2020 में पब्लिकअफ़ेयर्स से विनसेन्ट बेविन्स की
किताब ‘द जकार्ता मेथड: वाशिंगटन’स एन्टीकम्युनिस्ट क्रूसेड & द मास मर्डर
प्रोग्राम दैट शेप्ड आवर वर्ल्ड’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत 1962 में इंडोनेशिया छोड़कर भाग रहे
लोगों से होती है । इसका कारण था कि पूंजीवाद और कम्युनिस्टों के बीच की लड़ाई में उनका
देश उलझ गया था । भागने वाले ब्राजील जा रहे थे क्योंकि वहां आजादी, अवसर और शांति की बाबत उन्होंने सुन रखा था । पैंतालीस दिन की समुद्री यात्रा
के बाद वहां पहुंचना सम्भव था । लेकिन शीतयुद्ध की हिंसा से तो उन्हें मुक्ति नहीं
मिली । दो साल बाद ब्राजील में सेना ने लोकतंत्र को उखाड़ फेंका और भयंकर तानाशाही कायम
की ।
फिर तो ब्राजील पहुंचे इंडोनेशियाई लोगों के पास भयानक
खबरें आने लगीं । हिंसा का ऐसा खौफ़नाक मंजर सुनाई देता कि सुनने वालों को यकीन न होता
। लाशों से पटे उस देश में अमेरिका के पक्के समर्थक शासन का उदय हुआ । 1964 में ब्राजील और 1965 में इंडोनेशिया में जो कुछ हुआ वह शीतयुद्ध के विजेता के लिए सबसे बड़ा पुरस्कार
था । उसके बाद ही वह विश्व अर्थतंत्र कायम हुआ जिसकी निरंतरता हमारे समय तक बनी हुई
है । जिस प्रक्रिया ने लगभग हम सबके जीवन को आकार दिया है उसके लिहाज से ये दोनों घटनाएं
सबसे महत्व की साबित हुईं । दोनों देश स्वतंत्र थे और पूंजीवाद तथा कम्युनिस्ट विचार
के मध्य अवस्थित थे लेकिन इन घटनाओं के बाद निर्णायक तौर पर अमेरिकी खेमे में शामिल
हो गए ।
वाशिंगटन के अधिकारी और न्यू यार्क के पत्रकार उस
समय भी इन घटनाओं के महत्व को समझते थे । वे जानते थे कि वियतनाम या हिंदचीन के मुकाबले
इंडोनेशिया बहुत लाभकर आमद थी । आखिर यह दुनिया का चौथा सबसे अधिक आबादी वाला मुल्क
जो था । उसके जरिए हिंदचीन पर भी प्रभाव डाला जा सकता था । इसी तरह ब्राजील आबादी के
लिहाज से दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा मुल्क था । उसके जरिए समूचे लैटिन अमेरिका को
अमेरिकी प्रभुत्व में लाया जा सकता था । खास बात कि इन घटनाओं के बाद निर्दोष नागरिकों
के कत्लेआम का भयावह अंतर्राष्ट्रीय तंत्र खड़ा हो गया । उस तंत्र ने हमारी आज की दुनिया
के बनाने में बुनियादी भूमिका निभाई है ।
अगर आप इंडोनेशियाई या उस इलाके के विशेषज्ञ नहीं
हैं तो मुश्किल है कि 1965-66 में उस जजीरे पर होने वाली घटनाओं के बारे में आपको कुछ पता हो । हमारे सामूहिक
सामान्य ज्ञान में इंडोनेशिया नामक देश एकदम ही नहीं आता । जो लोग क्यूबा, कोरिया, चीन, भारत, पाकिस्तान या नाइजीरिया तक के बारे में कुछ कुछ जानते हैं वे भी उस दौर से
अनभिज्ञ मिलेंगे । बहुतेरे अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारों को भी पता न होगा कि इंडोनेशिया
दुनिया का सबसे बड़ा मुस्लिम बहुसंख्यक देश है और 1965 में सोवियत
संघ और चीन के बाद सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी इसी देश की थी । 1965-66 के कत्लेआम की सच्चाई दशकों तक उजागर नहीं हुई । उसके बाद सत्तासीन तानाशाही
लगातार झूठ बोलती रही और कत्लेआम से बचे लोग या तो कैद रहे या बोलने की हिम्मत नहीं
जुटा सके । इंडोनेशिया के बहादुर कार्यकर्ताओं और समर्पित विदेशी विद्वानों की कोशिशों
के चलते अब जाकर वह कहानी उजागर हो सकी है । अमेरिका में गोपनीय दस्तावेजों के खुलने
से भी इसमें थोड़ी मदद मिली है ।
इसकी सफलता का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है
कि पूरी कार्यवाही में कोई अमेरिकी सैनिक नहीं मारा गया । देश के भीतर भी कभी कोई खतरा
नहीं पैदा हुआ । 1950 और 60 के दशक के इंडोनेशियाई नेता अंतर्राष्ट्रीय राजनीति
में बड़ी भूमिका निभाया करते थे लेकिन 1966 के बाद उनकी कोई आवाज
नहीं सुनाई पड़ती । लेखक लम्बे समय से अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता कर रहे हैं और उसके
आधार पर जानते हैं कि अमेरिका के पिट्ठू देशों के बारे में बहुत खबरें नहीं छपतीं ।
उन्होंने 1965 के उस कत्लेआम के बारे में दस्तावेजों और व्यक्तियों
के जरिए जो कुछ जाना उसके विस्मरण की राजनीति भी उन्हें समझ में आई । उनका कहना है
कि शीतयुद्ध, अमेरिका और वैश्वीकरण की प्रचलित धारणा सच्चाई के
सामने आने से पूरी तरह बदल जाती है इसलिए उस कहानी को भुला देने में ही भला समझा गया
।
किताब केवल विशेषज्ञों के लिए नहीं है लेकिन शोध की
व्यापकता से विशेषज्ञों को भी मदद मिलने की उम्मीद है । सामान्य पाठकों को वे कम से
कम इतना बता देना चाहते हैं कि आज की हिंसा और युद्ध का मूल कम्युनिज्म के विरुद्ध
हिंसक अभियान में मौजूद है । लेखक के जीवन की दो घटनाओं ने उन्हें वर्तमान दुनिया का
रिश्ता साठ के दशक के मध्य की इन बातों से जोड़ने के लिए प्रेरित किया ।
पहली घटना 2016 की थी जब लेखक ब्राजील की संसद
में दुनिया के तीसरे सबसे बड़े लोकतंत्र के सांसदों को पूर्व वामपंथी तथा देश की
प्रथम स्त्री राष्ट्रपति दिल्मा रऊफ़ के विरुद्ध महाभियोग के लिए वोट डालने की
तैयारी करते देख रहे थे । उन्हें एक तकनीकी गलती के आधार पर सत्ता से हटाकर अधिक
भ्रष्ट सरकार लाने की योजना के तहत यह सब हो रहा था । तभी उन्होंने ब्राजील के
वर्तमान राष्ट्रपति बोलनसारो से इस प्रक्रिया से आसन्न बदनामी के बारे में पूछा तो
बोलनसारो ने शीतयुद्ध युग की भाषा में कहा कि ब्राजील को उत्तरी कोरिया बनने से
बचा लेने के लिए हमारी तारीफ़ होगी । जब बोलनसारो ने संसद में अपना वोट दिया तो उसे
ब्राजील के बदनाम फौजी तानाशाह को समर्पित किया । यह वही तानाशाह था जिसने दिल्मा
को प्रताड़ित करने में व्यक्तिगत रूप से रुचि ली थी । इस तरह बोलनसारो ने खुलेआम
देश की कम्युनिस्ट विरोधी फौजी तानाशाही के पुनर्वास का अति दक्षिणपंथी इरादा
जाहिर किया । कुछ हफ़्तों के बाद लेखक ने सत्ता से बेदखली का इंतजार करती रऊफ़ से
बातचीत की और ब्राजील के अंदरूनी मामलात में अमेरिकी हस्तक्षेप की बाबत पूछा ।
चूंकि अमेरिका की सरकार ढेर सारे लैटिन अमेरिकी देशों के तख्तापलटने में शरीक रही
थी इसलिए दिल्मा के समर्थकों को लगता था कि उनको हटाने के पीछे भी अमेरिका ही है
लेकिन दिल्मा ने इससे इनकार किया । उन्होंने इसे ब्राजील की आंतरिक गतिकी से जोड़ा
। यह तो और भी गम्भीर बात थी । ब्राजील की तानाशाही ऐसे चरण में पहुंच चुकी थी कि
आर्थिक और राजनीतिक कुलीनों के हितों पर जरा सा खतरा महसूस होने पर भी दिल्मा जैसे शासकों को हटाया
जा सकता था और उस लड़ाई को शीतयुद्ध की भाषा में प्रस्तुत किया जा सकता था । दो साल
बाद जब बोलनसारो राष्ट्रपति चुने गए तो कम्युनिस्टों को देश से निकालने के नारे
सड़कों पर लगाए जाने लगे ।
अगले साल लेखक इंडोनेशिया में पत्रकारिता के लिए
पहुंचे । कुछ महीने बाद ही कुछेक कार्यकर्ताओं और शिक्षकों ने 1965 की घटनाओं पर
विचार विमर्श के लिए एक सम्मेलन आयोजित किया । सोशल मीडिया पर आरोप प्रचारित होने
लगा कि यह बैठक कम्युनिस्ट आंदोलन को फिर से जागृत करने के लिए हो रही है । पचास
साल बाद भी ऐसा करना इंडोनेशिया में कानूनन अपराध है । एक उग्र भीड़ ने सम्मेलन
स्थल को घेर लिया । लेखक की दोस्त रात भर उस इमारत में घिरी रही । बाहर भीड़
दीवारों को पीटते हुए कम्युनिस्टों का सिर कुचलने और उनको जिंदा जला देने का नारा
लगा रही थी । दोस्त ने संदेश भेजकर हालत को दुनिया भर में प्रसारित करने और मदद की
गुहार लगाई । लेखक ने जब ट्विटर के जरिए ऐसा किया तो उन्हें भी धमकी मिलने लगी और
उनके कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने की बात की जाने लगी । ठीक इसी तरह की चीज
उनके साथ लैटिन अमेरिका में भी होती रही थी और इन दोनों जगहों और प्रवृत्तियों का
रिश्ता 1964 और 1965 की घटनाओं से था ।
पहले उन्हें अपने
साथ घटी इन दोनों घटनाओं के बीच का रिश्ता समझ नहीं आया लेकिन इस किताब पर शोध
करते हुए उन्हें इन देशों की साठ के दशक की घटनाओं का महत्व स्पष्ट हुआ । उनका असर
इतना ही नहीं है कि ब्राजील और इंडोनेशिया में हिंसक कम्युनिस्ट विरोध मौजूद है और
कि शीतयुद्ध से ऐसी सरकारों को सत्ता मिली जो रंच मात्र सामाजिक सुधार को खतरा
समझती हैं बल्कि समूची दुनिया को ही जिस स्वरूप में गढ़ा गया है उसके पीछे ब्राजील
और इंडोनेशिया से पैदा हुई कम्युनिस्ट विरोधी इस वैचारिक लहर का हाथ है ।
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