इस समय हमारे देश में एक चरम दक्षिणपंथी पार्टी का शासन होने से दुनिया के माहौल में जो बदलाव आ रहे हैं वे देश के परेशान बौद्धिक वातावरण को प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं । ऊपर से हिंदी की साहित्यिक दुनिया की आत्ममुग्धता ने उसे और भी संकुचित कर दिया है । प्रगतिशील आलोचना ने अकादमिक संस्थानों के सहारे बौद्धिक दुनिया में प्रभुत्व तो कायम किया लेकिन उसकी यह शक्ति ही उसकी सीमा भी बन गई है । फेन की तरह से उठनेवाले तात्कालिक उबालों का हिंदी साहित्य कुछ इस कदर आदी हो गया है कि अन्य अनुशासनों की कौन बात करे अन्य भाषाओं और देशों के साहित्य तक से संवाद टूट चुका है । देश की एकता को मजबूत करने की जिम्मेदारी हिंदी पर डाली तो गई ही, हिंदी के लेखक इस भ्रम में जीना भी पसंद करते हैं कि उनके कारण देश एक है । यह झूठा गौरव बोध समय समय पर जगा दिया जाता है तो वंचित लेखक समुदाय खुश हो लेता है, जबकि सचाई यह है कि शासक वर्ग की भाषा में औपनिवेशिक विरासत भरी हुई है ।
इन भ्रमों के शिकार लोग बौद्धिक बनने की कोशिश करते हुए मार्क्सवाद के खत्म हो जाने का फतवा गाहे-बगाहे जारी करते रहते हैं । इसका प्रमाण उनके लिए रूस का पतन है ।
जबकि असल में रूस के पतन के कुछ ही दिनों बाद मार्क्सवाद
का ऐसा उभार हुआ है कि इक्कीसवीं सदी को मार्क्सवाद के उत्थान की सदी कहना शायद अतिकथन
न होगा । पिछली सदी के आखिरी दशक में रूस और पूर्वी यूरोप के समाजवादी मुल्कों में हतप्रभ कर देने वाली तेजी से बदलाव हुए और मार्क्सवाद के विरोधियों में इतना जबर्दस्त उत्साह पैदा हुआ कि उसके खात्मे की बात तो जाने दीजिए, किसी भी किस्म के बदलाव की संभावना से इनकार करते हुए इतिहास तक के अंत की घोषणा हो गई । लेकिन जिस पूंजीवाद ने प्रतिद्वंद्विता में पूर्व समाजवादी मुल्कों को पराजित किया था, उसने जीत मिलते ही अपने आपको बदल लिया । लोकतंत्र और मानवता की रक्षा का दावा करने वाले देशों ने दुनिया भर में युद्ध की तबाही तो मचाई ही, अपने देश में भी लोकतंत्र का गला घोंट डाला । अमेरिका के प्रसंग में साम्राज्य की बातें होने लगीं और शोध इस बात पर होने लगा कि आर्थिक रूप से दास प्रथा कितना लाभदायक थी । पूंजीवाद का आदमखोर स्वरूप आज जितना प्रत्यक्ष है उतना शायद उन्नीसवीं सदी में भी
न रहा होगा ।
इसी माहौल में मार्क्सवाद के पक्ष में हवा बहने लगी । इस नए उभार में नानाविध काम हो रहे हैं ।
इनकी मात्रा और वैविध्य चकित कर देने वाले हैं । सबसे पहले यह कि सोवियत रूस के पतन
ने इस समय के मार्क्सवादियों को सत्ता न होने के कारण सुविधा और शक्ति से हीन तो किया
है लेकिन सत्ता के अपराधों की जवाबदेही से भी मुक्त कर दिया है । साथ ही इसने
सोवियत समर्थक तथा सोवियत विरोधी का पुराना विभाजन भी समाप्त कर दिया
है । यहां तक कि पूंजीवाद के नए खौफ़नाक हमले ने पश्चिमी मार्क्सवादियों की विरासत को
भी सक्रिय कर दिया है । इसके साथ ही एक अन्य बदलाव का जिक्र भी जरूरी है । मार्क्सवाद
के इतिहास पर अगर निगाह डालें तो दिखाई पड़ता है कि उन्नीसवीं सदी में अधिकतर लेखन दार्शनिक
और आर्थिक सवालों को केंद्र में रखकर हुआ था । इसके मुकाबले बीसवीं
सदी में सोवियत संघ और पश्चिमी देशों में ज्यादातर लेखन संस्कृति के सवालों पर विचार
करते हुए किया गया । इक्कीसवीं सदी में एक बार फिर आर्थिक और राजनीतिक प्रश्न महत्वपूर्ण
हो गए हैं ।
सुविधा के लिए हम मार्क्स और उनके परिवार से जुड़े
लोगों की हाल में लिखी और प्रकाशित जीवनियों से अपनी बात शुरू कर रहे हैं । ठीक सदी
के मोड़ पर फ़्रांसिस ह्वीन लिखित जीवनी का प्रकाशन हुआ । लेखक का संकल्प था कि वे व्यक्ति
मार्क्स पर अधिक ध्यान देंगे । इसी के चलते जीवनी में थोड़ा चटपटापन भी था लेकिन अंग्रेजी
भाषी पश्चिमी दुनिया में इससे मार्क्स चर्चा में आए । इसके बाद जोनाथन स्पर्बर
नामक इतिहासकार ने भी एक जीवनी लिखी जो उन्नीसवीं सदी के माहौल में अवस्थित करते
हुए मार्क्स के जीवन का विश्लेषण करने की कोशिश करती है । मार्क्स की इन जीवनियों
से अलग एक जीवनी मेरी गैब्रिएल ने लिखी जो मार्क्स के साथ उनकी पत्नी जेनी पर भी
ध्यान देती है । मार्क्स परिवार के अनन्य साथी और मार्क्स के वैचारिक अर्धांग फ़्रेडेरिक
एंगेल्स की एक जीवनी त्रिस्त्रम हंट ने लिखीं जो पहले अमेरिका में फिर इंग्लैंड
में अलग अलग शीर्षकों से छपी । मार्क्स की पुत्री एलिनोर की राचेल होम्स लिखित
जीवनी भी इस समय चर्चा में है । इन जीवनियों का जिक्र केवल इसलिए कि किसी व्यक्ति
के बारे में जिज्ञासा के पैदा होने के कारण काल विशेष में निहित होते हैं ।
मार्क्स में रुचि सुविधाजनक नहीं है । जिन चीजों का विरोध करने का संकल्प वर्तमान
शासक दल के वैचारिक सूत्रधारों ने किया है उनमें से एक वामपंथ भी है । हिंदी में
तो वैसे भी साहित्यिक पवित्रता के लिहाज से मार्क्स का नाम लेना पाप है । अकादमिक
दुनिया में आज भी मार्क्सवादी होना बहुत प्रशंसित नहीं है ।
किताबों के इस जिक्र में इस बात को कहना भी जरूरी
है कि इस समय लिखी किताबों के अलावे अरसा पहले लिखी किताबों के या तो नए संस्करण प्रकाशित
हो रहे हैं या उनका इलेक्ट्रानिक प्रकाशन हो रहा है । यह भी मार्क्सवाद की प्रासंगिकता
का ही सबूत है । जीवनी के बाद ऐसी किताबों का जिक्र करना मुनासिब होगा जो मार्क्सवाद
के बारे में हैं । एक किताब है- द वर्ल्डली फिलासफर्स
। यह किताब राबर्ट हीलब्रोनेर की है । संसार के महान अर्थशास्त्रियों के बारे में लिखी
इस किताब का शीर्षक बताता है कि दर्शन का सामान्य विषय पारलौकिक होता है लेकिन अर्थशास्त्र
इहलौकिक दर्शन है । अर्थशास्त्र को आम तौर पर गणित समझने वाली बौद्धिकता के लिए इसे
समझना मुश्किल है कि दर्शन के विद्यार्थी कार्ल मार्क्स अर्थशास्त्र की ओर क्यों गए
। अर्थशास्त्र के बारे में इस किताब की समझ से यह स्पष्ट हो जाता है कि मूल रूप से
दर्शन की करीबी अर्थशास्त्र से रही है । लेखक ने जब यह किताब लिखी थी तो वे ग्रेजुएट
के छात्र थे । 1953 में पहली बार छपी इस किताब की लोकप्रियता
का आलम यह है कि 1999 में उसका सातवां संस्करण प्रकाशित हुआ ।
किताब में एडम स्मिथ से शुरू करके माल्थस और डेविड रिकार्डो से होते हुए काल्पनिक
समाजवादियों तथा मार्क्स, विक्टोरियाई दुनिया और अर्थशास्त्र, थोर्स्टीन वेब्लेन,
कीन्स, शूमपीटर और अर्थशास्त्र के भविष्य पर विचार करने के अलावा आगे की पढ़ाई के
लिए सूची भी दी गई है । 1999 में ही अनित्रा नेल्सन की किताब मार्क्स’ कांसेप्ट आफ़
मनी: द गाड आफ़ कमोडिटीज का प्रकाशन हुआ । मार्क्स के चिंतन में अर्थशास्त्र की प्रधानता
होने से ही उनके इस पक्ष पर जोर देने वाली किताबों का लगातार प्रकाशन हो रहा है । इसका
एक और कारण है । वर्तमान समय में दुनिया भर में लोगों के जीवन में जो भूचाल आया हुआ
है उसे समझने के लिए लोग मार्क्स के अर्थशास्त्रीय चिंतन को अधिक कारगर महसूस कर रहे
हैं ।
मार्क्स के चिंतन का सबसे परिपक्व परिणाम उनकी
किताब ‘पूंजी’ है । जीवित रहते इसके पहले खंड का ही प्रकाशन हो सका था । नई सदी
में उनके इस ग्रंथ के अध्ययन को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि पिछले दिनों इसी
ग्रंथ पर केंद्रित एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन एम्सटर्डम में हुआ था । संसार के
सबसे प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता डेविड हार्वे चालीस साल से इस ग्रंथ को शौकिया पढ़ाते
हैं । उनकी कक्षाओं के आधार पर एक किताब तैयार की गई और वर्सो से उसका प्रकाशन हुआ
। किताब का नाम है- ए कम्पैनियन टु मार्क्स’ कैपिटल । पहले केवल खंड एक की ही
व्याख्या का प्रकाशन हुआ था लेकिन उसकी सफलता से उत्साहित होकर हाल में दूसरे खंड
की व्याख्या का भी प्रकाशन किया गया । चूंकि अध्यापक खुद एक अन्य अनुशासन के हैं
तथा विद्यार्थी भी विविध अनुशासनों से जुड़े थे इसलिए दोनों ही किताबें रोचक तरीके
से तथा सुबोध शैली में लिखित हैं । मार्क्स की इस किताब से जुड़े शोध इतने उत्तेजक
और समकालिक हैं कि लगता है मार्क्स हमारे समय के पूंजीवाद की विसंगतियों का
विश्लेषण कर रहे हैं ।
अर्जेंटिना निवासी स्पेनी विद्वान एनरिक़ डसेल की
मूल तौर पर स्पेनी में लिखी किताब का अंग्रेजी अनुवाद
‘टुवार्ड्स ऐन अननोन मार्क्स: ए कमेंटरी आन द मैनुस्क्रिप्ट्स
1861-63’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ । डसेल ने मार्क्स की मूल पांडुलिपियों
की छानबीन करने के बाद बताया कि मार्क्स ने कैपिटल का सिर्फ़ ‘ग्रुंड्रिस’ नामक मसौदा ही नहीं बनाया था, बल्कि इस किताब के अलग अलग चार मसौदे मिलते हैं । मासाचुसेट्स के अर्थशास्त्र
के प्रोफ़ेसर फ़्रेड मोसेली ने किताब के संपादक होने के नाते इसकी भूमिका लिखी है और
उसमें बताया है कि 1977 में दो खंडों में रोसदोल्स्की लिखित
‘द मेकिंग आफ़ मार्क्स’ कैपिटल’ से डसेल की किताब बेहतर हैं क्योंकि रोसदोल्स्की की गति हेगेल के दर्शन में
डसेल जितनी नहीं थी । डसेल ने अप्रकाशित पांडुलिपियों को देखने के लिए बर्लिन और एमस्टर्डम
की यात्रा भी की थी ।
उन्होंने इतने व्यवस्थित तरीके से इन
पांडुलिपियों का विश्लेषण किया है कि यह मार्क्स की ‘पूंजी’ का सर्वोत्तम पाठ
सहायक बन जाती है । उनके मुताबिक पहली पांडुलिपि ‘पूंजी’ के पहले खंड का दूसरा
मसौदा है । इसकी शुरुआत मुद्रा के पूंजी में रूपांतरण से होती है । रूपांतरण की इस
प्रक्रिया में जीवित श्रम की निर्णायक भूमिका का रेखांकन करते हुए मार्क्स इसे
अतिरिक्त मूल्य समेत समस्त मूल्य के सृजन का ‘रचनात्मक स्रोत’ कहते हैं । जीवित
श्रम के बिना पूंजी साकार ही नहीं हो सकती । अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन के लिए
पूंजी जीवित श्रम अर्थात मजदूर की मेहनत को अंतर्भुक्त कर लेती है । जीवित श्रम
पूंजी का सामना करने के पहले से दरिद्रावस्था में यानी काम करने के हालात से महरूम
मौजूद होता है । लेकिन यही दरिद्र श्रमिक मूल्य और अतिरिक्त मूल्य का रचनात्मक
स्रोत हो जाता है । जब इसे पूंजी में शामिल कर लिया जाता है तो यह पूंजी के लिए
अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करने लगता है ।
इस किताब में जिस ग्रुंड्रिस का जिक्र आया है
वह भी बहुत बाद में प्रकाशित हुई । इसमें मार्क्स द्वारा ‘पूंजी’ के जो मसौदे बनाए
गए थे उनको संग्रहित किया गया था । मार्क्स के लेखन में बहुत कम ऐसा है जो उनके
जीवन में अंतिम रूप में आ सका था । इसलिए उनके देहांत के बाद उनकी पांडुलिपियों को
संपादित करके ढेर सारी किताबों की शक्ल दी गई । सोवियत संघ की मौजूदगी के दौरान ही
‘1844 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियां’ शीर्षक एक ग्रंथ तैयार किया गया जो
बहुत सारे नवीन उद्भासों के लिए चर्चित रही । इसके अतिरिक्त ‘ग्रुंड्रिस’ दूसरा
ऐसा ग्रंथ है जिसे पश्चिमी दुनिया के विद्वानों ने लगातार चर्चा का विषय बनाया । इसके
बारे में इटली के मशहूर मार्क्सवादी चिंतक मार्चेलो मुस्तो के संपादन में एरिक हाब्सबाम
की विशेष भूमिका के साथ बहुत ही दिलचस्प किताब ‘कार्ल मार्क्स’
ग्रुंड्रिस : फ़ाउंडेशनंस आफ़ द क्रिटिक आफ़ पोलिटिकल
इकोनामी 150 ईयर्स लेटर’ शीर्षक से प्रकाशित
हुई । किताब तीन भागों में विभक्त है । पहला भाग दुनिया के विभिन्न विद्वानों द्वारा
इस किताब की व्याख्या है । व्याख्या के लिए इस किताब के प्रमुख विषयों- पद्धति, मूल्य, अलगाव, अतिरिक्त मूल्य, ऐतिहासिक भौतिकवाद, पर्यावरणिक अंतर्विरोध, समाजवाद तथा ग्रुंड्रिस और पूंजी
की तुलना- का विवेचन किया गया है । दूसरा भाग ग्रुंड्रिस के लेखन
के समय के मार्क्स पर केंद्रित है यानी उसी समय के अन्य विषयों पर उनके लेखन और सोच
विचार से इसकी तुलना की गई है । तीसरा भाग दुनिया के विभिन्न देशों में ग्रुंड्रिस
के प्रसार और अभिग्रहण का ब्यौरा देता है । यह ब्यौरा उन भाषाओं के हिसाब से दर्ज किया
गया है जिनमें समूचे ग्रुंड्रिस का अनुवाद हुआ है । इस भाग की तैयारी में संपादक को
सबसे ज्यादा कठिनाई हुई क्योंकि सभी भाषाओं की सूचना जुटाना किसी के लिए भी लगभग असंभव
है । जिन लोगों ने इस भाग के लिए लिखा उन्होंने अपनी भाषाओं में लिखा, फिर उसे अंग्रेजी में अनूदित किया गया । इस जटिलता के चलते ही संपादक ने किसी
भी गलती के सुधार के लिए पाठकों से निवेदन किया है । 2006 से
इस किताब का काम शुरू हुआ था और दो साल में 200 से अधिक विद्वानों,
राजनीतिक कार्यकर्ताओं और पुस्तकालयाध्यक्षों की मदद से इसे पूरा किया
गया ।
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