(An article published in Sablok
January.2013 which I saw today)
हाल के दिनों में असम की घटनाओं और उनके कारण बाहर रहने वाले पूर्वोत्तर के लोगों के दुखद पलायन से एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि पूर्वोत्तर भारत क्या एक असमाधेय समस्या का नाम है । इस सवाल की छानबीन के
लिए हमें पूर्वोत्तर भारत के इतिहास पर निगाह डालनी होगी । यह एक सचाई है कि अंग्रेजों
से पहले पूर्वोत्तर, भारत का अंग नहीं रहा था । मुगलों ने एक बार कोशिश की थी लेकिन
वे ब्रह्मपुत्र को पार नहीं कर सके थे । 1826 में पहली बार असम में अंग्रेज, बर्मा
के हमलावरों से रक्षा के बहाने आए थे । उन्होंने असम में चाय की खेती शुरू की और पहली
बार नकदी फसल की संस्कृति इस क्षेत्र में दिखाई पड़ी । असम में उनकी मौजूदगी को लेकर
पहाड़ी इलाकों में रहने वाले सुगबुगाने लगे और तनाव बढ़ने के साथ ही अंग्रेजों ने नए
नए इलाकों में घुसपैठ शुरू की । इस प्रक्रिया में उन्हें इतना समय लगा और इतना प्रतिरोध
झेलना पड़ा कि शेष भारत से पूर्वोत्तर को अलग रखने के व्यवस्थित उपाय किए गए ।
इन्हीं उपायों के तहत इनर लाइन परमिट की व्यवस्था शुरू की गई ताकि शेष भारत के साथ इस क्षेत्र का संपर्क संबंध नाममात्र का रहे । असल में अंग्रेजों को इस बात का डर था कि अगर स्वाधीनता की लहर का असर इस इलाके पर पड़ा तो वह मारक होगा क्योंकि इस क्षेत्र पर कब्जा करने में उन्हें शेष भारत के मुकाबले बहुत अधिक समय लगा था । इसी क्रम में इस बात
पर भी ध्यान देना चहिए कि स्वतंत्र भारत में जो आधुनिक इतिहास पढ़ाया जाता है उसमें
आज़ादी के आंदोलन का इतिहास प्रमुख होता है लेकिन उसमें पूर्वोत्तर कहीं मौजूद नहीं
होता मानो शेष भारत तो आज़ादी के लिए लड़ रहा था लेकिन पूर्वोत्तर गुलामी का मजा ले रहा
था । जबकि बात ऐसी है नहीं अकेले नागालैंड को काबू में करने में अंग्रेजों के छक्के
छूट गए थे । इसी तरह बाकी इलाके भी कभी पूरी तरह शांत नहीं किए जा सके थे । 1857 में
न सिर्फ़ असम में दो लोगों (मनीराम दीवान और पियोली
बरुआ फूकन) को अंग्रेजों
ने फांसी दी बल्कि चटगाँव छावनी में विद्रोह हुआ जिसके बाद विद्रोही आज के त्रिपुरा, मणिपुर और कछार
तक मोर्चा लेते हुए गुजरे थे । इसी समय के आस पास खासी लोगों ने अपनी भाषा के लिए रोमन लिपि के व्यवहार पर आपत्ति उठाई थी । 1920 में असहयोग आंदोलन के दौरान चाय बागान के श्रमिकों ने काम छोड़कर अपने अपने घर की राह ली थी जिन्हें काबू करने के लिए बड़े पैमाने पर हिंसा और दमन का सहारा लिया गया था । 1942 के समय भी जगह जगह स्थानीय स्तर पर विद्रोह हुए । असल में आज़ादी की लड़ाई के इर्द गिर्द आधुनिक भारत का जो इतिहास बनाया जाता है उसकी दुखती रग बँटवारा है । इस दुर्घटना को अनदेखा करके ही स्वतंत्रता की खुशी के लिए पाठ्यक्रमों में जगह बनाई जाती है ।
भारत के विभाजन को लेकर जो भी बात होती है वह पंजाब और बहुत हुआ तो बंगाल के विभाजन की त्रासदी तक पहुँचती है । पूर्वोत्तर का विभाजन भी भारत के बँटवारे से जुड़ा हुआ है । इसने बंगाल को बाँटने की लार्ड कर्जन की पुरानी योजना को अमली जामा तो पहुँचाया ही, त्रिपुरा को ऐसी
स्थिति में डाल दिया कि आज भी अनेक लोगों के सोने के कमरे तो भारत में हैं लेकिन रसोई बांग्लादेश में । यही हाल करीमगंज नामक सिलचर के ज़िले का है जहाँ बांग्लादेश से आकर अनेक कामगार दिन भर भारत में रिक्शा चलाकर रात में अपने देश लौट जाते हैं । मेघालय के अनेक लोगों की खेती की जमीन बांग्लादेश में है और वहाँ से आने जाने में वे सीमा सुरक्षा बल और बांग्लादेश राइफ़ल्स के अपराधी बन जाते हैं । शेष भारत में शायद ही लोग जानते होंगे कि भारत और बांग्लादेश की सीमा का ‘नो मैंस
लैंड’ निर्जन नहीं बल्कि बाकायदे आबाद इलाका है ।
आज़ादी के बाद गद्दीनशीन शासकों ने भी पूर्वोत्तर के प्रति वही नजरिया जारी रखा जो अंग्रेजों का था । अगर अंग्रेजों ने इस क्षेत्र के एकीकरण के लिए फ़ौज के साथ धर्म और भाषा का इस्तेमाल किया तो आज़ाद भारत की सरकार ने भी वही राह अपनाई । अंग्रेजों के नक्शे कदम
पर चलते हुए नेहरू जी ने नागालैंड में 1958 में फ़ौज तो भेजी ही अंग्रेजों के ही जमाने
का बना एक कानून भी थोड़ा और कड़ा करके इस क्षेत्र में लागू किया । ए एफ़ एस पी ए नामक
यह कानून बेहद अलोकतांत्रिक और दमनकारी है । इसके तहत शांति भंग होने की आशंका मात्र
पर फ़ौजी लोग किसी को भी गोली मार सकते हैं । अंग्रेजी शासन काल में यह अधिकार महज कमीशंड
अफ़सरों को प्राप्त था लेकिन आज़ादी के बाद इसमें व्यापकता लाई गई और अब कोई भी सैनिक
बेखटके इसका इस्तेमाल कर सकता है । अगर इसके तहत फ़ौजी कोई ज्यादती करते हैं तो उन पर
मुकदमा चलाने के लिए गृह मंत्रालय की पूर्वानुमति की जरूरत होती है । फ़ौज को कत्ल करने
की इतनी खुल्लम खुल्ला छूट इस कानून के तहत हासिल है कि पूर्वोत्तर के लोगों को इस
कानून की मौजूदगी में आज़ाद देश के नागरिक होने का अहसास ही नहीं होता । वैसे तो आजकल
सरकार अपनी ही जनता के विरुद्ध युद्ध छेड़े हुए है लेकिन पूर्वोत्तर के प्रसंग में ऐसा
1958 से ही जारी है । इस कानून के साथ शासन का इतना निहित स्वार्थ जुड़
गया है कि केंद्र सरकार द्वारा ही इस कानून की समीक्षा के लिए नियुक्त जीवन रेड्डी
आयोग की इसे रद्द करने की अनुशंसा के बावजूद इसे बनाए रखा गया है । इसी कानून को रद्द
कराने के लिए इरोम शर्मिला चानू पिछले अनेक बरसों से भूख हड़ताल कर रही हैं और जीवन
रेड्डी आयोग की रपट धूल फाँक रही है । पूर्वोत्तर के लोगों में अलगाव का अहसास इसके
कारण भी बढ़ता है । इस किस्म के अर्ध-सैनिक शासन के निर्बाध संचालन के लिए ही
पूर्वोत्तर के प्रदेशों में राज्यपाल अक्सर सेना से अवकाश प्राप्त अफ़सरों को नियुक्त
किया जाता है ।
पूर्वोत्तर को अलगाव का अहसास इसलिए
भी होता है क्योंकि उसे आतंकवाद के गढ़ के बतौर पेश किया जाता है और इससे निपटने के
नाम पर सेना की बेहिसाब तैनाती कर दी गई है । जबकि ईमानदारी से पूछें तो आतंकवाद को
कोई भी हटाना नहीं चाहता । राज्य सरकार को सुविधा है कि किसी भी विरोध को इस नाम पर
बदनाम करके दबा सकती है । भ्रष्टाचार की अति भी इसी की आड़ में चलती रहती है । यहाँ
तक कि केंद्र सरकार कभी कभी इन संगठनों का इस्तेमाल भी करती है । सभी जानते हैं कि
असम आंदोलन से निपटने के लिए बोडो आंदोलन को खड़ा किया गया था । पिछले दिनों की घटनाओं
के बाद यह तथ्य प्रकाश में आया कि बोडो उग्रवादियों के पास सबसे अधिक अवैध हथियार हैं
। जब बोडो आंदोलन के साथ केंद्र सरकार का समझौता हुआ था तो तय हुआ था कि बोडोलैंड स्वायत्त कौंसिल के दस्तावेज नागरी लिपि में होंगे । एकीकरण का वही
औपनिवेशिक नजरिया । पूर्वोत्तर में सेना और आतंकवाद एक दूसरे के विरोधी नहीं, एक दूसरे
के पूरक हैं ।
नागरिक जीवन में सेना की उपस्थिति इतनी अधिक है कि बिना वाजिब
पहचान पत्र के आपका निडर होकर घूमना फिरना तकरीबन असंभव है । बाहर के प्रदेशों में
बहुतेरे लोग इस तथ्य से वाकिफ़ नहीं हैं कि लक्षद्वीप और काश्मीर के बाद आबादी में मुसलमानों
का सबसे अधिक प्रतिशत असम में ही है । ये लोग कोई घुसपैठिए नहीं हैं बल्कि विभाजन से
बहुत पहले से इस प्रांत के निवासी हैं । कुछ तो भाजपा के बांगलादेशी विरोधी प्रचार
और कुछ सरकार के रवैये के कारण लगातार इन्हें बाहरी होने का अहसास कराया जाता है ।
कहने की जरूरत नहीं कि देश की मुख्यधारा का निर्माण जिन वैचारिक
औजारों के सहारे होता है उनमें बहुसंख्यकवाद की मजबूत मौजूदगी है । सांस्कृतिक भिन्नता
को बर्दाश्त करना राष्ट्रीय एकता के जोश में मुश्किल हो जाता है । यही जोश अनेक बार
स्थानीय लोगों के साथ फ़ौजियों के बरताव में दिखाई पड़ता है । इसी चक्कर में कई बार अलग
प्रदेश के लिए होने वाले आंदोलनों को भी अलगाववादी मान लिया जाता है । इस जोश के कारण
भी बहुधा पूर्वोत्तर की समस्या के उचित समाधान का माहौल बनाने में बाधा आती है ।
पूर्वोत्तर के लोग देश के विकास में
अपना वाजिब हिस्सा चाहते हैं । उनकी माँग का औचित्य रणनीतिक कारणों से किसी भी कीमत
पर पूर्वोत्तर को देश के साथ चिपकाए रहने की जिद से भी साबित है । सरकार की योजना अंधाधुंध
पैसा झोंककर पूर्वोत्तर में एक ऐसा तबका तैयार करने की लगती है जिसके भरोसे उसे अपने
दमनकारी शासन का स्थानीय आधार निर्मित होने की आशा है । सभी जानते हैं कि आतंकवाद की
फ़ंडिंग का बड़ा स्रोत ये पैसा ही है जो ठेकेदारों और नेताओं के साथ उन्हें भी प्राप्त
होता है । असल में पूर्वोत्तर के लोग जिस तरह से किसी भी राष्ट्रीय प्रतीक में अपनी
हिस्सेदारी कराते हैं, चाहे वह खेल हो या गायन की प्रतियोगिता, उसी से साबित है कि
वे सरकारी और गैर सरकारी हिंसा से तंग आ चुके हैं और अपने लिए इस देश में सम्मानजनक
जगह चाहते हैं । शर्त बस यह है कि उनकी आवाज सुनने लायक कान हमारे और हमारी सरकार के
पास हों । इसके लिए संघीय शासन की कल्पनाशक्ति की जरूरत है और संसाधनों की लूट पर आधारित
विकास के माडल की बजाए लोगों पर भरोसे की ।
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