‘संसद पर जनता की निगरानी’ के तहत जंतर मंतर पर बैठे हुए फ़िराक़ गोरखपुरी का एक शेर बार बार मन में गूंज रहा था । शेर कुछ यूं है :
राजहठ से जो प्रजाहठ कभी टकराई है
वक़्त के दिल के धड़कने की सदा आई है
वहां वे औरतें थीं जिन्हें क़ैद रखने की कोशिशें तो हजारहां हुईं लेकिन लाख बंदिशों के भीतर भी जो सदियों से अपने लिए जूझकर जगह बनाती आई हैं ।
अगर आप अपने घरों के सामंती कैदखानों में बसी औरतों के प्रतिरोध
का इतिहास याद करें तो इस आंदोलन की सफलता में रत्ती भर भी संदेह नहीं रहेगा । जिसको
भोजपुरी में कहते हैं कि सरकार ने अच्छे घर न्यौता दिया है । शायद उसे भी अनुमान न
होगा कि किस सोई ताकत को उसने छेड़ा है । याद आती रहीं मेरी दादी जो चौथी पत्नी होने
और दस बच्चे जनने के बाद भी इतनी आज़ादी अर्जित कर सकी थीं कि मेरे भाइयों को पढ़ाने
के लिए पैसे की कमी न होने भर उधारी का समानांतर अर्थतंत्र चलाती रहीं । दूसरी दादी
के पति नपुंसक थे और संतान न पैदा होने के नाम पर जब पति की दूसरी शादी कराने की बात
चली तो उन्होंने शर्त रखी कि होने वाली पत्नी आकर रहे और अगर गर्भ ठहर गया तो वे इसकी
मंजूरी दे देंगी । याद आई मां जिसने पिता के विवाहेतर संबंध की जानकारी होने पर महीनों
उनका मुंह नहीं देखा और मरते मरते उनमें अपराध बोध जगा गईं । अगर उस जमाने में औरतें
इस हद तक जूझ सकीं तो आज उनके कदम बांधने का सपना देखना दिवास्वप्न ही साबित होगा ।
असल में यह समाज और सत्ता औरत को लेकर बेहद पशोपेश में है । वह उन्हें पूरी तरह खत्म
नहीं कर सकता क्योंकि बच्चे कौन जनेगा । आज़ादी से रहने नहीं दे सकता क्योंकि तब प्राधिकार
कौन मानेगा ।
उस प्रदर्शन को देखना राजनीतिक प्रतिरोध की नई भाषा
से दो चार होना था । भाषण तो थे ही नहीं या थे भी तो बस नाम के लिए थे । गीत, नृत्य
और संगीत में ढले प्रतिरोध ने वह समय याद दिला दिया जब प्रदर्शन का मतलब समग्र जन उभार
हुआ करता रहा होगा । बीच में राजनीति का अर्थ शुद्ध संसदीय चुनाव की जोड़ तोड़ रह जाने
पर कम्युनिस्ट भी इकहरी अभिव्यक्ति के आदी हो गए थे । लेकिन इस आंदोलन ने जब सत्ता
की पाबंदियों को तोड़ा तो इस पितृसत्तात्मक सोच को भी चुनौती दी कि सार्वजनिक मंच पर
जंतर मंतर पर नाच-गाना नहीं होगा । शुक्रिया ।
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