Monday, February 4, 2013

आगामी किताब की भूमिका


                                                                                                                                                                                                                                                                                  
प्रस्तुत लेख (किताब?) में मेरी भंगुर स्मृति में सोवियत संघ के विघटन से लेकर वर्तमान समय तक जिस तरह मार्क्सवाद के उत्थान पतन का ब्यौरा दर्ज है उसे निरूपित करने की कोशिश की जाएगी । इसमें मुख्य रूप से नए विचारकों के विचार ही शमिल किए गए हैं और आम तौर पर पुस्तकों का ही सहारा लिया गया है । उनके अतिरिक्त आवश्यक सैकड़ों लेखों का सहारा आकार बढ़ जाने के भय से नहीं लिया गया है । स्मृति की गड़बड़ी और अंग्रेजी की गलत सही जानकारी इसकी सीमाएँ हैं लेकिन कोई और यह काम शुरू नहीं कर रहा इसलिए हाथ लगाया । चर्चा बहुतों से इसी उम्मीद से की कि वे इस काम को भली तरह से अंजाम दे सकते हैं लेकिन होनी को कौन टाल सकता है ।
इस किताब की पृष्ठभूमि के बतौर आपको यह भी जानना होगा कि हमारी पीढ़ी को मार्क्सवाद में किस तरह रुचि पैदा हुई और कैसे आगे बढ़ी । पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के ‘70 दशक के अंत और ’80 दशक के शुरू में होश सँभालने वाले नौजवानों का साबका हिंदी क्षेत्र के कम्युनिस्टों की पहली खेप से नहीं हुआ लेकिन उनके तकरीबन अप्रासंगिक होने के साथ ही दूर बंगाल में जन्मी वामपंथ की तीसरी धारा की आहट से कान गरम हो रहे थे । इस वातावरण ने हमें पारंपरिक वाम से दूर रखा और सिर्फ़ आंदोलन नहीं बल्कि उसके साथ ही मार्क्सवाद की सैद्धांतिक जानकारी के लिए उत्सुक बनाया । वैसे यह कोई बैठे ठाले की पढ़ाई लिखाई नहीं थी बल्कि व्यावहारिक काम उसके साथ जुड़ा हुआ था लेकिन वह भी अलग तरह का था । घर छोड़कर भूमिहीन किसान जनता, जिन्हें आज दलित कहा जाता है उनके जीवन के साथ एक नए किस्म की पारस्परिकता बनानी थी । क्रांति की बातें उनके लिए हवाई न थीं बल्कि प्रत्यक्ष यथार्थ का अंग थीं क्योंकि सामाजिक उत्पीड़न उनके सामने सामाजिक परिवर्तन का एजेंडा सीधे प्रस्तुत कर रहा था । जब राजनीतिक सत्ता दखल का सवाल उनके सामने खड़ा होता तो उसका अनुवाद वे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए लड़ाई में कर लेते । फिर भी किसान समुदाय में राजनीतिक होड़ बहुत कम होने से सवाल दिमाग में दर्ज नहीं रहते थे । पारंपरिक वाम के साथ राजनीतिक होड़ का आभास शहरी इलाकों में मजदूरों के संगठनों में काम करते वक्त होता था । वहाँ आपको ट्रेड यूनियन की दुनिया में नेतागिरी के नाम पर दलाली करते हुए कार्यकर्ताओं को देखकर संशोधनवाद समझ में आ जाता था । मजदूरों के बीच काम करते हुए भी उन्हें सैद्धांतिक शिक्षा देनी होती थी और इसमेंकम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’, ‘क्या करेंऔरअंतर्विरोध के बारे मेंबहुत काम आए ।
तब पूर्वी उत्तर प्रदेश के छात्रों के बीच तीसरी धारा के एन जी ओ मार्का कुछ संगठन लोकप्रिय थे जो छात्रों के आदर्शवाद का अर्थ राजनीति से ही दूरी बरतना समझते थे । उनके साथ वैचारिक लड़ाई करके ही कोई राजनीतिक संगठन बनाया जा सकता था । इस तीखी लड़ाई में चारू मजुमदार की विरासत को खारिज करने और विकसित करने के बीच विवाद हुआ करता था । लेकिन असली जद्दो-जहद तो जे एन यू में देखने में आया । यहाँ पारंपरिक वाम की धारा मजबूती से जड़ जमाए हुए थी । उनके विरोध में तीसरी धारा के छिटपुट प्रयास अराजक चिंतन से ग्रस्त थे । इन दोनों से लड़ने के क्रम में हम सबने मार्क्सवाद की खूब पढ़ाई की और उसके सृजनात्मक व्यवहार को भी समझा । उत्तर-आधुनिकता आ चुकी थी और नव सामाजिक आंदोलनों के समर्थकों के साथ मुहब्बत के साथ ही लड़ाई भी करनी होती थी ।
फिर आया सोवियत संघ के पतन से उपजी निराशा के दौर में विश्वास को बनाए रखने की जिद भरी कोशिश । इस कोशिश के बीच में ही दूर देशों में संघर्ष फूट पड़े, सवालों के पूर्व-निश्चित हल गायब हो चुके थे और इसीलिए अपने पैरों पर खड़ा होकर सारे प्रश्नों को दोबारा समझने और सुलझाने की प्रक्रिया शुरू हुई । इसी प्रक्रिया का नतीजा यह किताब है । इसमें कुल दस-बारह साल का ऐसा समय दर्ज़ है जो पस्ती से झटके के साथ उबरने का गवाह रहा है । इसमें निश्चिंत भाव से हम प्रतिबद्धों का मजाक उड़ाने वाले एकाएक मुँह के बल गिरे और भूतों की शादी की प्रेतलीला में गाफ़िल उद्धत खाऊ बुजुर्ग हमसे हजार शिकायत करते रहे लेकिन जमाना हमारे हाथ आ चुका था । ये हमारी जवानी के दोबारा वापस आने के दिन बने जिसमें फिर से ज्ञान-क्रिया की एकता थी और थे विक्षुब्ध चमकते चेहरे ।   

3 comments:

  1. इस भूमिका से बरसों पहले दिल्ली से पटना जाते हुए मुगलसराय में पी महा-कटपीस चाय याद आ गयी. चाय बेहद शानदार मगर इतनी कम थी कि हाथ में लेते ही गुस्सा आ गया. लिखने में कंजूसी कर गए आप..!!

    ReplyDelete
  2. हिन्दी में मार्क्सवाद को अपने ढंग से एक बार फिर जीवन,समय और व्यवस्था के विमर्श का हिस्सा बनाने के लिए बधाई .आपका श्रम,रूचि और चिंता साफ-साफ दिखाती है .

    ReplyDelete