Sunday, August 23, 2015

बरगद की याद

                        
                                     
संस्मरण की विधा में अपने गद्य की रचनात्मकता का लोहा मनवा चुके अधीत विद्वान कान्तिकुमार जैन की किताबमहागुरू मुक्तिबोध: जुम्मा टैंक की सीढ़ियों परका प्रकाशन 2014 में समयिक प्रकाशन से हुआ है । हिंदी में राजेंद्र यादव वालेहंसके कारण संस्मरण की विधा जब आम चलन में आई तो उसमें पात्रों का मजाक उड़ाते हुए हास्य के सृजन की कोशिश का आधिक्य देखा गया । शुरू के कांतिकुमार जी के संस्मरणों में भी इस छिछले हास्य का प्रचुर प्रयोग किया गया था । स्वाभाविक है कि मुक्तिबोध पर लिखते हुए इस शैली की गुंजाइश नहीं थी, ऐसा करने से उलटा असर पड़ता । इसलिए विषयानुरूप अपेक्षित गंभीरता के साथ लिखे इस पुस्तकाकार संस्मरण में केवल व्यक्ति मुक्तिबोध नहीं हैं और यही इसकी प्रभविष्णुता का स्रोत है । लेखक का मत है कि हिंदी साहित्य में एकमुक्तिबोध-मंडलथा । इस बात को वे पूरी तरह से स्थापित करने में सफल हुए हैं ।
मुक्तिबोध को उनके साथ के लोगों के परिप्रेक्ष्य में देखने से ही जुड़ा हुआ एक अन्य महत्वपूर्ण मामला हिंदी में मध्य प्रदेश की उपेक्षा है । हरिशंकर परसाई तथा तार सप्तक के अधिकांश कवियों की रचनाभूमि होने के बावजूद हिंदी साहित्य पर जब भी विचार किया जाता है तो उत्तर प्रदेश के वाराणसी और आधुनिकता से प्रभावित लेखकों की कर्मभूमि होने के कारण इलाहाबाद के आगे दिमाग जाता ही नहीं । बिहार के बौद्धिक अक्सर अपने साथ भेदभाव की आलोचना करते पाए जाते हैं । इस शिकायत को दूर करने के लिए रामधारी सिंह दिनकर को थोड़ी रियायत दे दी जाती है । मध्य प्रदेश के मामले में तो इतनी रियायत भी नहीं बरती जाती । यह किताब मुक्तिबोध के बहाने इस असंतुलन को भी उजागर करती है तथा इसे दूर करने की प्रेरणा देती है । इस क्रम में उन्होंने साहित्येतिहास की एक धारणा को पुष्ट किया है जिसमें उच्च शिखरों के साथ ही सामान्य लेखन पर भी ध्यान दिया जाता है । आखिर महान साहित्य का रचयिता भी अपने आसपास के साहित्यिक माहौल में ही तो रहता है । किताब से उस दौर के पश्चिमोत्तर भारत का उत्तेजना से भरा हुआ रचनात्मक वातावरण जाग उठता है ।
किताब में इस्तेमाल की गई भाषा के जरिए समूचा माहौल इस तरह का रच दिया गया है कि मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र का विदर्भ और छत्तीसगढ़ का जनजीवन मानसिक तौर पर प्रत्यक्ष हो जाता है । इस प्रसंग में थोड़ा अतिकथन करते हुए भी एक बात कहना जरूरी है । हम सभी हिंदी लिखने वाले एक ही तरह की भाषा लिखने के आदी हो गए हैं । यह भाषा बेहद सुपाच्य होती है । इस सुबोधभाषा को हमने ऐसा हथियार भी बना लिया है जिसके सहारे इस एकरसता का वर्चस्व बन गया है । यह भाषा शिष्ट है और मध्यवर्गीय निश्चिंत जीवन शैली का परिचय देती है । मुक्तिबोध को लगा था कि छायावादी कवियों/लेखकों को बीमारी और बच्चों की फ़ीस की चिंता नहीं सताती । उसी तरह हमारे सौ सालों के लेखन की भाषा से बेचैनी की झलक गायब हो गई है । आत्मविश्वास के साथ उबड़ खाबड़ लिखते किसी को देखे अरसा बीत गया । कभी कभी किसी किताब में इस भयानक एकरसता को तोड़कर सृजनात्मक गद्य उभर आता है । इस किताब की भाषा में वह रचनात्मकता अर्जित की गई है ।
मराठी भाषी परिवार और वातावरण में मुक्तिबोध ने हिंदी में लिखना चुना । प्रेम विवाह किया । पुलिस अधिकारी के पुत्र होकर भी समाज के वंचितों से नाता जोड़ा । इन सभी निर्णयों ने उन्हें जो अकेलापन दिया उससे उत्पन्न स्नायविक उत्तेजना से वे आजीवन ग्रस्त रहे । ऐसे में ही किसी ने लेखक को बताया है कि दिन में मुक्तिबोध चाहे जितना परेशान रहें रात का सन्नाटा उन्हें अद्भुत संतुलन प्रदान करता था । तालाब के किनारे रात रात भर बैठकर लगातार दुनिया जहान की बातें ! और देर रात की बीड़ी और चाय के सहारे घुमक्कड़ी ! रात के प्रसंग । दिन भर रिक्शा चलाकर थके मजदूर देर रात को चौराहे पर आपस में जोर करते और इसे देखकर मुक्तिबोध को उनके जीवट पर नाज हो आता ।     
नागपुर के मित्रों की सूची में मात्रा के साथ गुण के मामले में भी पर्याप्त समृद्धि दिखाई पड़ती है । इन मित्रों में कवि थे, शायर थे, व्यंग्यकार थे, पत्रकार थे, संगीतज्ञ और चित्रकार थे, अध्यापक, राजनीतिज्ञ और संपादक थे । हिंदी भाषियों के अतिरिक्त मराठी, अंग्रेजी और उर्दू भाषी भी थे ।दोस्तों की इस बहुरंगी टोली के सरताजसोख्ताथे । वैसे तो कांतिकुमार जी ने मुक्तिबोध के लगभग सभी दोस्तों को थोड़े शब्दों में किसी पात्र की तरह जीवंत कर दिया है लेकिन कृष्णानंद सोख्ता के चित्रण में तो उन्होंने सचमुच शब्द और अर्थ में सौंदर्य की होड़ लगा दी है । हो भी क्यों न ! सोख्ता उसनया खूनके सर्वेसर्वा थे जिससे मुक्तिबोध के लेखन को अलगाना असंभव है । मुक्तिबोध और नया खून का संबंध लेखक से सुनिएआज वे अवंतीलाल गुप्त हैं, अगले सप्ताह वे यौगंधरायण बन जाएंगे । उसके अगले सप्ताह उन्हेंअमिताभके रूप में अवतरित होना है । कभी-कभी वे अनाम भी रहते ।नया खून में मुखपृष्ठ पर हीकलामे सोख्ताछपता । इसकी आलोचनात्मकता का एक नमूना हैनेहरू ने तो दावा किया है, कई बार किया है/ शासन में करप्शन का कहीं नाम नहीं है/ पर मुझको कोई ऐसा महकमा तो बता दो/ लोगों को खिलाने में जो बदनाम नहीं है ।याद दिलाने की जरूरत नहीं कि यह तेवर नेहरू के शासन के कुछ ही दिनों बाद का है । इस कालम की शोहरत का आलम यह था कि उन्हें सार्वजनिक मंचों पर उनके मूल नाम या लेखकीय नाम की जगह कलामे सोख्ता के नाम से पुकारा जाता । स्वाधीनता आंदोलन के सभी बड़े नेताओं, यहां तक कि गांधी तक की सभा में मजमा लगाने या भीड़ को काबू में करने के लिए कलामे सोख्ता की मदद ली जाती । घर से निकलकर रास्ते पर आते, जो भी रिक्शा होता रुक जाता । रिक्शे पर आगे की ओर झुककर बैठते और रास्ते भर परिचितों से दुआ सलाम चलती रहती । नया खून के महत्व के बारे में यह दावा सत्य से बहुत दूर नहीं प्रतीत होता स्वतंत्रता के बाद नेहरू युग के मोहभंग का इतिहास जानना होनया खूनसे बढ़कर प्रामाणिक सामग्री और कहीं नहीं मिलेगी ।” 1948 से 1958 तक प्रति सप्ताह छपने वाले इस पत्र के संपादक स्वामी कृष्णानंदसोख्ताथे ।
सोख्ता के बाद जिस व्यक्तित्व को आंकने में लेखक का मन रमा है वे हैं हरिशंकर परसाई । वे भी इसी तरह विचित्र व्यक्तित्व के धनी । जीवन भर किराए के मकानों में रेल की पटरियों के पड़ोस में रहते हुए प्रतिबद्ध लेखन में इस तरह रत रहे कि हिंदू सांप्रदायिक तत्वों को उनकी टांग तोड़नी पड़ी । अध्यापक संघ का काम धुनकर करने के बाद भी पत्रिका प्रकाशित करने का जुनून । मुक्तिबोध उनके बौद्धिक प्रयासों के अनन्य सहभागी ।
इन दो मशहूर नामों के अलावे ढेर सारे ऐसे लेखक जो कभी कभी किन्हीं छोटी जगहों पर संयोगवश एकत्र होकर उन जगहों को अपनी बेचैनी और उत्तेजना से भर देते हैं । किसी भी साहित्यिक आंदोलन के एकाध प्रसिद्ध लेखकों के नाम तो सबको पता रहते हैं लेकिन साहित्यिक प्रवृत्तियों को आंदोलन बनाने में ढेर सारे उन नामालूम लेखकों का योगदान होता है जो जुगनू की चमक की तरह थोड़ी देर के लिए रोशनी फैला जाते हैं ।
किताब इन सभी उपर्युक्त कारणों के चलते और अन्य अनेक कारणों के चलते पठनीय तो है ही, संग्रहणीय भी है । मुक्तिबोध उन युग प्रवर्तक कवियों की पांत में थे जो जमाने की बेचैनी को अपने जीवन का खून देकर व्यक्त करते हैं । सामान्यता का आकांक्षी समय उनको असामान्य घोषित करके अपने अपराध बोध पर परदा डालना चाहता है लेकिन उनकी मशाल बुझने की कौन कहे, गिरने भी नहीं पाती कि दूसरा अग्निधर्मी आकर उसे संभाल लेता है । ऊपर से असामान्य प्रतीत होने वाले इन लोगों का व्यवस्थित विद्रोह ही किसी भी समय को याद रखने लायक बनाता है ।     

    



   

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