कबीरदास का मशहूर दोहा है - पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय । तो आखिर यह पोथी है क्या जिसे पढ़कर लोग 'पंडित' अर्थात ज्ञानी हो जाया करते थे ? पुराने जमाने में ज्ञान का यही स्वरूप था । पोथियाँ आम तौर पर धार्मिक पुस्तकें हुआ करती थीं और ज्ञान भी बहुत कुछ धार्मिक ही था । यह हालत सिर्फ़ भारत में नहीं बल्कि दुनिया के सभी देशों में थी । धर्म की इन पोथियों में प्राचीन भाषाओं (यूरोप में लैटिन और भारत में संस्कृत) में प्रकृति और मानव जीवन के रहस्यों से जुड़ी हुई बातें दर्ज होती थीं ।
लेकिन धर्म भी हमेशा से ऐसा ही नहीं था । आम तौर पर धर्मों का जन्म सामाजिक बराबरी की इच्छा से हुआ था । इसे हम ईसा मसीह या मुहम्मद साहब के जीवन और शिक्षाओं के आधार पर देख सकते हैं । भारत में भी वेदों को देखने से यही पता चलता है कि मंत्रों के लिखने वाले ॠषि खेती भी करते थे और प्रकृति की सुंदरता के गीत भी लिखते थे । लेकिन मध्यकाल में धर्म संस्थाबद्ध हो गए और शासकों की सेवा में काम आने लगे तो उनकी पोथियाँ बना दी गईं । ये पोथियाँ सिर्फ़ खास तरह की शिक्षा प्राप्त लोगों को ही समझ में आने वाली भाषा में लिखी जाती थीं । इसी दौर में धर्म की मूल भावना पर जोर देने वालों ने लोगों को समझ में आने वाली भाषा में विद्रोही आवाजें उठाईं । फिर भी ज्ञान कुछेक लोगों तक ही सीमित रहा ।
इस परिस्थिति में बुनियादी अंतर तेरहवीं चौदहवीं शताब्दी में आया जब यूरोप में धर्म पर चर्च के आधिपत्य को चुनौती देते हुए एक जागरण हुआ जिसे आज हम पुनर्जागरण के नाम से जानते हैं । ज्ञान के सामाजिक प्रसार का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण शिक्षा होती है । इसीलिए शिक्षा मध्ययुग में इन्हीं उपरोक्त धार्मिक संस्थानों के कब्जे में बनी रही थी । पुनर्जागरण के जरिए जो सामाजिक आलोड़न पैदा हुआ उसने सबसे पहले शिक्षा को धार्मिक जकड़बंदी से आजाद करने की आवाज उठाई । शिक्षा का लौकिकीकरण (सेकुलराइजेशन) ही वह प्रक्रिया थी जिसके जरिए शिक्षा पर से धार्मिक जकड़न ढीली हुई और विज्ञान तथा सामाजिक विज्ञानों को शिक्षा में उनका सही दर्जा मिला । ज्ञान के समाजीकरण की दिशा में यह अब तक का सबसे बड़ा कदम था । यहीं से आधुनिक समाज का पुराने से पूरी तरह अलग नया चेहरा बनना शुरू हुआ और ज्ञान कुछ लोगों की मिल्कियत नहीं रहा, समूचे समाज की संपत्ति बन गया ।
इसी प्रसंग में इस सवाल पर भी विचार कर लेना जरूरी है कि ज्ञान पैदा कहाँ से होता है क्योंकि तभी ज्ञान पर समाज के अधिकार का तर्क बनेगा अन्यथा यह चोरी जैसा अपराध महसूस होगा । हम सभी जानते हैं कि धर्मग्रंथों के बारे में कहा जाता है कि वे किसी के द्वारा लिखे नही गए हैं बल्कि ईश्वर के मुख से सीधे अवतरित हुए हैं । ऐसा न सिर्फ़ वेदों के बारे में बल्कि बाइबिल और कुरान के बारे में भी कहा जाता है । यह मिथक और कुछ नहीं ज्ञान के सामाजिक स्रोत को छिपाने की कोशिश है । इसीलिए पुनर्जागरण से विवेक की प्रतिष्ठा होने पर ज्ञान के स्रोत के बारे में माना गया कि यह या तो मनुष्य की बुद्धि से पैदा होता है या उसके अनुभव से । इसमें भी अनुभव पर जोर देने वालों ने कहा कि समूचे ज्ञान का प्राथमिक स्रोत इंद्रियों से होने वाला सांसारिक अनुभव है और अगर ऐसा है तो सारे समाज का उस पर अधिकार जायज है ।
ज्ञान के समाजीकरण का गहरा रिश्ता समाज में लोकतंत्र की प्रतिष्ठा से भी है । जब समाज में धर्म का दबदबा था तो शासन की पद्धति राजा केंद्रित थी । जैसे ईश्वर एक ही था उसी तरह एक ही राजा उसके प्रतिनिधि की तरह शासन चलाता था । लेकिन जब ईश्वर की जगह मनुष्य सब कुछ के केंद्र में आ गया तो शासन भी कानून आधारित लोकतांत्रिक हो ऐसी आकांक्षा समाज में जोर पकड़ने लगी । लोकतंत्र का विकास बिना किसी विरोध के आसानी से नहीं हुआ बल्कि उसके लिए हरेक कदम पर जनता को संघर्ष करना पड़ा था । इस संघर्ष के फलस्वरूप भी समूचा समाज ज्ञानसंपन्न होता गया और इस तरह ज्ञान का एक और स्रोत जन संघर्ष हुए जिनके जरिए लोग अपने आस पास की दुनिया को समझने और उसे अपने मुताबिक ढालने की कोशिश करने लगे । वोट यानी मताधिकार का उपयोग नादान रहकर नहीं किया जा सकता था । मताधिकार के सिलसिले में खुद इंग्लैंड में औरतों की जो स्थिति थी वह बहुत कुछ भारत में पढ़ाई के मामले में उनकी स्थिति के ही समान थी । बहुत दिनों तक उन्हें बैंक में अपने नाम से अकेले खाता खोलने की इजाजत नहीं थी । सन 1935 तक उन्हें वोट डालने की आजादी भी नहीं थी । यहाँ तक कि अमेरिका में भी काले लोगों और स्त्रियों के साथ बराबरी का व्यवहार बहुत से संघर्षों के बाद ही होना शुरू हुआ । इन संघर्षों के जरिए समाज के वंचित तबकों ने अपने अधिकारों के बारे में जाना और सोचना शुरू किया और इससे उन तक ज्ञान का प्रसार हुआ ।
लोकतंत्र के इसी संघर्ष ने ऐसे सपनों को जन्म दिया जिनमें से अनेक अब भी पूरे नहीं हो सके हैं । फ़्रांस में सन 1789 में राजतांत्रिक शासन के खिलाफ़ विद्रोह में ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ का मशहूर नारा दिया गया जिससे बाबा साहब अंबेडकर भी बेहद प्रभावित रहे थे और इसे उन्होंने दलितों के लिए आदर्श में बदल दिया था । इंग्लैंड में मजदूरों का एक बहुत ही जुझारू आंदोलन लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए हुआ जिसे ‘चार्टिस्ट’ आंदोलन के नाम से जाना जाता है । इसमें सबके लिए समान वोट के अधिकार सहित अन्य सवालों पर एक माँगपत्र (चार्टर) पर लाखों हस्ताक्षर कराकर उसे संसद को सौंपा गया था । असल में लोकतंत्र का सारा फ़ायदा पूँजीपति वर्ग ने अपने शासन को मजबूत करने के लिए उठाया । इसके विरोध में मजदूरों ने अपने लिए भी लोकतंत्र की माँग शुरू की । इसी आवेग की परिणति साम्यवादी अर्थात समता आधारित समाज के सपने और उसके लिए संघर्ष में हुई । अंततः समाजवादी समाज की स्थापना में लोगों ने ज्ञान के सच्चे समाजीकरण को साकार होता देखना शुरू किया । इस समाज में सभी लोगों का समूचे ज्ञान पर अधिकार होगा ऐसा व्यापक रूप से समझा जाने लगा क्योंकि ज्ञान का असली मकसद आम लोगों को अपने आस पास के प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश में आजादी के साथ जीवन जीने की ताकत प्रदान करना ही तो होता है ।
इसी के साथ हमें आधुनिक छापाखानों की भूमिका की भी अनदेखी नहीं करना चाहिए । पुराने जमाने में पोथियों की नकल बेहद मेहनत से बहुत कम संख्या में हो पाती थी जिनकी पढ़ाई धार्मिक संस्थाओं में ही होती थी । छापाखाने ने किताबों को सबके लिए सुलभ बना दिया । अब समाज के किसी समुदाय के लिए ज्ञान का दरवाजा बंद रखना असंभव हो गया । इन धार्मिक ग्रंथों के अनुवाद लोगों की बोलचाल की भाषाओं में हुए और उनकी बड़े पैमाने पर छपाई ने सबके लिए इन्हें पढ़ना सहज बना दिया । इसी के अखबारों ने बहुत बड़ी संख्या में समझदार पाठक भी पैदा किए जो देश और दुनिया के भाग्य से जुड़े हुए मसलों पर चलने वाली बहसों को पढ़ते समझते थे ।
जान बूझकर मैं ज्ञान के समाजीकरण में टेलीविजन की भूमिका की बात नहीं करूँगा क्योंकि इसमें संचार एकतरफ़ा होता है । मतलब आप सिर्फ़ सुनते हैं जो आपकी आवाज नहीं होती । दूसरे इस पर बड़ी पूँजी के मालिकों का ऐसा कब्जा हो गया है कि वे इसका उपयोग मुख्य रूप से अपने फ़ायदे के लिए करने लगे हैं । तीसरे इसने लोगों को घरों में कैद कर दिया है । वैसे तो पूँजी ने अखबारों पर भी कब्जा किया है लेकिन अपने आरंभिक दिनों में अखबार ऐसे नहीं थे और आज भी बड़े पैमाने पर वह एक विश्वसनीय माध्यम बना हुआ है । इनके मुकाबले ज्ञान के समाजीकरण की प्रक्रिया में ज्यादा महत्वपूर्ण विकास इंटरनेट का सामने आना है । इस नए माध्यम ने खासकर अस्सी के दशक के बाद जवान हुई पीढ़ी को समझदार बनाने में अभूतपूर्व भूमिका निभाना शुरू कर दिया है ।
दुनिया भर की सरकारें लोगों से छिपाकर जो कुछ कूटनीति के नाम पर करती रही हैं उसे आस्ट्रेलिया के एक नौजवान ने विकीलीक्स के जरिए उजागर करके तमाम सरकारों के चेहरों से नकाब उठा दिया । इसने दुनिया की सबसे ताकतवर सरकार, अमेरिका, का ऐसा घिनौना चेहरा दिखा दिया कि वहाँ के आम लोग भी अपनी सरकार के विरुद्ध सड़कों पर उतर पड़े हैं । पिछले दिनों हुए अनेक आंदोलन ऐसे रहे हैं जिन्होंने बड़े पैमाने पर ज्ञान के समाजीकरण की प्रक्रिया को तीव्र किया है । भारत में लोकपाल की स्थापना के लिए होने वाले आंदोलन ने अदालत, कानून और सरकारी कामकाज के बारे में लोगों को बेहद समझदार बनाया है । इसी के साथ हम अमेरिका के ‘आकुपाई वाल स्ट्रीट’ आंदोलन की चर्चा कर सकते हैं । इस आंदोलन ने 99% जनता बनाम 1% थैलीशाहों के हितों में टकराव का सवाल उठाया है । इस आंदोलन में अमेरिका की नीतियों की खिलाफ़त करने वाले बुद्धिजीवी शरीक हैं और अपने लेखों, भाषणों और बहसों के जरिए लगातार संपत्ति के निर्माण में जनता, खासकर मेहनतकश लोगों, की भूमिका पर जोर दे रहे हैं । साथ ही वे पूँजीवादी देशों की सरकारों द्वारा इस संपत्ति को लूट के जरिए हथियाने और मुट्ठी भर लोगों द्वारा उस पर कब्जा करने के काले कारनामों का भी भंडाफोड़ कर रहे हैं । यह आंदोलन पूरी दुनिया में जंगल की आग की तरह फैलता जा रहा है और इसमें बुद्धिजीवियों की खुली शिरकत ने इसे जनता के नए किस्म के शिक्षण के मंच में बदल दिया है ।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ज्ञान के समाजीकरण में तेजी आई है । कुछ दिनों पहले तक ऐसा लगता था कि नौजवान पैसा छोड़कर और किसी चीज पर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं । लेकिन आज ऐसा नहीं है । भूमंडलीकरण के चलते जानकारी के अनेक नए दरवाजे भी खुले जिनके जरिए लोगों ने परदे के पीछे के असली खेल को देखना शुरू कर दिया और ‘खाओ, पियो, ऐश करो’ का जीवन अपनाने की बजाय इस जानकारी का इस्तेमाल अपने वातावरण को आदमी के जीने लायक बनाने के लिए करना शुरू कर दिया है । क्या आज के बीस साल पहले सोचा जा सकता था कि तमिलनाडु के गाँव के रहने वाले लोग परमाणु संयंत्र की खामियों खूबियों के बारे में सार्वजनिक तौर पर वैज्ञानिकों की तरह बहस करना शुरू कर देंगे ! यह अपने देश में और दुनिया में नए किस्म के समाज के निर्माण के लिए सोचने वालों का समय है । वे पुराने तरीके से न तो संतुष्ट हो रहे हैं, न ही पुराने किस्म के समाज से एडजस्ट करने को राजी हैं ।
बहुत अच्छा आलेख. लेकिन धर्म का जन्म भले ही मानवीय सदेच्छा का परिणाम रहा हो, सत्ता वर्ग द्वारा उनका निरंतर दुरुपयोग किया जाता रहा है. धर्म समाजीकरण का आरंभिक औजार था. तत्कालीन सामंतों द्वारा उसका उपयोग अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए किया..आज सामंतों का स्थान पूंजीपतियों ने लिया है. धर्म फिर उनकी स्वार्थसिद्धि में सहायक है. प्रकटत: कमी धर्म की भले न लगे, लेकिन इसके बहाने शीर्षस्थ लोग लोगों का ध्यान आसानी से उस दिशा की ओर मोड़ देते हैं, जिसका उसके वास्तविक विकास से कोई संबंध नहीं होता.
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