भरत मुनि के रस निष्पत्ति के सूत्र के बारे में ऐसा जटिल वातावरण
बनाया गया है कि विद्यार्थी काव्य शास्त्र और रस निष्पत्ति का नाम सुनते ही डर
जाते हैं । सूत्र है – विभाव अनुभाव व्यभिचारी संयोगात रस निष्पत्ति: ।
संधियों को हटा देने से सूत्र के ये अवयव दिखाई देने लगते हैं । संस्कृत के साथ
सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि उसे इतना सूत्रबद्ध कर दिया गया है कि सामान्य धारणाएं
भी जटिल हो जाती हैं । संधि प्रकरण भी बोलने में दो ध्वनियों की निकटता से जो
तीसरी ध्वनि निकलती है उसी का प्रदर्शन है । इसीलिए रस निष्पत्ति के सूत्र के
विच्छेद से जो प्रकट होता है उसका सीधा अर्थ है कि विभाव, अनुभाव
और व्यभिचारी यानी संचारी भावों के मिलने से रस पैदा होता है । विभाव के सिलसिले
में भी तमाम चीजों को रटना पड़ता है लेकिन समझने के लिहाज से इसकी सर्वोत्तम
व्याख्या जोजेफ मुंडशेरी ने दी है – पात्र और परिस्थिति
योजना । किसी भी रचना में यह कार्य उसका रचयिता करता है । अनुभाव का अर्थ है भाव
के उपरांत की क्रिया । यह काम अभिनेता करता है । वह विभिन्न शारीरिक क्रियाओं के
माध्यम से भाव को दर्शक के समक्ष प्रस्तुत करता है । संचारी भाव दर्शक, श्रोता या पाठक के मन में आते जाते रहते हैं । इनका स्रोत मनुष्य की
सामाजिकता है । समाज में रहते हुए विभिन्न परिस्थितियों के सम्मुख मनुष्य के मन
में विभिन्न भाव उठते रहते हैं । इनकी अस्थिरता के कारण ही इन्हें व्यभिचारी या
संचारी कहा जाता है । जिस तरह किसी प्रिय के देहांत का दुख मन में रहने के बावजूद
उसकी चर्चा शुरू होने पर वह दुख प्रकट हो जाता है उसी तरह दर्शक, श्रोता या पाठक के मन में मौजूद ये भाव प्रसंग विशेष की कल्पना से
उद्बुद्ध हो जाते हैं । इससे स्पष्ट है कि रस की निष्पत्ति दर्शक, श्रोता या पाठक के मन में होती है । वैसे तो इस प्रक्रिया को जिस तरह की
रहस्यमयता प्रदान की जाती है उसके तहत माना जाता है कि वह अपनी विशेष स्थिति से
ऊपर उठकर सामान्य का अंग हो जाता है लेकिन इस धारणा को बिना किसी मीन मेख के मान
लेने पर साहित्य में बदलाव की व्याख्या संभव नहीं
रह जाती । रचना का यह भोक्ता विशेष सामाजिक वातावरण में रहता है जो लगातार
बदलता रहता है । समाज के भीतर के इन्हीं ऐतिहासिक बदलावों के सहारे अस्मिताओं का
निर्माण होता है । दर्शक या श्रोता या पाठक इन्हीं सामाजिक अस्मिताओं के प्रभाव
में रचना को ग्रहण करता है और इसी कारण रचनाओं की लोकप्रियता को तय करता है ।
सामान्य कक्षा की बात करें तो वीर रस के उदाहरण के रूप में लड़कों को ‘भाग मिल्खा भाग’ पसंद आती है जबकि लड़कियों को ‘मेरी काम’ । उनकी इस पसंद के पीछे उनकी लैंगिक
स्थिति का योगदान होता है । इसी तरह कफन में जाति सूचक शब्द का प्रयोग होते ही उस
जाति के विद्यार्थी अपनी जातिगत पहचान के प्रति सचेत हो जाते हैं । सार के रूप में
हम कह सकते हैं कि चूंकि राम की बजाय रामत्व का साधारणीकरण होता है इसलिए रचना के
चरित्रों में भोक्ता अपने आपको तभी देख सकता है जब वह चरित्र उसे अपनी सामाजिक
स्थिति में दिखाई पड़े । पहले की या आज की जनप्रिय रचनाओं में स्त्रियों और समाज के
वंचित समुदायों के प्रचुर चित्रण की वजह बहुत कुछ यही तथ्य होता है ।
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