आम तौर पर माना जाता है कि अम्बेडकर ने सामाजिक पहलू पर अधिक ध्यान
दिया और मार्क्स ने आर्थिक पहलू पर । एक हद तक इसकी पुष्टि भी दोनों के लेखन से
होती है । अंबेडकर ने अपनी किताब ‘एनिहिलेशन आफ़ कास्ट (जाति भेद
का उच्छेद)’ में विस्तार से इस बात पर चर्चा की है कि किस
तरह स्वाधीनता आंदोलन की कार्यसूची में राजनीतिक सुधार के सवाल ने प्रमुखता हासिल
कर ली और सामाजिक सवाल को पीछे धकेल दिया गया । सामाजिक सवाल को पृष्ठभूमि में
डालने में उन्हें समाजवादी चिंतन का भी योगदान महसूस हुआ जिसके अनुसार आर्थिक
सुधार से सामाजिक सुधार अपने आप हो जाएगा । लेकिन उन्होंने इसी भाषण (जो कभी दिया नहीं गया) में यह भी माना कि व्यक्ति की
स्थिति के निर्धारण में धर्म, सामाजिक स्तर के साथ ही
संपत्ति की भी भूमिका होती है । दूसरी ओर मार्क्स के बारे में उनकी आर्थिकता के
कुल हो हल्ले के बीच इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि वे ‘व्यक्ति
के सामाजिक अस्तित्व के पुनरुत्पादन’ में आर्थिक उत्पादन
संबंधों की भूमिका को रेखांकित कर रहे थे । मार्क्स के अभिन्न एंगेल्स ने बाद में
इस बात को स्वीकार भी किया कि उन्हें तत्कालीन परिस्थितियों के चलते आर्थिक पहलू
पर अतिरिक्त जोर देना पड़ा था । इस प्रकार ध्यान से देखने पर सामने आता है कि सतह
पर दिखाई देनेवाली विरोधी स्थिति खास ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज है । अंबेडकर
ने इसी भाषण में विस्तार से स्वाधीनता आंदोलन की उन परिस्थितियों का जिक्र किया है
जिसमें उन्हें सामाजिक पर अतिरिक्त बल देने की जरूरत महसूस हुई थी । शुरू में वे
बताते हैं कि एक समय इस बात पर सर्वानुमति थी कि हिंदू समाज की कुरीतियों को दूर
किए बिना देश की उन्नति नहीं हो सकती इसीलिए कांग्रेस के साथ ही सोशल कानफ़रेंस की
भी स्थापना हुई थी । इन दोनों के बीच का कार्यविभाजन इस प्रकार था- कांग्रेस देश
के राजनीतिक संगठन की कमजोरियां दिखलाती थी और सोशल कानफ़रेन्स हिंदू समाज के
सामाजिक संगठन की कमजोरियों को दूर करने का यत्न करती थी । यह सहयोग इस हद तक था
कि ‘दोनों का वार्षिक अधिवेशन एक ही पंडाल में’ होता था । इसके बाद यह तर्क दिया
जाने लगा, खासकर तिलक के बाद, कि
सामाजिक सुधार का सवाल आजादी की लड़ाई लड़ने वालों में फूट पैदा कर रहा है । अंबेडकर
का कहना था कि राजनीतिक चेतना अक्सर सामाजिक जागरण का परिणाम होती है । इसी खास
स्थिति में उन्हें सामाजिक सवाल पर अधिक जोर देना पड़ा था ।
जहां तक मार्क्स का सवाल है उनके लिखे के सहारे इसे समझना बेहतर
होगा क्योंकि उनके लिखे की मनमानी व्याख्या होती रही है । 1859
में लिखित ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में
एक योगदान’ शीर्षक किताब की भूमिका में मार्क्स ने अपनी पद्धति
को सूत्रवत प्रस्तुत किया है । उनका कहना है ‘अपने जीवन के सामाजिक
उत्पादन की प्रक्रिया में मनुष्य कुछ निश्चित संबंध बनाते हैं जो उनकी इच्छा से स्वतंत्र
तथा अपरिहार्य होते हैं । ये उत्पादन संबंध भौतिक उत्पादक-शक्तियों
के विकास के एक निश्चित चरण से जुड़े हुए उत्पादन के संबंध हैं । उत्पादन के इन संबंधों
का कुल योग समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण करता है । यही वह वास्तविक नींव है जिस
पर कानूनी और राजनीतिक अधिरचना उठती है और जिससे सामाजिक चेतना के निश्चित रूप जुड़ते
हैं । उत्पादन का तरीका ही सामान्य रूप से सामाजिक, राजनीतिक
तथा बौद्धिक जीवन-प्रक्रिया को रूप देता है । मनुष्यों की चेतना
उनके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, बल्कि इसके उलट उनका सामाजिक
अस्तित्व ही उनकी चेतना को निर्धारित करता है ।’ इस उद्धरण से
स्पष्ट हो जाता है कि मार्क्स सामाजिक और आर्थिक का कैसा रिश्ता समझते थे । फिर भी
उनके इस सूत्र पर विवाद होते रहे जिनके चलते एंगेल्स को स्पष्ट करना पड़ा कि किन हालात
में उन्हें आर्थिक पर अधिक जोर देना पड़ा था । थोड़ी सफाई देते हुए एंगेल्स ने जोसेफ
ब्लाख को 21-22 सितंबर 1890 को लिखे अपने
पत्र में स्पष्ट किया है ‘---अगर कोई इस बात को तोड़-मरोड़कर कहता है कि आर्थिक तत्व एकमात्र निर्धारक तत्व है तो वह इस प्रस्थापना
को बेतुके जुमले में बदल देता है । आर्थिक स्थिति आधार है लेकिन अधिरचना के कई तत्व,
वर्ग संघर्ष और उसके परिणामों के राजनीतिक स्वरूप, जैसे कि किसी निर्णायक युद्ध के बाद विजयी वर्ग द्वारा कायम किया गया संविधान,
कानून संबंधी चीजें, और खासकर इन तमाम वास्तविक
संघर्षों की इनके भागीदारों के दिमाग पर पड़ने वाली छायाएं, राजनीतिक,
कानूनी, दार्शनिक सिद्धांत, धार्मिक मत और फिर जाकर जड़सूत्र प्रणालियों के रूप में उनका विकास,
यह सब भी ऐतिहासिक संघर्षों के गतिपथ पर अपना असर डालते हैं,
और कई मामलों में खासकर उनके स्वरूपों का निर्धारण करते हैं ।’
अपनी पद्धति की जटिलता को स्पष्ट करने के लिए इससे अधिक वे क्या कह सकते
थे !
दोनों की मान्यताओं को देखने से यह साफ है कि अंबेडकर
ने विशेष परिस्थितियों में सामाजिक पर अधिक जोर दिया था और मार्क्स के चिंतन में आर्थिक
पहलू सामाजिक पहलू से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है ।
प्रत्येक विचारधारा अपने देश काल के सापेक्ष ही होती है ।बाद मे विद्वान लोग उसकी व्याख्या अपनी सुविधानुसा कर लेते है ।
ReplyDeleteThis comment has been removed by a blog administrator.
ReplyDelete