्त करना था बल्कि उन देशों के समाज में बुनियादी बदलाव
भी करना था । किताब में भारत में इस काम के गतिपथ को परखा गया है । दूसरी चीज उस
सपने को समझने की कोशिश है जिसने इस राजनीति को जिंदा रखा । आठ साथियों के साथ
मास्को की यात्रा का फैसला नैना सिंह के लिए साहसिक था । काम की तलाश में
अर्जेन्टीना गए थे और अब उसे छोड़कर एक अनजान सफर का इरादा जोखिम भरा था । उन्हें
अपने निर्णय से जुड़े खतरों का अनुमान था । उन्हें जीवन भर फ़रार रहना पड़ सकता था ।
फिर भी उन्होंने यह रास्ता अपनाया । फिलहाल आदर्शवाद और यूटोपिया पर संदेह का जो
आलम है उसमें सपने में इस भरोसे की भावना को समझना मुश्किल है । कुछ समय पहले ही
उथल पुथल भरी बीसवीं सदी की सबसे बड़ी ताकत उसे समझा जाता था । वह सदी
अंतर्राष्ट्रीयवाद की सदी थी जब भौगोलिक रूप से दुनिया भर में बिखरे आंदोलनों को
बदलाव की वैश्विक परियोजना के जरिए आपस में जोड़ा गया था । भविष्य की खास अपेक्षा
के सहारे वे साथ साथ टिके हुए थे । नैना सिंह जैसे असंख्य लोग इस परियोजना का अंग
थे ।
आखिर नैना सिंह की दुनिया इतनी सम्भावनाओं से भरी
क्यों थी । उस समय की राजनीतिक उथल पुथल, बौद्धिक खलबली, ढहते साम्राज्यों,
विश्वव्यापी टकराव, अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता और क्रांतिकारी बदलाव की बाबत तो
बहुतों ने लिखा है । प्रथम विश्वयुद्ध और रूसी क्रांति के बाद के कुछ साल तो
अभूतपूर्व बौद्धिक, सामाजिक और राजनीतिक खलबली के साल थे । उस समय सब कुछ सम्भव
प्रतीत होता था । नाकाबिले बर्दाश्त वर्तमान को किसी भी कीमत पर बदलना ही था
।
भारत की आजादी में रूस की रुचि को सबसे पहले 1959
में ‘कम्युनिज्म इन इंडिया’ नामक किताब में समझने की कोशिश की गई । उसमें बताया
गया कि जार के समय ही रूसी लोग भारत में दखल देना चाहते थे । उनके इसी कार्यभार को
जारशाही के खात्मे के बाद आई बोल्शेविक सरकार ने कम्युनिस्ट आंदोलन को प्रोत्साहित
करने के जरिए पूरा किया । उनको लगा था कि भारत में ब्रिटिश शासन को अगर खतरा पैदा
होता है तो पूरी दुनिया में ब्रिटिश साम्राज्यवाद कमजोर होगा । इसके लिए उन्हें
क्रांतिकारी योजना और उसे लागू करने वालों की जरूरत थी । इस तरह भारतीय
क्रांतिकारियों को बाहरी ताकत के लिए काम करने वाला समझा गया । माना जाता था कि
भारत के लिए यह धारणा ही परायी है । वहीं से इस बोध का जन्म हुआ कि भारतीय
कम्युनिस्ट भारतीय तो कम थे, कम्युनिस्ट अधिक थे । किताब की इस धारणा पर शीतयुद्ध
की छाया थी । भारत और पाकिस्तान में कम्युनिस्ट आंदोलन को कुचलने में औपनिवेशिक और
नव स्वतंत्र शासन को इस धारणा से बहुत मदद मिली । राष्ट्रवादी इतिहास ने भिन्न
किस्म के इतिहासों को बेदखल किया जिनमें प्रमुख वाम आंदोलन का इतिहास है । वाम को
दोनों ही देशों में परदेशी और राष्ट्र विरोधी कहकर दरकिनार कर दिया जाता है । कम्युनिस्ट
आंदोलन को विदेशी साबित करने से एक और मकसद सधता है । माना जाता है कि भारत के
सामाजिक सांस्कृतिक ताने बाने में वाम अपने आपको ढाल नहीं सका । किताब दर किताब
यही बात कही जाती है कि कम्युनिस्ट आंदोलन भारत में जड़ नहीं जमा सका । इसके सहारे
भारत को वामपंथ के लिए पारम्परिक संस्कृति के नाते अनुपयुक्त सिद्ध किया जाता है ।
उनके दस्तावेजों को तो बहुत उत्तम बताया जाता है लेकिन व्यवहार को अध्ययन और शोध
के दायरे से बाहर कर दिया जाता है । इसे समझने में निष्णात लोग ही कामयाब बताए
जाते हैं । कम्युनिस्टों को सोचने समझने की शक्ति से हीन बाहरी आदेश को उनके ही
नियंत्रण में लागू करने वाला प्राणी घोषित कर दिया जाता है । इन सबके सहारे उन्हें
उनके ही निर्मित इतिहास से बेदखल कर दिया जाता है । ये रुख केवल इतिहास के मामले
से ही नहीं जुड़े हैं, इनका गहरा रिश्ता हमारे मुल्कों के वर्तमान राजनीतिक
विकल्पों से भी है ।
भारतीय
उप महाद्वीप में उग्र राष्ट्रवाद की विचारधारा को खड़ा करने में वामपंथ को विदेशी बताने
के इस बौद्धिक अभियान का हाथ है । इसका असर इतना गहरा है कि वामपंथ के साथ सहानुभूति
रखने वाले लेखक भी विचारों के मूल को लेकर अपराध बोध से ग्रस्त नजर आते हैं । उनमें
कम्युनिस्ट और समाजवादी विचारों का केंद्र से परिधि की ओर वैश्विक प्रसार दिखाया जाता
है । भारत में वामपंथ के इतिहास लेखन के लिए इस तरह के ठप्पों से खुद को मुक्त करना
होगा । भारत की आजादी की लड़ाई में वामपंथ के योगदान को उजागर करने के लिए उसकी ठोस
उपस्थिति को समझना होगा । इसके लिए किताब में वामपंथी विचारों और राजनीति के विकास
को समझने के लिए उसमें शरीक लोगों की जीवनी का सहारा लिया गया है । उनके सहारे औपनिवेशिक
भारत में कम्युनिस्ट अंतर्राष्ट्रवाद के बहुआयामी विकास को देखा गया है । जो लोग इस
प्रक्रिया में शामिल थे उनके लिए असल में राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रवाद में कोई अंतर
नहीं था । दोनों आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे । दोनों का काम एक दूसरे के बिना
नहीं चलता था । इस अतीत को व्यापक वैश्विक संदर्भ के बिना नहीं समझा जा सकता है । वह
समय ही ऐसा था जब दुनिया बदलने के आदर्श और सपनों का प्रसार छुआछूत की तेजी से होता
था ।
जिन
व्यक्तियों का किताब में जिक्र है वे इतिहास की किताबों में नहीं नजर आते । वे इतने
बौद्धिक नहीं थे कि उन पर लेखकों का ध्यान जाता । इस तरह इसमें रोजमर्रा का कम्युनिस्ट
सामने आता है । ऐसे ढेरों लोग औपनिवेशिक दस्तावेजों और संग्रहालयों में खोजने से मिल
जाते हैं । कारण कि कमजोर होने के बावजूद कम्युनिस्टों के बारे में कागज बहुत मिलते
हैं । इससे पता चलता है कि ब्रिटिश साम्राज्य को वामपंथ से कितना खतरा महसूस होता था
। इस खतरे के चलते अंग्रेजों ने षड़यंत्रकारी व्यक्तियों, संगठनों, जगहों और प्रकाशनों
के भरपूर सबूत एकत्र किए । पुलिस थाने और अदालत से लेकर लंदन में बैठे भारत सचिव तक
सभी इस प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल थे ।
इन दस्तावेजों में कम्युनिस्ट आंदोलन को भारत में
अंग्रेजी राज और वैश्विक ब्रिटिश साम्राज्य के लिए खतरे के रूप में पेश किया गया
है । उनकी निगाह में यह आंदोलन विदेशी था और भारत के लायक नहीं था । इसीलिए इनमें
उन व्यक्तियों को क्रांतिकारी बदलाव की राजनीति में खीच लाने वाली स्थितियों,
अनुभवों और प्रेरणाओं का जिक्र नहीं मिलता । इन खुफ़िया रपटों के आधार पर भारत में
क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन के विवरण नियमित रूप से प्रकाशित किए जाते थे । ये
विवरण सरकारी अधिकारियों को कम्युनिस्ट आंदोलन की जानकारी देने के लिए छापे जाते
थे इसलिए उनकी राय को आकार देने में इनका बहुत हाथ होता था ।
लेखक ने स्पष्ट किया है कि कम्युनिस्ट आंदोलन के
बारे में समझदारी स्थिर नहीं रही, उसमें पर्याप्त बदलाव आते रहे । नौकरशाहों के
लिए उसे परिभाषित करना हमेशा मुश्किल रहा । एक ही बात उनको समझ आती थी कि अंग्रेजी
राज को कम्युनिस्टों से भारी खतरा है । उनकी दिक्कत यह थी कि संगठन ढेर सारे थे
जिनके साथ समाजवादी, कम्युनिस्ट और क्रांतिकारी शब्द जुड़े हुए थे । एक अन्य
मुश्किल यह थी कि वैचारिक जुड़ाव और राजनीतिक संश्रय भी बदलते रहते थे । ऐसी स्थिति
में बोल्शेविक क्रांति के प्रति उनके रुख को मानक बनाने में आसानी थी । उस समय तक अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में भी
कम्युनिज्म या बोल्शेविज्म का अर्थ निश्चित नहीं हुआ था । रुख की क्रांतिकारिता भी
उतनी निश्चित नहीं थी । 1915 में जो रुख क्रांतिकारी कहलाता वह 1930 में मध्यमार्गी
कहला सकता था । इसमें बहुत कुछ वर्गीकरण करने वाले पर भी निर्भर होता था । वाम और कम्युनिस्ट
की सबसे लचीली समझ अंग्रेजी राज के मुखबिरों ने तैयार की थी । उनकी इस समझ के मुकाबले
प्रशासनिक अधिकारियों की समझ अक्सर अलग होती थी । वामपंथी संगठन भी एक दूसरे को वैचारिक
रूप से सही या भटका साबित करने के लिए इन शब्दों का इस्तेमाल बदलते रहते थे । इसलिए
लेखक ने इन शब्दों का अर्थ स्थिर नहीं किया है । समाजवादी, वामपंथी और कम्युनिस्ट शब्दों
का प्रयोग वे अदल बदल कर करते हैं ताकि विचारों और राजनीतिक सम्बद्धता की जटिलता स्पष्ट
हो सके । उस समय राजनीतिक सीमाएं और पहचानें अस्थिर और गतिशील थीं । उदाहरण के लिए 20 के दशक में तमाम किस्म के राजनीतिक कार्यकर्ताओं के
विचारों को बोल्शेविक या कम्युनिस्ट कह दिया जाता था ।
जहां
तक दस्तावेजों का सवाल है वामपंथी लोगों का कोई सानी नहीं है । परचे, अखबार, सैद्धांतिक
ग्रंथ, इतिहास, जीवनी और आत्मकथा के अतिरिक्त भाषण, प्रस्ताव, रैली, बैठकों और प्रदर्शनों
की शक्ल में इतना कुछ प्रकाश में आता कि उसे पढ़ने और समझने में अक्सर जासूसों का दिमाग
घूम जाता और नींद हराम हो जाती । औपनिवेशिक अधिकारियों ने इसमें से लगभग सब कुछ सुरक्षित
रखा । वामपंथियों ने भी अपने दस्तावेज संपादित करके छपाए हैं ।
भाकपा और माकपा की विरासत संयुक्त है लेकिन इसकी व्याख्या उनकी अलग अलग है ।
उन्होंने दस्तावेजों के चुनाव में अपनी व्याख्याओं को वरीयता दी है । इनके
प्राचुर्य के बावजूद बहुतेरे महत्वपूर्ण दस्तावेज नहीं मिलते । कारण कि औपनिवेशिक
भारत में कम्युनिस्ट और क्रांतिकारी आंदोलन अधिकतर प्रतिबंधित या भूमिगत रहे ।
इसके चलते वे खुद भी ऐसे सबूत नष्ट कर देते जो उन्हें फंसाने में शासन के काम आएं
। आजादी के बाद भी विभाजित दोनों ही मुल्कों में उनका दमन जारी रहने से उन्हें यह
रणनीति अपनानी पड़ती थी । रोजमर्रा के जीवन में मौजूद कम्युनिस्ट आंदोलन के साक्ष्य
इसमें सबसे अधिक नष्ट हुए । सरकार या कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व जो कुछ
बताना चाहता उसे ही सुरक्षित रखा गया । ये अनुपस्थित दस्तावेज उत्तर औपनिवेशिक
शासन के हाथों कम्युनिस्ट आंदोलन की दुर्गति की दास्तान कहते हैं ।
इसके बावजूद जितनी सामग्री प्राप्त होती है उससे
वामपंथी आंदोलन की विविधता का पता चलता है । इनसे वामपंथ की भाषा का पता चलता है ।
प्रकाशनों, प्रस्तावों, दस्तावेजों और वैचारिक बहस में इस भाषा का उपयोग होता है ।
इसमें गम्भीर सैद्धांतिक तर्क होते हैं । इसके लेखक आम तौर पर शिक्षित पुरुष होते
हैं । वे मार्क्सवादी लेनिनवादी ढांचे के आधार पर आस पास के हालात को समझते और
व्याख्यायित भी करते हैं । ये तर्क अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की बहसों में
ढले होते हैं । इस भाषा को यथार्थ से कटा कहना सुविधाजनक है और अक्सर ऐसा कहा भी
जाता रहा है । लेकिन इससे बाहर रोजमर्रा की राजनीति की अपनी जरूरियात होती हैं ।
वहां इस भाषा का उपयोग नहीं किया जाता । भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में शरीक लोग
अंतर्राष्ट्रीय केंद्र के प्रति सचेत होने के साथ भारत की जनता में अपने श्रोताओं
के प्रति भी सचेत थे । इस मामले में भारत के व्यापक वामपंथी कार्यकर्ताओं ने
मार्क्सवादी लेनिनवादी समझ का सुपरिचित सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मुहावरे
में अनुवाद किया । रोजमर्रा की इस भाषा की सबसे अधिक अनदेखी भारत के कम्युनिस्ट
आंदोलन के अधिकतर विश्लेषणों में की गई है । इस भाषा की दुनिया जनसभा, रैली,
कविता, जनगीत, अखबार और परचा पोस्टर की दुनिया थी । इस दुनिया को विदेशी असर कहना
असम्भव है । इस दुनिया की समृद्ध भाषा को बहुधा वाम पार्टियों के आधिकारिक
दस्तावेजों से निकाल दिया जाता है । जबकि इसमें वामपंथी कार्यकर्ताओं का मशीनी की
बजाए मानवीय चेहरा नजर आता है जिसमें इकहरेपन की जगह उनका जटिल और अंतर्विरोधी
स्वरूप प्रकट होता है ।
शासन की ओर से दर्ज जो सामग्री प्राप्त होती है
उसमें ऐसे लोग अतार्किक, सनकी और अंग्रेजों के अकारण विरोधी के रूप में प्रस्तुत किए
गए हैं । आम जनता और साथियों के बीच उन्हें जिस रूप में जाना जाता था उससे पूरी
तरह अलग रूप इन सरकारी प्रस्तुतियों से सामने आता है । इस छवि का आधार उनसे
जबर्दस्ती या धोखे के बल पर हासिल गवाहियों को बनाया जाता है । पूछताछ में अक्सर
वे मारपीट से बचने के लिए सरकारी अधिकारियों के मन की बात बोलते थे । इसलिए इन
दस्तावेजों के उपयोग में थोड़ी सावधानी भी अपेक्षित है ।
वामपंथ की इन अलग अलग आवाजों को आपस में जोड़ने
वाली चीज बेहतर दुनिया बनाने का सपना था । उस समय विविधवर्णी सपनों का मानो झरना
फूट पड़ा था । इसके बावजूद भारत में वामपंथ का इतिहास लिखते समय शुरुआत समाजार्थिक
हालात के विस्तृत विश्लेषण से होती है । भूसंपत्ति, कर्ज, लगान, बेरोजगारी, मजदूरी
आदि के बारे में आंकड़ों के विशाल जखीरे के सहारे साबित किया जाता है कि वामपंथी
राजनीति की जड़ खास समाजार्थिक हालात में निहित है । लेकिन कई बार कार्यकर्ताओं की
आर्थिक हालत और उनकी सक्रियता का सीधा संबंध नहीं भी होता है । मार्क्सवादियों के
लिए समाजार्थिक हालात और उनके प्रतिकार के बीच सीधा संबंध स्पष्ट है । फिर भी
बीसेक सालों से जारी सामाजिक और किसान इतिहास के चलते इसके विकल्प के बतौर
राजनीतिक चेतना के विकास के प्रसंग में ‘किसान चेतना’ का तर्क भी उपयोग में लाया
जाता रहा है । कुछ अन्य लोग वामपंथी राजनीति को राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का उत्पाद
मानने पर जोर देते हैं । लेखक अपनी इस किताब को बौद्धिक, सामाजिक और राजनीतिक हलचल
के बीच रखकर वामपंथी आंदोलन को समझने की कोशिश का अंग मानते हैं । जिन
कार्यकर्ताओं का इसमें जिक्र है वे जानते थे कि वे बहुत तेजी से बदलती दुनिया के
नागरिक हैं । उन्हें गहराई से लगता था कि अपने तमाम नियमों, परम्पराओं और
उत्पीड़नों के साथ पुरानी दुनिया मर रही है । उसकी आसन्न मृत्यु के साथ एक नई
दुनिया का बहुप्रतीक्षित आगमन जुड़ा हुआ है । उस समय की शब्दावली इन प्रतीकों से
भरी हुई है । आने वाली दुनिया की तस्वीर सबने अलग अलग भले बनाई हो लेकिन उनमें
साझा बात साम्राज्य, पूंजी और सामाजिक उत्पीड़न की अनुपस्थिति है । भविष्य की उस
दुनिया में समूची धरती के कमजोर और पीड़ित लोगों में आपसदारी और एकजुटता भी कल्पित
थी । किताब में जिनका वर्णन
हुआ है वे सभी खुद को उस दुनिया का ही बाशिंदा समझते थे ।
सुंदर आलेख। किंतु, वामपंथ फ़ेल क्यों कर गया? आम जनमानस का इससे मोह भंग क्यों हो गया? इसकी एक सम्यक् विवेचना प्रस्तुत करें।
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